भागसूचना
चतुश्चत्वारिंशोऽध्यायः
सूचना (हिन्दी)
कन्या-विवाहके सम्बन्धमें पात्रविषयक विभिन्न विचार
मूलम् (वचनम्)
युधिष्ठिर उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
यन्मूलं सर्वधर्माणां स्वजनस्य गृहस्य च।
पितृदेवातिथीनां च तन्मे ब्रूहि पितामह ॥ १ ॥
मूलम्
यन्मूलं सर्वधर्माणां स्वजनस्य गृहस्य च।
पितृदेवातिथीनां च तन्मे ब्रूहि पितामह ॥ १ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
युधिष्ठिरने पूछा— पितामह! जो समस्त धर्मोंका, कुटुम्बीजनोंका, घरका तथा देवता, पितर और अतिथियोंका मूल है, उस कन्यादानके विषयमें मुझे कुछ उपदेश कीजिये॥१॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अयं हि सर्वधर्माणां धर्मश्चिन्त्यतमो मतः।
कीदृशस्य प्रदेया स्यात् कन्येति वसुधाधिप ॥ २ ॥
मूलम्
अयं हि सर्वधर्माणां धर्मश्चिन्त्यतमो मतः।
कीदृशस्य प्रदेया स्यात् कन्येति वसुधाधिप ॥ २ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
पृथ्वीनाथ! सब धर्मोंसे बढ़कर यही चिन्तन करने योग्य धर्म माना गया है कि कैसे पात्रको कन्या देनी चाहिये?॥२॥
मूलम् (वचनम्)
भीष्म उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
शीलवृत्ते समाज्ञाय विद्यां योनिं च कर्म च।
सद्भिरेवं प्रदातव्या कन्या गुणयुते वरे ॥ ३ ॥
मूलम्
शीलवृत्ते समाज्ञाय विद्यां योनिं च कर्म च।
सद्भिरेवं प्रदातव्या कन्या गुणयुते वरे ॥ ३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
भीष्मजीने कहा— बेटा! सत्पुरुषोंको चाहिये कि वे पहले वरके शील-स्वभाव, सदाचार, विद्या, कुल, मर्यादा और कार्योंकी जाँच करें। फिर यदि वह सभी दृष्टियोंसे गुणवान् प्रतीत हो तो उसे कन्या प्रदान करें॥३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ब्राह्मणानां सतामेष ब्राह्मो धर्मो युधिष्ठिर।
आवाह्यमावहेदेवं यो दद्यादनुकूलतः ॥ ४ ॥
शिष्टानां क्षत्रियाणां च धर्म एष सनातनः।
मूलम्
ब्राह्मणानां सतामेष ब्राह्मो धर्मो युधिष्ठिर।
आवाह्यमावहेदेवं यो दद्यादनुकूलतः ॥ ४ ॥
शिष्टानां क्षत्रियाणां च धर्म एष सनातनः।
अनुवाद (हिन्दी)
युधिष्ठिर! इस प्रकार ब्याहने योग्य वरको बुलाकर उसके साथ कन्याका विवाह करना उत्तम ब्राह्मणोंका धर्म—ब्राह्मविवाह है। जो धन आदिके द्वारा वरपक्षको अनुकूल करके कन्यादान किया जाता है, वह शिष्ट ब्राह्मण और क्षत्रियोंका सनातन धर्म कहा जाता है। (इसीको प्राजापत्य विवाह कहते हैं)॥४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
आत्माभिप्रेतमुत्सृज्य कन्याभिप्रेत एव यः ॥ ५ ॥
अभिप्रेता च या यस्य तस्मै देया युधिष्ठिर।
गान्धर्वमिति तं धर्मं प्राहुर्वेदविदो जनाः ॥ ६ ॥
मूलम्
आत्माभिप्रेतमुत्सृज्य कन्याभिप्रेत एव यः ॥ ५ ॥
अभिप्रेता च या यस्य तस्मै देया युधिष्ठिर।
गान्धर्वमिति तं धर्मं प्राहुर्वेदविदो जनाः ॥ ६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
युधिष्ठिर! जब कन्याके माता-पिता अपने पसंद किये हुए वरको छोड़कर जिसे कन्या पसंद करती हो तथा जो कन्याको चाहता हो ऐसे वरके साथ उस कन्याका विवाह करते हैं, तब वेदवेत्ता पुरुष उस विवाहको गान्धर्व धर्म (गान्धर्व विवाह) कहते हैं॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
धनेन बहुधा क्रीत्वा सम्प्रलोभ्य च बान्धवान्।
असुराणां नृपैतं वै धर्ममाहुर्मनीषिणः ॥ ७ ॥
मूलम्
धनेन बहुधा क्रीत्वा सम्प्रलोभ्य च बान्धवान्।
असुराणां नृपैतं वै धर्ममाहुर्मनीषिणः ॥ ७ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
नरेश्वर! कन्याके बन्धु-बान्धवोंको लोभमें डालकर उन्हें बहुत-सा धन देकर जो कन्याको खरीद लिया जाता है, इसे मनीषी पुरुष असुरोंका धर्म (आसुर विवाह) कहते हैं॥७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
हत्वा छित्त्वा च शीर्षाणि रुदतां रुदतीं गृहात्।
प्रसह्य हरणं तात राक्षसो विधिरुच्यते ॥ ८ ॥
मूलम्
हत्वा छित्त्वा च शीर्षाणि रुदतां रुदतीं गृहात्।
प्रसह्य हरणं तात राक्षसो विधिरुच्यते ॥ ८ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
तात! इसी प्रकार कन्याके रोते हुए अभिभावकोंको मारकर, उनके मस्तक काटकर रोती हुई कन्याको उसके घरसे बलपूर्वक हर लाना राक्षसोंका काम (राक्षस विवाह) बताया जाता है॥८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
