भागसूचना
षट्चत्वारिंशोऽध्यायः
सूचना (हिन्दी)
स्त्रियोंके वस्त्राभूषणोंसे सत्कार करनेकी आवश्यकताका प्रतिपादन
मूलम् (वचनम्)
भीष्म उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
प्राचेतसस्य वचनं कीर्तयन्ति पुराविदः।
यस्याः किंचिन्नाददते ज्ञातयो न स विक्रयः ॥ १ ॥
अर्हणं तत्कुमारीणामानृशंस्यतमं च तत्।
सर्वं च प्रतिदेयं स्यात् कन्यायै तदशेषतः ॥ २ ॥
मूलम्
प्राचेतसस्य वचनं कीर्तयन्ति पुराविदः।
यस्याः किंचिन्नाददते ज्ञातयो न स विक्रयः ॥ १ ॥
अर्हणं तत्कुमारीणामानृशंस्यतमं च तत्।
सर्वं च प्रतिदेयं स्यात् कन्यायै तदशेषतः ॥ २ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
भीष्मजी कहते हैं— युधिष्ठिर! प्राचीन इतिहासके जाननेवाले विद्वान् दक्षप्रजापतिके वचनोंको इस प्रकार उद्धृत करते हैं। कन्याके भाई-बन्धु यदि उसके वस्त्र-आभूषणके लिये धन ग्रहण करते हैं और स्वयं उसमेंसे कुछ भी नहीं लेते हैं तो वह कन्याका विक्रय नहीं है। वह तो उन कन्याओंका सत्कारमात्र है। वह परम दयालुतापूर्ण कार्य है। वह सारा धन जो कन्याके लिये ही प्राप्त हुआ हो, सब-का-सब कन्याको ही अर्पित कर देना चाहिये॥१-२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
पितृभिर्भ्रातृभिश्चापि श्वशुरैरथ देवरैः ।
पूज्या भूषयितव्याश्च बहुकल्याणमीप्सुभिः ॥ ३ ॥
मूलम्
पितृभिर्भ्रातृभिश्चापि श्वशुरैरथ देवरैः ।
पूज्या भूषयितव्याश्च बहुकल्याणमीप्सुभिः ॥ ३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
बहुविध कल्याणकी इच्छा रखनेवाले पिता, भाई, श्वशुर और देवरोंको उचित है कि वे नववधूका पूजन—वस्त्राभूषणोंद्वारा सत्कार करें॥३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
यदि वै स्त्री न रोचेत पुमांसं न प्रमोदयेत्।
अप्रमोदात् पुनः पुंसः प्रजनो न प्रवर्धते ॥ ४ ॥
पूज्या लालयितव्याश्च स्त्रियो नित्यं जनाधिप।
मूलम्
यदि वै स्त्री न रोचेत पुमांसं न प्रमोदयेत्।
अप्रमोदात् पुनः पुंसः प्रजनो न प्रवर्धते ॥ ४ ॥
पूज्या लालयितव्याश्च स्त्रियो नित्यं जनाधिप।
अनुवाद (हिन्दी)
नरेश्वर! यदि स्त्रीकी रुचि पूर्ण न की जाय तो वह अपने पतिको प्रसन्न नहीं कर सकती और उस अवस्थामें उस पुरुषकी संतानवृद्धि नहीं हो सकती। इसलिये सदा ही स्त्रियोंका सत्कार और दुलार करना चाहिये॥४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
स्त्रियो यत्र च पूज्यन्ते रमन्ते तत्र देवताः ॥ ५ ॥
अपूजिताश्च यत्रैताः सर्वास्तत्राफलाः क्रियाः।
मूलम्
स्त्रियो यत्र च पूज्यन्ते रमन्ते तत्र देवताः ॥ ५ ॥
अपूजिताश्च यत्रैताः सर्वास्तत्राफलाः क्रियाः।
