०४१ विपुलोपाख्याने

भागसूचना

एकचत्वारिंशोऽध्यायः

सूचना (हिन्दी)

विपुलका देवराज इन्द्रसे गुरुपत्नीको बचाना और गुरुसे वरदान प्राप्त करना

मूलम् (वचनम्)

भीष्म उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

ततः कदाचित् देवेन्द्रो दिव्यरूपवपुर्धरः।
इदमन्तरमित्येवमभ्यगात् तमथाश्रमम् ॥ १ ॥

मूलम्

ततः कदाचित् देवेन्द्रो दिव्यरूपवपुर्धरः।
इदमन्तरमित्येवमभ्यगात् तमथाश्रमम् ॥ १ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

भीष्मजी कहते हैं— राजन्! तदनन्तर किसी समय देवराज इन्द्र ‘यही ऋषिपत्नी रुचिको प्राप्त करनेका अच्छा अवसर है’—ऐसा सोचकर दिव्य रूप एवं शरीर धारण किये उस आश्रममें आये॥१॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

रूपमप्रतिमं कृत्वा लोभनीयं जनाधिप।
दर्शनीयतमो भूत्वा प्रविवेश तमाश्रमम् ॥ २ ॥

मूलम्

रूपमप्रतिमं कृत्वा लोभनीयं जनाधिप।
दर्शनीयतमो भूत्वा प्रविवेश तमाश्रमम् ॥ २ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

नरेश्वर! वहाँ इन्द्रने अनुपम लुभावना रूप धारण करके अत्यन्त दर्शनीय होकर उस आश्रममें प्रवेश किया॥२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

स ददर्श तमासीनं विपुलस्य कलेवरम्।
निश्चेष्टं स्तब्धनयनं यथा लेख्यगतं तथा ॥ ३ ॥

मूलम्

स ददर्श तमासीनं विपुलस्य कलेवरम्।
निश्चेष्टं स्तब्धनयनं यथा लेख्यगतं तथा ॥ ३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

वहाँ पहुँचकर उन्होंने देखा कि विपुलका शरीर चित्रलिखितकी भाँति निश्चेष्ट पड़ा है और उनके नेत्र स्थिर हैं॥३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

रुचिं च रुचिरापाङ्गीं पीनश्रोणिपयोधराम्।
पद्मपत्रविशालाक्षीं सम्पूर्णेन्दुनिभाननाम् ॥ ४ ॥

मूलम्

रुचिं च रुचिरापाङ्गीं पीनश्रोणिपयोधराम्।
पद्मपत्रविशालाक्षीं सम्पूर्णेन्दुनिभाननाम् ॥ ४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

दूसरी ओर स्थूल नितम्ब एवं पीन पयोधरोंसे सुशोभित, विकसित कमलदलके समान विशाल नेत्र एवं मनोहर कटाक्षवाली पूर्णचन्द्रानना रुचि बैठी हुई दिखायी दी॥४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

सा तमालोक्य सहसा प्रत्युत्थातुमियेष ह।
रूपेण विस्मिता कोऽसीत्यथ वक्तुमिवेच्छती ॥ ५ ॥

मूलम्

सा तमालोक्य सहसा प्रत्युत्थातुमियेष ह।
रूपेण विस्मिता कोऽसीत्यथ वक्तुमिवेच्छती ॥ ५ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

इन्द्रको देखकर वह सहसा उनकी अगवानीके लिये उठनेकी इच्छा करने लगी। उनका सुन्दर रूप देखकर उसे बड़ा आश्चर्य हुआ था, मानो वह उनसे पूछना चाहती थी कि आप कौन हैं?॥५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

उत्थातुकामा तु सती विष्टब्धा विपुलेन सा।
निगृहीता मनुष्येन्द्र न शशाक विचेष्टितुम् ॥ ६ ॥

मूलम्

उत्थातुकामा तु सती विष्टब्धा विपुलेन सा।
निगृहीता मनुष्येन्द्र न शशाक विचेष्टितुम् ॥ ६ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