पञ्चानां तु त्रयो धर्म्या द्वावधर्म्यौ युधिष्ठिर।
पैशाचश्चासुरश्चैव न कर्तव्यो कथंचन ॥ ९ ॥
मूलम्
पञ्चानां तु त्रयो धर्म्या द्वावधर्म्यौ युधिष्ठिर।
पैशाचश्चासुरश्चैव न कर्तव्यो कथंचन ॥ ९ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
युधिष्ठिर! इन पाँच (ब्राह्म, प्राजापत्य, गान्धर्व, आसुर और राक्षस) विवाहोंमेंसे पूर्वकथित तीन विवाह धर्मानुकूल हैं और शेष दो पापमय हैं। आसुर और राक्षस विवाह किसी प्रकार भी नहीं करने चाहिये1॥९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ब्राह्मः क्षात्रोऽथ गान्धर्व एते धर्म्या नरर्षभ।
पृथग् वा यदि वा मिश्राः कर्तव्या नात्र संशयः॥१०॥
मूलम्
ब्राह्मः क्षात्रोऽथ गान्धर्व एते धर्म्या नरर्षभ।
पृथग् वा यदि वा मिश्राः कर्तव्या नात्र संशयः॥१०॥
अनुवाद (हिन्दी)
नरश्रेष्ठ! ब्राह्म, क्षात्र (प्राजापत्य) तथा गान्धर्व—ये तीन विवाह धर्मानुकूल बताये गये हैं। ये पृथक् हों या अन्य विवाहोंसे मिश्रित—करने ही योग्य हैं। इसमें संशय नहीं है॥१०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तिस्रो भार्या ब्राह्मणस्य द्वे भार्ये क्षत्रियस्य तु।
वैश्यः स्वजात्यां विन्देत तास्वपत्यं समं भवेत् ॥ ११ ॥
मूलम्
तिस्रो भार्या ब्राह्मणस्य द्वे भार्ये क्षत्रियस्य तु।
वैश्यः स्वजात्यां विन्देत तास्वपत्यं समं भवेत् ॥ ११ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
ब्राह्मणके लिये तीन भार्याएँ बतायी गयी हैं (ब्राह्मण-कन्या, क्षत्रिय-कन्या और वैश्य-कन्या), क्षत्रियके लिये दो भार्याएँ कही गयी हैं (क्षत्रिय-कन्या और वैश्य-कन्या)। वैश्य केवल अपनी ही जातिकी कन्याके साथ विवाह करे। इन स्त्रियोंसे जो संतानें उत्पन्न होती हैं वे पिताके समान वर्णवाली होती हैं (माताओंके कुल या वर्णके कारण उनमें कोई तारतम्य नहीं होता)॥११॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ब्राह्मणी तु भवेज्ज्येष्ठा क्षत्रिया क्षत्रियस्य तु।
रत्यर्थमपि शूद्रा स्यान्नेत्याहुरपरे जनाः ॥ १२ ॥
मूलम्
ब्राह्मणी तु भवेज्ज्येष्ठा क्षत्रिया क्षत्रियस्य तु।
रत्यर्थमपि शूद्रा स्यान्नेत्याहुरपरे जनाः ॥ १२ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
ब्राह्मणकी पत्नियोंमें ब्राह्मण-कन्या श्रेष्ठ मानी जाती है, क्षत्रियके लिये क्षत्रिय-कन्या श्रेष्ठ है (वैश्यकी तो एक ही पत्नी होती है; अतः वह श्रेष्ठ है ही)। कुछ लोगोंका मत है कि रतिके लिये शूद्र-जातिकी कन्यासे भी विवाह किया जा सकता है; परंतु और लोग ऐसा नहीं मानते (वे शूद्र-कन्याको त्रैवर्णिकोंके लिये अग्राह्य बतलाते हैं)॥१२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अपत्यजन्म शूद्रायां न प्रशंसन्ति साधवः।
शूद्रायां जनयन् विप्रः प्रायश्चित्ती विधीयते ॥ १३ ॥
मूलम्
अपत्यजन्म शूद्रायां न प्रशंसन्ति साधवः।
शूद्रायां जनयन् विप्रः प्रायश्चित्ती विधीयते ॥ १३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
श्रेष्ठ पुरुष ब्राह्मणका शूद्र-कन्याके गर्भसे संतान उत्पन्न करना अच्छा नहीं मानते। शूद्राके गर्भसे संतान उत्पन्न करनेवाला ब्राह्मण प्रायश्चित्तका भागी होता है॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
त्रिंशद्वर्षो दशवर्षां भार्यां विन्देत नग्निकाम्।
एकविंशतिवर्षो वा सप्तवर्षामवाप्नुयात् ॥ १४ ॥
मूलम्
त्रिंशद्वर्षो दशवर्षां भार्यां विन्देत नग्निकाम्।
एकविंशतिवर्षो वा सप्तवर्षामवाप्नुयात् ॥ १४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
तीस वर्षका पुरुष दस वर्षकी कन्याको, जो रजस्वला न हुई हो, पत्नीरूपमें प्राप्त करे। अथवा इक्कीस वर्षका पुरुष सात वर्षकी कुमारीके साथ विवाह करे॥१४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
यस्यास्तु न भवेद् भ्राता पिता वा भरतर्षभ।
नोपयच्छेत तां जातु पुत्रिकाधर्मिणी हि सा ॥ १५ ॥
मूलम्
यस्यास्तु न भवेद् भ्राता पिता वा भरतर्षभ।
नोपयच्छेत तां जातु पुत्रिकाधर्मिणी हि सा ॥ १५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
भरतश्रेष्ठ! जिस कन्याके पिता अथवा भाई न हों, उसके साथ कभी विवाह नहीं करना चाहिये; क्योंकि वह पुत्रिका-धर्मवाली मानी जाती है॥१५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
त्रीणि वर्षाण्युदीक्षेत कन्या ऋतुमती सती।
चतुर्थे त्वथ सम्प्राप्ते स्वयं भर्तारमर्जयेत् ॥ १६ ॥
