भागसूचना
एकोनपञ्चाशत्तमोऽध्यायः
सूचना (हिन्दी)
नाना प्रकारके पुत्रोंका वर्णन
मूलम् (वचनम्)
युधिष्ठिर उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
ब्रूहि तात कुरुश्रेष्ठ वर्णानां त्वं पृथक् पृथक्।
कीदृश्यां कीदृशाश्चापि पुत्राः कस्य च के च ते॥१॥
मूलम्
ब्रूहि तात कुरुश्रेष्ठ वर्णानां त्वं पृथक् पृथक्।
कीदृश्यां कीदृशाश्चापि पुत्राः कस्य च के च ते॥१॥
अनुवाद (हिन्दी)
युधिष्ठिरने पूछा— तात! कुरुश्रेष्ठ! आप वर्णोंके सम्बन्धमें पृथक्-पृथक् यह बताइये कि कैसी स्त्रीके गर्भसे कैसे पुत्र उत्पन्न होते हैं? और कौन-से पुत्र किसके होते हैं?॥१॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
विप्रवादाः सुबहवः श्रूयन्ते पुत्रकारिताः।
अत्र नो मुह्यतां राजन् संशयं छेत्तुमर्हसि ॥ २ ॥
मूलम्
विप्रवादाः सुबहवः श्रूयन्ते पुत्रकारिताः।
अत्र नो मुह्यतां राजन् संशयं छेत्तुमर्हसि ॥ २ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
पुत्रोंके निमित्त बहुत-सी विभिन्न बातें सुनी जाती हैं। राजन्! इस विषयमें हम मोहित होनेके कारण कुछ निश्चय नहीं कर पाते; अतः आप हमारे इस संशयका निवारण करें॥२॥
मूलम् (वचनम्)
भीष्म उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
आत्मा पुत्रश्च विज्ञेयस्तस्यानन्तरजश्च यः।
निरुक्तजश्च विज्ञेयः सुतः प्रसृतजस्तथा ॥ ३ ॥
मूलम्
आत्मा पुत्रश्च विज्ञेयस्तस्यानन्तरजश्च यः।
निरुक्तजश्च विज्ञेयः सुतः प्रसृतजस्तथा ॥ ३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
भीष्मने कहा— जहाँ पति-पत्नीके संयोगमें किसी तीसरेका व्यवधान नहीं है अर्थात् जो पतिके वीर्यसे ही उत्पन्न हुआ है, उस ‘अनन्तरज’ अर्थात् ‘औरस’ पुत्रको अपना आत्मा ही समझना चाहिये। दूसरा पुत्र ‘निरुक्तज’ होता है। तीसरा ‘प्रसृतज’ होता है (निरुक्तज और प्रसृतज दोनों क्षेत्रजके ही दो भेद हैं)॥३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
पतितस्य तु भार्याया भर्त्रा सुसमवेतया।
तथा दत्तकृतौ पुत्रावध्यूढश्च तथापरः ॥ ४ ॥
मूलम्
पतितस्य तु भार्याया भर्त्रा सुसमवेतया।
तथा दत्तकृतौ पुत्रावध्यूढश्च तथापरः ॥ ४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
पतित पुरुषका अपनी स्त्रीके गर्भसे स्वयं ही उत्पन्न किया हुआ पुत्र चौथी श्रेणीका पुत्र है। इसके सिवा ‘दत्तक’ और ‘क्रीत’ पुत्र भी होते हैं। ये कुल मिलाकर छः हुए। सातवाँ है ‘अध्यूढ’ पुत्र (जो कुमारी-अवस्थामें ही माताके पेटमें आ गया और विवाह करनेवालेके घरमें आकर जिसका जन्म हुआ)॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
षडपध्वंसजाश्चापि कानीनापसदास्तथा ।
इत्येते वै समाख्यातास्तान् विजानीहि भारत ॥ ५ ॥
मूलम्
षडपध्वंसजाश्चापि कानीनापसदास्तथा ।
