०४० विपुलोपाख्याने

भागसूचना

चत्वारिंशोऽध्यायः

सूचना (हिन्दी)

भृगुवंशी विपुलके द्वारा योगबलसे गुरुपत्नीके शरीरमें प्रवेश करके उसकी रक्षा करना

मूलम् (वचनम्)

भीष्म उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

एवमेव महाबाहो नात्र मिथ्यास्ति किंचन।
यथा ब्रवीषि कौरव्य नारीं प्रति जनाधिप ॥ १ ॥

मूलम्

एवमेव महाबाहो नात्र मिथ्यास्ति किंचन।
यथा ब्रवीषि कौरव्य नारीं प्रति जनाधिप ॥ १ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

भीष्मजीने कहा— महाबाहो! कुरुनन्दन! ऐसी ही बात है। नरेश्वर! नारियोंके सम्बन्धमें तुम जो कुछ कह रहे हो, उसमें तनिक भी मिथ्या नहीं है॥१॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अत्र ते वर्तयिष्यामि इतिहासं पुरातनम्।
यथा रक्षा कृता पूर्वं विपुलेन महात्मना ॥ २ ॥

मूलम्

अत्र ते वर्तयिष्यामि इतिहासं पुरातनम्।
यथा रक्षा कृता पूर्वं विपुलेन महात्मना ॥ २ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

इस विषयमें मैं तुम्हें एक प्राचीन इतिहास बताऊँगा कि पूर्वकालमें महात्मा विपुलने किस प्रकार एक स्त्री (गुरुपत्नी)-की रक्षा की थी॥२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

प्रमदाश्च यथा सृष्टा ब्रह्मणा भरतर्षभ।
यदर्थं तच्च ते तात प्रवक्ष्यामि नराधिप ॥ ३ ॥

मूलम्

प्रमदाश्च यथा सृष्टा ब्रह्मणा भरतर्षभ।
यदर्थं तच्च ते तात प्रवक्ष्यामि नराधिप ॥ ३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

भरतश्रेष्ठ! तात! नरेश्वर! ब्रह्माजीने जिस प्रकार और जिस उद्देश्यसे युवतियोंकी सृष्टि की है, वह सब मैं तुम्हें बताऊँगा॥३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

न हि स्त्रीभ्यः परं पुत्र पापीयः किंचिदस्ति वै।
अग्निर्हि प्रमदा दीप्तो मायाश्च मयजा विभो ॥ ४ ॥

मूलम्

न हि स्त्रीभ्यः परं पुत्र पापीयः किंचिदस्ति वै।
अग्निर्हि प्रमदा दीप्तो मायाश्च मयजा विभो ॥ ४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

बेटा! स्त्रियोंसे बढ़कर पापिष्ठ दूसरा कोई नहीं है। यौवन-मदसे उन्मत्त रहनेवाली स्त्रियाँ वास्तवमें प्रज्वलित अग्निके समान हैं। प्रभो! वे मयदानवकी रची हुई माया हैं॥४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

क्षुरधारा विषं सर्पो वह्निरित्येकतः स्त्रियः।
प्रजा इमा महाबाहो धार्मिक्य इति नः श्रुतम् ॥ ५ ॥
स्वयं गच्छन्ति देवत्वं ततो देवानियाद् भयम्।

मूलम्

क्षुरधारा विषं सर्पो वह्निरित्येकतः स्त्रियः।
प्रजा इमा महाबाहो धार्मिक्य इति नः श्रुतम् ॥ ५ ॥
स्वयं गच्छन्ति देवत्वं ततो देवानियाद् भयम्।

अनुवाद (हिन्दी)

छुरेकी धार, विष, सर्प और आग—ये सब विनाशके हेतु एक ओर और तरुणी स्त्रियाँ एक ओर। महाबाहो! पहले यह सारी प्रजा धार्मिक थी। यह हमने सुन रखा है। वे प्रजाएँ स्वयं देवत्वको प्राप्त हो जाती थीं। इससे देवताओंको बड़ा भय हुआ॥५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अथाभ्यगच्छन् देवास्ते पितामहमरिंदम ॥ ६ ॥
निवेद्य मानसं चापि तूष्णीमासन्नधोमुखाः।

