०४७ रिक्थविभागः

Misc Detail

्सप्तचत्वारिंशोऽध्यायः

सूचना (हिन्दी)

ब्राह्मण आदि वर्णोंकी दायभाग-विधिका वर्णन

मूलम् (वचनम्)

युधिष्ठिर उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

सर्वशास्त्रविधानज्ञ राजधर्मविदुत्तम ।
अतीव संशयच्छेत्ता भवान् वै प्रथितः क्षितौ ॥ १ ॥
कश्चित्तु संशयो मेऽस्ति तन्मे ब्रूहि पितामह।
जातेऽस्मिन् संशये राजन् नान्यं पृच्छेम कंचन ॥ २ ॥

मूलम्

सर्वशास्त्रविधानज्ञ राजधर्मविदुत्तम ।
अतीव संशयच्छेत्ता भवान् वै प्रथितः क्षितौ ॥ १ ॥
कश्चित्तु संशयो मेऽस्ति तन्मे ब्रूहि पितामह।
जातेऽस्मिन् संशये राजन् नान्यं पृच्छेम कंचन ॥ २ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

युधिष्ठिरने पूछा— सम्पूर्ण शास्त्रोंके विधानके ज्ञाता तथा राजधर्मके विद्वानोंमें श्रेष्ठ पितामह! आप इस भूमण्डलमें सम्पूर्ण संशयोंका सर्वथा निवारण करनेके लिये प्रसिद्ध हैं। मेरे हृदयमें एक संशय और है, उसका मेरे लिये समाधान कीजिये। राजन्! इस उत्पन्न हुए संशयके विषयमें मैं दूसरे किसीसे नहीं पूछूँगा॥१-२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

यथा नरेण कर्तव्यं धर्ममार्गानुवर्तिना।
एतत् सर्वं महाबाहो भवान् व्याख्यातुमर्हति ॥ ३ ॥

मूलम्

यथा नरेण कर्तव्यं धर्ममार्गानुवर्तिना।
एतत् सर्वं महाबाहो भवान् व्याख्यातुमर्हति ॥ ३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

महाबाहो! धर्ममार्गका अनुसरण करनेवाले मनुष्यका इस विषयमें जैसा कर्तव्य हो, इस सबकी आप स्पष्टरूपसे व्याख्या करें॥३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

चतस्रो विहिता भार्या ब्राह्मणस्य पितामह।
ब्राह्मणी क्षत्रिया वैश्या शूद्रा च रतिमिच्छतः ॥ ४ ॥

मूलम्

चतस्रो विहिता भार्या ब्राह्मणस्य पितामह।
ब्राह्मणी क्षत्रिया वैश्या शूद्रा च रतिमिच्छतः ॥ ४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

पितामह! ब्राह्मणके लिये चार स्त्रियाँ शास्त्र-विहित हैं—ब्राह्मणी, क्षत्रिया, वैश्या और शूद्रा। इनमेंसे शूद्रा केवल रतिकी इच्छावाले कामी पुरुषके लिये विहित है॥४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तत्र जातेषु पुत्रेषु सर्वासां कुरुसत्तम।
आनुपूर्व्येण कस्तेषां पित्र्यं दायादमर्हति ॥ ५ ॥

मूलम्

तत्र जातेषु पुत्रेषु सर्वासां कुरुसत्तम।
आनुपूर्व्येण कस्तेषां पित्र्यं दायादमर्हति ॥ ५ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

कुरुश्रेष्ठ! इन सबके गर्भसे जो पुत्र उत्पन्न हुए हों, उनमेंसे कौन क्रमशः पैतृक धनको पानेका अधिकारी है?॥५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

केन वा किं ततो हार्यं पितृवित्तात् पितामह।
एतदिच्छामि कथितं विभागस्तेषु यः स्मृतः ॥ ६ ॥

मूलम्

केन वा किं ततो हार्यं पितृवित्तात् पितामह।
एतदिच्छामि कथितं विभागस्तेषु यः स्मृतः ॥ ६ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

पितामह! किस पुत्रको पिताके धनमेंसे कौन-सा भाग मिलना चाहिये? उनके लिये जो विभाग नियत किया गया है, उसका वर्णन मैं आपके मुहँसे सुनना चाहता हूँ॥६॥

मूलम् (वचनम्)

भीष्म उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

ब्राह्मणः क्षत्रियो वैश्यस्त्रयो वर्णा द्विजातयः।
एतेषु विहितो धर्मो ब्राह्मणस्य युधिष्ठिर ॥ ७ ॥

मूलम्

ब्राह्मणः क्षत्रियो वैश्यस्त्रयो वर्णा द्विजातयः।
एतेषु विहितो धर्मो ब्राह्मणस्य युधिष्ठिर ॥ ७ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

भीष्मजीने कहा— युधिष्ठिर! ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैश्य—ये तीनों वर्ण द्विजाति कहलाते हैं; अतः इन तीन वर्णोंमें ही ब्राह्मणका विवाह धर्मतः विहित है॥७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

वैषम्यादथवा लोभात् कामाद् वापि परंतप।
ब्राह्मणस्य भवेच्छूद्रा न तु दृष्टान्ततः स्मृता ॥ ८ ॥

मूलम्

वैषम्यादथवा लोभात् कामाद् वापि परंतप।
ब्राह्मणस्य भवेच्छूद्रा न तु दृष्टान्ततः स्मृता ॥ ८ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

परंतप नरेश! अन्यायसे, लोभसे अथवा कामनासे शूद्र जातिकी कन्या भी ब्राह्मणकी भार्या होती है; परंतु शास्त्रोंमें इसका कहीं विधान नहीं मिलता॥८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