इत्येते वै समाख्यातास्तान् विजानीहि भारत ॥ ५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
आठवाँ ‘कानीन’ पुत्र होता है। इनके अतिरिक्त छः ‘अपध्वंसज’ (अनुलोम) पुत्र होते हैं तथा छः ‘अपसद’ (प्रतिलोम) पुत्र होते हैं। इस तरह इन सबकी संख्या बीस हो जाती है। भारत! इस प्रकार ये पुत्रोंके भेद बताये गये। तुम्हें इन सबको पुत्र ही जानना चाहिये॥५॥
मूलम् (वचनम्)
युधिष्ठिर उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
षडपध्वंसजाः के स्युः के वाप्यपसदास्तथा।
एतत् सर्वं यथातत्त्वं व्याख्यातुं मे त्वमर्हसि ॥ ६ ॥
मूलम्
षडपध्वंसजाः के स्युः के वाप्यपसदास्तथा।
एतत् सर्वं यथातत्त्वं व्याख्यातुं मे त्वमर्हसि ॥ ६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
युधिष्ठिरने पूछा— दादाजी! छः प्रकारके अपध्वंसज पुत्र कौन-से हैं तथा अपसद किन्हें कहा गया है? यह सब आप मुझे यथार्थरूपसे बताइये॥६॥
मूलम् (वचनम्)
भीष्म उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
त्रिषु वर्णेषु ये पुत्रा ब्राह्मणस्य युधिष्ठिर।
वर्णयोश्च द्वयोः स्यातां यौ राजन्यस्य भारत ॥ ७ ॥
एको विड्वर्ण एवाथ तथात्रैवोपलक्षितः।
षडपध्वंसजास्ते हि तथैवासपदान् शृणु ॥ ८ ॥
मूलम्
त्रिषु वर्णेषु ये पुत्रा ब्राह्मणस्य युधिष्ठिर।
वर्णयोश्च द्वयोः स्यातां यौ राजन्यस्य भारत ॥ ७ ॥
एको विड्वर्ण एवाथ तथात्रैवोपलक्षितः।
षडपध्वंसजास्ते हि तथैवासपदान् शृणु ॥ ८ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
भीष्मजीने कहा— युधिष्ठिर! ब्राह्मणके क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र—इन तीन वर्णोंकी स्त्रियोंसे जो पुत्र उत्पन्न होते हैं वे तीन प्रकारके अपध्वंसज कहे गये हैं। भारत! क्षत्रियके वैश्य और शूद्र जातिकी स्त्रियोंसे जो पुत्र होते हैं वे दो प्रकारके अपध्वंसज हैं, तथा वैश्यके शूद्र-जातिकी स्त्रीसे जो पुत्र होता है वह भी एक अपध्वंसज है। इन सबका इसी प्रकरणमें दिग्दर्शन कराया गया है। इस प्रकार ये छः अपध्वंसज अर्थात् अनुलोम पुत्र कहे गये हैं। अब ‘अपसद अर्थात् प्रतिलोम’ पुत्रोंका वर्णन सुनो॥७-८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
चाण्डालो व्रात्यवैद्यौ च ब्राह्मण्यां क्षत्रियासु च।
वैश्यायां चैव शूद्रस्य लक्ष्यन्तेऽपसदास्त्रयः ॥ ९ ॥
मूलम्
चाण्डालो व्रात्यवैद्यौ च ब्राह्मण्यां क्षत्रियासु च।
वैश्यायां चैव शूद्रस्य लक्ष्यन्तेऽपसदास्त्रयः ॥ ९ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
ब्राह्मणी, क्षत्रिया तथा वैश्या—इन वर्णकी स्त्रियोंके गर्भसे शूद्रद्वारा जो पुत्र उत्पन्न किये जाते हैं, वे क्रमशः चाण्डाल, व्रात्य और वैद्य कहलाते हैं। ये अपसदोंके तीन भेद हैं॥९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