मूलम्

अथाभ्यगच्छन् देवास्ते पितामहमरिंदम ॥ ६ ॥
निवेद्य मानसं चापि तूष्णीमासन्नधोमुखाः।

अनुवाद (हिन्दी)

शत्रुदमन! तब वे देवता ब्रह्माजीके पास गये और उनसे अपने मनकी बात निवेदन करके मुँह नीचे किये चुपचाप बैठ गये॥६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तेषामन्तर्गतं ज्ञात्वा देवानां स पितामहः ॥ ७ ॥
मानवानां प्रमोहार्थं कृत्या नार्योऽसृजत् प्रभुः।

मूलम्

तेषामन्तर्गतं ज्ञात्वा देवानां स पितामहः ॥ ७ ॥
मानवानां प्रमोहार्थं कृत्या नार्योऽसृजत् प्रभुः।

अनुवाद (हिन्दी)

उन देवताओंके मनकी बात जानकर भगवान् ब्रह्माने मनुष्योंको मोहमें डालनेके लिये कृत्यारूप नारियोंकी सृष्टि की॥७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

पूर्वसर्गे तु कौन्तेय साध्व्यो नार्य इहाभवन् ॥ ८ ॥
असाध्व्यस्तु समुत्पन्नाः कृत्याः सर्गात् प्रजापतेः।
ताभ्यः कामान् यथाकामं प्रादाद्धि स पितामहः ॥ ९ ॥

मूलम्

पूर्वसर्गे तु कौन्तेय साध्व्यो नार्य इहाभवन् ॥ ८ ॥
असाध्व्यस्तु समुत्पन्नाः कृत्याः सर्गात् प्रजापतेः।
ताभ्यः कामान् यथाकामं प्रादाद्धि स पितामहः ॥ ९ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

कुन्तीनन्दन! सृष्टिके प्रारम्भमें यहाँ सब स्त्रियाँ पतिव्रता ही थीं। कृत्यारूप दुष्ट स्त्रियाँ तो प्रजापतिकी इस नूतन सृष्टिसे ही उत्पन्न हुई हैं। प्रजापतिने उन्हें उनकी इच्छाके अनुसार कामभाव प्रदान किया॥८-९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

ताः कामलुब्धाः प्रमदाः प्रबाधन्ते नरान् सदा।
क्रोधं कामस्य देवेशः सहायं चासृजत् प्रभुः ॥ १० ॥
असज्जन्त प्रजाः सर्वाः कामक्रोधवशं गताः।

मूलम्

ताः कामलुब्धाः प्रमदाः प्रबाधन्ते नरान् सदा।
क्रोधं कामस्य देवेशः सहायं चासृजत् प्रभुः ॥ १० ॥
असज्जन्त प्रजाः सर्वाः कामक्रोधवशं गताः।

अनुवाद (हिन्दी)

वे मतवाली युवतियाँ कामलोलुप होकर पुरुषोंको सदा बाधा देती रहती हैं। देवेश्वर भगवान् ब्रह्माने कामकी सहायताके लिये क्रोधको उत्पन्न किया। इन्हीं काम और क्रोधके वशीभूत होकर स्त्री और पुरुषरूप सारी प्रजा परस्पर आसक्त होती है॥१०॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

(द्विजानां च गुरूणां च महागुरुनृपादिनाम्।
क्षणात् स्त्रीसङ्गकामोत्था यातनाहो निरन्तरा॥

मूलम्

(द्विजानां च गुरूणां च महागुरुनृपादिनाम्।
क्षणात् स्त्रीसङ्गकामोत्था यातनाहो निरन्तरा॥

अनुवाद (हिन्दी)

ब्राह्मण, गुरु, महागुरु और राजा—इन सबको स्त्रीके क्षणिक संगसे निरन्तर कामजनित यातना सहनी पड़ती है।

