भागसूचना
अष्टचत्वारिंशोऽध्यायः
सूचना (हिन्दी)
वर्णसंकर संतानोंकी उत्पत्तिका विस्तारसे वर्णन
मूलम् (वचनम्)
युधिष्ठिर उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
अर्थाल्लोभाद् वा कामाद् वा वर्णानां चाप्यनिश्चयात्।
अज्ञानाद् वापि वर्णानां जायते वर्णसंकरः ॥ १ ॥
तेषामेतेन विधिना जातानां वर्णसंकरे।
को धर्मः कानि कर्माणि तन्मे ब्रूहि पितामह ॥ २ ॥
मूलम्
अर्थाल्लोभाद् वा कामाद् वा वर्णानां चाप्यनिश्चयात्।
अज्ञानाद् वापि वर्णानां जायते वर्णसंकरः ॥ १ ॥
तेषामेतेन विधिना जातानां वर्णसंकरे।
को धर्मः कानि कर्माणि तन्मे ब्रूहि पितामह ॥ २ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
युधिष्ठिरने पूछा— पितामह! धन पाकर या धनके लोभमें आकर अथवा कामनाके वशीभूत होकर जब उच्च वर्णकी स्त्री नीच वर्णके पुरुषके साथ सम्बन्ध स्थापित कर लेती है तब वर्णसंकर संतान उत्पन्न होती है। वर्णोंका निश्चय अथवा ज्ञान न होनेसे भी वर्णसंकरकी उत्पत्ति होती है। इस रीतिसे जो वर्णोंके मिश्रणद्वारा उत्पन्न हुए मनुष्य हैं, उनका क्या धर्म है? और कौन-कौन-से कर्म हैं? यह मुझे बताइये॥१-२॥
मूलम् (वचनम्)
भीष्म उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
चातुर्वर्ण्यस्य कर्माणि चातुर्वर्ण्यं च केवलम्।
असृजत् स हि यज्ञार्थे पूर्वमेव प्रजापतिः ॥ ३ ॥
मूलम्
चातुर्वर्ण्यस्य कर्माणि चातुर्वर्ण्यं च केवलम्।
असृजत् स हि यज्ञार्थे पूर्वमेव प्रजापतिः ॥ ३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
भीष्मजीने कहा— बेटा! पूर्वकालमें प्रजापतिने यज्ञके लिये केवल चार वर्णों और उनके पृथक्-पृथक् कर्मोंकी ही रचना की थी॥३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
भार्याश्चतस्रो विप्रस्य द्वयोरात्मा प्रजायते।
आनुपूर्व्याद् द्वयोर्हीनौ मातृजात्यौ प्रसूयतः ॥ ४ ॥
मूलम्
भार्याश्चतस्रो विप्रस्य द्वयोरात्मा प्रजायते।
आनुपूर्व्याद् द्वयोर्हीनौ मातृजात्यौ प्रसूयतः ॥ ४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
ब्राह्मणकी जो चार भार्याएँ बतायी गयी हैं, उनमेंसे दो स्त्रियों—ब्राह्मणी और क्षत्रियाके गर्भसे ब्राह्मण ही उत्पन्न होता है और शेष दो वैश्या और शूद्रा स्त्रियोंके गर्भसे जो पुत्र उत्पन्न होते हैं, वे ब्राह्मणत्वसे हीन क्रमशः माताकी जातिके समझे जाते हैं॥४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
परं शवाद् ब्राह्मणस्यैव पुत्रः
शूद्रापुत्रं पारशवं तमाहुः ।
शुश्रूषकः स्वस्य कुलस्य स स्यात्
स्वचारित्रं नित्यमथो न जह्यात् ॥ ५ ॥
मूलम्
परं शवाद् ब्राह्मणस्यैव पुत्रः
शूद्रापुत्रं पारशवं तमाहुः ।
शुश्रूषकः स्वस्य कुलस्य स स्यात्
स्वचारित्रं नित्यमथो न जह्यात् ॥ ५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
शूद्राके गर्भसे उत्पन्न हुआ ब्राह्मणका ही जो पुत्र है, वह शवसे अर्थात् शूद्रसे पर—उत्कृष्ट बताया गया है; इसीलिये ऋषिगण उसे पारशव कहते हैं। उसे अपने कुलकी सेवा करनी चाहिये और अपने इस सेवारूप आचारका कभी परित्याग नहीं करना चाहिये॥५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
सर्वानुपायानथ सम्प्रधार्य
समुद्धरेत् स्वस्य कुलस्य तन्त्रम्।
ज्येष्ठो यवीयानपि यो द्विजस्य
शुश्रूषया दानपरायणः स्यात् ॥ ६ ॥
मूलम्
सर्वानुपायानथ सम्प्रधार्य
समुद्धरेत् स्वस्य कुलस्य तन्त्रम्।
ज्येष्ठो यवीयानपि यो द्विजस्य
शुश्रूषया दानपरायणः स्यात् ॥ ६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
शूद्रापुत्र सभी उपायोंका विचार करके अपनी कुल-परम्पराका उद्धार करे। वह अवस्थामें ज्येष्ठ होनेपर भी ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैश्यकी अपेक्षा छोटा ही समझा जाता है, अतः उसे त्रैवर्णिकोंकी सेवा करते हुए दानपरायण होना चाहिये॥६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तिस्रः क्षत्रियसम्बन्धाद् द्वयोरात्मास्य जायते।