नरेन्द्र! उसने ज्यों ही उठनेका विचार किया त्यों ही विपुलने उसके शरीरको स्तब्ध कर दिया। उनके काबूमें आ जानेके कारण वह हिल भी न सकी॥६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तामाबभाषे देवेन्द्रः साम्ना परमवल्गुना।
त्वदर्थमागतं विद्धि देवेन्द्रं मां शुचिस्मिते ॥ ७ ॥

मूलम्

तामाबभाषे देवेन्द्रः साम्ना परमवल्गुना।
त्वदर्थमागतं विद्धि देवेन्द्रं मां शुचिस्मिते ॥ ७ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

तब देवराज इन्द्रने बड़ी मधुर वाणीमें उसे समझाते हुए कहा—‘पवित्र मुसकानवाली देवि! मुझे देवताओंका राजा इन्द्र समझो! मैं तुम्हारे लिये ही यहाँतक आया हूँ॥७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

क्लिश्यमानमनङ्गेन त्वत्संकल्पभवेन ह ।
तत् सम्प्राप्तं हि मां सुभ्रु पुरा कालोऽतिवर्तते ॥ ८ ॥

मूलम्

क्लिश्यमानमनङ्गेन त्वत्संकल्पभवेन ह ।
तत् सम्प्राप्तं हि मां सुभ्रु पुरा कालोऽतिवर्तते ॥ ८ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘तुम्हारा चिन्तन करनेसे मेरे हृदयमें जो काम उत्पन्न हुआ है वह मुझे बड़ा कष्ट दे रहा है। इसीसे मैं तुम्हारे निकट उपस्थित हुआ हूँ। सुन्दरी! अब देर न करो, समय बीता जा रहा है’॥८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तमेवंवादिनं शक्रं शुश्राव विपुलो मुनिः।
गुरुपत्न्याः शरीरस्थो ददर्श त्रिदशाधिपम् ॥ ९ ॥

मूलम्

तमेवंवादिनं शक्रं शुश्राव विपुलो मुनिः।
गुरुपत्न्याः शरीरस्थो ददर्श त्रिदशाधिपम् ॥ ९ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

देवराज इन्द्रकी यह बात गुरुपत्नीके शरीरमें बैठे हुए विपुल मुनिने भी सुनी और उन्होंने इन्द्रको देख भी लिया॥९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

न शशाक च सा राजन् प्रत्युत्थातुमनिन्दिता।
वक्तुं च नाशकद् राजन्‌ विष्टब्धा विपुलेन सा ॥ १० ॥

मूलम्

न शशाक च सा राजन् प्रत्युत्थातुमनिन्दिता।
वक्तुं च नाशकद् राजन्‌ विष्टब्धा विपुलेन सा ॥ १० ॥

अनुवाद (हिन्दी)

राजन्! वह अनिन्द्य सुन्दरी रुचि विपुलके द्वारा स्तम्भित होनेके कारण न तो उठ सकी और न इन्द्रको कोई उत्तर ही दे सकी॥१०॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

आकारं गुरुपत्न्यास्तु स विज्ञाय भृगूद्वहः।
निजग्राह महातेजा योगेन बलवत् प्रभो ॥ ११ ॥

मूलम्

आकारं गुरुपत्न्यास्तु स विज्ञाय भृगूद्वहः।
निजग्राह महातेजा योगेन बलवत् प्रभो ॥ ११ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

प्रभो! गुरुपत्नीका आकार एवं चेष्टा देखकर भृगुश्रेष्ठ विपुल उसका मनोभाव ताड़ गये थे; अतः उन महा तेजस्वी मुनिने योगद्वारा उसे बलपूर्वक काबूमें रखा॥११॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

बबन्ध योगबन्धैश्च तस्याः सर्वेन्द्रियाणि सः।
तां निर्विकारां दृष्ट्वा तु पुनरेव शचीपतिः ॥ १२ ॥
उवाच व्रीडितो राजंस्तां योगबलमोहिताम्।
एह्येहीति ततः सा तु प्रतिवक्तुमियेष तम् ॥ १३ ॥

मूलम्

बबन्ध योगबन्धैश्च तस्याः सर्वेन्द्रियाणि सः।
तां निर्विकारां दृष्ट्वा तु पुनरेव शचीपतिः ॥ १२ ॥
उवाच व्रीडितो राजंस्तां योगबलमोहिताम्।
एह्येहीति ततः सा तु प्रतिवक्तुमियेष तम् ॥ १३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