शूद्रां शयनमारोप्य ब्राह्मणो यात्यधोगतिम्।
प्रायश्चित्तीयते चापि विधिदृष्टेन कर्मणा ॥ ९ ॥
तत्र जातेष्वपत्येषु द्विगुणं स्याद् युधिष्ठिर।

मूलम्

शूद्रां शयनमारोप्य ब्राह्मणो यात्यधोगतिम्।
प्रायश्चित्तीयते चापि विधिदृष्टेन कर्मणा ॥ ९ ॥
तत्र जातेष्वपत्येषु द्विगुणं स्याद् युधिष्ठिर।

अनुवाद (हिन्दी)

शूद्रजातिकी स्त्रीको अपनी शय्यापर सुलाकर ब्राह्मण अधोगतिको प्राप्त होता है। साथ ही शास्त्रीय विधिके अनुसार वह प्रायश्चित्तका भागी होता है। युधिष्ठिर! शूद्राके गर्भसे संतान उत्पन्न करनेपर ब्राह्मणको दूना पाप लगता है और उसे दूने प्रायश्चित्तका भागी होना पड़ता है॥९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

आपद्यमानमृक्थं तु सम्प्रवक्ष्यामि भारत ॥ १० ॥
लक्षण्यं गोवृषो यानं यत् प्रधानतमं भवेत्।
ब्राह्मण्यास्तद्धरेत् पुत्र एकांशं वै पितुर्धनात् ॥ ११ ॥
शेषं तु दशधा कार्यं ब्राह्मणस्वं युधिष्ठिर।
तत्र तेनैव हर्तव्याश्चत्वारोंऽशाः पितुर्धनात् ॥ १२ ॥

मूलम्

आपद्यमानमृक्थं तु सम्प्रवक्ष्यामि भारत ॥ १० ॥
लक्षण्यं गोवृषो यानं यत् प्रधानतमं भवेत्।
ब्राह्मण्यास्तद्धरेत् पुत्र एकांशं वै पितुर्धनात् ॥ ११ ॥
शेषं तु दशधा कार्यं ब्राह्मणस्वं युधिष्ठिर।
तत्र तेनैव हर्तव्याश्चत्वारोंऽशाः पितुर्धनात् ॥ १२ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

भरतनन्दन! अब मैं ब्राह्मण आदि वर्णोंकी कन्याओंके गर्भसे उत्पन्न होनेवाले पुत्रोंको पैतृक धनका जो भाग प्राप्त होता है, उसका वर्णन करूँगा। ब्राह्मणकी ब्राह्मणी पत्नीसे जो पुत्र उत्पन्न होता है, वह उत्तम लक्षणोंसे सम्पन्न गृह आदि, बैल, सवारी तथा अन्य जो-जो श्रेष्ठतम पदार्थ हों, उन सबको अर्थात् पैतृक धनके प्रधान अंशको पहले ही अपने अधिकारमें कर ले। युधिष्ठिर! फिर ब्राह्मणका जो शेष धन हो, उसके दस भाग करने चाहिये। पिताके उस धनमेंसे पुनः चार भाग ब्राह्मणीके पुत्रको ही ले लेने चाहिये॥१०—१२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

क्षत्रियायास्तु यः पुत्रो ब्राह्मणः सोऽप्यसंशयः।
स तु मातुर्विशेषेण त्रीनंशान् हर्तुमर्हति ॥ १३ ॥

मूलम्

क्षत्रियायास्तु यः पुत्रो ब्राह्मणः सोऽप्यसंशयः।
स तु मातुर्विशेषेण त्रीनंशान् हर्तुमर्हति ॥ १३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

क्षत्रियाका जो पुत्र है, वह भी ब्राह्मण ही होता है—इसमें संशय नहीं है। वह माताकी विशिष्टताके कारण पैतृक धनका तीन भाग ले लेनेका अधिकारी है॥१३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

वर्णे तृतीये जातस्तु वैश्यायां ब्राह्मणादपि।
द्विरंशस्तेन हर्तव्यो ब्राह्मणस्वाद् युधिष्ठिर ॥ १४ ॥

मूलम्

वर्णे तृतीये जातस्तु वैश्यायां ब्राह्मणादपि।
द्विरंशस्तेन हर्तव्यो ब्राह्मणस्वाद् युधिष्ठिर ॥ १४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

युधिष्ठिर! तीसरे वर्णकी कन्या वैश्यामें जो ब्राह्मणसे पुत्र उत्पन्न होता है, उसे ब्राह्मणके धनमेंसे दो भाग लेने चाहिये॥१४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

शूद्रायां ब्राह्मणाज्जातो नित्यादेयधनः स्मृतः।
अल्पं चापि प्रदातव्यं शूद्रापुत्राय भारत ॥ १५ ॥

मूलम्

शूद्रायां ब्राह्मणाज्जातो नित्यादेयधनः स्मृतः।
अल्पं चापि प्रदातव्यं शूद्रापुत्राय भारत ॥ १५ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

भारत! ब्राह्मणसे शूद्रामें जो पुत्र उत्पन्न होता है, उसे तो धन न देनेका ही विधान है तो भी शूद्राके पुत्रको पैतृक धनका स्वल्पतम भाग—एक अंश दे देना चाहिये॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

दशधा प्रविभक्तस्य धनस्यैष भवेत् क्रमः।
सवर्णासु तु जातानां समान् भागान् प्रकल्पयेत् ॥ १६ ॥

मूलम्

दशधा प्रविभक्तस्य धनस्यैष भवेत् क्रमः।
सवर्णासु तु जातानां समान् भागान् प्रकल्पयेत् ॥ १६ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