हीनवर्णास्तृतीयायां शूद्रा उग्रा इति स्मृतिः ॥ ७ ॥
मूलम्
तिस्रः क्षत्रियसम्बन्धाद् द्वयोरात्मास्य जायते।
हीनवर्णास्तृतीयायां शूद्रा उग्रा इति स्मृतिः ॥ ७ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
क्षत्रियकी क्षत्रिया, वैश्या और शूद्रा—ये तीन भार्याएँ होती हैं। इनमेंसे क्षत्रिया और वैश्याके गर्भसे क्षत्रियके सम्पर्कसे जो पुत्र उत्पन्न होता है, वह क्षत्रिय ही होता है। तीसरी शूद्राके गर्भसे हीन वर्णवाले शूद्र ही उत्पन्न होते हैं; जिनकी उग्र संज्ञा है। ऐसा धर्मशास्त्रका कथन है॥७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
द्वे चापि भार्ये वैश्यस्य द्वयोरात्मास्य जायते।
शूद्रा शूद्रस्य चाप्येका शूद्रमेव प्रजायते ॥ ८ ॥
मूलम्
द्वे चापि भार्ये वैश्यस्य द्वयोरात्मास्य जायते।
शूद्रा शूद्रस्य चाप्येका शूद्रमेव प्रजायते ॥ ८ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
वैश्यकी दो भार्याएँ होती हैं—वैश्या और शूद्रा। उन दोनोंके गर्भसे जो पुत्र उत्पन्न होता है, वह वैश्य ही होता है। शूद्रकी एक ही भार्या होती है शूद्रा, जो शूद्रको ही जन्म देती है॥८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अतोऽविशिष्टस्त्वधमो गुरुदारप्रधर्षकः ।
बाह्यं वर्णं जनयति चातुर्वर्ण्यविगर्हितम् ॥ ९ ॥
मूलम्
अतोऽविशिष्टस्त्वधमो गुरुदारप्रधर्षकः ।
बाह्यं वर्णं जनयति चातुर्वर्ण्यविगर्हितम् ॥ ९ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
अतः वर्णोंमें नीचे दर्जेका शूद्र यदि गुरुजनों—ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैश्योंकी स्त्रियोंके साथ समागम करता है तो वह चारों वर्णोंद्वारा निन्दित वर्णबहिष्कृत (चाण्डाल आदि) को जन्म देता है॥९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
विप्रायां क्षत्रियो बाह्यं सूतं स्तोमक्रियापरम्।
वैश्यो वैदेहकं चापि मौद्गल्यमपवर्जितम् ॥ १० ॥
मूलम्
विप्रायां क्षत्रियो बाह्यं सूतं स्तोमक्रियापरम्।
वैश्यो वैदेहकं चापि मौद्गल्यमपवर्जितम् ॥ १० ॥
अनुवाद (हिन्दी)
क्षत्रिय ब्राह्मणीके साथ समागम करनेपर उसके गर्भसे ‘सूत’ जातिका पुत्र उत्पन्न करता है, जो वर्णबहिष्कृत और स्तुति-कर्म करनेवाला (एवं रथीका काम करनेवाला) होता है। उसी प्रकार वैश्य यदि ब्राह्मणीके साथ समागम करे तो वह संस्कारभ्रष्ट ‘वैदेहक’ जातिवाले पुत्रको उत्पन्न करता है, जिससे अन्तःपुरकी रक्षा आदिका काम लिया जाता है और इसीलिये जिसको ‘मौद्गल्य’ भी कहते हैं॥१०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
शूद्रश्चाण्डालमत्युग्रं वध्यघ्नं बाह्यवासिनम् ।
ब्राह्मण्यां सम्प्रजायन्त इत्येते कुलपांसनाः।
एते मतिमतां श्रेष्ठ वर्णसंकरजाः प्रभो ॥ ११ ॥
मूलम्
शूद्रश्चाण्डालमत्युग्रं वध्यघ्नं बाह्यवासिनम् ।
ब्राह्मण्यां सम्प्रजायन्त इत्येते कुलपांसनाः।
एते मतिमतां श्रेष्ठ वर्णसंकरजाः प्रभो ॥ ११ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
इसी तरह शूद्र ब्राह्मणीके साथ समागम करके अत्यन्त भयंकर चाण्डालको जन्म देता है, जो गाँवके बाहर बसता है और वध्यपुरुषोंको प्राणदण्ड आदि देनेका काम करता है। प्रभो! बुद्धिमानोंमें श्रेष्ठ युधिष्ठिर! ब्राह्मणीके साथ नीच पुरुषोंका संसर्ग होनेपर ये सभी कुलांगार पुत्र उत्पन्न होते हैं और वर्णसंकर कहलाते हैं॥११॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
बन्दी तु जायते वैश्यान्मागधो वाक्यजीवनः।
शूद्रान्निषादो मत्स्यघ्नः क्षत्रियायां व्यतिक्रमात् ॥ १२ ॥
मूलम्
बन्दी तु जायते वैश्यान्मागधो वाक्यजीवनः।
शूद्रान्निषादो मत्स्यघ्नः क्षत्रियायां व्यतिक्रमात् ॥ १२ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