उन्होंने गुरुपत्नी रुचिकी सम्पूर्ण इन्द्रियोंको योग-सम्बन्धी बन्धनोंसे बाँध लिया था। राजन्! योगबलसे मोहित हुई रुचिको काम-विकारसे शून्य देख शचीपति इन्द्र लज्जित हो गये और फिर उससे बोले—‘सुन्दरी! आओ, आओ।’ उनका आवाहन सुनकर वह फिर उन्हें कुछ उत्तर देनेकी इच्छा करने लगी॥१२-१३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

स तां वाचं गुरोः पत्न्या विपुलः पर्यवर्तयत्।
भोः किमागमने कृत्यमिति तस्यास्तु निःसृता ॥ १४ ॥

मूलम्

स तां वाचं गुरोः पत्न्या विपुलः पर्यवर्तयत्।
भोः किमागमने कृत्यमिति तस्यास्तु निःसृता ॥ १४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

यह देख विपुलने गुरुपत्नीकी उस वाणीको जिसे वह कहना चाहती थी, बदल दिया। उसके मुँहसे सहसा यह निकल पड़ा—‘अजी! यहाँ तुम्हारे आनेका क्या प्रयोजन है?’॥१४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

वक्त्राच्छशाङ्कसदृशाद् वाणी संस्कारभूषणा ।
व्रीडिता सा तु तद्वाक्यमुक्त्वा परवशा तदा ॥ १५ ॥

मूलम्

वक्त्राच्छशाङ्कसदृशाद् वाणी संस्कारभूषणा ।
व्रीडिता सा तु तद्वाक्यमुक्त्वा परवशा तदा ॥ १५ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

उस चन्द्रोपम मुखसे जब यह संस्कृत वाणी प्रकट हुई तब वह पराधीन हुई रुचि वह वाक्य कह देनेके कारण बहुत लज्जित हुई॥१५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

पुरन्दरश्च तत्रस्थो बभूव विमना भृशम्।
स तद्वैकृतमालक्ष्य देवराजो विशाम्पते ॥ १६ ॥
अवैक्षत सहस्राक्षस्तदा दिव्येन चक्षुषा।
स ददर्श मुनिं तस्याः शरीरान्तरगोचरम् ॥ १७ ॥

मूलम्

पुरन्दरश्च तत्रस्थो बभूव विमना भृशम्।
स तद्वैकृतमालक्ष्य देवराजो विशाम्पते ॥ १६ ॥
अवैक्षत सहस्राक्षस्तदा दिव्येन चक्षुषा।
स ददर्श मुनिं तस्याः शरीरान्तरगोचरम् ॥ १७ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

वहाँ खड़े हुए इन्द्र उसकी पूर्वोक्त बात सुनकर मन-ही-मन बहुत दुःखी हुए। प्रजानाथ! उसके मनोविकार एवं भाव-परिवर्तनको लक्ष्य करके सहस्र नेत्रोंवाले देवराज इन्द्रने दिव्य दृष्टिसे उसकी ओर देखा। फिर तो उसके शरीरके भीतर विपुल मुनिपर उनकी दृष्टि पड़ी॥१६-१७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

प्रतिबिम्बमिवादर्शे गुरुपत्न्याः शरीरगम् ।
स तं घोरेण तपसा युक्तं दृष्ट्वा पुरन्दरः ॥ १८ ॥
प्रावेपत सुसंत्रस्तः शापभीतस्तदा विभो।

मूलम्

प्रतिबिम्बमिवादर्शे गुरुपत्न्याः शरीरगम् ।
स तं घोरेण तपसा युक्तं दृष्ट्वा पुरन्दरः ॥ १८ ॥
प्रावेपत सुसंत्रस्तः शापभीतस्तदा विभो।

अनुवाद (हिन्दी)

जैसे दर्पणमें प्रतिबिम्ब दिखायी देता है उसी प्रकार वे गुरुपत्नीके शरीरमें परिलक्षित हो रहे थे। प्रभो! घोर तपस्यासे युक्त विपुल मुनिको देखते ही इन्द्र शापके भयसे संत्रस्त हो थर-थर काँपने लगे॥१८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

