०४३ विपुलोपाख्याने

भागसूचना

त्रिचत्वारिंशोऽध्यायः

सूचना (हिन्दी)

देवशर्माका विपुलको निर्दोष बताकर समझाना और भीष्मका युधिष्ठिरको स्त्रियोंकी रक्षाके लिये आदेश देना

मूलम् (वचनम्)

भीष्म उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

तमागतमभिप्रेक्ष्य शिष्यं वाक्यमथाब्रवीत् ।
देवशर्मा महातेजा यत् तत् शृणु जनाधिप ॥ १ ॥

मूलम्

तमागतमभिप्रेक्ष्य शिष्यं वाक्यमथाब्रवीत् ।
देवशर्मा महातेजा यत् तत् शृणु जनाधिप ॥ १ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

भीष्मजी कहते हैं— नरेश्वर! अपने शिष्य विपुलको आया हुआ देख महातेजस्वी देवशर्माने उनसे जो बात कही, वही बताता हूँ, सुनो॥१॥

मूलम् (वचनम्)

देवशर्मोवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

किं ते विपुल दृष्टं वै तस्मिन् शिष्य महावने।
ते त्वां जानन्ति विपुल आत्मा च रुचिरेव च॥२॥

मूलम्

किं ते विपुल दृष्टं वै तस्मिन् शिष्य महावने।
ते त्वां जानन्ति विपुल आत्मा च रुचिरेव च॥२॥

अनुवाद (हिन्दी)

देवशर्माने पूछा— मेरे प्रिय शिष्य विपुल! तुमने उस महान् वनमें क्या देखा था? वे लोग तो तुम्हें जानते हैं। उन्हें तुम्हारी अन्तरात्माका तथा मेरी पत्नी रुचिका भी पूरा परिचय प्राप्त है॥२॥

मूलम् (वचनम्)

विपुल उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

ब्रह्मर्षे मिथुनं किं तत् के च ते पुरुषा विभो।
ये मां जानन्ति तत्त्वेन यन्मां त्वं परिपृच्छसि ॥ ३ ॥

मूलम्

ब्रह्मर्षे मिथुनं किं तत् के च ते पुरुषा विभो।
ये मां जानन्ति तत्त्वेन यन्मां त्वं परिपृच्छसि ॥ ३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

विपुलने कहा— ब्रह्मर्षे! मैंने जिसे देखा था, वह स्त्री-पुरुषका जोड़ा कौन था? तथा वे छः पुरुष भी कौन थे जो मुझे अच्छी तरह जानते थे और जिनके विषयमें आप भी मुझसे पूछ रहे हैं?॥३॥

मूलम् (वचनम्)

देवशर्मोवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

यद् वै तन्मिथुनं ब्रह्मन्नहोरात्रं हि विद्धि तत्।
चक्रवत् परिवर्तेत तत् ते जानाति दुष्कृतम् ॥ ४ ॥
ये च ते पुरुषा विप्र अक्षैर्दीव्यन्ति हृष्टवत्।
ऋतूंस्तानभिजानीहि ते ते जानन्ति दुष्कृतम् ॥ ५ ॥

मूलम्

यद् वै तन्मिथुनं ब्रह्मन्नहोरात्रं हि विद्धि तत्।
चक्रवत् परिवर्तेत तत् ते जानाति दुष्कृतम् ॥ ४ ॥
ये च ते पुरुषा विप्र अक्षैर्दीव्यन्ति हृष्टवत्।
ऋतूंस्तानभिजानीहि ते ते जानन्ति दुष्कृतम् ॥ ५ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

देवशर्माने कहा— ब्रह्मन्! तुमने जो स्त्री-पुरुषका जोड़ा देखा था उसे दिन और रात्रि समझो। वे दोनों चक्रवत् घूमते रहते हैं, अतः उन्हें तुम्हारे पापका पता है। विप्रवर! तथा जो अत्यन्त हर्षमें भरकर जूआ खेलते हुए छः पुरुष दिखायी दिये उन्हें छः ऋतु जानो; वे भी तुम्हारे पापको जानते हैं॥४-५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

न मां कश्चिद्‌ विजानीत इति कृत्वा न विश्वसेत्।
नरो रहसि पापात्मा पापकं कर्म वै द्विज ॥ ६ ॥