वैश्यके द्वारा क्षत्रिय जातिकी स्त्रीके गर्भसे उत्पन्न होनेवाला पुत्र वन्दी और मागध कहलाता है। वह लोगोंकी प्रशंसा करके अपनी जीविका चलाता है। इसी प्रकार यदि शूद्र क्षत्रिय जातिकी स्त्रीके साथ प्रतिलोम समागम करता है तो उससे मछली मारनेवाले निषाद जातिकी उत्पत्ति होती है॥१२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
शूद्रादायोगवश्चापि वैश्यायां ग्राम्यधर्मिणः ।
ब्राह्मणैरप्रतिग्राह्यस्तक्षा स्वधनजीवनः ॥ १३ ॥
मूलम्
शूद्रादायोगवश्चापि वैश्यायां ग्राम्यधर्मिणः ।
ब्राह्मणैरप्रतिग्राह्यस्तक्षा स्वधनजीवनः ॥ १३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
और शूद्र यदि वैश्य जातिकी स्त्रीके साथ ग्राम्यधर्म (मैथुन) का आश्रय लेता है तो उससे ‘आयोगव’ जातिका पुत्र उत्पन्न होता है जो बढ़ईका काम करके अपने कमाये हुए धनसे जीवन निर्वाह करता है। ब्राह्मणोंको उससे दान नहीं लेना चाहिये॥१३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
एतेऽपि सदृशान् वर्णान् जनयन्ति स्वयोनिषु।
मातृजात्याः प्रसूयन्ते ह्यवरा हीनयोनिषु ॥ १४ ॥
मूलम्
एतेऽपि सदृशान् वर्णान् जनयन्ति स्वयोनिषु।
मातृजात्याः प्रसूयन्ते ह्यवरा हीनयोनिषु ॥ १४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
ये वर्णसंकर भी जब अपनी ही जातिकी स्त्रीके साथ समागम करते हैं, तब अपने ही समान वर्णवाले पुत्रोंको जन्म देते हैं और जब अपनेसे हीन जातिकी स्त्रीसे संसर्ग करते हैं, तब नीच संतानोंकी उत्पत्ति होती है। ये संतानें अपनी माताकी जातिकी समझी जाती हैं॥१४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
यथा चतुर्षु वर्णेषु द्वयोरात्मास्य जायते।
आनन्तर्यात् प्रजायन्ते तथा बाह्याः प्रधानतः ॥ १५ ॥
मूलम्
यथा चतुर्षु वर्णेषु द्वयोरात्मास्य जायते।
आनन्तर्यात् प्रजायन्ते तथा बाह्याः प्रधानतः ॥ १५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
जैसे चार वर्णोंमेंसे अपने और अपनेसे एक वर्ण नीचेकी स्त्रियोंसे जो पुत्र उत्पन्न किया जाता है, वह अपने ही वर्णका माना जाता है और एक वर्णका व्यवधान देकर नीचेके वर्णोंकी स्त्रियोंसे उत्पन्न किये जानेवाले पुत्र प्रधान वर्णसे बाह्य—माताकी जातिवाले होते हैं, उसी प्रकार ये नौ—अम्बष्ठ, पारशव, उग्र, सूत, वैदेहक, चाण्डाल, मागध, निषाद और आयोगव—अपनी जातिमें और अपने-से नीचेवाली जातिमें जब संतान उत्पन्न करते हैं, तब वह संतान पिताकी ही जातिवाली होती है और जब एक जातिका अन्तर देकर नीचेकी जातियोंमें संतान उत्पन्न करते हैं, तब वे संतानें पिताकी जातिसे हीन माताओंकी जातिवाली होती हैं॥१५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ते चापि सदृशं वर्णं जनयन्ति स्वयोनिषु।
परस्परस्य दारेषु जनयन्ति विगर्हितान् ॥ १६ ॥
मूलम्
ते चापि सदृशं वर्णं जनयन्ति स्वयोनिषु।
परस्परस्य दारेषु जनयन्ति विगर्हितान् ॥ १६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
इस प्रकार वर्णसंकर मनुष्य भी समान जातिकी स्त्रियोंमें अपने ही समान वर्णवाले पुत्रोंकी उत्पत्ति करते हैं और यदि परस्पर विभिन्न जातिकी स्त्रियोंसे उनका संसर्ग होता है तो वे अपनी अपेक्षा भी निन्दनीय संतानोंको ही जन्म देते हैं॥१६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
यथा शूद्रोऽपि ब्राह्मण्यां जन्तुं बाह्यं प्रसूयते।
एवं बाह्यतराद् बाह्यश्चातुर्वर्ण्यात् प्रजायते ॥ १७ ॥
मूलम्
यथा शूद्रोऽपि ब्राह्मण्यां जन्तुं बाह्यं प्रसूयते।
एवं बाह्यतराद् बाह्यश्चातुर्वर्ण्यात् प्रजायते ॥ १७ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
जैसे शूद्र ब्राह्मणीके गर्भसे चाण्डाल नामक बाह्य (वर्ण-बहिष्कृत) पुत्र उत्पन्न करता है, उसी प्रकार उस बाह्य जातिका मनुष्य भी ब्राह्मण आदि चारों वर्णोंकी एवं बाह्यतर जातिकी स्त्रियोंके साथ संसर्ग करके अपनी अपेक्षा भी नीच जातिवाला पुत्र पैदा करता है॥१७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
