०४५ यमगाथा

भागसूचना

पञ्चचत्वारिंशोऽध्यायः

सूचना (हिन्दी)

कन्याके विवाहका तथा कन्या और दौहित्र आदिके उत्तराधिकारका विचार

मूलम् (वचनम्)

युधिष्ठिर उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

कन्यायाः प्राप्तशुल्कायाः पतिश्चेन्नास्ति कश्चन।
तत्र का प्रतिपत्तिः स्यात् तन्मे ब्रूहि पितामह ॥ १ ॥

मूलम्

कन्यायाः प्राप्तशुल्कायाः पतिश्चेन्नास्ति कश्चन।
तत्र का प्रतिपत्तिः स्यात् तन्मे ब्रूहि पितामह ॥ १ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

युधिष्ठिरने पूछा— पितामह! जिस कन्याका मूल्य ले लिया गया हो उसका ब्याह करनेके लिये यदि कोई उपस्थित न हो, अर्थात् मूल्य देनेवाला परदेश चला गया हो और उसके भयसे दूसरा पुरुष भी उस कन्यासे विवाह करनेको तैयार न हो तो उसके पिताको क्या करना चाहिये? यह मुझे बताइये॥१॥

मूलम् (वचनम्)

भीष्म उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

या पुत्रकस्य ऋद्धस्य प्रतिपाल्या तदा भवेत्।
अथ चेन्नाहरेच्छुल्कं क्रीता शुल्कप्रदस्य सा ॥ २ ॥

मूलम्

या पुत्रकस्य ऋद्धस्य प्रतिपाल्या तदा भवेत्।
अथ चेन्नाहरेच्छुल्कं क्रीता शुल्कप्रदस्य सा ॥ २ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

भीष्मजीने कहा— युधिष्ठिर! यदि संतानहीन धनीसे कन्याका मूल्य लिया गया है तो पिताका कर्तव्य है कि वह उसके लौटनेतक कन्याकी हर तरहसे रक्षा करे। खरीदी हुई कन्याका मूल्य जबतक लौटा नहीं दिया जाता तबतक वह कन्या मूल्य देनेवालेकी ही मानी जाती है॥२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तस्यार्थेऽपत्यमीहेत येन न्यायेन शक्नुयात्।
न तस्मान्मन्त्रवत्कार्यं कश्चित् कुर्वीत किंचन ॥ ३ ॥

मूलम्

तस्यार्थेऽपत्यमीहेत येन न्यायेन शक्नुयात्।
न तस्मान्मन्त्रवत्कार्यं कश्चित् कुर्वीत किंचन ॥ ३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

जिस न्यायोचित उपायसे सम्भव हो, उसीके द्वारा वह कन्या अपने मूल्यदाता पतिके लिये ही संतान उत्पन्न करनेकी इच्छा करे। अतःदूसरा कोई पुरुष वैदिक मन्त्रयुक्त विधिसे उसका पाणिग्रहण या और कोई कार्य नहीं कर सकता॥३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

स्वयंवृत्तेन साऽऽज्ञप्ता पित्रा वै प्रत्यपद्यत।
तत् तस्यान्ये प्रशंसन्ति धर्मज्ञा नेतरे जनाः ॥ ४ ॥

मूलम्

स्वयंवृत्तेन साऽऽज्ञप्ता पित्रा वै प्रत्यपद्यत।
तत् तस्यान्ये प्रशंसन्ति धर्मज्ञा नेतरे जनाः ॥ ४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

सावित्रीने पिताकी आज्ञा लेकर स्वयं चुने हुए पतिके साथ सम्बन्ध स्थापित किया था। उसके इस कार्यकी दूसरे धर्मज्ञ पुरुष प्रशंसा करते हैं; परंतु कुछ लोग नहीं भी करते हैं॥४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

एतत् तु नापरे चक्रुरपरे जातु साधवः।
साधूनां पुनराचारो गरीयान् धर्मलक्षणः ॥ ५ ॥

मूलम्

एतत् तु नापरे चक्रुरपरे जातु साधवः।
साधूनां पुनराचारो गरीयान् धर्मलक्षणः ॥ ५ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