दस भागोंमें विभक्त हुए बँटवारेका यही क्रम होता है। परंतु जो समान वर्णकी स्त्रियोंसे उत्पन्न हुए पुत्र हैं, उन सबके लिये बराबर भागोंकी कल्पना करनी चाहिये॥१६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अब्राह्मणं तु मन्यन्ते शूद्रापुत्रमनैपुणात्।
त्रिषु वर्णेषु जातो हि ब्राह्मणाद् ब्राह्मणो भवेत् ॥ १७ ॥

मूलम्

अब्राह्मणं तु मन्यन्ते शूद्रापुत्रमनैपुणात्।
त्रिषु वर्णेषु जातो हि ब्राह्मणाद् ब्राह्मणो भवेत् ॥ १७ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

ब्राह्मणसे शूद्राके गर्भसे जो पुत्र उत्पन्न होता है, उसे ब्राह्मण नहीं मानते हैं; क्योंकि उसमें ब्राह्मणो-चित निपुणता नहीं पायी जाती। शेष तीन वर्णकी स्त्रियोंसे ब्राह्मणद्वारा जो पुत्र उत्पन्न होता है, वह ब्राह्मण होता है॥१७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

स्मृताश्च वर्णाश्चत्वारः पञ्चमो नाधिगम्यते।
हरेच्च दशमं भागं शूद्रापुत्रः पितुर्धनात् ॥ १८ ॥

मूलम्

स्मृताश्च वर्णाश्चत्वारः पञ्चमो नाधिगम्यते।
हरेच्च दशमं भागं शूद्रापुत्रः पितुर्धनात् ॥ १८ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

चार ही वर्ण बताये हैं, पाँचवाँ वर्ण नहीं मिलता। शूद्राका पुत्र ब्राह्मण पिताके धनसे उसका दसवाँ भाग ले सकता है॥१८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तत्तु दत्तं हरेत् पित्रा नादत्तं हर्तुमर्हति।
अवश्यं हि धनं देयं शूद्रापुत्राय भारत ॥ १९ ॥

मूलम्

तत्तु दत्तं हरेत् पित्रा नादत्तं हर्तुमर्हति।
अवश्यं हि धनं देयं शूद्रापुत्राय भारत ॥ १९ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

वह भी पिताके देनेपर ही उसे लेना चाहिये, बिना दिये उसे लेनेका कोई अधिकार नहीं है। भरतनन्दन! किंतु शूद्राके पुत्रको भी धनका भाग अवश्य दे देना चाहिये॥१९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

आनृशंस्यं परो धर्म इति तस्मै प्रदीयते।
यत्र तत्र समुत्पन्नं गुणायैवोपपद्यते ॥ २० ॥

मूलम्

आनृशंस्यं परो धर्म इति तस्मै प्रदीयते।
यत्र तत्र समुत्पन्नं गुणायैवोपपद्यते ॥ २० ॥

अनुवाद (हिन्दी)

दया सबसे बड़ा धर्म है। यह समझकर ही उसे धनका भाग दिया जाता है। दया जहाँ भी उत्पन्न हो, वह गुणकारक ही होती है॥२०॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

यद्यप्येष सपुत्रः स्यादपुत्रो यदि वा भवेत्।
नाधिकं दशमाद् दद्याच्छूद्रापुत्राय भारत ॥ २१ ॥

मूलम्

यद्यप्येष सपुत्रः स्यादपुत्रो यदि वा भवेत्।
नाधिकं दशमाद् दद्याच्छूद्रापुत्राय भारत ॥ २१ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

भारत! ब्राह्मणके अन्य वर्णकी स्त्रियोंसे पुत्र हों या न हों, वह शूद्राके पुत्रको दसवें भागसे अधिक धन न दे॥२१॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

त्रैवार्षिकाद् यदा भक्तादधिकं स्याद् द्विजस्य तु।
यजेत तेन द्रव्येण न वृथा साधयेद् धनम् ॥ २२ ॥

मूलम्

त्रैवार्षिकाद् यदा भक्तादधिकं स्याद् द्विजस्य तु।
यजेत तेन द्रव्येण न वृथा साधयेद् धनम् ॥ २२ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

जब ब्राह्मणके पास तीन वर्षतक निर्वाह होनेसे अधिक धन एकत्र हो जाय तब वह उस धनसे यज्ञ करे। धनका व्यर्थ संग्रह न करे॥२२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

त्रिसहस्रपरो दायः स्त्रियै देयो धनस्य वै।
भर्त्रा तच्च धनं दत्तं यथार्हं भोक्तुमर्हति ॥ २३ ॥

मूलम्

त्रिसहस्रपरो दायः स्त्रियै देयो धनस्य वै।
भर्त्रा तच्च धनं दत्तं यथार्हं भोक्तुमर्हति ॥ २३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

स्त्रीको तीन हजारसे अधिक लागतका धन नहीं देना चाहिये। पतिके देनेपर ही उस धनको वह यथोचित रूपसे उपभोगमें ला सकती है॥२३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

स्त्रीणां तु पतिदायाद्यमुपभोगफलं स्मृतम्।
नापहारं स्त्रियः कुर्युः पतिवित्तात् कथंचन ॥ २४ ॥

मूलम्

स्त्रीणां तु पतिदायाद्यमुपभोगफलं स्मृतम्।
नापहारं स्त्रियः कुर्युः पतिवित्तात् कथंचन ॥ २४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

स्त्रियोंको पतिके धनसे जो हिस्सा मिलता है, उसका उपभोग ही (उसके लिये) फल माना गया है। पतिके दिये हुए स्त्रीधनसे पुत्र आदिको कुछ नहीं लेना चाहिये॥२४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

स्त्रियास्तु यद् भवेत्‌ वित्तं पित्रा दत्तं युधिष्ठिर।
ब्राह्मण्यास्तद्धरेत्‌ कन्या यथा पुत्रस्तथा हि सा ॥ २५ ॥