प्रतिलोमं तु वर्धन्ते बाह्याद् बाह्यतरात् पुनः।
हीनाद्धीनाः प्रसूयन्ते वर्णाः पञ्चदशैव तु ॥ १८ ॥
मूलम्
प्रतिलोमं तु वर्धन्ते बाह्याद् बाह्यतरात् पुनः।
हीनाद्धीनाः प्रसूयन्ते वर्णाः पञ्चदशैव तु ॥ १८ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
इस तरह बाह्य और बाह्यतर जातिकी स्त्रियोंसे समागम करनेपर प्रतिलोम वर्णसंकरोंकी सृष्टि बढ़ती जाती है। क्रमशः हीन-से-हीन जातिके बालक जन्म लेने लगते हैं। इन संकर जातियोंकी संख्या सामान्यतः पंद्रह है॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अगम्यागमनाच्चैव जायते वर्णसंकरः ।
बाह्यानामनुजायन्ते सैरन्ध्र्यां मागधेषु च।
प्रसाधनोपचारज्ञमदासं दासजीवनम् ॥ १९ ॥
मूलम्
अगम्यागमनाच्चैव जायते वर्णसंकरः ।
बाह्यानामनुजायन्ते सैरन्ध्र्यां मागधेषु च।
प्रसाधनोपचारज्ञमदासं दासजीवनम् ॥ १९ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
अगम्या स्त्रीके साथ समागम करनेपर वर्णसंकर संतानकी उत्पत्ति होती है। मागध जातिकी सैरन्ध्री स्त्रियोंसे यदि बाह्यजातीय पुरुषोंका संसर्ग हो तो उससे जो पुत्र उत्पन्न होता है वह राजा आदि पुरुषोंके शृंगार करने तथा उनके शरीरमें अंगराग लगाने आदिकी सेवाओंका जानकार होता है और दास न होकर भी दासवृत्तिसे जीवन निर्वाह करनेवाला होता है॥१९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अतश्चायोगवं सूते वागुराबन्धजीवनम् ।
मैरेयकं च वैदेहः सम्प्रसूतेऽथ माधुकम् ॥ २० ॥
मूलम्
अतश्चायोगवं सूते वागुराबन्धजीवनम् ।
मैरेयकं च वैदेहः सम्प्रसूतेऽथ माधुकम् ॥ २० ॥
अनुवाद (हिन्दी)
मागधोंके आवान्तर भेद सैरन्ध्र जातिकी स्त्रीसे यदि आयोगव जातिका पुरुष समागम करे तो वह आयोगव जातिका पुत्र उत्पन्न करता है, जो जंगलोंमें जाल बिछाकर पशुओंको फँसानेका काम करके जीवन निर्वाह करता है। उसी जातिकी स्त्रीके साथ यदि वैदेह जातिका पुरुष समागम करता है तो वह मदिरा बनानेवाले मैरेयक जातिके पुत्रको जन्म देता है॥२०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
निषादो मद्गुरं सूते दासं नावोपजीविनम्।
मृतपं चापि चाण्डालः श्वपाकमिति विश्रुतम् ॥ २१ ॥
मूलम्
निषादो मद्गुरं सूते दासं नावोपजीविनम्।
मृतपं चापि चाण्डालः श्वपाकमिति विश्रुतम् ॥ २१ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
निषादके वीर्य और मागधसैरन्ध्रीके गर्भसे मद्गुर जातिका पुरुष उत्पन्न होता है, जिसका दूसरा नाम दास भी है। वह नावसे अपनी जीविका चलाता है। चाण्डाल और मागधी सैरन्ध्रीके संयोगसे श्वपाक नामसे प्रसिद्ध अधम चाण्डालकी उत्पत्ति होती है। वह मुर्दोंकी रखवालीका काम करता है॥२१॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
चतुरो मागधी सूते क्रूरान् मायोपजीविनः।
मांसं स्वादुकरं क्षौद्रं सौगन्धमिति विश्रुतम् ॥ २२ ॥
मूलम्
चतुरो मागधी सूते क्रूरान् मायोपजीविनः।
मांसं स्वादुकरं क्षौद्रं सौगन्धमिति विश्रुतम् ॥ २२ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
इस प्रकार मागध जातिकी सैरन्ध्री स्त्री आयोगव आदि चार जातियोंसे समागम करके मायासे जीविका चलानेवाले पूर्वोक्त चार प्रकारके क्रूर पुत्रोंको उत्पन्न करती है। इनके सिवा दूसरे भी चार प्रकारके पुत्र मागधी सैरन्ध्रीसे उत्पन्न होते हैं जो उसके सजातीय अर्थात् मागध-सैरन्ध्रसे ही उत्पन्न होते हैं। उनकी मांस, स्वादुकर, क्षौद्र और सौगन्ध—इन चार नामोंसे प्रसिद्धि होती है॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
वैदेहकाच्च पापिष्ठा क्रूरं मायोपजीविनम्।
निषादान्मद्रनाथं च खरयानप्रयायिनम् ॥ २३ ॥
मूलम्
वैदेहकाच्च पापिष्ठा क्रूरं मायोपजीविनम्।
निषादान्मद्रनाथं च खरयानप्रयायिनम् ॥ २३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