मूलम्

न मां कश्चिद्‌ विजानीत इति कृत्वा न विश्वसेत्।
नरो रहसि पापात्मा पापकं कर्म वै द्विज ॥ ६ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

ब्रह्मन्! पापात्मा मनुष्य एकान्तमें पापकर्म करके ऐसा विश्वास न करे कि कोई मुझे इस पापकर्ममें लिप्त नहीं जानता है॥६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

कुर्वाणं हि नरं कर्म पापं रहसि सर्वदा।
पश्यन्ति ऋतवश्चापि तथा दिननिशेऽप्युत ॥ ७ ॥

मूलम्

कुर्वाणं हि नरं कर्म पापं रहसि सर्वदा।
पश्यन्ति ऋतवश्चापि तथा दिननिशेऽप्युत ॥ ७ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

एकान्तमें पापकर्म करते हुए पुरुषको ऋतुएँ तथा रात-दिन सदा देखते रहते हैं॥७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तथैव हि भवेयुस्ते लोकाः पापकृतो यथा।
कृत्वा नाचक्षतः कर्म मम तच्च यथाकृतम् ॥ ८ ॥

मूलम्

तथैव हि भवेयुस्ते लोकाः पापकृतो यथा।
कृत्वा नाचक्षतः कर्म मम तच्च यथाकृतम् ॥ ८ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

तुमने मेरी स्त्रीकी रक्षा करते समय जिस प्रकार वह पापकर्म किया था, उसे करके भी मुझे बताया नहीं था; अतः तुम्हें वे ही पापाचारियोंके लोक मिल सकते थे॥८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

ते त्वां हर्षस्मितं दृष्ट्वा गुरोः कर्मानिवेदकम्।
स्मारयन्तस्तथा प्राहुस्ते यथा श्रुतवान् भवान् ॥ ९ ॥

मूलम्

ते त्वां हर्षस्मितं दृष्ट्वा गुरोः कर्मानिवेदकम्।
स्मारयन्तस्तथा प्राहुस्ते यथा श्रुतवान् भवान् ॥ ९ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

गुरुको अपना पापकर्म न बताकर हर्ष और अभिमानमें भरा देख वे पुरुष तुम्हें अपने कर्मकी याद दिलाते हुए वैसी बातें बोल रहे थे, जिन्हें तुमने अपने कानों सुना है॥९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अहोरात्रं विजानाति ऋतवश्चापि नित्यशः।
पुरुषे पापकं कर्म शुभं वा शुभकर्मिणः ॥ १० ॥

मूलम्

अहोरात्रं विजानाति ऋतवश्चापि नित्यशः।
पुरुषे पापकं कर्म शुभं वा शुभकर्मिणः ॥ १० ॥

अनुवाद (हिन्दी)

पापीमें जो पापकर्म है और शुभकर्मी मनुष्यमें जो शुभकर्म है, उन सबको दिन, रात और ऋतुएँ सदा जानती रहती हैं॥१०॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तत् त्वया मम यत्‌ कर्म व्यभिचाराद् भयात्मकम्।
नाख्यातमिति जानन्तस्ते त्वामाहुस्तथा द्विज ॥ ११ ॥

मूलम्

तत् त्वया मम यत्‌ कर्म व्यभिचाराद् भयात्मकम्।
नाख्यातमिति जानन्तस्ते त्वामाहुस्तथा द्विज ॥ ११ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

ब्रह्मन्! तुमने मुझसे अपना वह कर्म नहीं बताया जो व्यभिचार-दोषके कारण भयरूप था। वे जानते थे, इसलिये उन्होंने तुम्हें बता दिया॥११॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तेनैव हि भवेयुस्ते लोकाः पापकृतो यथा।
कृत्वा नाचक्षतः कर्म मम यच्च त्वया कृतम् ॥ १२ ॥

मूलम्

तेनैव हि भवेयुस्ते लोकाः पापकृतो यथा।
कृत्वा नाचक्षतः कर्म मम यच्च त्वया कृतम् ॥ १२ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

पापकर्म करके न बतानेवाले पुरुषको, जैसा कि तुमने मेरे साथ किया है, वे ही पापाचारियोंके लोक प्राप्त होते हैं॥१२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

त्वयाशक्या च दुर्वृत्त्या रक्षितुं प्रमदा द्विज।
न च त्वं कृतवान् किंचिदतः प्रीतोऽस्मि तेन ते॥१३॥