मूलम्

स्त्रियास्तु यद् भवेत्‌ वित्तं पित्रा दत्तं युधिष्ठिर।
ब्राह्मण्यास्तद्धरेत्‌ कन्या यथा पुत्रस्तथा हि सा ॥ २५ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

युधिष्ठिर! ब्राह्मणीको पिताकी ओरसे जो धन मिला हो, उस धनको उसकी पुत्री ले सकती है; क्योंकि जैसा पुत्र है, वैसी ही पुत्री भी है॥२५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

सा हि पुत्रसमा राजन् विहिता कुरुनन्दन।
एवमेव समुद्दिष्टो धर्मो वै भरतर्षभ।
एवं धर्ममनुस्मृत्य न वृथा साधयेद् धनम् ॥ २६ ॥

मूलम्

सा हि पुत्रसमा राजन् विहिता कुरुनन्दन।
एवमेव समुद्दिष्टो धर्मो वै भरतर्षभ।
एवं धर्ममनुस्मृत्य न वृथा साधयेद् धनम् ॥ २६ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

कुरुनन्दन! भरतकुलभूषण नरेश! पुत्री पुत्रके समान ही है—ऐसा शास्त्रका विधान है। इस प्रकार वही धनके विभाजनकी धर्मयुक्त प्रणाली बतायी गयी है। इस तरह धर्मका चिन्तन एवं अनुस्मरण करते हुए ही धनका उपार्जन एवं संग्रह करे। परंतु उसे व्यर्थ न होने दे—यज्ञ-यागादिके द्वारा सफल कर ले॥२६॥

मूलम् (वचनम्)

युधिष्ठिर उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

शूद्रायां ब्राह्मणाज्जातो यद्यदेयधनः स्मृतः।
केन प्रतिविशेषेण दशमोऽप्यस्य दीयते ॥ २७ ॥

मूलम्

शूद्रायां ब्राह्मणाज्जातो यद्यदेयधनः स्मृतः।
केन प्रतिविशेषेण दशमोऽप्यस्य दीयते ॥ २७ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

युधिष्ठिरने पूछा— दादाजी! यदि ब्राह्मणसे शूद्रामें उत्पन्न हुए पुत्रको धन न देने योग्य बताया गया है तो किस विशेषताके कारण उसको पैतृक धनका दसवाँ भाग भी दिया जाता है?॥२७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

ब्राह्मण्यां ब्राह्मणाज्जातो ब्राह्मणः स्यान्न संशयः।
क्षत्रियायां तथैव स्याद् वैश्यायामपि चैव हि ॥ २८ ॥

मूलम्

ब्राह्मण्यां ब्राह्मणाज्जातो ब्राह्मणः स्यान्न संशयः।
क्षत्रियायां तथैव स्याद् वैश्यायामपि चैव हि ॥ २८ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

ब्राह्मणसे ब्राह्मणीमें उत्पन्न हुआ पुत्र ब्राह्मण हो—इसमें कोई संशय ही नहीं है; वैसे ही क्षत्रिया और वैश्याके गर्भसे उत्पन्न हुए पुत्र भी ब्राह्मण ही होते हैं॥२८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

कस्मात् तु विषमं भागं भजेरन् नृपसत्तम।
यदा सर्वे त्रयो वर्णास्त्वयोक्ता ब्राह्मणा इति ॥ २९ ॥

मूलम्

कस्मात् तु विषमं भागं भजेरन् नृपसत्तम।
यदा सर्वे त्रयो वर्णास्त्वयोक्ता ब्राह्मणा इति ॥ २९ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

नृपश्रेष्ठ! जब आपने ब्राह्मण आदि तीनों वर्णोंवाली स्त्रियोंसे उत्पन्न हुए पुत्रोंको ब्राह्मण ही बताया है, तब वे पैतृक धनका समान भाग क्यों नहीं पाते हैं? क्यों वे विषम भाग ग्रहण करें?॥२९॥

मूलम् (वचनम्)

भीष्म उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

दारा इत्युच्यते लोके नाम्नैकेन परंतप।
प्रोक्तेन चैव नाम्नायं विशेषः सुमहान् भवेत् ॥ ३० ॥

मूलम्

दारा इत्युच्यते लोके नाम्नैकेन परंतप।
प्रोक्तेन चैव नाम्नायं विशेषः सुमहान् भवेत् ॥ ३० ॥

अनुवाद (हिन्दी)

भीष्मजीने कहा— शत्रुओंको संताप देनेवाले नरेश! लोकमें सब स्त्रियोंका ‘दारा’ इस एक नामसे ही परिचय दिया जाता है। इस तथाकथित नामसे ही चारों वर्णोंकी स्त्रियोंसे उत्पन्न हुए पुत्रोंमें महान् अन्तर हो जाता है1॥३०॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तिस्रः कृत्वा पुरो भार्याः पश्चाद् विन्देत ब्राह्मणीम्॥
सा ज्येष्ठा सा च पूज्या स्यात् सा च भार्या गरीयसी॥३१॥

मूलम्

तिस्रः कृत्वा पुरो भार्याः पश्चाद् विन्देत ब्राह्मणीम्॥
सा ज्येष्ठा सा च पूज्या स्यात् सा च भार्या गरीयसी॥३१॥

अनुवाद (हिन्दी)

ब्राह्मण पहले अन्य तीनों वर्णोंकी स्त्रियोंको ब्याह लानेके पश्चात् भी यदि ब्राह्मणकन्यासे विवाह करे तो वही अन्य स्त्रियोंकी अपेक्षा ज्येष्ठ, अधिक आदर-सत्कारके योग्य तथा विशेष गौरवकी अधिकारिणी होगी॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