विश्वास-प्रस्तुतिः

अरक्तमनसां नित्यं ब्रह्मचर्यामलात्मनाम् ।
तपोदमार्चनध्यानयुक्तानां शुद्धिरुत्तमा ॥)

मूलम्

अरक्तमनसां नित्यं ब्रह्मचर्यामलात्मनाम् ।
तपोदमार्चनध्यानयुक्तानां शुद्धिरुत्तमा ॥)

अनुवाद (हिन्दी)

जिनका मन कहीं आसक्त नहीं है, जिन्होंने ब्रह्मचर्यके पालनपूर्वक अपने अन्तःकरणको निर्मल बना लिया है तथा जो तपस्या, इन्द्रियसंयम और ध्यान-पूजनमें संलग्न हैं, उन्हींकी उत्तम शुद्धि होती है॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

न च स्त्रीणां क्रियाः काश्चिदिति धर्मो व्यवस्थितः ॥ ११ ॥
निरिन्द्रिया ह्यशास्त्राश्च स्त्रियोऽनृतमिति श्रुतिः।
शय्यासनमलंकारमन्नपानमनार्यताम् ॥ १२ ॥
दुर्वाग्भावं रतिं चैव ददौ स्त्रीभ्यः प्रजापतिः।

मूलम्

न च स्त्रीणां क्रियाः काश्चिदिति धर्मो व्यवस्थितः ॥ ११ ॥
निरिन्द्रिया ह्यशास्त्राश्च स्त्रियोऽनृतमिति श्रुतिः।
शय्यासनमलंकारमन्नपानमनार्यताम् ॥ १२ ॥
दुर्वाग्भावं रतिं चैव ददौ स्त्रीभ्यः प्रजापतिः।

अनुवाद (हिन्दी)

स्त्रियोंके लिये किन्हीं वैदिक कर्मोंके करनेका विधान नहीं है। यही धर्मशास्त्रकी व्यवस्था है। स्त्रियाँ इन्द्रियशून्य हैं अर्थात् वे अपनी इन्द्रियोंको वशमें रखनेमें असमर्थ हैं। शास्त्रज्ञानसे रहित हैं और असत्यकी मूर्ति हैं। ऐसा उनके विषयमें श्रुतिका कथन है। प्रजापतिने स्त्रियोंको शय्या, आसन, अलंकार, अन्न, पान, अनार्यता, दुर्वचन, प्रियता तथा रति प्रदान की है॥११-१२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

न तासां रक्षणं शक्यं कर्तुं पुंसां कथंचन ॥ १३ ॥
अपि विश्वकृता तात कुतस्तु पुरुषैरिह।

मूलम्

न तासां रक्षणं शक्यं कर्तुं पुंसां कथंचन ॥ १३ ॥
अपि विश्वकृता तात कुतस्तु पुरुषैरिह।

अनुवाद (हिन्दी)

तात! लोकस्रष्टा ब्रह्मा-जैसा पुरुष भी स्त्रियोंकी किसी प्रकार रक्षा नहीं कर सकता, फिर साधारण पुरुषोंकी तो बात ही क्या॥१३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

वाचा च वधबन्धैर्वा क्लेशैर्वा विविधैस्तथा ॥ १४ ॥
न शक्या रक्षितुं नार्यस्ता हि नित्यमसंयताः।

मूलम्

वाचा च वधबन्धैर्वा क्लेशैर्वा विविधैस्तथा ॥ १४ ॥
न शक्या रक्षितुं नार्यस्ता हि नित्यमसंयताः।

अनुवाद (हिन्दी)

वाणीके द्वारा एवं वध और बन्धनके द्वारा रोककर अथवा नाना प्रकारके क्लेश देकर भी स्त्रियोंकी रक्षा नहीं की जा सकती; क्योंकि वे सदा असंयमशील होती हैं॥१४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

इदं तु पुरुषव्याघ्र पुरस्ताच्छ्रुतवानहम् ॥ १५ ॥
यथा रक्षा कृता पूर्वं विपुलेन गुरुस्त्रियाः।

