०४२ विपुलोपाख्याने

भागसूचना

द्विचत्वारिंशोऽध्यायः

सूचना (हिन्दी)

विपुलका गुरुकी आज्ञासे दिव्य पुष्प लाकर उन्हें देना और अपने द्वारा किये गये दुष्कर्मका स्मरण करना

मूलम् (वचनम्)

भीष्म उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

विपुलस्त्वकरोत् तीव्रं तपः कृत्वा गुरोर्वचः।
तपोयुक्तमथात्मानममन्यत स वीर्यवान् ॥ १ ॥

मूलम्

विपुलस्त्वकरोत् तीव्रं तपः कृत्वा गुरोर्वचः।
तपोयुक्तमथात्मानममन्यत स वीर्यवान् ॥ १ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

भीष्मजी कहते हैं— राजन्! विपुलने गुरुकी आज्ञाका पालन करके बड़ी कठोर तपस्या की। इससे उनकी शक्ति बहुत बढ़ गयी और वे अपनेको बड़ा भारी तपस्वी मानने लगे॥१॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

स तेन कर्मणा स्पर्धन् पृथिवीं पृथिवीपते।
चचार गतभीः प्रीतो लब्धकीर्तिवरो नृप ॥ २ ॥

मूलम्

स तेन कर्मणा स्पर्धन् पृथिवीं पृथिवीपते।
चचार गतभीः प्रीतो लब्धकीर्तिवरो नृप ॥ २ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

पृथ्वीनाथ! विपुल उस तपस्याद्वारा मन-ही-मन गर्वका अनुभव करके दूसरोंसे स्पर्धा रखने लगे। नरेश्वर! उन्हें गुरुसे कीर्ति और वरदान दोनों प्राप्त हो चुके थे; अतः वे निर्भय एवं संतुष्ट होकर पृथ्वीपर विचरने लगे॥२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

उभौ लोकौ जितौ चापि तथैवामन्यत प्रभुः।
कर्मणा तेन कौरव्य तपसा विपुलेन च ॥ ३ ॥

मूलम्

उभौ लोकौ जितौ चापि तथैवामन्यत प्रभुः।
कर्मणा तेन कौरव्य तपसा विपुलेन च ॥ ३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

कुरुनन्दन! शक्तिशाली विपुल उस गुरुपत्नी-संरक्षणरूपी कर्म तथा प्रचुर तपस्याद्वारा ऐसा समझने लगे कि मैंने दोनों लोक जीत लिये॥३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अथ काले व्यतिक्रान्ते कस्मिंश्चित् कुरुनन्दन।
रुच्या भगिन्या आदानं प्रभूतधनधान्यवत् ॥ ४ ॥

मूलम्

अथ काले व्यतिक्रान्ते कस्मिंश्चित् कुरुनन्दन।
रुच्या भगिन्या आदानं प्रभूतधनधान्यवत् ॥ ४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

कुरुकुलको आनन्दित करनेवाले युधिष्ठिर! तदनन्तर कुछ समय बीत जानेपर गुरुपत्नी रुचिकी बड़ी बहिनके यहाँ विवाहोत्सवका अवसर उपस्थित हुआ, जिसमें प्रचुर धन-धान्यका व्यय होनेवाला था॥४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

एतस्मिन्नेव काले तु दिव्या काचिद् वराङ्गना।
बिभ्रती परमं रूपं जगामाथ विहायसा ॥ ५ ॥

मूलम्

एतस्मिन्नेव काले तु दिव्या काचिद् वराङ्गना।
बिभ्रती परमं रूपं जगामाथ विहायसा ॥ ५ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

उन्हीं दिनों एक दिव्य लोककी सुन्दरी दिव्यांगना परम मनोहर रूप धारण किये आकाशमार्गसे कहीं जा रही थी॥५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तस्याः शरीरात् पुष्पाणि पतितानि महीतले।
तस्याश्रमस्याविदूरे दिव्यगन्धानि भारत ॥ ६ ॥

मूलम्

तस्याः शरीरात् पुष्पाणि पतितानि महीतले।
तस्याश्रमस्याविदूरे दिव्यगन्धानि भारत ॥ ६ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

भारत! उसके शरीरसे कुछ दिव्य पुष्प, जिनसे दिव्य सुगन्ध फैल रही थी, देवशर्माके आश्रमके पास ही पृथ्वीपर गिरे॥६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तान्यगृह्णात् ततो राजन् रुचिर्ललितलोचना।
तदा निमन्त्रकस्तस्या अङ्गेभ्यः क्षिप्रमागमत् ॥ ७ ॥