स्नानं प्रसाधनं भर्तुर्दन्तधावनमञ्जनम् ।
हव्यं कव्यं च यच्चान्यद् धर्मयुक्तं गृहे भवेत् ॥ ३२ ॥
न तस्यां जातु तिष्ठन्त्यामन्या तत् कर्तुमर्हति।
ब्राह्मणी त्वेव कुर्याद् वा ब्राह्मणस्य युधिष्ठिर ॥ ३३ ॥

मूलम्

स्नानं प्रसाधनं भर्तुर्दन्तधावनमञ्जनम् ।
हव्यं कव्यं च यच्चान्यद् धर्मयुक्तं गृहे भवेत् ॥ ३२ ॥
न तस्यां जातु तिष्ठन्त्यामन्या तत् कर्तुमर्हति।
ब्राह्मणी त्वेव कुर्याद् वा ब्राह्मणस्य युधिष्ठिर ॥ ३३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

युधिष्ठिर! पतिको स्नान कराना, उनके लिये शृंगार-सामग्री प्रस्तुत करना, दाँतकी सफाईके लिये दातौन और मंजन देना, पतिके नेत्रोंमें आँजन या सुरमा लगाना, प्रतिदिन हवन और पूजनके समय हव्य और कव्यकी सामग्री जुटाना तथा घरमें और भी जो धार्मिक कृत्य हो उसके सम्पादनमें योग देना—ये सब कार्य ब्राह्मणके लिये ब्राह्मणीको ही करने चाहिये। उसके रहते हुए दूसरे किसी वर्णवाली स्त्रीको यह सब करनेका अधिकार नहीं है॥३२-३३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अन्नं पानं च माल्यं च वासांस्याभरणानि च।
ब्राह्मण्यैतानि देयानि भर्तुः सा हि गरीयसी ॥ ३४ ॥

मूलम्

अन्नं पानं च माल्यं च वासांस्याभरणानि च।
ब्राह्मण्यैतानि देयानि भर्तुः सा हि गरीयसी ॥ ३४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

पतिको अन्न, पान, माला, वस्त्र और आभूषण—ये सब वस्तुएँ ब्राह्मणी ही समर्पित करे; क्योंकि वही उसके लिये सब स्त्रियोंसे अधिक गौरवकी अधिकारिणी है॥३४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

मनुनाभिहितं शास्त्रं यच्चापि कुरुनन्दन।
तत्राप्येष महाराज दृष्टो धर्मः सनातनः ॥ ३५ ॥

मूलम्

मनुनाभिहितं शास्त्रं यच्चापि कुरुनन्दन।
तत्राप्येष महाराज दृष्टो धर्मः सनातनः ॥ ३५ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

महाराज कुरुनन्दन! मनुने भी जिस धर्मशास्त्रका प्रतिपादन किया है, उसमें भी यही सनातन धर्म देखा गया है॥३५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अथ चेदन्यथा कुर्याद् यदि कामाद् युधिष्ठिर।
यथा ब्राह्मण चाण्डालः पूर्वदृष्टस्तथैव सः ॥ ३६ ॥

मूलम्

अथ चेदन्यथा कुर्याद् यदि कामाद् युधिष्ठिर।
यथा ब्राह्मण चाण्डालः पूर्वदृष्टस्तथैव सः ॥ ३६ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

युधिष्ठिर! यदि ब्राह्मण कामके वशीभूत होकर इस शास्त्रीय पद्धतिके विपरीत बर्ताव करता है, वह ब्राह्मण चाण्डाल समझा जाता है जैसा कि पहले कहा गया है॥३६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

ब्राह्मण्याः सदृशः पुत्रः क्षत्रियायाश्च यो भवेत्।
राजन् विशेषो यस्त्वत्र वर्णयोरुभयोरपि ॥ ३७ ॥

मूलम्

ब्राह्मण्याः सदृशः पुत्रः क्षत्रियायाश्च यो भवेत्।
राजन् विशेषो यस्त्वत्र वर्णयोरुभयोरपि ॥ ३७ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

राजन्! ब्राह़्मणके समान ही जो क्षत्रियाका पुत्र होगा, उसमें भी उभयवर्णसम्बन्धी अन्तर तो रहेगा ही॥३७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

न तु जात्या समा लोके ब्राह्मण्याः क्षत्रिया भवेत्।
ब्राह्मण्याः प्रथमः पुत्रो भूयान् स्याद् राजसत्तम ॥ ३८ ॥
भूयो भूयोऽपि संहार्यः पितृवित्ताद् युधिष्ठिर।

मूलम्

न तु जात्या समा लोके ब्राह्मण्याः क्षत्रिया भवेत्।
ब्राह्मण्याः प्रथमः पुत्रो भूयान् स्याद् राजसत्तम ॥ ३८ ॥
भूयो भूयोऽपि संहार्यः पितृवित्ताद् युधिष्ठिर।

अनुवाद (हिन्दी)

क्षत्रियकन्या संसारमें अपनी जातिद्वारा ब्राह्मण-कन्याके बराबर नहीं हो सकती। नृपश्रेष्ठ! इसी प्रकार ब्राह्मणीका पुत्र क्षत्रियाके पुत्रसे प्रथम एवं ज्येष्ठ होगा। युधिष्ठिर! इसलिये पिताके धनमेंसे ब्राह्मणीके पुत्रको अधिक-अधिक भाग देना चाहिये॥३८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

यथा न सदृशी जातु ब्राह्मण्याः क्षत्रिया भवेत् ॥ ३९ ॥
क्षत्रियायास्तथा वैश्या न जातु सदृशी भवेत्।

मूलम्

यथा न सदृशी जातु ब्राह्मण्याः क्षत्रिया भवेत् ॥ ३९ ॥
क्षत्रियायास्तथा वैश्या न जातु सदृशी भवेत्।

अनुवाद (हिन्दी)