मूलम्
त्रीणि वर्षाण्युदीक्षेत कन्या ऋतुमती सती।
चतुर्थे त्वथ सम्प्राप्ते स्वयं भर्तारमर्जयेत् ॥ १६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
(यदि पिता, भ्राता आदि अभिभावक ऋतुमती होनेके पहले कन्याका विवाह न कर दें तो) ऋतुमती होनेके पश्चात् तीन वर्षतक कन्या अपने विवाहकी बाट देखे। चौथा वर्ष लगनेपर वह स्वयं ही किसीको अपना पति बना ले॥१६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
प्रजा न हीयते तस्या रतिश्च भरतर्षभ।
अतोऽन्यथा वर्तमाना भवेद् वाच्या प्रजापतेः ॥ १७ ॥
मूलम्
प्रजा न हीयते तस्या रतिश्च भरतर्षभ।
अतोऽन्यथा वर्तमाना भवेद् वाच्या प्रजापतेः ॥ १७ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
भरतश्रेष्ठ! ऐसा करनेपर उस कन्याका उस पुरुषके साथ किया हुआ सम्बन्ध तथा उससे होनेवाली संतान निम्न श्रेणीकी नहीं समझी जाती। इसके विपरीत बर्ताव करनेवाली स्त्री प्रजापतिकी दृष्टिमें निन्दनीय होती है॥१७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
असपिण्डा च या मातुरसगोत्रा च या पितुः।
इत्येतामनुगच्छेत तं धर्मं मनुरब्रवीत् ॥ १८ ॥
मूलम्
असपिण्डा च या मातुरसगोत्रा च या पितुः।
इत्येतामनुगच्छेत तं धर्मं मनुरब्रवीत् ॥ १८ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
जो कन्या माताकी सपिण्ड और पिताके गोत्रकी न हो, उसीका अनुगमन करे। इसे मनुजीने धर्मानुकूल बताया है2॥१८॥
मूलम् (वचनम्)
युधिष्ठिर उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
शुल्कमन्येन दत्तं स्याद् ददानीत्याह चापरः।
बलादन्यः प्रभाषेत धनमन्यः प्रदर्शयेत् ॥ १९ ॥
पाणिग्रहीता चान्यः स्यात् कस्य भार्या पितामह।
तत्त्वं जिज्ञासमानानां चक्षुर्भवतु नो भवान् ॥ २० ॥
मूलम्
शुल्कमन्येन दत्तं स्याद् ददानीत्याह चापरः।
बलादन्यः प्रभाषेत धनमन्यः प्रदर्शयेत् ॥ १९ ॥
पाणिग्रहीता चान्यः स्यात् कस्य भार्या पितामह।
तत्त्वं जिज्ञासमानानां चक्षुर्भवतु नो भवान् ॥ २० ॥
अनुवाद (हिन्दी)
युधिष्ठिरने पूछा— पितामह! यदि एक मनुष्यने विवाह पक्का करके कन्याका मूल्य दे दिया हो, दूसरेने मूल्य देनेका वादा करके विवाह पक्का किया हो, तीसरा उसी कन्याको बलपूर्वक ले जानेकी बात कर रहा हो, चौथा उसके भाई-बन्धुओंको विशेष धनका लोभ दिखाकर ब्याह करनेको तैयार हो और पाँचवाँ उसका पाणिग्रहण कर चुका हो तो धर्मतः उसकी कन्या किसकी पत्नी मानी जायगी? हमलोग इस विषयमें यथार्थ तत्त्वको जानना चाहते हैं। आप हमारे लिये नेत्र (पथ-प्रदर्शक) हों॥१९-२०॥
मूलम् (वचनम्)
भीष्म उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
यत् किंचित् कर्म मानुष्यं संस्थानाय प्रदृश्यते।
मन्त्रवन्मन्त्रितं तस्य मृषावादस्तु पातकः ॥ २१ ॥
मूलम्
यत् किंचित् कर्म मानुष्यं संस्थानाय प्रदृश्यते।
मन्त्रवन्मन्त्रितं तस्य मृषावादस्तु पातकः ॥ २१ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
भीष्मजीने कहा— भारत! मनुष्योंके हितसे सम्बन्ध रखनेवाला जो कोई भी कर्म है, वह व्यवस्थाके लिये देखा जाता है। समस्त विचारवान् पुरुष एकत्र होकर जब यह विचार कर लें कि ‘अमुक कन्या अमुक पुरुषको देनी चाहिये’ तो यह व्यवस्था ही विवाहका निश्चय करनेवाली होती है। जो झूठ बोलकर इस व्यवस्थाको उलट देता है, वह पापका भागी होता है॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
भार्यापत्यृत्विगाचार्याः शिष्योपाध्याय एव च।
मृषोक्ते दण्डमर्हन्ति नेत्याहुरपरे जनाः ॥ २२ ॥
मूलम्
भार्यापत्यृत्विगाचार्याः शिष्योपाध्याय एव च।
मृषोक्ते दण्डमर्हन्ति नेत्याहुरपरे जनाः ॥ २२ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
भार्या, पति, ऋत्विज्, आचार्य, शिष्य और उपाध्याय भी यदि उपर्युक्त व्यवस्थाके विरुद्ध झूठ बोलें तो दण्डके भागी होते हैं। परंतु दूसरे लोग उन्हें दण्डके भागी नहीं मानते हैं॥२२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
न ह्यकामेन संवासं मनुरेवं प्रशंसति।
अयशस्यमधर्म्यं च यन्मृषा धर्मकोपनम् ॥ २३ ॥
मूलम्
न ह्यकामेन संवासं मनुरेवं प्रशंसति।
अयशस्यमधर्म्यं च यन्मृषा धर्मकोपनम् ॥ २३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