मूलम्

तान्यगृह्णात् ततो राजन् रुचिर्ललितलोचना।
तदा निमन्त्रकस्तस्या अङ्गेभ्यः क्षिप्रमागमत् ॥ ७ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

राजन्! तब मनोहर नेत्रोंवाली रुचिने वे फूल ले लिये। इतनेमें ही अंगदेशसे उसका शीघ्र ही बुलावा आ गया॥७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तस्या हि भगिनी तात ज्येष्ठा नाम्ना प्रभावती।
भार्या चित्ररथस्याथ बभूवाङ्गेश्वरस्य वै ॥ ८ ॥

मूलम्

तस्या हि भगिनी तात ज्येष्ठा नाम्ना प्रभावती।
भार्या चित्ररथस्याथ बभूवाङ्गेश्वरस्य वै ॥ ८ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

तात! रुचिकी बड़ी बहिन, जिसका नाम प्रभावती था, अंगराज चित्ररथको ब्याही गयी थी॥८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

पिनह्य तानि पुष्पाणि केशेषु वरवर्णिनी।
आमन्त्रिता ततोऽगच्छद् रुचिरङ्गपतेर्गृहम् ॥ ९ ॥

मूलम्

पिनह्य तानि पुष्पाणि केशेषु वरवर्णिनी।
आमन्त्रिता ततोऽगच्छद् रुचिरङ्गपतेर्गृहम् ॥ ९ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

उन दिव्य फूलोंको अपने केशोंमें गूँथकर सुन्दरी रुचि अंगराजके घर आमन्त्रित होकर गयी॥९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

पुष्पाणि तानि दृष्ट्वा तु तदाङ्गेन्द्रवराङ्गना।
भगिनीं चोदयामास पुष्पार्थे चारुलोचना ॥ १० ॥

मूलम्

पुष्पाणि तानि दृष्ट्वा तु तदाङ्गेन्द्रवराङ्गना।
भगिनीं चोदयामास पुष्पार्थे चारुलोचना ॥ १० ॥

अनुवाद (हिन्दी)

उस समय सुन्दर नेत्रोंवाली अंगराजकी सुन्दरी रानी प्रभावतीने उन फूलोंको देखकर अपनी बहिनसे वैसे ही फूल मँगवा देनेका अनुरोध किया॥१०॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

सा भर्त्रे सर्वमाचष्ट रुचिः सुरुचिरानना।
भगिन्या भाषितं सर्वमृषिस्तच्चाभ्यनन्दत ॥ ११ ॥

मूलम्

सा भर्त्रे सर्वमाचष्ट रुचिः सुरुचिरानना।
भगिन्या भाषितं सर्वमृषिस्तच्चाभ्यनन्दत ॥ ११ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

आश्रममें लौटनेपर सुन्दर मुखवाली रुचिने बहिनकी कही हुई सारी बातें अपने स्वामीसे कह सुनायी। सुनकर ऋषिने उसकी प्रार्थना स्वीकार कर ली॥११॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

ततो विपुलमानाय्य देवशर्मा महातपाः।
पुष्पार्थे चोदयामास गच्छ गच्छेति भारत ॥ १२ ॥

मूलम्

ततो विपुलमानाय्य देवशर्मा महातपाः।
पुष्पार्थे चोदयामास गच्छ गच्छेति भारत ॥ १२ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

भारत! तब महा तपस्वी देवशर्माने विपुलको बुलवाकर उन्हें फूल लानेके लिये आदेश दिया और कहा, ‘जाओ, जाओ’॥१२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

विपुलस्तु गुरोर्वाक्यमविचार्य महातपाः ।
स तथेत्यब्रवीद् राजंस्तं च देशं जगाम ह ॥ १३ ॥
यस्मिन्‌ देशे तु तान्यासन् पतितानि नभस्तलात्।
अम्लानान्यपि तत्रासन् कुसुमान्यपराण्यपि ॥ १४ ॥

मूलम्

विपुलस्तु गुरोर्वाक्यमविचार्य महातपाः ।
स तथेत्यब्रवीद् राजंस्तं च देशं जगाम ह ॥ १३ ॥
यस्मिन्‌ देशे तु तान्यासन् पतितानि नभस्तलात्।
अम्लानान्यपि तत्रासन् कुसुमान्यपराण्यपि ॥ १४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