मागधो वामकश्चैव द्वौ वैश्यस्योपलक्षितौ।
ब्राह्मण्यां क्षत्रियायां च क्षत्रियस्यैक एव तु ॥ १० ॥
ब्राह्मण्यां लक्ष्यते सूत इत्येतेऽपसदाः स्मृताः।
पुत्रा ह्येते न शक्यन्ते मिथ्याकर्तुं नराधिप ॥ ११ ॥
मूलम्
मागधो वामकश्चैव द्वौ वैश्यस्योपलक्षितौ।
ब्राह्मण्यां क्षत्रियायां च क्षत्रियस्यैक एव तु ॥ १० ॥
ब्राह्मण्यां लक्ष्यते सूत इत्येतेऽपसदाः स्मृताः।
पुत्रा ह्येते न शक्यन्ते मिथ्याकर्तुं नराधिप ॥ ११ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
ब्राह्मणी और क्षत्रियाके गर्भसे वैश्यद्वारा जो पुत्र उत्पन्न किये जाते हैं, वे क्रमशः मागध और वामक नामवाले दो प्रकारके अपसद देखे गये हैं। क्षत्रियके एक ही वैसा पुत्र देखा जाता है, जो ब्राह्मणीसे उत्पन्न होता है। उसकी सूत संज्ञा है। ये छः अपसद अर्थात् प्रतिलोम पुत्र माने गये हैं। नरेश्वर! इन पुत्रोंको मिथ्या नहीं बताया जा सकता॥१०-११॥
मूलम् (वचनम्)
युधिष्ठिर उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
क्षेत्रजं केचिदेवाहुः सुतं केचित्तु शुक्रजम्।
तुल्यावेतौ सुतौ कस्य सन्मे ब्रूहि पितामह ॥ १२ ॥
मूलम्
क्षेत्रजं केचिदेवाहुः सुतं केचित्तु शुक्रजम्।
तुल्यावेतौ सुतौ कस्य सन्मे ब्रूहि पितामह ॥ १२ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
युधिष्ठिरने पूछा— पितामह! कुछ लोग अपनी पत्नीके गर्भसे उत्पन्न हुए किसी भी प्रकारके पुत्रको अपना ही पुत्र मानते हैं और कुछ लोग अपने वीर्यसे उत्पन्न हुए पुत्रको ही सगा पुत्र समझते हैं क्या ये दोनों समान कोटिके पुत्र हैं? इनपर किसका अधिकार है? इन्हें जन्म देनेवाली स्त्रीके पतिका या गर्भाधान करनेवाले पुरुषका? यह मुझे बताइये॥१२॥
मूलम् (वचनम्)
भीष्म उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
रेतजो वा भवेत् पुत्रस्त्यक्तो वा क्षेत्रजो भवेत्।
अध्यूढः समयं भित्त्वेत्येतदेव निबोध मे ॥ १३ ॥
मूलम्
रेतजो वा भवेत् पुत्रस्त्यक्तो वा क्षेत्रजो भवेत्।
अध्यूढः समयं भित्त्वेत्येतदेव निबोध मे ॥ १३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
भीष्मजीने कहा— राजन्! अपने वीर्यसे उत्पन्न हुआ पुत्र तो सगा पुत्र है ही, क्षेत्रज पुत्र भी यदि गर्भस्थापन करनेवाले पिताके द्वारा छोड़ दिया गया हो तो वह अपना ही होता है। यही बात समय-भेदन करके अध्यूढ पुत्रके विषयमें भी समझनी चाहिये। तात्पर्य यह कि वीर्य डालनेवाले पुरुषने यदि अपना स्वत्व हटा लिया हो तब तो वे क्षेत्रज और अध्यूढ पुत्र क्षेत्रपतिके ही माने जाते हैं। अन्यथा उनपर वीर्यदाताका ही स्वत्व है॥१३॥
मूलम् (वचनम्)
युधिष्ठिर उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
रेतजं विद्म वै पुत्रं क्षेत्रजस्यागमः कथम्।