अकाम पुरुषके साथ सकामा कन्याका सहवास हो, इसे मनु अच्छा नहीं मानते हैं। अतः सर्वसम्मतिसे निश्चित किये हुए विवाहको मिथ्या करनेका प्रयत्न अयश और अधर्मका कारण होता है। वह धर्मको नष्ट करनेवाला माना गया है॥२३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
नैकान्तो दोष एकस्मिंस्तदा केनोपपद्यते।
धर्मतो यां प्रयच्छन्ति यां च क्रीणन्ति भारत ॥ २४ ॥
मूलम्
नैकान्तो दोष एकस्मिंस्तदा केनोपपद्यते।
धर्मतो यां प्रयच्छन्ति यां च क्रीणन्ति भारत ॥ २४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
भारत! कन्याके भाई-बन्धु जिस कन्याको धर्मपूर्वक पाणिग्रहणकी विधिसे दान कर देते हैं अथवा जिसे मूल्य लेकर दे डालते हैं, उस कन्याको धर्मपूर्वक विवाह करनेवाला अथवा मूल्य देकर खरीदनेवाला यदि अपने घर ले जाय तो इसमें किसी प्रकारका दोष नहीं होता। भला उस दशामें दोषकी प्राप्ति कैसे हो सकती है?॥२४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
बन्धुभिः समनुज्ञाते मन्त्रहोमौ प्रयोजयेत्।
तथा सिद्ध्यन्ति ते मन्त्रा नादत्तायाः कथंचन ॥ २५ ॥
मूलम्
बन्धुभिः समनुज्ञाते मन्त्रहोमौ प्रयोजयेत्।
तथा सिद्ध्यन्ति ते मन्त्रा नादत्तायाः कथंचन ॥ २५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
कन्याके कुटुम्बीजनोंकी अनुमति मिलनेपर वैवाहिक मन्त्र और होमका प्रयोग करना चाहिये, तभी वे मन्त्र सिद्ध (सफल) होते हैं, अर्थात् वह मन्त्रोंद्वारा विवाह किया हुआ माना जाता है। जिस कन्याका माता-पिताके द्वारा दान नहीं किया गया उसके लिये किये गये मन्त्र-प्रयोग किसी तरह सिद्ध नहीं होते, अर्थात् वह विवाह मन्त्रोंद्वारा किया हुआ नहीं माना जाता॥२५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
यस्त्वत्र मन्त्रसमयो भार्यापत्योर्मिथः कृतः।
तमेवाहुर्गरीयांसं यश्चासौ ज्ञातिभिः कृतः ॥ २६ ॥
मूलम्
यस्त्वत्र मन्त्रसमयो भार्यापत्योर्मिथः कृतः।
तमेवाहुर्गरीयांसं यश्चासौ ज्ञातिभिः कृतः ॥ २६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
पति और पत्नीमें भी परस्पर मन्त्रोच्चारणपूर्वक जो प्रतिज्ञा होती है वही श्रेष्ठ मानी जाती है, और यदि उसके लिये बन्धु-बान्धवोंका समर्थन प्राप्त हो तब तो और उत्तम बात है॥२६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
देवदत्तां पतिर्भार्यां वेत्ति धर्मस्य शासनात्।
स दैवीं मानुषीं वाचमनृतां पर्युदस्यति ॥ २७ ॥
मूलम्
देवदत्तां पतिर्भार्यां वेत्ति धर्मस्य शासनात्।
स दैवीं मानुषीं वाचमनृतां पर्युदस्यति ॥ २७ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
धर्मशास्त्रकी आज्ञाके अनुसार न्यायतः प्राप्त हुई पत्नीको पति अपने प्रारब्धकर्मके अनुसार मिली हुई भार्या समझता है। इस प्रकार वह दैवयोगसे प्राप्त हुई पत्नीको ग्रहण करता है। तथा मनुष्योंकी झूठी बातको—उस विवाहको अयोग्य बतानेवाली वार्ताको अग्राह्य कर देता है॥२७॥
मूलम् (वचनम्)
युधिष्ठिर उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
कन्यायां प्राप्तशुल्कायां ज्यायांश्चेदाव्रजेद् वरः।
धर्मकामार्थसम्पन्नो वाच्यमत्रानृतं न वा ॥ २८ ॥
मूलम्
कन्यायां प्राप्तशुल्कायां ज्यायांश्चेदाव्रजेद् वरः।
धर्मकामार्थसम्पन्नो वाच्यमत्रानृतं न वा ॥ २८ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
युधिष्ठिरने पूछा— पितामह! यदि एक वरसे कन्याका विवाह पक्का करके उसका मूल्य ले लिया गया हो और पीछे उससे भी श्रेष्ठ धर्म, अर्थ और कामसे सम्पन्न अत्यन्त योग्य वर मिल जाय तो पहले जिससे मूल्य लिया गया है उससे झूठ बोलना—उसको कन्या देनेसे इनकार कर देना चाहिये या नहीं?॥२८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तस्मिन्नुभयतोदोषे कुर्वन् श्रेयः समाचरेत्।
अयं नः सर्वधर्माणां धर्मश्चिन्त्यतमो मतः ॥ २९ ॥
मूलम्
तस्मिन्नुभयतोदोषे कुर्वन् श्रेयः समाचरेत्।
अयं नः सर्वधर्माणां धर्मश्चिन्त्यतमो मतः ॥ २९ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
इसमें दोनों दशाओंमें दोष प्राप्त होता है—यदि बन्धुजनोंकी सम्मतिसे मूल्य लेकर निश्चित किये हुए विवाहको उलट दिया जाय तो वचन-भंगका दोष लगता है और श्रेष्ठ वरका उल्लंघन करनेसे कन्याके हितको हानि पहुँचानेका दोष प्राप्त होता है। ऐसी दशामें कन्यादाता क्या करे; जिससे वह कल्याणका भागी हो? हम तो सम्पूर्ण धर्मोंमें इस कन्यादानरूप धर्मको ही अधिक चिन्तन अर्थात् विचारके योग्य मानते हैं॥२९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तत्त्वं जिज्ञासमानानां चक्षुर्भवतु नो भवान्।