राजन्! गुरुकी आज्ञा पाकर महा तपस्वी विपुल उसपर कोई अन्यथा विचार न करके ‘बहुत अच्छा’ कहते हुए उस स्थानकी ओर चल दिये जहाँ आकाशसे वे फूल गिरे थे। वहाँ और भी बहुत-से फूल पड़े हुए थे, जो कुम्हलाये नहीं थे॥१३-१४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

स ततस्तानि जग्राह दिव्यानि रुचिराणि च।
प्राप्तानि स्वेन तपसा दिव्यगन्धानि भारत ॥ १५ ॥

मूलम्

स ततस्तानि जग्राह दिव्यानि रुचिराणि च।
प्राप्तानि स्वेन तपसा दिव्यगन्धानि भारत ॥ १५ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

भारत! तदनन्तर अपने तपसे प्राप्त हुए उन दिव्य सुगन्धसे युक्त मनोहर दिव्य पुष्पोंको विपुलने उठा लिया॥१५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

सम्प्राप्य तानि प्रीतात्मा गुरोर्वचनकारकः।
तदा जगाम तूर्णं च चम्पां चम्पकमालिनीम् ॥ १६ ॥

मूलम्

सम्प्राप्य तानि प्रीतात्मा गुरोर्वचनकारकः।
तदा जगाम तूर्णं च चम्पां चम्पकमालिनीम् ॥ १६ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

गुरुकी आज्ञाका पालन करनेवाले विपुल उन फूलोंको पाकर मन-ही-मन बड़े प्रसन्न हुए और तुरंत ही चम्पाके वृक्षोंसे घिरी हुई चम्पा नगरीकी ओर चल दिये॥१६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

स वने निर्जने तात ददर्श मिथुनं नृणाम्।
चक्रवत् परिवर्तन्तं गृहीत्वा पाणिना करम् ॥ १७ ॥

मूलम्

स वने निर्जने तात ददर्श मिथुनं नृणाम्।
चक्रवत् परिवर्तन्तं गृहीत्वा पाणिना करम् ॥ १७ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

तात! एक निर्जन वनमें आनेपर उन्होंने स्त्री-पुरुषके एक जोड़ेको देखा, जो एक-दूसरेका हाथ पकड़कर कुम्हारके चाकके समान घूम रहे थे॥१७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तत्रैकस्तूर्णमगमत् तत्पदे च विवर्तयन्।
एकस्तु न तदा राजंश्चक्रतुः कलहं ततः ॥ १८ ॥

मूलम्

तत्रैकस्तूर्णमगमत् तत्पदे च विवर्तयन्।
एकस्तु न तदा राजंश्चक्रतुः कलहं ततः ॥ १८ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

राजन्! उनमेंसे एकने अपनी चाल तेज कर दी और दूसरेने वैसा नहीं किया। इसपर दोनों आपसमें झगड़ने लगे॥१८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

त्वं शीघ्रं गच्छसीत्येकोऽब्रवीन्नेति तथा परः।
नेति नेति च तौ राजन् परस्परमथोचतुः ॥ १९ ॥

मूलम्

त्वं शीघ्रं गच्छसीत्येकोऽब्रवीन्नेति तथा परः।
नेति नेति च तौ राजन् परस्परमथोचतुः ॥ १९ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

नरेश्वर! एकने कहा—‘तुम जल्दी-जल्दी चलते हो।’ दूसरेने कहा, ‘नहीं।’ इस प्रकार दोनों एक-दूसरेपर दोषारोपण करते हुए एक-दूसरेको ‘नहीं-नहीं’ कह रहे थे॥१९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तयोर्विस्पर्धतोरेवं शपथोऽयमभूत् तदा ।
सहसोद्दिश्य विपुलं ततो वाक्यमथोचतुः ॥ २० ॥

मूलम्

तयोर्विस्पर्धतोरेवं शपथोऽयमभूत् तदा ।
सहसोद्दिश्य विपुलं ततो वाक्यमथोचतुः ॥ २० ॥

अनुवाद (हिन्दी)

इस प्रकार एक-दूसरेसे स्पर्धा रखते हुए उन दोनोंमें शपथ खानेकी नौबत आ गयी। फिर तो सहसा विपुलको लक्ष्य करके वे दोनों इस प्रकार बोले—॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

आवयोरनृतं प्राह यस्तस्याभूद् द्विजस्य वै।
विपुलस्य परे लोके या गतिः सा भवेदिति ॥ २१ ॥