कुछ लोगोंका कहना है कि दूसरे सत्पुरुषोंने ऐसा नहीं किया है और कुछ कहते हैं कि अन्य सत्पुरुषोंने भी कभी-कभी ऐसा किया है। अतः श्रेष्ठ पुरुषोंका आचार ही धर्मका सर्वश्रेष्ठ लक्षण है॥५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अस्मिन्नेव प्रकरणे सुक्रतुर्वाक्यमब्रवीत् ।
नप्ता विदेहराजस्य जनकस्य महात्मनः ॥ ६ ॥

मूलम्

अस्मिन्नेव प्रकरणे सुक्रतुर्वाक्यमब्रवीत् ।
नप्ता विदेहराजस्य जनकस्य महात्मनः ॥ ६ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

इसी प्रसंगमें विदेहराज महात्मा जनकके नाती सुक्रतुने ऐसा कहा है॥६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

असदाचरिते मार्गे कथं स्यादनुकीर्तनम्।
अत्र प्रश्नः संशयो वा सतामेवमुपालभेत् ॥ ७ ॥

मूलम्

असदाचरिते मार्गे कथं स्यादनुकीर्तनम्।
अत्र प्रश्नः संशयो वा सतामेवमुपालभेत् ॥ ७ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

दुराचारियोंके मार्गका शास्त्रोंद्वारा कैसे अनुमोदन किया जा सकता है? इस विषयमें सत्पुरुषोंके समक्ष प्रश्न, संशय अथवा उपालम्भ कैसे उपस्थित किया जा सकता है?॥७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

असदेव हि धर्मस्य प्रदानं धर्म आसुरः।
नानुशुश्रुम जात्वेतामिमां पूर्वेषु कर्मसु ॥ ८ ॥

मूलम्

असदेव हि धर्मस्य प्रदानं धर्म आसुरः।
नानुशुश्रुम जात्वेतामिमां पूर्वेषु कर्मसु ॥ ८ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

स्त्रियाँ सदा पिता, पति या पुत्रोंके संरक्षणमें ही रहती हैं, स्वतंत्र नहीं होतीं। यह पुरातन धर्म है। इस धर्मका खण्डन करना असत् कर्म या आसुर धर्म है। पूर्वकालके बड़े-बूढ़ोंमें विवाहके अवसरोंपर कभी इस आसुरी पद्धतिका अपनाया जाना हमने नहीं सुना है॥८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

भार्यापत्योर्हि सम्बन्धः स्त्रीपुंसोः स्वल्प एव तु।
रतिः साधारणो धर्म इति चाह स पार्थिवः ॥ ९ ॥

मूलम्

भार्यापत्योर्हि सम्बन्धः स्त्रीपुंसोः स्वल्प एव तु।
रतिः साधारणो धर्म इति चाह स पार्थिवः ॥ ९ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

पति और पत्नीका अथवा स्त्री और पुरुषका सम्बन्ध बहुत ही घनिष्ठ एवं सूक्ष्म है। रति उनका साधारण धर्म है। यह बात भी राजा सुक्रतुने कही थी॥९॥

मूलम् (वचनम्)

युधिष्ठिर उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

अथ केन प्रमाणेन पुंसामादीयते धनम्।
पुत्रवद्धि पितुस्तस्य कन्या भवितुमर्हति ॥ १० ॥

मूलम्

अथ केन प्रमाणेन पुंसामादीयते धनम्।
पुत्रवद्धि पितुस्तस्य कन्या भवितुमर्हति ॥ १० ॥

अनुवाद (हिन्दी)

युधिष्ठिरने पूछा— पितामह! पिताके लिये पुत्री भी तो पुत्रके ही समान होती है; फिर उसके रहते हुए किस प्रमाणसे केवल पुरुष ही धनके अधिकारी होते हैं?॥१०॥

मूलम् (वचनम्)

भीष्म उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

यथैवात्मा तथा पुत्रः पुत्रेण दुहिता समा।
तस्यामात्मनि तिष्ठन्त्यां कथमन्यो धनं हरेत् ॥ ११ ॥

मूलम्

यथैवात्मा तथा पुत्रः पुत्रेण दुहिता समा।
तस्यामात्मनि तिष्ठन्त्यां कथमन्यो धनं हरेत् ॥ ११ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

भीष्मजीने कहा— बेटा! पुत्र अपने आत्माके समान है और कन्या भी पुत्रके ही तुल्य है, अतः आत्मस्वरूप पुत्रके रहते हुए दूसरा कोई उसका धन कैसे ले सकता है?॥११॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

मातुश्च यौतकं यत्‌ स्यात् कुमारीभाग एव सः।
दौहित्र एव तद् रिक्थमपुत्रस्य पितुर्हरेत् ॥ १२ ॥