अध्यूढं विद्म वै पुत्रं भित्त्वा तु समयं कथम्॥१४॥
मूलम्
रेतजं विद्म वै पुत्रं क्षेत्रजस्यागमः कथम्।
अध्यूढं विद्म वै पुत्रं भित्त्वा तु समयं कथम्॥१४॥
अनुवाद (हिन्दी)
युधिष्ठिरने पूछा— दादाजी! हम तो वीर्यसे उत्पन्न होनेवाले पुत्रको ही पुत्र समझते हैं। वीर्यके बिना क्षेत्रज पुत्रका आगमन कैसे हो सकता है? तथा अध्यूढको हम किस प्रकार समय-भेदन करके पुत्र समझें?॥१४॥
मूलम् (वचनम्)
भीष्म उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
आत्मजं पुत्रमुत्पाद्य यस्त्यजेत् कारणान्तरे।
न तत्र कारणं रेतः स क्षेत्रस्वामिनो भवेत् ॥ १५ ॥
मूलम्
आत्मजं पुत्रमुत्पाद्य यस्त्यजेत् कारणान्तरे।
न तत्र कारणं रेतः स क्षेत्रस्वामिनो भवेत् ॥ १५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
भीष्मजीने कहा— बेटा! जो लोग अपने वीर्यसे पुत्र उत्पन्न करके अन्यान्य कारणोंसे उसका परित्याग कर देते हैं, उनका उसपर केवल वीर्यस्थापनके कारण अधिकार नहीं रह जाता। वह पुत्र उस क्षेत्रके स्वामीका हो जाता है॥१५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
पुत्रकामो हि पुत्रार्थे यां वृणीते विशाम्पते।
क्षेत्रजं तु प्रमाणं स्यान्न वै तत्रात्मजः सुतः ॥ १६ ॥
मूलम्
पुत्रकामो हि पुत्रार्थे यां वृणीते विशाम्पते।
क्षेत्रजं तु प्रमाणं स्यान्न वै तत्रात्मजः सुतः ॥ १६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
प्रजानाथ! पुत्रकी इच्छा रखनेवाला पुरुष पुत्रके लिये ही जिस गर्भवती कन्याको भार्यारूपसे ग्रहण करता है, उसका क्षेत्रज पुत्र उस विवाह करनेवाले पतिका ही माना जाता है। वहाँ गर्भ-स्थापन करनेवालेका अधिकार नहीं रह जाता है॥१६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अन्यत्र क्षेत्रजः पुत्रो लक्ष्यते भरतर्षभ।
न ह्यात्मा शक्यते हन्तुं दृष्टान्तोपगतो ह्यसौ ॥ १७ ॥
मूलम्
अन्यत्र क्षेत्रजः पुत्रो लक्ष्यते भरतर्षभ।
न ह्यात्मा शक्यते हन्तुं दृष्टान्तोपगतो ह्यसौ ॥ १७ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
भरतश्रेष्ठ! दूसरेके क्षेत्रमें उत्पन्न हुआ पुत्र विभिन्न लक्षणोंसे लक्षित हो जाता है कि किसका पुत्र है। कोई भी अपनी असलियतको छिपा नहीं सकता, वह स्वतः प्रत्यक्ष हो जाती है॥१७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
क्वचिच्च कृतकः पुत्रः संग्रहादेव लक्ष्यते।
न तत्र रेतः क्षेत्रं वा यत्र लक्ष्येत भारत॥१८॥
मूलम्
क्वचिच्च कृतकः पुत्रः संग्रहादेव लक्ष्यते।
न तत्र रेतः क्षेत्रं वा यत्र लक्ष्येत भारत॥१८॥
अनुवाद (हिन्दी)
भरतनन्दन! कहीं-कहीं कृत्रिम पुत्र भी देखा जाता है। वह ग्रहण करने या अपना मान लेने मात्रसे ही अपना हो जाता है। वहाँ वीर्य या क्षेत्र कोई भी उसके पुत्रत्व-निश्चयमें कारण होता दिखायी नहीं देता॥