मूलम्

आवयोरनृतं प्राह यस्तस्याभूद् द्विजस्य वै।
विपुलस्य परे लोके या गतिः सा भवेदिति ॥ २१ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘हमलोगोंमेंसे जो भी झूठ बोलता है उसकी वही गति होगी जो परलोकमें ब्राह्मण विपुलके लिये नियत हुई है’॥२१॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

एतत् श्रुत्वा तु विपुलो विषण्णवदनोऽभवत्।
एवं तीव्रतपाश्चाहं कष्टश्चायं परिश्रमः ॥ २२ ॥

मूलम्

एतत् श्रुत्वा तु विपुलो विषण्णवदनोऽभवत्।
एवं तीव्रतपाश्चाहं कष्टश्चायं परिश्रमः ॥ २२ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

यह सुनकर विपुलके मुँहपर विषाद छा गया। ‘मैं ऐसी कठोर तपस्या करनेवाला हूँ तो भी मेरी दुर्गति होगी। तब तो तपस्या करनेका वह घोर परिश्रम कष्टदायक ही सिद्ध हुआ॥२२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

मिथुनस्यास्य किं मे स्यात् कृतं पापं यथा गतिः।
अनिष्टा सर्वभूतानां कीर्तितानेन मेऽद्य वै ॥ २३ ॥

मूलम्

मिथुनस्यास्य किं मे स्यात् कृतं पापं यथा गतिः।
अनिष्टा सर्वभूतानां कीर्तितानेन मेऽद्य वै ॥ २३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘मेरा ऐसा कौन-सा पाप है जिसके अनुसार मेरी वह दुर्गति होगी जो समस्त प्राणियोंके लिये अनिष्ट है एवं इस स्त्री-पुरुषके जोड़ेको मिलनेवाली है, जिसका इन्होंने आज मेरे समक्ष वर्णन किया है’॥२३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

एवं संचिन्तयन्नेव विपुलो राजसत्तम।
अवाङ्‌मुखो दीनमना दध्यौ दुष्कृतमात्मनः ॥ २४ ॥

मूलम्

एवं संचिन्तयन्नेव विपुलो राजसत्तम।
अवाङ्‌मुखो दीनमना दध्यौ दुष्कृतमात्मनः ॥ २४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

नृपश्रेष्ठ! ऐसा सोचते हुए ही विपुल नीचे मुँह किये दीनचित्त हो अपने दुष्कर्मका स्मरण करने लगे॥२४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

ततः षडन्यान् पुरुषानक्षैः काञ्चनराजतैः।
अपश्यद्‌ दीव्यमानान् वै लोभहर्षान्वितांस्तथा ॥ २५ ॥
कुर्वतः शपथं तेन यः कृतो मिथुनेन तु।
विपुलं वै समुद्दिश्य तेऽपि वाक्यमथाब्रुवन् ॥ २६ ॥

मूलम्

ततः षडन्यान् पुरुषानक्षैः काञ्चनराजतैः।
अपश्यद्‌ दीव्यमानान् वै लोभहर्षान्वितांस्तथा ॥ २५ ॥
कुर्वतः शपथं तेन यः कृतो मिथुनेन तु।
विपुलं वै समुद्दिश्य तेऽपि वाक्यमथाब्रुवन् ॥ २६ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

तदनन्तर विपुलको दूसरे छः पुरुष दिखायी पड़े, जो सोने-चाँदीके पासे लेकर जूआ खेल रहे थे और लोभ तथा हर्षमें भरे हुए थे। वे भी वही शपथ कर रहे थे जो पहले स्त्री-पुरुषके जोड़ेने की थी। उन्होंने विपुलको लक्ष्य करके कहा—॥२५-२६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

लोभमास्थाय योऽस्माकं विषमं कर्तुमुत्सहेत्।
विपुलस्य परे लोके या गतिस्तामवाप्नुयात् ॥ २७ ॥

मूलम्

लोभमास्थाय योऽस्माकं विषमं कर्तुमुत्सहेत्।
विपुलस्य परे लोके या गतिस्तामवाप्नुयात् ॥ २७ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘हमलोगोंमेंसे जो लोभका आश्रय लेकर बेईमानी करनेका साहस करेगा, उसको वही गति मिलेगी, जो परलोकमें विपुलको मिलनेवाली है—॥२७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

एतत् श्रुत्वा तु विपुलो नापश्यद् धर्मसंकरम्।
जन्मप्रभृति कौरव्य कृतपूर्वमथात्मनः ॥ २८ ॥