जैसे क्षत्रिया कभी ब्राह्मणीके समान नहीं हो सकती वैसे ही वैश्या भी कभी क्षत्रियाके तुल्य नहीं हो सकती॥३९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

श्रीश्च राज्यं च कोशश्च क्षत्रियाणां युधिष्ठिर ॥ ४० ॥
विहितं दृश्यते राजन् सागरान्तां च मेदिनीम्।
क्षत्रियो हि स्वधर्मेण श्रियं प्राप्नोति भूयसीम्।
राजा दण्डधरो राजन् रक्षा नान्यत्र क्षत्रियात् ॥ ४१ ॥

मूलम्

श्रीश्च राज्यं च कोशश्च क्षत्रियाणां युधिष्ठिर ॥ ४० ॥
विहितं दृश्यते राजन् सागरान्तां च मेदिनीम्।
क्षत्रियो हि स्वधर्मेण श्रियं प्राप्नोति भूयसीम्।
राजा दण्डधरो राजन् रक्षा नान्यत्र क्षत्रियात् ॥ ४१ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

राजा युधिष्ठिर! लक्ष्मी, राज्य और कोष—यह सब शास्त्रमें क्षत्रियोंके लिये ही विहित देखा जाता है। राजन्! क्षत्रिय अपने धर्मके अनुसार समुद्रपर्यन्त पृथ्वी तथा बहुत बड़ी सम्पत्ति प्राप्त कर लेता है। नरेश्वर! राजा (क्षत्रिय) दण्ड धारण करनेवाला होता है। क्षत्रियके सिवा और किसीसे रक्षाका कार्य नहीं हो सकता॥४०-४१॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

ब्राह्मणा हि महाभागा देवानामपि देवताः।
तेषु राजन् प्रवर्तेत पूजया विधिपूर्वकम् ॥ ४२ ॥

मूलम्

ब्राह्मणा हि महाभागा देवानामपि देवताः।
तेषु राजन् प्रवर्तेत पूजया विधिपूर्वकम् ॥ ४२ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

राजन्! महाभाग! ब्राह्मण देवताओंके भी देवता हैं; अतः उनका विधिपूर्वक पूजन-आदर-सत्कार करते हुए ही उनके साथ बर्ताव करे॥४२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

प्रणीतमृषिभिर्ज्ञात्वा धर्मं शाश्वतमव्ययम् ।
लुप्यमानं स्वधर्मेण क्षत्रियो ह्येष रक्षति ॥ ४३ ॥

मूलम्

प्रणीतमृषिभिर्ज्ञात्वा धर्मं शाश्वतमव्ययम् ।
लुप्यमानं स्वधर्मेण क्षत्रियो ह्येष रक्षति ॥ ४३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

ऋषियोंद्वारा प्रतिपादित अविनाशी सनातन धर्मको लुप्त होता जानकर क्षत्रिय अपने धर्मके अनुसार उसकी रक्षा करता है॥४३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

दस्युभिर्ह्रियमाणं च धनं दारांश्च सर्वशः।
सर्वेषामेव वर्णानां त्राता भवति पार्थिवः ॥ ४४ ॥

मूलम्

दस्युभिर्ह्रियमाणं च धनं दारांश्च सर्वशः।
सर्वेषामेव वर्णानां त्राता भवति पार्थिवः ॥ ४४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

डाकुओंद्वारा लूटे जाते हुए सभी वर्णोंके धन और स्त्रियोंका राजा ही रक्षक होता है॥४४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

भूयान् स्यात् क्षत्रियापुत्रो वैश्यापुत्रान्न संशयः।
भूयस्तेनापि हर्तव्यं पितृवित्ताद् युधिष्ठिर ॥ ४५ ॥

मूलम्

भूयान् स्यात् क्षत्रियापुत्रो वैश्यापुत्रान्न संशयः।
भूयस्तेनापि हर्तव्यं पितृवित्ताद् युधिष्ठिर ॥ ४५ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

इन सब दृष्टियोंसे क्षत्रियाका पुत्र वैश्याके पुत्रसे श्रेष्ठ होता है—इसमें संशय नहीं है। युधिष्ठिर! इसलिये शेष पैतृक धनमेंसे उसको भी विशेष भाग लेना ही चाहिये॥४५॥

मूलम् (वचनम्)

युधिष्ठिर उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

उक्तं ते विधिवद् राजन् ब्राह्मणस्य पितामह।
इतरेषां तु वर्णानां कथं वै नियमो भवेत् ॥ ४६ ॥

मूलम्

उक्तं ते विधिवद् राजन् ब्राह्मणस्य पितामह।
इतरेषां तु वर्णानां कथं वै नियमो भवेत् ॥ ४६ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

युधिष्ठिरने पूछा— पितामह! आपने ब्राह्मणके धनका विभाजन विधिपूर्वक बता दिया। अब यह बताइये कि अन्य वर्णोंके धनके बँटवारेका कैसा नियम होना चाहिये?॥४६॥

मूलम् (वचनम्)

भीष्म उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

क्षत्रियस्यापि भार्ये द्वे विहिते कुरुनन्दन।
तृतीया च भवेच्छूद्रा न तु दृष्टान्ततः स्मृता ॥ ४७ ॥

मूलम्

क्षत्रियस्यापि भार्ये द्वे विहिते कुरुनन्दन।
तृतीया च भवेच्छूद्रा न तु दृष्टान्ततः स्मृता ॥ ४७ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

भीष्मजीने कहा— कुरुनन्दन! क्षत्रियके लिये भी दो वर्णोंकी भार्याएँ शास्त्रविहित हैं। तीसरी शूद्रा भी उसकी भार्या हो सकती है। परंतु शास्त्रसे उसका समर्थन नहीं होता॥४७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