मूलम् (वचनम्)
युधिष्ठिर उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
कीदृशः कृतकः पुत्रः संग्रहादेव लक्ष्यते।
शुक्रं क्षेत्रं प्रमाणं वा यत्र लक्ष्यं न भारत॥१९।
मूलम्
कीदृशः कृतकः पुत्रः संग्रहादेव लक्ष्यते।
शुक्रं क्षेत्रं प्रमाणं वा यत्र लक्ष्यं न भारत॥१९।
अनुवाद (हिन्दी)
युधिष्ठिरने पूछा— भारत! जहाँ वीर्य या क्षेत्र पुत्रत्वके निश्चयमें प्रमाण नहीं देखा जाता, जो संग्रह करने मात्रसे ही अपने पुत्रके रूपमें दिखायी देने लगता है वह कृत्रिम पुत्र कैसा होता है?॥१९॥
मूलम् (वचनम्)
भीष्म उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
मातापितृभ्यां यस्त्यक्तः पथि यस्तं प्रकल्पयेत्।
न चास्य मातापितरौ ज्ञायेतां स हि कृत्रिमः ॥ २० ॥
मूलम्
मातापितृभ्यां यस्त्यक्तः पथि यस्तं प्रकल्पयेत्।
न चास्य मातापितरौ ज्ञायेतां स हि कृत्रिमः ॥ २० ॥
अनुवाद (हिन्दी)
भीष्मजीने कहा— युधिष्ठिर! माता-पिताने जिसे रास्तेपर त्याग दिया हो और पता लगानेपर भी जिसके माता-पिताका ज्ञान न हो सके, उस बालकका जो पालन करता है, उसीका वह कृत्रिम पुत्र माना जाता है॥२०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अस्वामिकस्य स्वामित्वं यस्मिन् सम्प्रति लक्ष्यते।
यो वर्णः पोषयेत् तं च तद्वर्णस्तस्य जायते ॥ २१ ॥
मूलम्
अस्वामिकस्य स्वामित्वं यस्मिन् सम्प्रति लक्ष्यते।
यो वर्णः पोषयेत् तं च तद्वर्णस्तस्य जायते ॥ २१ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
वर्तमान समयमें जो उस अनाथ बच्चेका स्वामी दिखायी देता है और उसका पालन-पोषण करता है, उसका जो वर्ण है, वही उस बच्चेका भी वर्ण हो जाता है॥२१॥
मूलम् (वचनम्)
युधिष्ठिर उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
कथमस्य प्रयोक्तव्यः संस्कारः कस्य वा कथम्।
देया कन्या कथं चेति तन्मे ब्रूहि पितामह ॥ २२ ॥
मूलम्
कथमस्य प्रयोक्तव्यः संस्कारः कस्य वा कथम्।
देया कन्या कथं चेति तन्मे ब्रूहि पितामह ॥ २२ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
युधिष्ठिरने पूछा— पितामह! ऐसे बालकका संस्कार कैसे और किस जातिके अनुसार करना चाहिये? तथा वास्तवमें वह किस वर्णका है, यह कैसे जाना जाय? एवं किस तरह और किस जातिकी कन्याके साथ उसका विवाह करना चाहिये? यह मुझे बताइये॥२२॥
मूलम् (वचनम्)
भीष्म उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
आत्मवत् तस्य कुर्वीत संस्कारं स्वामिवत् तथा।
त्यक्तो मातापितृभ्यां यः सवर्णं प्रतिपद्यते ॥ २३ ॥
मूलम्
आत्मवत् तस्य कुर्वीत संस्कारं स्वामिवत् तथा।
त्यक्तो मातापितृभ्यां यः सवर्णं प्रतिपद्यते ॥ २३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