तदेतत् सर्वमाचक्ष्व न हि तृप्यामि कथ्यताम् ॥ ३० ॥
मूलम्
तत्त्वं जिज्ञासमानानां चक्षुर्भवतु नो भवान्।
तदेतत् सर्वमाचक्ष्व न हि तृप्यामि कथ्यताम् ॥ ३० ॥
अनुवाद (हिन्दी)
हम इस विषयमें यथार्थ तत्त्वको जानना चाहते हैं। आप हमारे पथप्रदर्शक होइये। इन सब बातोंको स्पष्टरूपसे बताइये। मैं आपकी बातें सुननेसे तृप्त नहीं हो रहा हूँ। अतः आप इस विषयका प्रतिपादन कीजिये॥३०॥
मूलम् (वचनम्)
भीष्म उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
नैव निष्ठाकरं शुल्कं ज्ञात्वाऽऽसीत् तेन नाहृतम्।
न हि शुल्कपराः सन्तः कन्यां ददति कर्हिचित् ॥ ३१ ॥
मूलम्
नैव निष्ठाकरं शुल्कं ज्ञात्वाऽऽसीत् तेन नाहृतम्।
न हि शुल्कपराः सन्तः कन्यां ददति कर्हिचित् ॥ ३१ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
भीष्मजीने कहा— राजन्! मूल्य दे देनेसे ही विवाहका अन्तिम निश्चय नहीं हो जाता (उसमें परिवर्तनकी सम्भावना रहती ही है)। यह समझकर ही मूल्य देनेवाला मूल्य देता है और फिर उसे वापस नहीं माँगता। सज्जन पुरुष कभी-कभी मूल्य लेकर भी किसी विशेष कारणवश कन्यादान नहीं करते हैं॥३१॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अन्यैर्गुणैरुपेतं तु शुल्कं याचन्ति बान्धवाः।
अलंकृत्वा वहस्वेति यो दद्यादनुकूलतः ॥ ३२ ॥
मूलम्
अन्यैर्गुणैरुपेतं तु शुल्कं याचन्ति बान्धवाः।
अलंकृत्वा वहस्वेति यो दद्यादनुकूलतः ॥ ३२ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
कन्याके भाई-बन्धु किसीसे मूल्य तभी माँगते हैं जब वह विपरीत गुण (अधिक अवस्था आदि)-से युक्त होता है। यदि वरको बुलाकर कहा जाय कि ‘तुम मेरी कन्याको आभूषण पहनाकर इसके साथ विवाह कर लो’ और ऐसा कहनेपर वह उसके लिये आभूषण देकर विवाह करे तो यह धर्मानुकूल ही है॥३२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
यच्च तां च ददत्येवं न शुल्कं विक्रयो न सः।
प्रतिगृह्य भवेद् देयमेष धर्मः सनातनः ॥ ३३ ॥
मूलम्
यच्च तां च ददत्येवं न शुल्कं विक्रयो न सः।
प्रतिगृह्य भवेद् देयमेष धर्मः सनातनः ॥ ३३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
क्योंकि इस प्रकार जो कन्याके लिये आभूषण लेकर कन्यादान किया जाता है, वह न तो मूल्य है और न विक्रय ही; इसलिये कन्याके लिये कोई वस्तु स्वीकार करके कन्याका दान करना सनातन धर्म है॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
दास्यामि भवते कन्यामिति पूर्वं न भाषितम्।
ये चाहुर्ये च नाहुर्ये ये चावश्यं वदन्त्युत ॥ ३४ ॥
मूलम्
दास्यामि भवते कन्यामिति पूर्वं न भाषितम्।
ये चाहुर्ये च नाहुर्ये ये चावश्यं वदन्त्युत ॥ ३४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
जो लोग भिन्न-भिन्न व्यक्तियोंसे कहते हैं कि ‘मैं आपको अपनी कन्या दूँगा’, जो कहते हैं ‘नहीं दूँगा’ और जो कहते हैं ‘अवश्य दूँगा’ उनकी ये सभी बातें कन्या देनेके पहले नही कही हुई के ही तुल्य हैं॥३४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तस्मादा ग्रहणात् पाणेर्याचयन्ति परस्परम्।
कन्यावरः पुरा दत्तो मरुद्भिरिति नः श्रुतम् ॥ ३५ ॥
मूलम्
तस्मादा ग्रहणात् पाणेर्याचयन्ति परस्परम्।
कन्यावरः पुरा दत्तो मरुद्भिरिति नः श्रुतम् ॥ ३५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
जबतक कन्याका पाणिग्रहण संस्कार सम्पन्न न हो जाय तबतक कन्याको माँगना चाहिये। ऐसा कन्याओंके लिये मरुद्गणोंने पहले वर दिया है, अर्थात् अधिकार दिया है—यह हमारे सुननेमें आया है। इसलिये पाणिग्रहण होनेके पहलेतक वर और कन्या आपसमें एक-दूसरेके लिये प्रार्थना कर सकते हैं॥३५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
नानिष्टाय प्रदातव्या कन्या इत्यृषिचोदितम्।
तन्मूलं काममूलस्य प्रजनस्येति मे मतिः ॥ ३६ ॥
मूलम्
नानिष्टाय प्रदातव्या कन्या इत्यृषिचोदितम्।
तन्मूलं काममूलस्य प्रजनस्येति मे मतिः ॥ ३६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
महर्षियोंका मत है कि अयोग्य वरको कन्या नहीं देनी चाहिये; क्योंकि सुयोग्य पुरुषको कन्यादान करना ही काम-सम्बन्धी सुख और सुयोग्य संतानकी उत्पत्तिका कारण है। ऐसा मेरा विचार है॥३६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
समीक्ष्य च बहून् दोषान् संवासाद् विद्धि पाणयोः।