आयोगव जातिकी पापिष्ठा स्त्री वैदेह जातिके पुरुषसे समागम करके अत्यन्त क्रूर, मायाजीवी पुत्र उत्पन्न करती है। वही निषादके संयोगसे मद्रनाभ नामक जातिको जन्म देती है, जो गदहेकी सवारी करनेवाली होती है॥२३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
चाण्डालात् पुल्कसं चापि खराश्वगजभोजिनम्।
मृतचैलप्रतिच्छन्नं भिन्नभाजनभोजिनम् ॥ २४ ॥
मूलम्
चाण्डालात् पुल्कसं चापि खराश्वगजभोजिनम्।
मृतचैलप्रतिच्छन्नं भिन्नभाजनभोजिनम् ॥ २४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
वही पापिष्ठा स्त्री जब चाण्डालसे समागम करती है तब पुल्कस जातिको जन्म देती है। पुल्कस गधे, घोड़े और हाथीके मांस खाते हैं। वे मुर्दोंपर चढ़े हुए कफन लेकर पहनते और फूटे बर्तनमें भोजन करते हैं॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
आयोगवीषु जायन्ते हीनवर्णास्तु ते त्रयः।
क्षुद्रो वैदेहकादन्ध्रो बहिर्ग्रामप्रतिश्रयः ॥ २५ ॥
कारावरो निषाद्यां तु चर्मकारः प्रसूयते।
मूलम्
आयोगवीषु जायन्ते हीनवर्णास्तु ते त्रयः।
क्षुद्रो वैदेहकादन्ध्रो बहिर्ग्रामप्रतिश्रयः ॥ २५ ॥
कारावरो निषाद्यां तु चर्मकारः प्रसूयते।
अनुवाद (हिन्दी)
इस प्रकार ये तीन नीच जातिके मनुष्य आयोगवीकी संतानें हैं। निषाद जातिकी स्त्रीका यदि वैदेहक जातिके पुरुषसे संसर्ग हो तो क्षुद्र, अन्ध्र और कारावर नामक जातिवाले पुत्रोंकी उत्पत्ति होती है। इनमेंसे क्षुद्र और अन्ध्र तो गाँवसे बाहर रहते हैं और जंगली पशुओंकी हिंसा करके जीविका चलाते हैं तथा कारावर मृत पशुओंके चमड़ेका कारबार करता है। इसलिये चर्मकार या चमार कहलाता है॥२५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
चाण्डालात् पाण्डुसौपाकस्त्वक्सारव्यवहारवान् ॥ २६ ॥
आहिण्डको निषादेन वैदेह्यां सम्प्रसूयते।
चण्डालेन तु सौपाकश्चण्डालसमवृत्तिमान् ॥ २७ ॥
मूलम्
चाण्डालात् पाण्डुसौपाकस्त्वक्सारव्यवहारवान् ॥ २६ ॥
आहिण्डको निषादेन वैदेह्यां सम्प्रसूयते।
चण्डालेन तु सौपाकश्चण्डालसमवृत्तिमान् ॥ २७ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
चाण्डाल पुरुष और निषाद जातिकी स्त्रीके संयोगसे पाण्डुसौपाक जातिका जन्म होता है। यह जाति बाँसकी डलिया आदि बनाकर जीविका चलाती है। वैदेह जातिकी स्त्रीके साथ निषादका सम्पर्क होनेपर आहिण्डकका जन्म होता है, किंतु वही स्त्री जब चाण्डालके साथ सम्पर्क करती है तब उससे सौपाककी उत्पत्ति होती है। सौपाककी जीविका-वृत्ति चाण्डालके ही तुल्य है॥२६-२७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
निषादी चापि चाण्डालात् पुत्रमन्तेवसायिनम्।
श्मशानगोचरं सूते बाह्यैरपि बहिष्कृतम् ॥ २८ ॥
मूलम्
निषादी चापि चाण्डालात् पुत्रमन्तेवसायिनम्।
श्मशानगोचरं सूते बाह्यैरपि बहिष्कृतम् ॥ २८ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
निषाद जातिकी स्त्रीमें चाण्डालके वीर्यसे अन्तेवसायीका जन्म होता है। इस जातिके लोग सदा श्मशानमें ही रहते हैं। निषाद आदि बाह्यजातिके लोग भी उसे बहिष्कृत या अछूत समझते हैं॥२८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
इत्येते संकरे जाताः पितृमातृव्यतिक्रमात्।
प्रच्छन्ना वा प्रकाशा वा वेदितव्याः स्वकर्मभिः ॥ २९ ॥
मूलम्
इत्येते संकरे जाताः पितृमातृव्यतिक्रमात्।
प्रच्छन्ना वा प्रकाशा वा वेदितव्याः स्वकर्मभिः ॥ २९ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
इस प्रकार माता-पिताके व्यतिक्रम (वर्णान्तरके संयोग)-से ये वर्णसंकर जातियाँ उत्पन्न होती हैं। इनमेंसे कुछकी जातियाँ तो प्रकट होती हैं और कुछकी गुप्त। इन्हें इनके कर्मोंसे ही पहचानना चाहिये॥२९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
चतुर्णामेव वर्णानां धर्मो नान्यस्य विद्यते।
वर्णानां धर्महीनेषु संख्या नास्तीह कस्यचित् ॥ ३० ॥
मूलम्
चतुर्णामेव वर्णानां धर्मो नान्यस्य विद्यते।