मूलम्

इदं तु पुरुषव्याघ्र पुरस्ताच्छ्रुतवानहम् ॥ १५ ॥
यथा रक्षा कृता पूर्वं विपुलेन गुरुस्त्रियाः।

अनुवाद (हिन्दी)

पुरुषसिंह! पूर्वकालमें मैंने यह सुना था कि प्राचीनकालमें महात्मा विपुलने अपनी गुरुपत्नीकी रक्षा की थी। कैसे की? यह मैं तुम्हें बता रहा हूँ॥१५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

ऋषिरासीन्महाभागो देवशर्मेति विश्रुतः ॥ १६ ॥
तस्य भार्या रुचिर्नाम रूपेणासदृशी भुवि।

मूलम्

ऋषिरासीन्महाभागो देवशर्मेति विश्रुतः ॥ १६ ॥
तस्य भार्या रुचिर्नाम रूपेणासदृशी भुवि।

अनुवाद (हिन्दी)

पहलेकी बात है, देवशर्मा नामके एक महा-भाग्यशाली ऋषि थे। उनके रुचि नामवाली एक स्त्री थी जो इस पृथ्वीपर अद्वितीय सुन्दरी थी॥१६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तस्या रूपेण सम्मत्ता देवगन्धर्वदानवाः ॥ १७ ॥
विशेषेण तु राजेन्द्र वृत्रहा पाकशासनः।

मूलम्

तस्या रूपेण सम्मत्ता देवगन्धर्वदानवाः ॥ १७ ॥
विशेषेण तु राजेन्द्र वृत्रहा पाकशासनः।

अनुवाद (हिन्दी)

उसका रूप देखकर देवता, गन्धर्व और दानव भी मतवाले हो जाते थे। राजेन्द्र! वृत्रासुरका वध करनेवाले पाकशासन इन्द्र उस स्त्रीपर विशेषरूपसे आसक्त थे॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

नारीणां चरितज्ञश्च देवशर्मा महामुनिः ॥ १८ ॥
यथाशक्ति यथोत्साहं भार्यां तामभ्यरक्षत।

मूलम्

नारीणां चरितज्ञश्च देवशर्मा महामुनिः ॥ १८ ॥
यथाशक्ति यथोत्साहं भार्यां तामभ्यरक्षत।

अनुवाद (हिन्दी)

महामुनि देवशर्मा नारियोंके चरित्रको जानते थे; अतः वे यथाशक्ति उत्साहपूर्वक उसकी रक्षा करते थे॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

पुरन्दरं च जानीते परस्त्रीकामचारिणम् ॥ १९ ॥
तस्माद् बलेन भार्याया रक्षणं स चकार ह।

मूलम्

पुरन्दरं च जानीते परस्त्रीकामचारिणम् ॥ १९ ॥
तस्माद् बलेन भार्याया रक्षणं स चकार ह।

अनुवाद (हिन्दी)

वे यह भी जानते थे कि इन्द्र बड़ा ही पर-स्त्रीलम्पट है, इसलिये वे अपनी स्त्रीकी उनसे यत्नपूर्वक रक्षा करते थे॥१९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

स कदाचिदृषिस्तात यज्ञं कर्तुमनास्तदा ॥ २० ॥
भार्यासंरक्षणं कार्यं कथं स्यादित्यचिन्तयत्।

मूलम्

स कदाचिदृषिस्तात यज्ञं कर्तुमनास्तदा ॥ २० ॥
भार्यासंरक्षणं कार्यं कथं स्यादित्यचिन्तयत्।

अनुवाद (हिन्दी)

तात! एक समय ऋषिने यज्ञ करनेका विचार किया। उस समय वे यह सोचने लगे कि ‘यदि मैं यज्ञमें लग जाऊँ तो मेरी स्त्रीकी रक्षा कैसे होगी’॥२०॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

रक्षाविधानं मनसा स संचिन्त्य महातपाः ॥ २१ ॥
आहूय दयितं शिष्यं विपुलं प्राह भार्गवम्।

मूलम्

रक्षाविधानं मनसा स संचिन्त्य महातपाः ॥ २१ ॥
आहूय दयितं शिष्यं विपुलं प्राह भार्गवम्।