मूलम्

एतत् श्रुत्वा तु विपुलो नापश्यद् धर्मसंकरम्।
जन्मप्रभृति कौरव्य कृतपूर्वमथात्मनः ॥ २८ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

कुरुनन्दन! यह सुनकर विपुलने जन्मसे लेकर वर्तमान समयतकके अपने समस्त कर्मोंका स्मरण किया; किंतु कभी कोई धर्मके साथ पापका मिश्रण हुआ हो, ऐसा नहीं दिखायी दिया॥२८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

सम्प्रदध्यौ तथा राजन्नग्नावग्निरिवाहितः ।
दह्यमानेन मनसा शापं श्रुत्वा तथाविधम् ॥ २९ ॥

मूलम्

सम्प्रदध्यौ तथा राजन्नग्नावग्निरिवाहितः ।
दह्यमानेन मनसा शापं श्रुत्वा तथाविधम् ॥ २९ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

राजन्! परंतु अपने विषयमें वैसा शाप सुनकर जैसे एक आगमें दूसरी आग रख दी गयी हो और उसकी ज्वाला और भी बढ़ गयी हो, उसी प्रकार विपुलका हृदय शोकाग्निसे दग्ध होने लगा और उसी अवस्थामें वे पुनःअपने कार्योंपर विचार करने लगे॥२९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तस्य चिन्तयतस्तात वह्‌व्यो दिननिशा ययुः।
इदमासीन्मनसि स रुच्या रक्षणकारितम् ॥ ३० ॥

मूलम्

तस्य चिन्तयतस्तात वह्‌व्यो दिननिशा ययुः।
इदमासीन्मनसि स रुच्या रक्षणकारितम् ॥ ३० ॥

अनुवाद (हिन्दी)

तात! इस प्रकार चिन्ता करते हुए उनके कई दिन और कई रातें बीत गयीं। तब गुरुपत्नी रुचिकी रक्षाके कारण उनके मनमें ऐसा विचार उठा—॥३०॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

लक्षणं लक्षणेनैव वदनं वदनेन च।
विधाय न मया चोक्तं सत्यमेतद् गुरोस्तथा ॥ ३१ ॥

मूलम्

लक्षणं लक्षणेनैव वदनं वदनेन च।
विधाय न मया चोक्तं सत्यमेतद् गुरोस्तथा ॥ ३१ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘मैंने जब गुरुपत्नीकी रक्षाके लिये उनके शरीरमें सूक्ष्मरूपसे प्रवेश किया था तब मेरी लक्षणेन्द्रिय उनकी लक्षणेन्द्रियसे और मुख उनके मुखसे संयुक्त हुआ था। ऐसा अनुचित कार्य करके भी मैंने गुरुजीको यह सच्ची बात नहीं बतायी’॥३१॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

एतदात्मनि कौरव्य दुष्कृतं विपुलस्तदा।
अमन्यत महाभाग तथा तच्च न संशयः ॥ ३२ ॥

मूलम्

एतदात्मनि कौरव्य दुष्कृतं विपुलस्तदा।
अमन्यत महाभाग तथा तच्च न संशयः ॥ ३२ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

महाभाग कुरुनन्दन! उस समय विपुलने अपने मनमें इसीको पाप माना और निस्संदेह बात भी ऐसी ही थी॥३२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

स चम्पां नगरीमेत्य पुष्पाणि गुरवे ददौ।
पूजयामास च गुरुं विधिवत् स गुरुप्रियः ॥ ३३ ॥

मूलम्

स चम्पां नगरीमेत्य पुष्पाणि गुरवे ददौ।
पूजयामास च गुरुं विधिवत् स गुरुप्रियः ॥ ३३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

चम्पानगरीमें जाकर गुरुप्रेमी विपुलने वे फूल गुरुजीको अर्पित कर दिये और उनका विधिपूर्वक पूजन किया॥३३॥

मूलम् (समाप्तिः)

इति श्रीमहाभारते अनुशासनपर्वणि दानधर्मपर्वणि विपुलोपाख्याने द्विचत्वारिंशोऽध्यायः ॥ ४२ ॥

मूलम् (वचनम्)

इस प्रकार श्रीमहाभारत अनुशासनपर्वके अन्तर्गत दानधर्मपर्वमें विपुलका उपाख्यानविषयक बयालीसवाँ अध्याय पूरा हुआ॥४२॥