वर्णानां धर्महीनेषु संख्या नास्तीह कस्यचित् ॥ ३० ॥
अनुवाद (हिन्दी)
शास्त्रोंमें चारों वर्णोंके धर्मोंका निश्चय किया गया है औरोंके नहीं। धर्महीन वर्णसंकर जातियोंमेंसे किसीके वर्णसम्बन्धी भेद और उपभेदोंकी भी यहाँ कोई नियत संख्या नहीं है॥३०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
यदृच्छयोपसम्पन्नैर्यज्ञसाधुबहिष्कृतैः ।
बाह्या बाह्यैश्च जायन्ते यथावृत्ति यथाश्रयम् ॥ ३१ ॥
मूलम्
यदृच्छयोपसम्पन्नैर्यज्ञसाधुबहिष्कृतैः ।
बाह्या बाह्यैश्च जायन्ते यथावृत्ति यथाश्रयम् ॥ ३१ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
जो जातिका विचार न करके स्वेच्छानुसार अन्य वर्णकी स्त्रियोंके साथ समागम करते हैं तथा जो यज्ञोंके अधिकार और साधु पुरुषोंसे बहिष्कृत हैं, ऐसे वर्णबाह्य मनुष्योंसे ही वर्णसंकर संतानें उत्पन्न होती हैं और वे अपनी रुचिके अनुकूल कार्य करके भिन्न-भिन्न प्रकारकी आजीविका तथा आश्रयको अपनाती हैं॥३१॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
चतुष्पथश्मशानानि शैलांश्चान्यान् वनस्पतीन् ।
कार्ष्णायसमलंकारं परिगृह्य च नित्यशः ॥ ३२ ॥
मूलम्
चतुष्पथश्मशानानि शैलांश्चान्यान् वनस्पतीन् ।
कार्ष्णायसमलंकारं परिगृह्य च नित्यशः ॥ ३२ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
ऐसे लोग सदा लोहेके आभूषण पहनकर चौराहोंमें, मरघटमें, पहाड़ोंपर और वृक्षोंके नीचे निवास करते हैं॥३२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
वसेयुरेते विज्ञाता वर्तयन्तः स्वकर्मभिः।
युञ्जन्तो वाप्यलंकारांस्तथोपकरणानि च ॥ ३३ ॥
मूलम्
वसेयुरेते विज्ञाता वर्तयन्तः स्वकर्मभिः।
युञ्जन्तो वाप्यलंकारांस्तथोपकरणानि च ॥ ३३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
इन्हें चाहिये कि गहने तथा अन्य उपकरणोंको बनायें तथा अपने उद्योग-धंधोंसे जीविका चलाते हुए प्रकटरूपसे निवास करें॥३३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
गोब्राह्मणाय साहाय्यं कुर्वाणा वै न संशयः।
आनृशंस्यमनुक्रोशः सत्यवाक्यं तथा क्षमा ॥ ३४ ॥
स्वशरीरैरपि त्राणं बाह्यानां सिद्धिकारणम्।
भवन्ति मनुजव्याघ्र तत्र मे नास्ति संशयः ॥ ३५ ॥
मूलम्
गोब्राह्मणाय साहाय्यं कुर्वाणा वै न संशयः।
आनृशंस्यमनुक्रोशः सत्यवाक्यं तथा क्षमा ॥ ३४ ॥
स्वशरीरैरपि त्राणं बाह्यानां सिद्धिकारणम्।
भवन्ति मनुजव्याघ्र तत्र मे नास्ति संशयः ॥ ३५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
पुरुषसिंह! यदि ये गौ और ब्राह्मणोंकी सहायता करें, क्रूरतापूर्ण कर्मको त्याग दें, सबपर दया करें, सत्य बोलें, दूसरोंके अपराध क्षमा करें और अपने शरीरको कष्टमें डालकर भी दूसरोंकी रक्षा करें तो इन वर्णसंकर मनुष्योंकी भी पारमार्थिक उन्नति हो सकती है—इसमें संशय नहीं है॥३४-३५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
यथोपदेशं परिकीर्तितासु
नरः प्रजायेत विचार्य बुद्धिमान्।
निहीनयोनिर्हि सुतोऽवसादयेत्
तितीर्षमाणं हि यथोपलो जले ॥ ३६ ॥
मूलम्
यथोपदेशं परिकीर्तितासु
नरः प्रजायेत विचार्य बुद्धिमान्।
निहीनयोनिर्हि सुतोऽवसादयेत्
तितीर्षमाणं हि यथोपलो जले ॥ ३६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
राजन्! जैसा ऋषि-मुनियोंने उपदेश किया है, उसके अनुसार बतायी हुई वर्ण एवं बाह्यजातिकी स्त्रियोंमें बुद्धिमान् मनुष्यको अपने हिताहितका भलीभाँति विचार करके ही संतान उत्पन्न करनी चाहिये; क्योंकि नीच योनिमें उत्पन्न हुआ पुत्र भवसागरसे पार जानेकी इच्छावाले पिताको उसी प्रकार डुबोता है, जैसे गलेमें बँधा हुआ पत्थर तैरनेवाले मनुष्यको पानीके अतलगर्तमें निमग्न कर देता है॥३६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अविद्वांसमलं लोके विद्वांसमपि वा पुनः।
नयन्ति ह्यपथं नार्यः कामक्रोधवशानुगम् ॥ ३७ ॥
मूलम्
अविद्वांसमलं लोके विद्वांसमपि वा पुनः।