एष एव क्रमो हि स्यात् क्षत्रियाणां युधिष्ठिर।
अष्टधा तु भवेत् कार्यं क्षत्रियस्वं जनाधिप ॥ ४८ ॥

मूलम्

एष एव क्रमो हि स्यात् क्षत्रियाणां युधिष्ठिर।
अष्टधा तु भवेत् कार्यं क्षत्रियस्वं जनाधिप ॥ ४८ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

राजा युधिष्ठिर! क्षत्रियोंके लिये भी बँटवारेका यही क्रम है। क्षत्रियके धनको आठ भागोंमें विभक्त करना चाहिये॥४८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

क्षत्रियाया हरेत् पुत्रश्चतुरोंऽशान् पितुर्धनात्।
युद्धावहारिकं यच्च पितुः स्यात्‌ स हरेत्‌ तु तत्॥४९॥

मूलम्

क्षत्रियाया हरेत् पुत्रश्चतुरोंऽशान् पितुर्धनात्।
युद्धावहारिकं यच्च पितुः स्यात्‌ स हरेत्‌ तु तत्॥४९॥

अनुवाद (हिन्दी)

क्षत्रियाका पुत्र उस पैतृक धनमेंसे चार भाग स्वयं ग्रहण कर ले तथा पिताकी जो युद्धसामग्री है, उसको भी वही ले ले॥४९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

वैश्यापुत्रस्तु भागांस्त्रीन् शूद्रापुत्रस्तथाष्टमम् ।
सोऽपि दत्तं हरेत् पित्रा नादत्तं हर्तुमर्हति ॥ ५० ॥

मूलम्

वैश्यापुत्रस्तु भागांस्त्रीन् शूद्रापुत्रस्तथाष्टमम् ।
सोऽपि दत्तं हरेत् पित्रा नादत्तं हर्तुमर्हति ॥ ५० ॥

अनुवाद (हिन्दी)

शेष धनमेंसे तीन भाग वैश्याका पुत्र ले ले और अवशिष्ट आठवाँ भाग शूद्राका पुत्र प्राप्त करे। वह भी पिताके देनेपर ही उसे लेना चाहिये। बिना दिया हुआ धन ले जानेका उसे अधिकार नहीं है॥५०॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

एकैव हि भवेद् भार्या वैश्यस्य कुरुनन्दन।
द्वितीया तु भवेत् शूद्रा न तु दृष्टान्ततः स्मृता॥५१॥

मूलम्

एकैव हि भवेद् भार्या वैश्यस्य कुरुनन्दन।
द्वितीया तु भवेत् शूद्रा न तु दृष्टान्ततः स्मृता॥५१॥

अनुवाद (हिन्दी)

कुरुनन्दन! वैश्यकी एक ही वैश्यकन्या धर्मानुसार भार्या हो सकती है। दूसरी शूद्रा भी होती है, परंतु शास्त्रसे उसका समर्थन नहीं होता है॥५१॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

वैश्यस्य वर्तमानस्य वैश्यायां भरतर्षभ।
शूद्रायां चापि कौन्तेय तयोर्विनियमः स्मृतः ॥ ५२ ॥

मूलम्

वैश्यस्य वर्तमानस्य वैश्यायां भरतर्षभ।
शूद्रायां चापि कौन्तेय तयोर्विनियमः स्मृतः ॥ ५२ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

भरतश्रेष्ठ! कुन्तीकुमार! वैश्यके वैश्या और शूद्रा दोनोंके गर्भसे पुत्र हों तो उनके लिये भी धनके बँटवारेका वैसा ही नियम है॥५२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

पञ्चधा तु भवेत् कार्यं वैश्यस्वं भरतर्षभ।
तयोरपत्ये वक्ष्यामि विभागं च जनाधिप ॥ ५३ ॥

मूलम्

पञ्चधा तु भवेत् कार्यं वैश्यस्वं भरतर्षभ।
तयोरपत्ये वक्ष्यामि विभागं च जनाधिप ॥ ५३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

भरतभूषण नरेश! वैश्यके धनको पाँच भागोंमें विभक्त करना चाहिये। फिर वैश्या और शूद्राके पुत्रोंमें उस धनका विभाजन कैसे करना चाहिये, यह बताता हूँ॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

वैश्यापुत्रेण हर्तव्याश्चत्वारोंऽशाः पितुर्धनात् ।
पञ्चमस्तु स्मृतो भागः शूद्रापुत्राय भारत ॥ ५४ ॥

मूलम्

वैश्यापुत्रेण हर्तव्याश्चत्वारोंऽशाः पितुर्धनात् ।
पञ्चमस्तु स्मृतो भागः शूद्रापुत्राय भारत ॥ ५४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

भरतनन्दन! उस पैतृक धनमेंसे चार भाग तो वैश्याके पुत्रको ले लेने चाहिये और पाँचवाँ अंश शूद्राके पुत्रका भाग बताया गया है॥५४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

सोऽपि दत्तं हरेत् पित्रा नादत्तं हर्तुमर्हति।
त्रिभिर्वर्णैः सदा जातः शूद्रोऽदेयधनो भवेत् ॥ ५५ ॥

मूलम्

सोऽपि दत्तं हरेत् पित्रा नादत्तं हर्तुमर्हति।
त्रिभिर्वर्णैः सदा जातः शूद्रोऽदेयधनो भवेत् ॥ ५५ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

वह भी पिताके देनेपर ही उस धनको ले सकता है। बिना दिया हुआ धन लेनेका उसे कोई अधिकार नहीं है। तीनों वर्णोंसे उत्पन्न हुआ शूद्र सदा धन न देनेके योग्य ही होता है॥५५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

शूद्रस्य स्यात् सवर्णैव भार्या नान्या कथंचन।
समभागाश्च पुत्राः स्युर्यदि पुत्रशतं भवेत् ॥ ५६ ॥