भीष्मजीने कहा— बेटा! जिसको माता-पिताने त्याग दिया है, वह अपने स्वामी (पालक) पिताके वर्णको प्राप्त होता है। इसलिये उसके पालन करनेवालेको चाहिये कि वह अपने ही वर्णके अनुसार उसका संस्कार करे॥२३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तद्गोत्रबन्धुजं तस्य कुर्यात् संस्कारमच्युत।
अथ देया तु कन्या स्यात् तद्वर्णस्य युधिष्ठिर ॥ २४ ॥
मूलम्
तद्गोत्रबन्धुजं तस्य कुर्यात् संस्कारमच्युत।
अथ देया तु कन्या स्यात् तद्वर्णस्य युधिष्ठिर ॥ २४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
धर्मसे कभी च्युत न होनेवाले युधिष्ठिर! पालक पिताके सगोत्र बन्धुओंका जैसा संस्कार होता हो वैसा ही उसका भी करना चाहिये, तथा उसी वर्णकी कन्याके साथ उसका विवाह भी कर देना चाहिये॥२४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
संस्कर्तुं वर्णगोत्रं च मातृवर्णविनिश्चये।
कानीनाध्यूढजौ वापि विज्ञेयौ पुत्र किल्बिषौ ॥ २५ ॥
मूलम्
संस्कर्तुं वर्णगोत्रं च मातृवर्णविनिश्चये।
कानीनाध्यूढजौ वापि विज्ञेयौ पुत्र किल्बिषौ ॥ २५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
बेटा! यदि उसकी माताके वर्ण और गोत्रका निश्चय हो जाय तो उस बालकका संस्कार करनेके लिये माताके ही वर्ण और गोत्रको ग्रहण करना चाहिये। कानीन और अध्यूढज—ये दोनों प्रकारके पुत्र निकृष्ट श्रेणीके ही समझे जाने योग्य हैं॥२५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तावपि स्वाविव सुतौ संस्कार्याविति निश्चयः।
क्षेत्रजो वाप्यपसदो येऽध्यूढास्तेषु चाप्युत ॥ २६ ॥
आत्मवद् वै प्रयुञ्जीरन् संस्कारान् ब्राह्मणादयः।
धर्मशास्त्रेषु वर्णानां निश्चयोऽयं प्रदृश्यते ॥ २७ ॥
एतत् ते सर्वमाख्यातं किं भूयः श्रोतुमिच्छसि ॥ २८ ॥
मूलम्
तावपि स्वाविव सुतौ संस्कार्याविति निश्चयः।
क्षेत्रजो वाप्यपसदो येऽध्यूढास्तेषु चाप्युत ॥ २६ ॥
आत्मवद् वै प्रयुञ्जीरन् संस्कारान् ब्राह्मणादयः।
धर्मशास्त्रेषु वर्णानां निश्चयोऽयं प्रदृश्यते ॥ २७ ॥
एतत् ते सर्वमाख्यातं किं भूयः श्रोतुमिच्छसि ॥ २८ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
इन दोनों प्रकारके पुत्रोंका भी अपने ही समान संस्कार करे—ऐसा शास्त्रका निश्चय है। ब्राह्मण आदिको चाहिये कि वे क्षेत्रज, अपसद तथा अध्यूढ—इन सभी प्रकारके पुत्रोंका अपने ही समान संस्कार करें। वर्णोंके संस्कारके सम्बन्धमें धर्मशास्त्रोंका ऐसा ही निश्चय देखा जाता है। इस प्रकार मैंने ये सारी बातें तुम्हे बतायीं। अब और क्या सुनना चाहते हो?॥२६—२८॥
मूलम् (समाप्तिः)
इति श्रीमहाभारते अनुशासनपर्वणि दानधर्मपर्वणि विवाहधर्मे पुत्रप्रतिनिधिकथने एकोनपञ्चाशत्तमोऽध्यायः ॥ ४९ ॥
मूलम् (वचनम्)
इस प्रकार श्रीमहाभारत अनुशासनपर्वके अन्तर्गत दानधर्मपर्वमें विवाहधर्मके प्रसंगमें पुत्रप्रतिनिधिकथनविषयक उनचासवाँ अध्याय पूरा हुआ॥४९॥