यथा निष्ठाकरं शुल्कं न जात्वासीत् तथा शृणु ॥ ३७ ॥
मूलम्
समीक्ष्य च बहून् दोषान् संवासाद् विद्धि पाणयोः।
यथा निष्ठाकरं शुल्कं न जात्वासीत् तथा शृणु ॥ ३७ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
कन्याके क्रय-विक्रयमें बहुत-से दोष हैं। इस बातको तुम अधिक कालतक सोचने-विचारनेके बाद स्वयं समझ लोगे। केवल मूल्य दे देनेसे विवाहका अन्तिम निश्चय नहीं हो जाता है। पहले भी कभी ऐसा नहीं हुआ था, इस विषयमें तुम सुनो॥३७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अहं विचित्रवीर्यस्य द्वे कन्ये समुदावहम्।
जित्वा च मागधान् सर्वान् काशीनथ च कोसलान् ॥ ३८ ॥
मूलम्
अहं विचित्रवीर्यस्य द्वे कन्ये समुदावहम्।
जित्वा च मागधान् सर्वान् काशीनथ च कोसलान् ॥ ३८ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
मैं विचित्रवीर्यके विवाहके लिये मगध, काशी तथा कोशलदेशके समस्त वीरोंको पराजित करके काशिराजकी दो[^*] कन्याओंको हर लाया था॥३८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
गृहीतपाणिरेकाऽऽसीत् प्राप्तशुल्का पराभवत् ।
कन्या गृहीता तत्रैव विसर्ज्या इति मे पिता ॥ ३९ ॥
अब्रवीदितरां कन्यामावहेति स कौरवः।
अप्यन्याननुपप्रच्छ शङ्कमानः पितुर्वचः ॥ ४० ॥
मूलम्
गृहीतपाणिरेकाऽऽसीत् प्राप्तशुल्का पराभवत् ।
कन्या गृहीता तत्रैव विसर्ज्या इति मे पिता ॥ ३९ ॥
अब्रवीदितरां कन्यामावहेति स कौरवः।
अप्यन्याननुपप्रच्छ शङ्कमानः पितुर्वचः ॥ ४० ॥
अनुवाद (हिन्दी)
उनमेंसे एक कन्या अम्बा अपना हाथ शाल्वराजके हाथमें दे चुकी थी; अर्थात् मन-ही-मन उनको अपना पति मान चुकी थी। दूसरी (दो कन्याओं)-का काशिराजको शुल्क प्राप्त हो गया था। इसलिये मेरे पिता (चाचा) कुरुवंशी बाह्लीकने वहीं कहा कि ‘जो कन्या पाणिगृहीत हो चुकी है उसका त्याग कर दो और दूसरी कन्याका (जिनके लिये शुल्कमात्र लिया गया है) विवाह करो।’ मुझे चाचाजीके इस कथनमें संदेह था, इसलिये मैंने दूसरोंसे भी इसके विषयमें पूछा॥३९-४०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अतीव ह्यस्य धर्मेच्छा पितुर्मेऽभ्यधिकाभवत्।
ततोऽहमब्रुवं राजन्नाचारेप्सुरिदं वचः ।
आचारं तत्त्वतो वेत्तुमिच्छामि च पुनः पुनः ॥ ४१ ॥
मूलम्
अतीव ह्यस्य धर्मेच्छा पितुर्मेऽभ्यधिकाभवत्।
ततोऽहमब्रुवं राजन्नाचारेप्सुरिदं वचः ।
आचारं तत्त्वतो वेत्तुमिच्छामि च पुनः पुनः ॥ ४१ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
परंतु इस विषयमें मेरे चाचाजीकी बहुत प्रबल इच्छा थी कि धर्मका पालन हो (अतः वे पाणिगृहीता कन्याके त्यागपर अधिक जोर दे रहे थे)। राजन्! तदनन्तर मैं आचार जाननेकी इच्छासे बोला—‘पिताजी! मैं इस विषयमें यह ठीक-ठीक जानना चाहता हूँ कि परम्परागत आचार क्या है?’॥४१॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ततो मयैवमुक्ते तु वाक्ये धर्मभृतां वरः।
पिता मम महाराज बाह्लीको वाक्यमब्रवीत् ॥ ४२ ॥
मूलम्
ततो मयैवमुक्ते तु वाक्ये धर्मभृतां वरः।
पिता मम महाराज बाह्लीको वाक्यमब्रवीत् ॥ ४२ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
महाराज! मेरे ऐसा कहनेपर धर्मात्माओंमें श्रेष्ठ मेरे चाचा बाह्लीक इस प्रकार बोले—॥४२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
यदि वः शुल्कतो निष्ठा न पाणिग्रहणात् तथा।
लाजान्तरमुपासीत प्राप्तशुल्क इति स्मृतिः ॥ ४३ ॥
मूलम्
यदि वः शुल्कतो निष्ठा न पाणिग्रहणात् तथा।
लाजान्तरमुपासीत प्राप्तशुल्क इति स्मृतिः ॥ ४३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘यदि तुम्हारे मतमें मूल्य देनेमात्रसे ही विवाहका पूर्ण निश्चय हो जाता है, पाणिग्रहणसे नहीं, तब तो स्मृतिका यह कथन ही व्यर्थ होगा कि कन्याका पिता एक वरसे शुल्क ले लेनेपर भी दूसरे किसी गुणवान् वरका आश्रय ले सकता है। अर्थात् पहलेको छोड़कर दूसरे गुणवान् वरसे अपनी कन्याका विवाह कर सकता है॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
न हि धर्मविदः प्राहुः प्रमाणं वाक्यतः स्मृतम्।
येषां वै शुल्कतो निष्ठा न पाणिग्रहणात् तथा ॥ ४४ ॥
मूलम्
न हि धर्मविदः प्राहुः प्रमाणं वाक्यतः स्मृतम्।
येषां वै शुल्कतो निष्ठा न पाणिग्रहणात् तथा ॥ ४४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
जिनका यह मत है कि शुल्कसे ही विवाहका निश्चय होता है, पाणिग्रहणसे नहीं, उनके इस कथनको धर्मज्ञ पुरुष प्रमाण नहीं मानते हैं॥४४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