मूलम्

शूद्रस्य स्यात् सवर्णैव भार्या नान्या कथंचन।
समभागाश्च पुत्राः स्युर्यदि पुत्रशतं भवेत् ॥ ५६ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

शूद्रकी एक ही अपनी जातिकी ही स्त्री भार्या होती है। दूसरी किसी प्रकार नहीं। उसके सभी पुत्र, वे सौ भाई क्यों न हों, पैतृक धनमेंसे समान भागके अधिकारी होते हैं॥५६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

जातानां समवर्णायाः पुत्राणामविशेषतः ।
सर्वेषामेव वर्णानां समभागो धनात् स्मृतः ॥ ५७ ॥

मूलम्

जातानां समवर्णायाः पुत्राणामविशेषतः ।
सर्वेषामेव वर्णानां समभागो धनात् स्मृतः ॥ ५७ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

समस्त वर्णोंके सभी पुत्रोंका, जो समान वर्णकी स्त्रीसे उत्पन्न हुए हैं, सामान्यतः पैतृक धनमें समान भाग माना गया है॥५७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

ज्येष्ठस्य भागो ज्येष्ठः स्यादेकांशो यः प्रधानतः।
एष दायविधिः पार्थ पूर्वमुक्तः स्वयम्भुवा ॥ ५८ ॥

मूलम्

ज्येष्ठस्य भागो ज्येष्ठः स्यादेकांशो यः प्रधानतः।
एष दायविधिः पार्थ पूर्वमुक्तः स्वयम्भुवा ॥ ५८ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

कुन्तीनन्दन! ज्येष्ठ पुत्रका भाग भी ज्येष्ठ होता है। उसे प्रधानतः एक अंश अधिक मिलता है। पूर्वकालमें स्वयम्भू ब्रह्माजीने पैतृक धनके बँटवारेकी यह विधि बतायी थी॥५८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

समवर्णासु जातानां विशेषोऽस्त्यपरो नृप।
विवाहवैशिष्ट्‌यकृतः पूर्वपूर्वो विशिष्यते ॥ ५९ ॥

मूलम्

समवर्णासु जातानां विशेषोऽस्त्यपरो नृप।
विवाहवैशिष्ट्‌यकृतः पूर्वपूर्वो विशिष्यते ॥ ५९ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

नरेश्वर! समान वर्णकी स्त्रियोंमें जो पुत्र उत्पन्न हुए हैं, उनमें यह दूसरी विशेषता ध्यान देने योग्य है। विवाहकी विशिष्टताके कारण उन पुत्रोंमें भी विशिष्टता आ जाती है। अर्थात् पहले विवाहकी स्त्रीसे उत्पन्न हुआ पुत्र श्रेष्ठ और दूसरे विवाहकी स्त्रीसे पैदा हुआ पुत्र कनिष्ठ होता है॥५९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

हरेज्ज्येष्ठः प्रधानांशमेकं तुल्यासु तेष्वपि।
मध्यमो मध्यमं चैव कनीयांस्तु कनीयसम् ॥ ६० ॥

मूलम्

हरेज्ज्येष्ठः प्रधानांशमेकं तुल्यासु तेष्वपि।
मध्यमो मध्यमं चैव कनीयांस्तु कनीयसम् ॥ ६० ॥

अनुवाद (हिन्दी)

तुल्य वर्णवाली स्त्रियोंसे उत्पन्न हुए उन पुत्रोंमें भी जो ज्येष्ठ है, वह एक भाग ज्येष्ठांश ले सकता है। मध्यम पुत्रको मध्यम और कनिष्ठ पुत्रको कनिष्ठ भाग लेना चाहिये॥६०॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

एवं जातिषु सर्वासु सवर्णः श्रेष्ठतां गतः।
महर्षिरपि चैतद् वै मारीचः काश्यपोऽब्रवीत् ॥ ६१ ॥

मूलम्

एवं जातिषु सर्वासु सवर्णः श्रेष्ठतां गतः।
महर्षिरपि चैतद् वै मारीचः काश्यपोऽब्रवीत् ॥ ६१ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

इस प्रकार सभी जातियोंमें समान वर्णकी स्त्रीसे उत्पन्न हुआ पुत्र ही श्रेष्ठ होता है। मरीचि-पुत्र महर्षि काश्यपने भी यही बात बतायी है॥६१॥

मूलम् (समाप्तिः)

इति श्रीमहाभारते अनुशासनपर्वणि दानधर्मपर्वणि विवाहधर्मे रिक्थविभागो नाम सप्तचत्वारिंशोऽध्यायः॥४७॥

मूलम् (वचनम्)

इस प्रकार श्रीमहाभारत अनुशासनपर्वके अन्तर्गत दानधर्मपर्वमें विवाहधर्मके अन्तर्गत पैतृक धनका विभागनामक सैंतालीसवाँ अध्याय पूरा हुआ॥४७॥


  1. ‘दार’ शब्दकी व्युत्पत्ति इस प्रकार है—‘आद्रियन्ते त्रिवर्गार्थिभिः इति दारा’। धर्म, अर्थ और कामकी इच्छा रखनेवाले पुरुषोंद्वारा जिनका आदर किया जाता है, वे दारा हैं। जहाँतक भोगविषयक आदर है, वह तो सभी स्त्रियोंके साथ समान है, परंतु व्यावहारिक जगत्‌में जो पतिके द्वारा आदर प्राप्त होता है, वह वर्णक्रमसे यथायोग्य न्यूनाधिक मात्रामें ही उपलब्ध होता है। यही बात उनके पुत्रोंके सम्बन्धमें भी लागू होती है। इसीलिये उनके पुत्रोंको पैतृक धनके विषयमें कम और अधिक भाग ग्रहण करनेका अधिकार है। ↩︎