विमुच्य गुरुपत्नीं तु विपुलः सुमहातपाः।
स्वकलेवरमाविश्य शक्रं भीतमथाब्रवीत् ॥ १९ ॥

मूलम्

विमुच्य गुरुपत्नीं तु विपुलः सुमहातपाः।
स्वकलेवरमाविश्य शक्रं भीतमथाब्रवीत् ॥ १९ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

इसी समय महातपस्वी विपुल गुरुपत्नीको छोड़कर अपने शरीरमें आ गये और डरे हुए इन्द्रसे बोले—॥१९॥

मूलम् (वचनम्)

विपुल उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

अजितेन्द्रिय दुर्बुद्धे पापात्मक पुरन्दर।
न चिरं पूजयिष्यन्ति देवास्त्वां मानुषास्तथा ॥ २० ॥

मूलम्

अजितेन्द्रिय दुर्बुद्धे पापात्मक पुरन्दर।
न चिरं पूजयिष्यन्ति देवास्त्वां मानुषास्तथा ॥ २० ॥

अनुवाद (हिन्दी)

विपुलने कहा— ‘पापात्मा पुरन्दर! तेरी बुद्धि बड़ी खोटी है। तू सदा इन्द्रियोंका गुलाम बना रहता है। यदि यही दशा रही तो अब देवता तथा मनुष्य अधिक कालतक तेरी पूजा नहीं करेंगे॥२०॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

किं नु तद्विस्मृतं शक्र न तन्मनसि ते स्थितम्।
गौतमेनासि यन्मुक्तो भगाङ्कपरिचिह्नितः ॥ २१ ॥

मूलम्

किं नु तद्विस्मृतं शक्र न तन्मनसि ते स्थितम्।
गौतमेनासि यन्मुक्तो भगाङ्कपरिचिह्नितः ॥ २१ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

इन्द्र! क्या तू उस घटनाको भूल गया? क्या तेरे मनमें उसकी याद नहीं रह गयी है? जब कि महर्षि गौतमने तेरे सारे शरीरमें भगके (हजार) चिह्न बनाकर तुझे जीवित छोड़ा था?॥२१॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

जाने त्वां बालिशमतिमकृतात्मानमस्थिरम् ।
ममेयं रक्ष्यते मूढ गच्छ पाप यथागतम् ॥ २२ ॥

मूलम्

जाने त्वां बालिशमतिमकृतात्मानमस्थिरम् ।
ममेयं रक्ष्यते मूढ गच्छ पाप यथागतम् ॥ २२ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

मैं जानता हूँ कि तू मूर्ख है, तेरा मन वशमें नहीं और तू महाचंचल है। पापी मूढ़! यह स्त्री मेरे द्वारा सुरक्षित है। तू जैसे आया है, उसी तरह लौट जा॥२२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

नाहं त्वामद्य मूढात्मन् दहेयं हि स्वतेजसा।
कृपायमानस्तु न ते दग्धुमिच्छामि वासव ॥ २३ ॥

मूलम्

नाहं त्वामद्य मूढात्मन् दहेयं हि स्वतेजसा।
कृपायमानस्तु न ते दग्धुमिच्छामि वासव ॥ २३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

मूढचित्त इन्द्र! मैं अपने तेजसे तुझे जलाकर भस्म कर सकता हूँ। केवल दया करके ही तुझे इस समय जलाना नहीं चाहता॥२३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

स च घोरतमो धीमान् गुरुर्मे पापचेतसम्।
दृष्ट्वा त्वां निर्दहेदद्य क्रोधदीप्तेन चक्षुषा ॥ २४ ॥

मूलम्

स च घोरतमो धीमान् गुरुर्मे पापचेतसम्।
दृष्ट्वा त्वां निर्दहेदद्य क्रोधदीप्तेन चक्षुषा ॥ २४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

मेरे बुद्धिमान् गुरु बड़े भयंकर हैं। वे तुझ पापात्माको देखते ही आज क्रोधसे उदीप्त हुई दृष्टिद्वारा दग्ध कर डालेंगे॥२४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