मूलम्

मातुश्च यौतकं यत्‌ स्यात् कुमारीभाग एव सः।
दौहित्र एव तद् रिक्थमपुत्रस्य पितुर्हरेत् ॥ १२ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

माताको दहेजमें जो धन मिलता है उसपर कन्याका ही अधिकार है; अतः जिसके कोई पुत्र नहीं है उसके धनको पानेका अधिकारी उसका दौहित्र (नाती) ही है। वही उस धनको ले सकता है॥१२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

ददाति हि स पिण्डान् वै पितुर्मातामहस्य च।
पुत्रदौहित्रयोरेव विशेषो नास्ति धर्मतः ॥ १३ ॥

मूलम्

ददाति हि स पिण्डान् वै पितुर्मातामहस्य च।
पुत्रदौहित्रयोरेव विशेषो नास्ति धर्मतः ॥ १३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

दौहित्र अपने पिता और नानाको भी पिण्ड देता है। धर्मकी दृष्टिसे पुत्र और दौहित्रमें कोई अन्तर नहीं है॥१३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अन्यत्र जामया सार्धं प्रजानां पुत्र ईहते।
दुहितान्यत्र जातेन पुत्रेणापि विशिष्यते ॥ १४ ॥

मूलम्

अन्यत्र जामया सार्धं प्रजानां पुत्र ईहते।
दुहितान्यत्र जातेन पुत्रेणापि विशिष्यते ॥ १४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

अन्यत्र अर्थात् यदि पहले कन्या उत्पन्न हुई और वह पुत्ररूपमें स्वीकार कर ली गयी तथा उसके बाद पुत्र भी पैदा हुआ तो वह पुत्र उस कन्याके साथ ही पिताके धनका अधिकारी होता है। यदि दूसरेका पुत्र गोद लिया गया हो तो उस दत्तक पुत्रकी अपेक्षा अपनी सगी बेटी ही श्रेष्ठ मानी जाती है (अतः वह पैतृक धनके अधिक भागकी अधिकारिणी है)॥१४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

दौहित्रकेण धर्मेण नाज पश्यामि कारणम्।
विक्रीतासु हि ये पुत्रा भवन्ति पितुरेव ते ॥ १५ ॥

मूलम्

दौहित्रकेण धर्मेण नाज पश्यामि कारणम्।
विक्रीतासु हि ये पुत्रा भवन्ति पितुरेव ते ॥ १५ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

जो कन्याएँ मूल्य लेकर बेच दी गयी हों उनसे उत्पन्न होनेवाले पुत्र केवल अपने पिताके ही उत्तराधिकारी होते हैं। उन्हें दौहित्रक धर्मके अनुसार नानाके धनका अधिकारी बनानेके लिये कोई युक्तिसंगत कारण मैं नहीं देखता॥१५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

असूयवस्त्वधर्मिष्ठाः परस्वादायिनः शठाः ।
आसुरादधिसम्भूता धर्माद् विषमवृत्तयः ॥ १६ ॥

मूलम्

असूयवस्त्वधर्मिष्ठाः परस्वादायिनः शठाः ।
आसुरादधिसम्भूता धर्माद् विषमवृत्तयः ॥ १६ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

आसुर विवाहसे जिन पुत्रोंकी उत्पत्ति होती है, वे दूसरोंके दोष देखनेवाले, पापाचारी, पराया धन हड़पनेवाले, शठ तथा धर्मके विपरीत बर्ताव करनेवाले होते हैं॥१६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अत्र गाथा यमोद्‌गीताः कीर्तयन्ति पुराविदः।
धर्मज्ञा धर्मशास्त्रेषु निबद्धा धर्मसेतुषु ॥ १७ ॥

मूलम्

अत्र गाथा यमोद्‌गीताः कीर्तयन्ति पुराविदः।
धर्मज्ञा धर्मशास्त्रेषु निबद्धा धर्मसेतुषु ॥ १७ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

इस विषयमें प्राचीन बातोंको जाननेवाले तथा धर्मशास्त्रों और धर्ममर्यादाओंमें स्थित रहनेवाले धर्मज्ञ पुरुष यमकी गायी हुई गाथाका इस प्रकार वर्णन करते हैं—॥१७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