मूलम्

त्वयाशक्या च दुर्वृत्त्या रक्षितुं प्रमदा द्विज।
न च त्वं कृतवान् किंचिदतः प्रीतोऽस्मि तेन ते॥१३॥

अनुवाद (हिन्दी)

ब्रह्मन्! यौवनमदसे उन्मत्त रहनेवाली उस स्त्रीकी (उसके शरीरमें प्रवेश किये बिना) रक्षा करना तुम्हारे वशकी बात नहीं थी। अतः तुमने अपनी ओरसे कोई पाप नहीं किया; इसलिये मैं तुमपर प्रसन्न हूँ॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

(मनोदोषविहीनानां न दोषः स्यात् तथा तव।
अन्यथाऽऽलिङ्ग्यते कान्ता स्नेहेन दुहितान्यथा॥

मूलम्

(मनोदोषविहीनानां न दोषः स्यात् तथा तव।
अन्यथाऽऽलिङ्ग्यते कान्ता स्नेहेन दुहितान्यथा॥

अनुवाद (हिन्दी)

जो मानसिक दोषसे रहित हैं उन्हें पाप नहीं लगता। यही बात तुम्हारे लिये भी हुई है। अपनी प्राणवल्लभा पत्नीका आलिंगन और भावसे किया जाता है और अपनी पुत्रीका और भावसे; अर्थात् उसे वात्सल्यस्नेहसे गले लगाया जाता है॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

निष्कषायो विशुद्धस्त्वं रुच्यावेशान्न दूषितः।)

मूलम्

निष्कषायो विशुद्धस्त्वं रुच्यावेशान्न दूषितः।)

अनुवाद (हिन्दी)

तुम्हारे मनमें राग नहीं है। तुम सर्वथा विशुद्ध हो, इसलिये रुचिके शरीरमें प्रवेश करके भी दूषित नहीं हुए हो॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

यदि त्वहं त्वां दुर्वृत्तमद्राक्षं द्विजसत्तम।
शपेयं त्वामहं क्रोधान्न मेऽत्रास्ति विचारणा ॥ १४ ॥

मूलम्

यदि त्वहं त्वां दुर्वृत्तमद्राक्षं द्विजसत्तम।
शपेयं त्वामहं क्रोधान्न मेऽत्रास्ति विचारणा ॥ १४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

द्विजश्रेष्ठ! यदि मैं इस कर्ममें तुम्हारा दुराचार देखता तो कुपित होकर तुम्हें शाप दे देता और ऐसा करके मेरे मनमें कोई अन्यथा विचार या पश्चात्ताप नहीं होता॥१४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

सज्जन्ति पुरुषे नार्यः पुंसां सोऽर्थश्च पुष्कलः।
अन्यथारक्षतः शापोऽभविष्यत् ते मतिश्च मे ॥ १५ ॥

मूलम्

सज्जन्ति पुरुषे नार्यः पुंसां सोऽर्थश्च पुष्कलः।
अन्यथारक्षतः शापोऽभविष्यत् ते मतिश्च मे ॥ १५ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

स्त्रियाँ पुरुषमें आसक्त होती हैं और पुरुषोंका भी इसमें पूर्णतः वैसा ही भाव होता है। यदि तुम्हारा भाव उसकी रक्षा करनेके विपरीत होता तो तुम्हें शाप अवश्य प्राप्त होता और मेरा विचार तुम्हें शाप देनेका अवश्य हो जाता॥१५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

रक्षिता च त्वया पुत्र मम चापि निवेदिता।
अहं ते प्रीतिमांस्तात स्वस्थः स्वर्गं गमिष्यसि ॥ १६ ॥

मूलम्

रक्षिता च त्वया पुत्र मम चापि निवेदिता।
अहं ते प्रीतिमांस्तात स्वस्थः स्वर्गं गमिष्यसि ॥ १६ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

बेटा! तुमने यथाशक्ति मेरी स्त्रीकी रक्षा की है और यह बात मुझे बतायी है, अतः मैं तुमपर बहुत प्रसन्न हूँ। तात! तुम स्वस्थ रहकर स्वर्गलोकमें जाओगे॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

इत्युक्त्वा विपुलं प्रीतो देवशर्मा महानृषिः।
मुमोद स्वर्गमास्थाय सहभार्यः सशिष्यकः ॥ १७ ॥

मूलम्

इत्युक्त्वा विपुलं प्रीतो देवशर्मा महानृषिः।
मुमोद स्वर्गमास्थाय सहभार्यः सशिष्यकः ॥ १७ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