नयन्ति ह्यपथं नार्यः कामक्रोधवशानुगम् ॥ ३७ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
संसारमें कोई मूर्ख हो या विद्वान्, काम और क्रोधके वशीभूत हुए मनुष्यको नारियाँ अवश्य ही कुमार्गपर पहुँचा देती हैं॥३७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
स्वभावश्चैव नारीणां नराणामिह दूषणम्।
अत्यर्थं न प्रसज्जन्ते प्रमदासु विपश्चितः ॥ ३८ ॥
मूलम्
स्वभावश्चैव नारीणां नराणामिह दूषणम्।
अत्यर्थं न प्रसज्जन्ते प्रमदासु विपश्चितः ॥ ३८ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
इस जगत्में मनुष्योंको कलंकित कर देना नारियोंका स्वभाव है; अतः विवेकी पुरुष युवती स्त्रियोंमें अधिक आसक्त नहीं होते हैं॥३८॥
मूलम् (वचनम्)
युधिष्ठिर उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
वर्णापेतमविज्ञाय नरं कलुषयोनिजम् ।
आर्यरूपमिवानार्यं कथं विद्यामहे वयम् ॥ ३९ ॥
मूलम्
वर्णापेतमविज्ञाय नरं कलुषयोनिजम् ।
आर्यरूपमिवानार्यं कथं विद्यामहे वयम् ॥ ३९ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
युधिष्ठिरने पूछा— पितामह! जो चारों वर्णोंसे बहिष्कृत, वर्णसंकर मनुष्यसे उत्पन्न और अनार्य होकर भी ऊपरसे देखनेमें आर्य-सा प्रतीत हो रहा हो उसे हमलोग कैसे पहचान सकते हैं?॥३९॥
मूलम् (वचनम्)
भीष्म उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
योनिसंकलुषे जातं नानाभावसमन्वितम् ।
कर्मभिः सज्जनाचीर्णैर्विज्ञेया योनिशुद्धता ॥ ४० ॥
मूलम्
योनिसंकलुषे जातं नानाभावसमन्वितम् ।
कर्मभिः सज्जनाचीर्णैर्विज्ञेया योनिशुद्धता ॥ ४० ॥
अनुवाद (हिन्दी)
भीष्मजीने कहा— युधिष्ठिर! जो कलुषित योनिमें उत्पन्न हुआ है, वह ऐसी नाना प्रकारकी चेष्टाओंसे युक्त होता है, जो सत्पुरुषोंके आचारसे विपरीत हैं; अतः उसके कर्मोंसे ही उसकी पहचान होती है। इसी प्रकार सज्जनोचित आचरणोंसे योनिकी शुद्धताका ज्ञान प्राप्त करना चाहिये॥४०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अनार्यत्वमनाचारः क्रूरत्वं निष्क्रियात्मता ।
पुरुषं व्यञ्जयन्तीह लोके कलुषयोनिजम् ॥ ४१ ॥
मूलम्
अनार्यत्वमनाचारः क्रूरत्वं निष्क्रियात्मता ।
पुरुषं व्यञ्जयन्तीह लोके कलुषयोनिजम् ॥ ४१ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
इस जगत्में अनार्यता, अनाचार, क्रूरता और अकर्मण्यता आदि दोष मनुष्यको कलुषित योनिसे उत्पन्न (वर्णसंकर) सिद्ध करते हैं॥४१॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
पित्र्यं वा भजते शीलं मातृजं वा तथोभयम्।
न कथंचन संकीर्णः प्रकृतिं स्वां नियच्छति ॥ ४२ ॥
मूलम्
पित्र्यं वा भजते शीलं मातृजं वा तथोभयम्।
न कथंचन संकीर्णः प्रकृतिं स्वां नियच्छति ॥ ४२ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
वर्णसंकर पुरुष अपने पिता या माताके अथवा दोनोंके ही स्वभावका अनुसरण करता है। वह किसी तरह अपनी प्रकृतिको छिपा नहीं सकता॥४२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
यथैव सदृशो रूपे मातापित्रोर्हि जायते।
व्याघ्रश्चित्रैस्तथा योनिं पुरुषः स्वां नियच्छति ॥ ४३ ॥
मूलम्
यथैव सदृशो रूपे मातापित्रोर्हि जायते।
व्याघ्रश्चित्रैस्तथा योनिं पुरुषः स्वां नियच्छति ॥ ४३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
जैसे बाघ अपनी चित्र-विचित्र खाल और रूपके द्वारा माता-पिताके समान ही होता है, उसी प्रकार मनुष्य भी अपनी योनिका ही अनुसरण करता है॥४३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
कुले स्रोतसि संच्छन्ने यस्य स्याद् योनिसंकरः।
संश्रयत्येव तच्छीलं नरोऽल्पमथवा बहु ॥ ४४ ॥
मूलम्
कुले स्रोतसि संच्छन्ने यस्य स्याद् योनिसंकरः।
संश्रयत्येव तच्छीलं नरोऽल्पमथवा बहु ॥ ४४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