यो मनुष्यः स्वकं पुत्रं विक्रीय धनमिच्छति।
कन्यां वा जीवितार्थाय यः शुल्केन प्रयच्छति ॥ १८ ॥
सप्तावरे महाघोरे निरये कालसाह्वये।
स्वेदं मूत्रं पुरीषं च तस्मिन् मूढः समश्नुते ॥ १९ ॥

मूलम्

यो मनुष्यः स्वकं पुत्रं विक्रीय धनमिच्छति।
कन्यां वा जीवितार्थाय यः शुल्केन प्रयच्छति ॥ १८ ॥
सप्तावरे महाघोरे निरये कालसाह्वये।
स्वेदं मूत्रं पुरीषं च तस्मिन् मूढः समश्नुते ॥ १९ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘जो मनुष्य अपने पुत्रको बेचकर धन पाना चाहता है अथवा जीविकाके लिये मूल्य लेकर कन्याको बेच देता है, वह मूढ़ कुम्भीपाक आदि सात नरकोंसे भी निकृष्ट कालसूत्र नामक नरकमें पड़कर अपने ही मल-मूत्र और पसीनेका भक्षण करता है’॥१८-१९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

आर्षे गोमिथुनं शुल्कं केचिदाहुर्मृषैव तत्।
अल्पो वा बहु वा राजन् विक्रयस्तावदेव सः ॥ २० ॥

मूलम्

आर्षे गोमिथुनं शुल्कं केचिदाहुर्मृषैव तत्।
अल्पो वा बहु वा राजन् विक्रयस्तावदेव सः ॥ २० ॥

अनुवाद (हिन्दी)

राजन्! कुछ लोग आर्ष विवाहमें एक गाय और एक बैल—इन दो पशुओंको मूल्यके रूपमें लेनेका विधान बताते हैं, परंतु यह भी मिथ्या ही है; क्योंकि मूल्य थोड़ा लिया जाय या बहुत, उतनेहीसे वह कन्याका विक्रय हो जाता है॥२०॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

यद्यप्याचरितः कैश्चिन्नैष धर्मः सनातनः।
अन्येषामपि दृश्यन्ते लोकतः सम्प्रवृत्तयः ॥ २१ ॥

मूलम्

यद्यप्याचरितः कैश्चिन्नैष धर्मः सनातनः।
अन्येषामपि दृश्यन्ते लोकतः सम्प्रवृत्तयः ॥ २१ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

यद्यपि कुछ पुरुषोंने ऐसा आचरण किया है; परंतु यह सनातन धर्म नहीं है। दूसरे लोगोंमें भी लोकाचारवश बहुत-सी प्रवृत्तियाँ देखी जाती हैं॥२१॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

वश्यां कुमारीं बलतो ये तां समुपभुञ्जते।
एते पापस्य कर्तारस्तमस्यन्धे च शेरते ॥ २२ ॥

मूलम्

वश्यां कुमारीं बलतो ये तां समुपभुञ्जते।
एते पापस्य कर्तारस्तमस्यन्धे च शेरते ॥ २२ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

जो किसी कुमारी कन्याको बलपूर्वक अपने वशमें करके उसका उपभोग करते हैं, वे पापाचारी मनुष्य अन्धकारपूर्ण नरकमें गिरते हैं॥२२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अन्योऽप्यथ न विक्रेयो मनुष्यः किं पुनः प्रजाः।
अधर्ममूलैर्हि धनैस्तैर्न धर्मोऽथ कश्चन ॥ २३ ॥

मूलम्

अन्योऽप्यथ न विक्रेयो मनुष्यः किं पुनः प्रजाः।
अधर्ममूलैर्हि धनैस्तैर्न धर्मोऽथ कश्चन ॥ २३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

किसी दूसरे मनुष्यको भी नहीं बेचना चाहिये; फिर अपनी संतानको बेचनेकी तो बात ही क्या? अधर्ममूलक धनसे किया हुआ कोई भी धर्म सफल नहीं होता॥२३॥

मूलम् (समाप्तिः)

इति श्रीमहाभारते अनुशासनपर्वणि दानधर्मपर्वणि विवाहधर्मे यमगाथा नाम पञ्चचत्वारिंशोऽध्यायः॥४५॥

मूलम् (वचनम्)

इस प्रकार श्रीमहाभारत अनुशासनपर्वके अन्तर्गत दानधर्मपर्वमें विवाहधर्मसम्बन्धी यमगाथानामक पैंतालीसवाँ अध्याय पूरा हुआ॥४५॥