अनुवाद (हिन्दी)
जहाँ स्त्रियोंका आदर-सत्कार होता है वहाँ देवतालोग प्रसन्नतापूर्वक निवास करते हैं तथा जहाँ इनका अनादर होता है वहाँकी सारी क्रियाएँ निष्फल हो जाती हैं॥५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तदा चैतत् कुलं नास्ति यदा शोचन्ति जामयः ॥ ६ ॥
जामीशप्तानि गेहानि निकृत्तानीव कृत्यया।
नैव भान्ति न वर्धन्ते श्रिया हीनानि पार्थिव ॥ ७ ॥
मूलम्
तदा चैतत् कुलं नास्ति यदा शोचन्ति जामयः ॥ ६ ॥
जामीशप्तानि गेहानि निकृत्तानीव कृत्यया।
नैव भान्ति न वर्धन्ते श्रिया हीनानि पार्थिव ॥ ७ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
जब कुलकी बहू-बेटियाँ दुःख मिलनेके कारण शोकमग्न होती हैं तब उस कुलका नाश हो जाता है। वे खिन्न होकर जिन घरोंको शाप दे देती हैं, वे कृत्याके द्वारा नष्ट हुए के समान उजाड़ हो जाते हैं। पृथ्वीनाथ! वे श्रीहीन गृह न तो शोभा पाते हैं और न उनकी वृद्धि ही होती है॥६-७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
स्त्रियः पुंसां परिददे मनुर्जिगमिषुर्दिवम्।
अबलाः स्वल्पकौपीनाः सुहृदः सत्यजिष्णवः ॥ ८ ॥
ईर्षवो मानकामाश्च चण्डाश्च सुहृदोऽबुधाः।
स्त्रियस्तु मानमर्हन्ति ता मानयत मानवाः ॥ ९ ॥
स्त्रीप्रत्ययो हि वै धर्मो रतिभोगाश्च केवलाः।
परिचर्या नमस्कारास्तदायत्ता भवन्तु वः ॥ १० ॥
मूलम्
स्त्रियः पुंसां परिददे मनुर्जिगमिषुर्दिवम्।
अबलाः स्वल्पकौपीनाः सुहृदः सत्यजिष्णवः ॥ ८ ॥
ईर्षवो मानकामाश्च चण्डाश्च सुहृदोऽबुधाः।
स्त्रियस्तु मानमर्हन्ति ता मानयत मानवाः ॥ ९ ॥
स्त्रीप्रत्ययो हि वै धर्मो रतिभोगाश्च केवलाः।
परिचर्या नमस्कारास्तदायत्ता भवन्तु वः ॥ १० ॥
अनुवाद (हिन्दी)
महाराज मनु जब स्वर्गको जाने लगे तब उन्होंने स्त्रियोंको पुरुषोंके हाथमें सौंप दिया और कहा—‘मनुष्यो! स्त्रियाँ अबला, थोड़ेसे वस्त्रोंसे काम चलानेवाली, अकारण हितसाधन करनेवाली, सत्यलोकको जीतनेकी इच्छावाली (सत्यपरायणा), ईर्ष्यालु, मान चाहनेवाली, अत्यन्त कोप करनेवाली, पुरुषके प्रति मैत्रीभाव रखनेवाली और भोली-भाली होती हैं। स्त्रियाँ सम्मान पानेके योग्य हैं, अतः तुम सब लोग उनका सम्मान करो; क्योंकि स्त्री-जाति ही धर्मकी सिद्धिका मूल कारण है। तुम्हारे रतिभोग, परिचर्या और नमस्कार स्त्रियोंके ही अधीन होंगे॥८—१०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
उत्पादनमपत्यस्य जातस्य परिपालनम् ।
प्रीत्यर्थं लोकयात्रायाः पश्यत स्त्रीनिबन्धनम् ॥ ११ ॥
सम्मान्यमानाश्चैता हि सर्वकार्याण्यवाप्स्यथ ।
मूलम्
उत्पादनमपत्यस्य जातस्य परिपालनम् ।