विपुलसे ऐसा कहकर प्रसन्न हुए महर्षि देवशर्मा अपनी पत्नी और शिष्यके साथ स्वर्गमें जाकर वहाँका सुख भोगने लगे॥१७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

इदमाख्यातवांश्चापि ममाख्यानं महामुनिः ।
मार्कण्डेयः पुरा राजन् गङ्गाकूले कथान्तरे ॥ १८ ॥

मूलम्

इदमाख्यातवांश्चापि ममाख्यानं महामुनिः ।
मार्कण्डेयः पुरा राजन् गङ्गाकूले कथान्तरे ॥ १८ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

राजन्! पूर्वकालमें गंगाके तटपर कथा-वार्ताके बीचमें ही महामुनि मार्कण्डेयने मुझे यह आख्यान सुनाया था॥१८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तस्माद् ब्रवीमि पार्थ त्वां स्त्रियो रक्ष्याः सदैव च।
उभयं दृश्यते तासु सततं साध्वसाधु च ॥ १९ ॥

मूलम्

तस्माद् ब्रवीमि पार्थ त्वां स्त्रियो रक्ष्याः सदैव च।
उभयं दृश्यते तासु सततं साध्वसाधु च ॥ १९ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

अतः कुन्तीनन्दन! मैं तुमसे कहता हूँ कि तुम्हें स्त्रियोंकी सदा ही रक्षा करनी चाहिये। स्त्रियोंमें भली और बुरी दोनों बातें हमेशा देखी जाती हैं॥१९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

स्त्रियः साध्व्यो महाभागाः सम्मता लोकमातरः।
धारयन्ति महीं राजन्निमां सवनकाननाम् ॥ २० ॥

मूलम्

स्त्रियः साध्व्यो महाभागाः सम्मता लोकमातरः।
धारयन्ति महीं राजन्निमां सवनकाननाम् ॥ २० ॥

अनुवाद (हिन्दी)

राजन्! यदि स्त्रियाँ साध्वी एवं पतिव्रता हों तो बड़ी सौभाग्यशालिनी होती हैं। संसारमें उनका आदर होता है और वे सम्पूर्ण जगत्‌की माता समझी जाती हैं। इतना ही नहीं, वे अपने पातिव्रत्यके प्रभावसे वन और काननोंसहित इस सम्पूर्ण पृथ्वीको धारण करती हैं॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

असाध्व्यश्चापि दुर्वृत्ताः कुलघ्नाः पापनिश्चयाः।
विज्ञेया लक्षणैर्दुष्टैः स्वगात्रसहजैर्नृप ॥ २१ ॥

मूलम्

असाध्व्यश्चापि दुर्वृत्ताः कुलघ्नाः पापनिश्चयाः।
विज्ञेया लक्षणैर्दुष्टैः स्वगात्रसहजैर्नृप ॥ २१ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

किंतु दुराचारिणी असती स्त्रियाँ कुलका नाश करनेवाली होती हैं, उनके मनमें सदा पाप ही बसता है। नरेश्वर! फिर ऐसी स्त्रियोंको उनके शरीरके साथ ही उत्पन्न हुए बुरे लक्षणोंसे पहचाना जा सकता है॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

एवमेतासु रक्षा वै शक्या कर्तुं महात्मभिः।
अन्यथा राजशार्दूल न शक्या रक्षितुं स्त्रियः ॥ २२ ॥

मूलम्

एवमेतासु रक्षा वै शक्या कर्तुं महात्मभिः।
अन्यथा राजशार्दूल न शक्या रक्षितुं स्त्रियः ॥ २२ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

नृपश्रेष्ठ! महामनस्वी पुरुषोंद्वारा ही ऐसी स्त्रियोंकी इस प्रकार रक्षा की जा सकती है; अन्यथा स्त्रियोंकी रक्षा असम्भव है॥२२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

एता हि मनुजव्याघ्र तीक्ष्णास्तीक्ष्णपराक्रमाः।
नासामस्ति प्रियो नाम मैथुने सङ्गमेति यः ॥ २३ ॥

मूलम्

एता हि मनुजव्याघ्र तीक्ष्णास्तीक्ष्णपराक्रमाः।
नासामस्ति प्रियो नाम मैथुने सङ्गमेति यः ॥ २३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