अनुवाद (हिन्दी)

फिर उन महा तपस्वीने मन-ही-मन उसकी रक्षाका उपाय सोचकर अपने प्रिय शिष्य भृगुवंशी विपुलको बुलाकर कहा—॥२१॥

मूलम् (वचनम्)

देवशर्मोवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

यज्ञकारो गमिष्यामि रुचिं चेमां सुरेश्वरः ॥ २२ ॥
यतः प्रार्थयते नित्यं तां रक्षस्व यथाबलम्।

मूलम्

यज्ञकारो गमिष्यामि रुचिं चेमां सुरेश्वरः ॥ २२ ॥
यतः प्रार्थयते नित्यं तां रक्षस्व यथाबलम्।

अनुवाद (हिन्दी)

देवशर्मा बोले— वत्स! मैं यज्ञ करनेके लिये जाऊँगा। तुम मेरी इस पत्नी रुचिकी यत्नपूर्वक रक्षा करना; क्योंकि देवराज इन्द्र सदा इसे प्राप्त करनेकी चेष्टामें लगा रहता है॥२२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अप्रमत्तेन ते भाव्यं सदा प्रति पुरन्दरम् ॥ २३ ॥
स हि रूपाणि कुरुते विविधानि भृगूत्तम।

मूलम्

अप्रमत्तेन ते भाव्यं सदा प्रति पुरन्दरम् ॥ २३ ॥
स हि रूपाणि कुरुते विविधानि भृगूत्तम।

अनुवाद (हिन्दी)

भृगुश्रेष्ठ! तुम्हें इन्द्रकी ओरसे सदा सावधान रहना चाहिये; क्योंकि वह अनेक प्रकारके रूप धारण करता है॥२३॥

मूलम् (वचनम्)

भीष्म उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

इत्युक्तो विपुलस्तेन तपस्वी नियतेन्द्रियः ॥ २४ ॥
सदैवोग्रतपा राजन्नग्न्यर्कसदृशद्युतिः ।
धर्मज्ञः सत्यवादी च तथेति प्रत्यभाषत।
पुनश्चेदं महाराज पप्रच्छ प्रस्थितं गुरुम् ॥ २५ ॥

मूलम्

इत्युक्तो विपुलस्तेन तपस्वी नियतेन्द्रियः ॥ २४ ॥
सदैवोग्रतपा राजन्नग्न्यर्कसदृशद्युतिः ।
धर्मज्ञः सत्यवादी च तथेति प्रत्यभाषत।
पुनश्चेदं महाराज पप्रच्छ प्रस्थितं गुरुम् ॥ २५ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

भीष्मजी कहते हैं— राजन्! गुरुके ऐसा कहनेपर अग्नि और सूर्यके समान तेजस्वी, जितेन्द्रिय तथा सदा ही कठोर तपमें लगे रहनेवाले धर्मज्ञ एवं सत्यवादी विपुलने ‘बहुत अच्छा’ कहकर उनकी आज्ञा स्वीकार कर ली। महाराज! फिर जब गुरुजी प्रस्थान करने लगे तब उसने पुनः इस प्रकार पूछा॥२४-२५॥

मूलम् (वचनम्)

विपुल उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

कानि रूपाणि शक्रस्य भवन्त्यागच्छतो मुने।
वपुस्तेजश्च कीदृग् वै तन्मे व्याख्यातुमर्हसि ॥ २६ ॥

मूलम्

कानि रूपाणि शक्रस्य भवन्त्यागच्छतो मुने।
वपुस्तेजश्च कीदृग् वै तन्मे व्याख्यातुमर्हसि ॥ २६ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

विपुलने पूछा— मुने! इन्द्र जब आता है तब उसके कौन-कौन-से रूप होते हैं तथा उस समय उसका शरीर और तेज कैसा होता है? यह मुझे स्पष्टरूपसे बतानेकी कृपा करें॥२६॥

मूलम् (वचनम्)