प्रसिद्धं भाषितं दाने नैषां प्रत्यायकं पुनः।
ये मन्यन्ते क्रयं शुल्कं न ते धर्मविदो नराः॥४५॥
मूलम्
प्रसिद्धं भाषितं दाने नैषां प्रत्यायकं पुनः।
ये मन्यन्ते क्रयं शुल्कं न ते धर्मविदो नराः॥४५॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘कन्यादानके विषयमें तो लोगोंका कथन भी प्रसिद्ध है’ अर्थात् सब लोग यही कहते हैं कि कन्यादान हुआ है। अतः जो शुल्कसे ही विवाह निश्चय मानते हैं उनके कथनकी प्रतीति करानेवाला कोई प्रमाण उपलब्ध नहीं होता। जो क्रय और शुल्कको मान्यता देते हैं वे मनुष्य धर्मज्ञ नहीं हैं॥४५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
न चैतेभ्यः प्रदातव्या न वोढव्या तथाविधा।
न ह्येव भार्या क्रेतव्या न विक्रय्या कथंचन ॥ ४६ ॥
मूलम्
न चैतेभ्यः प्रदातव्या न वोढव्या तथाविधा।
न ह्येव भार्या क्रेतव्या न विक्रय्या कथंचन ॥ ४६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘ऐसे लोगोंको कन्या नहीं देनी चाहिये और जो बेची जा रही हो ऐसी कन्याके साथ विवाह नहीं करना चाहिये; क्योंकि भार्या किसी प्रकार भी खरीदने या विक्रय करनेकी वस्तु नहीं है॥४६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ये च क्रीणन्ति दासीं च विक्रीणन्ति तथैव च।
भवेत् तेषां तथा निष्ठा लुब्धानां पापचेतसाम् ॥ ४७ ॥
मूलम्
ये च क्रीणन्ति दासीं च विक्रीणन्ति तथैव च।
भवेत् तेषां तथा निष्ठा लुब्धानां पापचेतसाम् ॥ ४७ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘जो दासियोंको खरीदते और बेचते हैं वे बड़े लोभी और पापात्मा हैं। ऐसे ही लोगोंमें पत्नीको भी खरीदने-बेचनेकी निष्ठा होती है॥४७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अस्मिन्नर्थे सत्यवन्तं पर्यपृच्छन्त वै जनाः।
कन्यायाः प्राप्तशुल्कायाः शुल्कदः प्रशमं गतः ॥ ४८ ॥
पाणिग्रहीता वान्यः स्यादत्र नो धर्मसंशयः।
तन्नश्छिन्धि महाप्राज्ञ त्वं हि वै प्राज्ञसम्मतः ॥ ४९ ॥
मूलम्
अस्मिन्नर्थे सत्यवन्तं पर्यपृच्छन्त वै जनाः।
कन्यायाः प्राप्तशुल्कायाः शुल्कदः प्रशमं गतः ॥ ४८ ॥
पाणिग्रहीता वान्यः स्यादत्र नो धर्मसंशयः।
तन्नश्छिन्धि महाप्राज्ञ त्वं हि वै प्राज्ञसम्मतः ॥ ४९ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
इस विषयमें पहलेके लोगोंने सत्यवान्से पूछा था कि ‘महाप्राज्ञ! यदि कन्याका शुल्क देनेके पश्चात् शुल्क देनेवालेकी मृत्यु हो जाय तो उसका पाणिग्रहण दूसरा कोई कर सकता है या नहीं? इसमें हमें धर्मविषयक संदेह हो गया है। आप इसका निवारण कीजिये; क्योंकि आप ज्ञानी पुरुषोंद्वारा सम्मानित हैं॥४८-४९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तत्त्वं जिज्ञासमानानां चक्षुर्भवतु नो भवान्।
तानेवं ब्रुवतः सर्वान् सत्यवान् वाक्यमब्रवीत् ॥ ५० ॥
मूलम्
तत्त्वं जिज्ञासमानानां चक्षुर्भवतु नो भवान्।
तानेवं ब्रुवतः सर्वान् सत्यवान् वाक्यमब्रवीत् ॥ ५० ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘हमलोग इस विषयमें यथार्थ बात जानना चाहते हैं। आप हमारे लिये पथप्रदर्शक होइये।’ उन लोगोंके इस प्रकार कहनेपर सत्यवान्ने कहा—॥५०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
यत्रेष्टं तत्र देया स्यान्नात्र कार्या विचारणा।
कुर्वते जीवतोऽप्येवं मृते नैवास्ति संशयः ॥ ५१ ॥
मूलम्
यत्रेष्टं तत्र देया स्यान्नात्र कार्या विचारणा।
कुर्वते जीवतोऽप्येवं मृते नैवास्ति संशयः ॥ ५१ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘जहाँ उत्तम पात्र मिलता हो वहीं कन्या देनी चाहिये। इसके विपरीत कोई विचार मनमें नहीं लाना चाहिये। मूल्य देनेवाला यदि जीवित हो तो भी सुयोग्य वरके मिलनेपर सज्जन पुरुष उसीके साथ कन्याका विवाह करते हैं। फिर उसके मर जानेपर अन्यत्र करें—इसमें तो संदेह ही नहीं है॥५१॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
देवरं प्रविशेत् कन्या तप्येद् वापि तपः पुनः।
तमेवानुगता भूत्वा पाणिग्राहस्य काम्यया ॥ ५२ ॥
मूलम्
देवरं प्रविशेत् कन्या तप्येद् वापि तपः पुनः।
तमेवानुगता भूत्वा पाणिग्राहस्य काम्यया ॥ ५२ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘शुल्क देनेवालेकी मृत्यु हो जानेपर उसके छोटे भाईको वह कन्या पतिरूपमें ग्रहण करे अथवा जन्मान्तरमें उसी पतिको पानेकी इच्छासे उसीका अनुसरण (चिन्तन) करती हुई आजीवन कुमारी रहकर तपस्या करे॥५२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