नैवं तु शक्र कर्तव्यं पुनर्मान्याश्च ते द्विजाः।
मा गमः ससुतामात्यः क्षयं ब्रह्मबलार्दितः ॥ २५ ॥

मूलम्

नैवं तु शक्र कर्तव्यं पुनर्मान्याश्च ते द्विजाः।
मा गमः ससुतामात्यः क्षयं ब्रह्मबलार्दितः ॥ २५ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

इन्द्र! आजसे फिर कभी ऐसा काम न करना। तुझे ब्राह्मणोंका सम्मान करना चाहिये, अन्यथा कहीं ऐसा न हो कि तुझे ब्रह्मतेजसे पीड़ित होकर पुत्रों और मन्त्रियोंसहित कालके गालमें जाना पड़े॥२५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अमरोऽस्मीति यद्‌बुद्धिं समास्थाय प्रवर्तसे।
मावमंस्था न तपसा नसाध्यं नाम किंचन ॥ २६ ॥

मूलम्

अमरोऽस्मीति यद्‌बुद्धिं समास्थाय प्रवर्तसे।
मावमंस्था न तपसा नसाध्यं नाम किंचन ॥ २६ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

मैं अमर हूँ—ऐसी बुद्धिका आश्रय लेकर यदि तू स्वेच्छाचारमें प्रवृत्त हो रहा है तो (मैं तुझे सचेत किये देता हूँ) यों किसी तपस्वीका अपमान न किया कर; क्योंकि तपस्यासे कोई भी कार्य असाध्य नहीं है (तपस्वी अमरोंको भी मार सकता है)॥२६॥

मूलम् (वचनम्)

भीष्म उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

तत् श्रुत्वा वचनं शक्रो विपुलस्य महात्मनः।
अकिंचिदुक्त्वा व्रीडार्तस्तत्रैवान्तरधीयत ॥ २७ ॥

मूलम्

तत् श्रुत्वा वचनं शक्रो विपुलस्य महात्मनः।
अकिंचिदुक्त्वा व्रीडार्तस्तत्रैवान्तरधीयत ॥ २७ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

भीष्मजी कहते हैं— युधिष्ठिर! महात्मा विपुलका वह कथन सुनकर इन्द्र बहुत लज्जित हुए और कुछ भी उत्तर न देकर वहीं अन्तर्धान हो गये॥२७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

मुहूर्तयाते तस्मिंस्तु देवशर्मा महातपाः।
कृत्वा यज्ञं यथाकाममाजगाम स्वमाश्रमम् ॥ २८ ॥

मूलम्

मुहूर्तयाते तस्मिंस्तु देवशर्मा महातपाः।
कृत्वा यज्ञं यथाकाममाजगाम स्वमाश्रमम् ॥ २८ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

उनके गये अभी एक ही मुहूर्त बीतने पाया था कि महा तपस्वी देवशर्मा इच्छानुसार यज्ञ पूर्ण करके अपने आश्रमपर लौट आये॥२८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

आगतेऽथ गुरौ राजन् विपुलः प्रियकर्मकृत्।
रक्षितां गुरवे भार्यां न्यवेदयदनिन्दिताम् ॥ २९ ॥

मूलम्

आगतेऽथ गुरौ राजन् विपुलः प्रियकर्मकृत्।
रक्षितां गुरवे भार्यां न्यवेदयदनिन्दिताम् ॥ २९ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

राजन्! गुरुके आनेपर उनका प्रिय कार्य करनेवाले विपुलने अपने द्वारा सुरक्षित हुई उनकी सती-साध्वी भार्या रुचिको उन्हें सौंप दिया॥२९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अभिवाद्य च शान्तात्मा स गुरुं गुरुवत्सलः।
विपुलः पर्युपातिष्ठद् यथापूर्वमशङ्कितः ॥ ३० ॥

मूलम्

अभिवाद्य च शान्तात्मा स गुरुं गुरुवत्सलः।
विपुलः पर्युपातिष्ठद् यथापूर्वमशङ्कितः ॥ ३० ॥

अनुवाद (हिन्दी)

शान्त चित्तवाले गुरुप्रेमी विपुल गुरुदेवको प्रणाम करके पहलेकी ही भाँति निर्भीक होकर उनकी सेवामें उपस्थित हुए॥३०॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