पुरुषसिंह! ये स्त्रियाँ तीखे स्वभावकी तथा दुस्सह शक्तिवाली होती हैं। कोई भी पुरुष इनका प्रिय नहीं है। मैथुनकालमें जो इनका साथ देता है वही उतने ही समयके लिये प्रिय होता है॥२३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

एताः कृत्याश्च कार्याश्च कृताश्च भरतर्षभ।
न चैकस्मिन् रमन्त्येताः पुरुषे पाण्डुनन्दन ॥ २४ ॥

मूलम्

एताः कृत्याश्च कार्याश्च कृताश्च भरतर्षभ।
न चैकस्मिन् रमन्त्येताः पुरुषे पाण्डुनन्दन ॥ २४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

भरतश्रेष्ठ! पाण्डुनन्दन! ये स्त्रियाँ कृत्याओंके समान मनुष्योंके प्राण लेनेवाली होती हैं। उन्हें जब पहले पुरुष स्वीकार कर लेता है तब आगे चलकर वे दूसरेके स्वीकार करने योग्य भी बन जाती हैं, अर्थात् व्यभिचारदोषके कारण एक पुरुषको छोड़कर दूसरेपर आसक्त हो जाती हैं। किसी एक ही पुरुषमें इनका सदा अनुराग नहीं बना रहता॥२४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

नासां स्नेहो नरैः कार्यस्तथैवेर्ष्या जनेश्वर।
खेदमास्थाय भुञ्जीत धर्ममास्थाय चैव ह ॥ २५ ॥
(अनृताविह पर्वादिदोषवर्जं नराधिप ।)

मूलम्

नासां स्नेहो नरैः कार्यस्तथैवेर्ष्या जनेश्वर।
खेदमास्थाय भुञ्जीत धर्ममास्थाय चैव ह ॥ २५ ॥
(अनृताविह पर्वादिदोषवर्जं नराधिप ।)

अनुवाद (हिन्दी)

नरेश्वर! मनुष्योंको स्त्रियोंके प्रति न तो विशेष आसक्त होना चाहिये और न उनसे ईर्ष्या ही करनी चाहिये। वैराग्यपूर्वक धर्मका आश्रय लेकर पर्व आदि दोषका त्याग करते हुए ऋतुस्नानके पश्चात् उनका उपभोग करना चाहिये॥२५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

निहन्यादन्यथाकुर्वन् नरः कौरवनन्दन ।
सर्वथा राजशार्दूल मुक्तिः सर्वत्र पूज्यते ॥ २६ ॥

मूलम्

निहन्यादन्यथाकुर्वन् नरः कौरवनन्दन ।
सर्वथा राजशार्दूल मुक्तिः सर्वत्र पूज्यते ॥ २६ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

कौरवनन्दन! इसके विपरीत बर्ताव करनेवाला मनुष्य विनाशको प्राप्त होता है। नृपश्रेष्ठ! सर्वत्र सब प्रकारसे मोक्षका ही सम्मान किया जाता है॥२६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तेनैकेन तु रक्षा वै विपुलेन कृता स्त्रियाः।
नान्यः शक्तस्त्रिलोकेऽस्मिन् रक्षितुं नृप योषितम् ॥ २७ ॥

मूलम्

तेनैकेन तु रक्षा वै विपुलेन कृता स्त्रियाः।
नान्यः शक्तस्त्रिलोकेऽस्मिन् रक्षितुं नृप योषितम् ॥ २७ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

नरेश्वर! एकमात्र विपुलने ही स्त्रीकी रक्षा की थी। इस त्रिलोकीमें दूसरा कोई ऐसा पुरुष नहीं है जो युवती स्त्रियोंकी इस प्रकार रक्षा कर सके॥२७॥

मूलम् (समाप्तिः)

इति श्रीमहाभारते अनुशासनपर्वणि दानधर्मपर्वणि विपुलोपाख्याने त्रिचत्वारिंशोऽध्यायः ॥ ४३ ॥

मूलम् (वचनम्)

इस प्रकार श्रीमहाभारत अनुशासनपर्वके अन्तर्गत दानधर्मपर्वमें विपुलका उपाख्यानविषयक तैंतालीसवाँ अध्याय पूरा हुआ॥४३॥

सूचना (हिन्दी)

(दाक्षिणात्य अधिक पाठके २ श्लोक मिलाकर कुल २९ श्लोक हैं)