लिखन्त्येव तु केषांचिदपरेषां शनैरपि।
इति ये संवदन्त्यत्र त एतं निश्चयं विदुः ॥ ५३ ॥
तत्पाणिग्रहणात् पूर्वमन्तरं यत्र वर्तते।
सर्वमङ्गलमन्त्रं वै मृषावादस्तु पातकः ॥ ५४ ॥
मूलम्
लिखन्त्येव तु केषांचिदपरेषां शनैरपि।
इति ये संवदन्त्यत्र त एतं निश्चयं विदुः ॥ ५३ ॥
तत्पाणिग्रहणात् पूर्वमन्तरं यत्र वर्तते।
सर्वमङ्गलमन्त्रं वै मृषावादस्तु पातकः ॥ ५४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘किन्हींके मतमें अक्षतयोनि कन्याको स्वीकार करनेका अधिकार है। दूसरोंके मतमें यह मन्दप्रवृत्ति—अवैध कार्य है। इस प्रकार जो विवाद करते हैं, वे अन्तमें इसी निश्चयपर पहुँचते हैं कि कन्याका पाणिग्रहण होनेसे पहलेका वैवाहिक मंगलाचार और मन्त्रप्रयोग हो जानेपर भी जहाँ अन्तर या व्यवधान पड़ जाय; अर्थात् अयोग्य वरको छोड़कर किसी दूसरे योग्य वरके साथ कन्या ब्याह दी जाय तो दाताको केवल मिथ्याभाषणका पाप लगता है (पाणिग्रहणसे पूर्व कन्या विवाहित नहीं मानी जाती है)॥५३-५४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
पाणिग्रहणमन्त्राणां निष्ठा स्यात् सप्तमे पदे।
पाणिग्रहस्य भार्या स्याद् यस्य चाद्भिः प्रदीयते।
इति देयं वदन्त्यत्र त एनं निश्चयं विदुः ॥ ५५ ॥
मूलम्
पाणिग्रहणमन्त्राणां निष्ठा स्यात् सप्तमे पदे।
पाणिग्रहस्य भार्या स्याद् यस्य चाद्भिः प्रदीयते।
इति देयं वदन्त्यत्र त एनं निश्चयं विदुः ॥ ५५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘सप्तपदीके सातवें पदमें पाणिग्रहणके मन्त्रोंकी सफलता होती है (और तभी पति-पत्नीभावका निश्चय होता है)। जिस पुरुषको जलसे संकल्प करके कन्याका दान दिया जाता है वही उसका पाणिग्रहीता पति होता है और उसीकी वह पत्नी मानी जाती है। विद्वान् पुरुष इसी प्रकार कन्यादानकी विधि बताते हैं। वे इसी निश्चयपर पहुँचे हुए हैं॥५५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अनुकूलामनुवंशां भ्रात्रा दत्तामुपाग्निकाम् ।
परिक्रम्य यथान्यायं भार्यां विन्देद् द्विजोत्तमः ॥ ५६ ॥
मूलम्
अनुकूलामनुवंशां भ्रात्रा दत्तामुपाग्निकाम् ।
परिक्रम्य यथान्यायं भार्यां विन्देद् द्विजोत्तमः ॥ ५६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘जो अनुकूल हो, अपने वंशके अनुरूप हो, अपने पिता-माता या भाईके द्वारा दी गयी हो और प्रज्वलित अग्निके समीप बैठी हो, ऐसी पत्नीको श्रेष्ठ द्विज अग्निकी परिक्रमा करके शास्त्रविधिके अनुसार ग्रहण करे॥५६॥
मूलम् (समाप्तिः)
इति श्रीमहाभारते अनुशासनपर्वणि दानधर्मपर्वणि विवाहधर्मकथने चतुश्चत्वारिंशोऽध्यायः ॥ ४४ ॥
मूलम् (वचनम्)
इस प्रकार श्रीमहाभारत अनुशासनपर्वके अन्तर्गत दानधर्मपर्वमें विवाहधर्मका वर्णनविषयक चौवालीसवाँ अध्याय पूरा हुआ॥४४॥
- भीष्मजी काशिराजकी तीन कन्याओंको हरकर लाये थे, उनमेंसे दोको एक श्रेणीमें रखकर एकवचनका प्रयोग किया गया है, यह मानना चाहिये; तभी आदिपर्व अध्याय १०२ के वर्णनकी संगति ठीक लग सकती है।
-
-स्मृतियोंमें निम्नलिखित आठ विवाह बतलाये गये हैं—ब्राह्म, दैव, आर्ष, प्राजापत्य, गान्धर्व, आसुर, राक्षस और पैशाच। किंतु यहाँ १ ब्राह्म, २ प्राजापत्य, ३ गान्धर्व, ४ आसुर और ५ राक्षस—इन्हीं पाँच विवाहोंका उल्लेख किया गया है; अतः यहाँ जो ब्राह्म विवाह है उसीमें स्मृतिकथित दैव और आर्ष विवाहोंका भी अन्तर्भाव समझना चाहिये। इसी प्रकार यहाँ बताये हुए राक्षस विवाहमें उपर्युक्त पैशाच विवाहका समावेश कर लेना चाहिये। प्राजापत्यको ही ‘क्षात्र’ विवाह भी कहा गया है। ↩︎
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-सापिण्ड्य निवृत्तिके सम्बन्धमें स्मृतिका वचन है—वध्वा वरस्य वा तातः कूटस्थाद् यदि सप्तमः। पंचमी चेत्तयोर्माता तत्सापिण्ड्यं निवर्तते॥ अर्थात् ‘यदि वर अथवा कन्याका पिता मूल पुरुषसे सातवीं पीढ़ीमें उत्पन्न हुआ है तथा माता पाँचवी पीढ़ीमें पैदा हुई है तो वर और कन्याके लिये सापिण्ड्यकी निवृत्ति हो जाती है।’ पिताकी ओरका सापिण्ड्य सात पीढ़ीतक चलता है और माताका सापिण्ड्य पाँच पीढ़ीतक। सात पीढ़ीमें एक तो पिण्ड देनेवाला होता है, तीन पिण्डभागी होते हैं और तीन लेपभागी होते हैं। ↩︎