यद्यपि कुल और वीर्य गुप्त रहते हैं अर्थात् कौन किस कुलमें और किसके वीर्यसे उत्पन्न हुआ है, यह बात ऊपरसे प्रकट नहीं होती है तो भी जिसका जन्म संकर-योनिसे हुआ है, वह मनुष्य थोड़ा-बहुत अपने पिताके स्वभावका आश्रय लेता ही है॥४४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
आर्यरूपसमाचारं चरन्तं कृतके पथि।
सुवर्णमन्यवर्णं वा स्वशीलं शास्ति निश्चये ॥ ४५ ॥
मूलम्
आर्यरूपसमाचारं चरन्तं कृतके पथि।
सुवर्णमन्यवर्णं वा स्वशीलं शास्ति निश्चये ॥ ४५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
जो कृत्रिम मार्गका आश्रय लेकर श्रेष्ठ पुरुषोंके अनुरूप आचरण करता है, वह सोना है या काँच—शुद्ध वर्णका है या संकर वर्णका? इसका निश्चय करते समय उसका स्वभाव ही सब कुछ बता देता है॥४५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
नानावृत्तेषु भूतेषु नानाकर्मरतेषु च।
जन्मवृत्तसमं लोके सुश्लिष्टं न विरज्यते ॥ ४६ ॥
मूलम्
नानावृत्तेषु भूतेषु नानाकर्मरतेषु च।
जन्मवृत्तसमं लोके सुश्लिष्टं न विरज्यते ॥ ४६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
संसारके प्राणी नाना प्रकारके आचार-व्यवहारमें लगे हुए हैं, भाँति-भाँतिके कर्मोंमें तत्पर हैं; अतः आचरणके सिवा ऐसी कोई वस्तु नहीं है जो जन्मके रहस्यको साफ तौरपर प्रकट कर सके॥४६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
शरीरमिह सत्त्वेन न तस्य परिकृष्यते।
ज्येष्ठमध्यावरं सत्त्वं तुल्यसत्त्वं प्रमोदते ॥ ४७ ॥
मूलम्
शरीरमिह सत्त्वेन न तस्य परिकृष्यते।
ज्येष्ठमध्यावरं सत्त्वं तुल्यसत्त्वं प्रमोदते ॥ ४७ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
वर्णसंकरको शास्त्रीय बुद्धि प्राप्त हो जाय तो भी वह उसके शरीरको स्वभावसे नहीं हटा सकती। उत्तम, मध्यम या निकृष्ट जिस प्रकारके स्वभावसे उसके शरीरका निर्माण हुआ है, वैसा ही स्वभाव उसे आनन्ददायक जान पड़ता है॥४७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ज्यायांसमपि शीलेन विहीनं नैव पूजयेत्।
अपि शूद्रं च धर्मज्ञं सद्वृत्तमभिपूजयेत् ॥ ४८ ॥
मूलम्
ज्यायांसमपि शीलेन विहीनं नैव पूजयेत्।
अपि शूद्रं च धर्मज्ञं सद्वृत्तमभिपूजयेत् ॥ ४८ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
ऊँची जातिका मनुष्य भी यदि उत्तम शील अर्थात् आचरणसे हीन हो तो उसका सत्कार न करे और शूद्र भी यदि धर्मज्ञ एवं सदाचारी हो तो उसका विशेष आदर करना चाहिये॥४८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
आत्मानमाख्याति हि कर्मभिर्नरः
सुशीलचारित्रकुलैः शुभाशुभैः ।
प्रणष्टमप्याशु कुलं तथा नरः
पुनः प्रकाशं कुरुते स्वकर्मतः ॥ ४९ ॥
मूलम्
आत्मानमाख्याति हि कर्मभिर्नरः
सुशीलचारित्रकुलैः शुभाशुभैः ।
प्रणष्टमप्याशु कुलं तथा नरः
पुनः प्रकाशं कुरुते स्वकर्मतः ॥ ४९ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
मनुष्य अपने शुभाशुभ कर्म, शील, आचरण और कुलके द्वारा अपना परिचय देता है। यदि उसका कुल नष्ट हो गया हो तो भी वह अपने कर्मोंद्वारा उसे फिर शीघ्र ही प्रकाशमें ला देता है॥४९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
योनिष्वेतासु सर्वासु संकीर्णास्वितरासु च।
यत्रात्मानं न जनयेद् बुधस्तां परिवर्जयेत् ॥ ५० ॥
मूलम्
योनिष्वेतासु सर्वासु संकीर्णास्वितरासु च।
यत्रात्मानं न जनयेद् बुधस्तां परिवर्जयेत् ॥ ५० ॥
अनुवाद (हिन्दी)
इन सभी ऊपर बतायी हुई नीच योनियोंमें तथा अन्य नीच जातियोंमें भी विद्वान् पुरुषको संतानोत्पत्ति नहीं करनी चाहिये। उनका सर्वथा परित्याग करना ही उचित है॥५०॥
मूलम् (समाप्तिः)
इति श्रीमहाभारते अनुशासनपर्वणि दानधर्मपर्वणि विवाहधर्मे वर्णसंकरकथने अष्टचत्वारिंशोऽध्यायः ॥ ४८ ॥
मूलम् (वचनम्)
इस प्रकार श्रीमहाभारत अनुशासनपर्वके अन्तर्गत दानधर्मपर्वमें विवाहधर्मके प्रसंगमें वर्णसंकरकी उत्पत्तिका वर्णनविषयक अड़तालीसवाँ अध्याय पूरा हुआ॥४८॥