विश्रान्ताय ततस्तस्मै सहासीनाय भार्यया।
निवेदयामास तदा विपुलः शक्रकर्म तत् ॥ ३१ ॥

मूलम्

विश्रान्ताय ततस्तस्मै सहासीनाय भार्यया।
निवेदयामास तदा विपुलः शक्रकर्म तत् ॥ ३१ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

जब गुरुजी विश्राम करके अपनी पत्नीके साथ बैठे, तब विपुलने इन्द्रकी वह सारी करतूत उन्हें बतायी॥३१॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तत् श्रुत्वा स मुनिस्तुष्टो विपुलस्य प्रतापवान्।
बभूव शीलवृत्ताभ्यां तपसा नियमेन च ॥ ३२ ॥

मूलम्

तत् श्रुत्वा स मुनिस्तुष्टो विपुलस्य प्रतापवान्।
बभूव शीलवृत्ताभ्यां तपसा नियमेन च ॥ ३२ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

यह सुनकर प्रतापी मुनि देवशर्मा विपुलके शील, सदाचार, तप और नियमसे बहुत संतुष्ट हुए॥३२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

विपुलस्य गुरौ वृत्तिं भक्तिमात्मनि तत्प्रभुः।
धर्मे च स्थिरतां दृष्ट्वा साधु साध्वित्यभाषत ॥ ३३ ॥

मूलम्

विपुलस्य गुरौ वृत्तिं भक्तिमात्मनि तत्प्रभुः।
धर्मे च स्थिरतां दृष्ट्वा साधु साध्वित्यभाषत ॥ ३३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

विपुलकी गुरुसेवावृत्ति, अपने प्रति भक्ति और धर्मविषयक दृढ़ता देखकर गुरुने ‘बहुत अच्छा, बहुत अच्छा’ कहकर उनकी प्रशंसा की॥३३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

प्रतिलभ्य च धर्मात्मा शिष्यं धर्मपरायणम्।
वरेणच्छन्दयामास देवशर्मा महामतिः ॥ ३४ ॥

मूलम्

प्रतिलभ्य च धर्मात्मा शिष्यं धर्मपरायणम्।
वरेणच्छन्दयामास देवशर्मा महामतिः ॥ ३४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

परम बुद्धिमान् धर्मात्मा देवशर्माने अपने धर्म-परायण शिष्य विपुलको पाकर उन्हें इच्छानुसार वर माँगनेको कहा॥३४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

स्थितिं च धर्मे जग्राह स तस्माद् गुरुवत्सलः।
अनुज्ञातश्च गुरुणा चचारानुत्तमं तपः ॥ ३५ ॥

मूलम्

स्थितिं च धर्मे जग्राह स तस्माद् गुरुवत्सलः।
अनुज्ञातश्च गुरुणा चचारानुत्तमं तपः ॥ ३५ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

गुरुवत्सल विपुलने गुरुसे यही वर माँगा कि ‘मेरी धर्ममें निरन्तर स्थिति बनी रहे।’ फिर गुरुकी आज्ञा लेकर उन्होंने सर्वोत्तम तपस्या आरम्भ की॥३५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तथैव देवशर्मापि सभार्यः स महातपाः।
निर्भयो बलवृत्रघ्नाच्चचार विजने वने ॥ ३६ ॥

मूलम्

तथैव देवशर्मापि सभार्यः स महातपाः।
निर्भयो बलवृत्रघ्नाच्चचार विजने वने ॥ ३६ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

महा तपस्वी देवशर्मा भी बल और वृत्रासुरका वध करनेवाले इन्द्रसे निर्भय हो पत्नीसहित उस निर्जन वनमें विचरने लगे॥३६॥

मूलम् (समाप्तिः)

इति श्रीमहाभारते अनुशासनपर्वणि दानधर्मपर्वणि विपुलोपाख्याने एकचत्वारिंशोऽध्यायः ॥ ४१ ॥

मूलम् (वचनम्)

इस प्रकार श्रीमहाभारत अनुशासनपर्वके अन्तर्गत दानधर्मपर्वमें विपुलका उपाख्यानविषयक इकतालीसवाँ अध्याय पूरा हुआ॥४१॥