प्रीत्यर्थं लोकयात्रायाः पश्यत स्त्रीनिबन्धनम् ॥ ११ ॥
सम्मान्यमानाश्चैता हि सर्वकार्याण्यवाप्स्यथ ।
अनुवाद (हिन्दी)
‘संतानकी उत्पत्ति, उत्पन्न हुए बालकका लालन-पालन तथा लोकयात्राका प्रसन्नतापूर्वक निर्वाह—इन सबको स्त्रियोंके ही अधीन समझो। यदि तुमलोग स्त्रियोंका सम्मान करोगे तो तुम्हारे सब कार्य सिद्ध होंगे’॥११॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
विदेहराजदुहिता चात्र श्लोकमगायत ॥ १२ ॥
नास्ति यज्ञक्रिया काचिन्न श्राद्धं नोपवासकम्।
धर्मः स्वभर्तृशुश्रूषा तया स्वर्गं जयन्त्युत ॥ १३ ॥
मूलम्
विदेहराजदुहिता चात्र श्लोकमगायत ॥ १२ ॥
नास्ति यज्ञक्रिया काचिन्न श्राद्धं नोपवासकम्।
धर्मः स्वभर्तृशुश्रूषा तया स्वर्गं जयन्त्युत ॥ १३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
(स्त्रियोंके कर्तव्यके विषयमें) विदेहराज जनककी पुत्रीने एक श्लोकका गान किया है, जिसका सारांश इस प्रकार है—स्त्रीके लिये कोई यज्ञ आदि कर्म, श्राद्ध और उपवास करना आवश्यक नहीं है। उसका धर्म है अपने पतिकी सेवा। उसीसे स्त्रियाँ स्वर्गलोकपर विजय पा लेती हैं॥१२-१३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
पिता रक्षति कौमारे भर्ता रक्षति यौवने।
पुत्राश्च स्थाविरे भावे न स्त्री स्वातन्त्र्यमर्हति ॥ १४ ॥
मूलम्
पिता रक्षति कौमारे भर्ता रक्षति यौवने।
पुत्राश्च स्थाविरे भावे न स्त्री स्वातन्त्र्यमर्हति ॥ १४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
कुमारावस्थामें स्त्रीकी रक्षा उसका पिता करता है, जवानीमें पति उसका रक्षक है और वृद्धावस्थामें पुत्रगण उसकी रक्षा करते हैं। अतः स्त्रीको कभी स्वतन्त्र नहीं करना चाहिये॥१४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
श्रिय एताः स्त्रियो नाम सत्कार्या भूतिमिच्छता।
पालिता निगृहीता च श्रीः स्त्री भवति भारत ॥ १५ ॥
मूलम्
श्रिय एताः स्त्रियो नाम सत्कार्या भूतिमिच्छता।
पालिता निगृहीता च श्रीः स्त्री भवति भारत ॥ १५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
भरतनन्दन! स्त्रियाँ ही घरकी लक्ष्मी होती हैं। उन्नति चाहनेवाले पुरुषको उनका भलीभाँति सत्कार करना चाहिये। अपने वशमें रखकर उनका पालन करनेसे स्त्री श्री (लक्ष्मी)-का स्वरूप बन जाती है॥
मूलम् (समाप्तिः)
इति श्रीमहाभारते अनुशासनपर्वणि दानधर्मपर्वणि विवाहधर्मे स्त्रीप्रशंसा नाम षट्चत्वारिंशोऽध्यायः॥४६॥
मूलम् (वचनम्)
इस प्रकार श्रीमहाभारत अनुशासनपर्वके अन्तर्गत दानधर्मपर्वमें विवाहधर्मके प्रसंगमें स्त्रीकी प्रशंसानामक छियालीसवाँ अध्याय पूरा हुआ॥४६॥