भीष्म उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

ततः स भगवांस्तस्मै विपुलाय महात्मने।
आचचक्षे यथातत्त्वं मायां शक्रस्य भारत ॥ २७ ॥

मूलम्

ततः स भगवांस्तस्मै विपुलाय महात्मने।
आचचक्षे यथातत्त्वं मायां शक्रस्य भारत ॥ २७ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

भीष्मजी कहते हैं— भरतनन्दन! तदनन्तर भगवान् देवशर्माने महात्मा विपुलसे इन्द्रकी मायाको यथार्थरूपसे बताना आस्मभ किया॥२७॥

मूलम् (वचनम्)

देवशर्मोवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

बहुमायः स विप्रर्षे भगवान् पाकशासनः।
तांस्तान् विकुरुते भावान् बहूनथ मुहुर्मुहुः ॥ २८ ॥

मूलम्

बहुमायः स विप्रर्षे भगवान् पाकशासनः।
तांस्तान् विकुरुते भावान् बहूनथ मुहुर्मुहुः ॥ २८ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

देवशर्माने कहा— ब्रह्मर्षे! भगवान् पाकशासन इन्द्र बहुत-सी मायाओंके जानकार हैं। वे बारंबार बहुत-से रूप बदलते रहते हैं॥२८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

किरीटी वज्रधृग् धन्वी मुकुटी बद्धकुण्डलः ॥ २९ ॥
भवत्यथ मुहूर्तेन चाण्डालसमदर्शनः ।
शिखी जटी चीरवासाः पुनर्भवति पुत्रक ॥ ३० ॥

मूलम्

किरीटी वज्रधृग् धन्वी मुकुटी बद्धकुण्डलः ॥ २९ ॥
भवत्यथ मुहूर्तेन चाण्डालसमदर्शनः ।
शिखी जटी चीरवासाः पुनर्भवति पुत्रक ॥ ३० ॥

अनुवाद (हिन्दी)

बेटा! वे कभी तो मस्तकपर किरीट-मुकुट, कानोंमें कुण्डल तथा हाथोंमें वज्र एवं धनुष धारण किये आते हैं और कभी एक ही मुहूर्तमें चाण्डालके समान दिखायी देते हैं; फिर कभी शिखा, जटा और चीरवस्त्र धारण करनेवाले ऋषि बन जाते हैं॥२९-३०॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

बृहत् शरीरश्च पुनश्चीरवासाः पुनः कृशः।
गौरं श्यामं च कृष्णं च वर्णं विकुरुते पुनः॥३१॥

मूलम्

बृहत् शरीरश्च पुनश्चीरवासाः पुनः कृशः।
गौरं श्यामं च कृष्णं च वर्णं विकुरुते पुनः॥३१॥

अनुवाद (हिन्दी)

कभी विशाल एवं हृष्ट-पुष्ट शरीर धारण करते हैं तो कभी दुर्बल शरीरमें चिथड़े लपेटे दिखायी देते हैं। कभी गोरे, कभी साँवले और कभी काले रंगके रूप बदलते रहते हैं॥३१॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

विरूपो रूपवांश्चैव युवा वृद्धस्तथैव च।
ब्राह्मणः क्षत्रियश्चैव वैश्यः शूद्रस्तथैव च ॥ ३२ ॥

मूलम्

विरूपो रूपवांश्चैव युवा वृद्धस्तथैव च।
ब्राह्मणः क्षत्रियश्चैव वैश्यः शूद्रस्तथैव च ॥ ३२ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

वे एक ही क्षणमें कुरूप और दूसरे ही क्षणमें रूपवान् हो जाते हैं। कभी जवान और कभी बूढ़े बन जाते हैं। कभी ब्राह्मण बनकर आते हैं तो कभी क्षत्रिय, वैश्य और शूद्रका रूप बना लेते हैं॥३२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

प्रतिलोमोऽनुलोमश्च भवत्यथ शतक्रतुः ।
शुकवायसरूपी च हंसकोकिलरूपवान् ॥ ३३ ॥

मूलम्

प्रतिलोमोऽनुलोमश्च भवत्यथ शतक्रतुः ।
शुकवायसरूपी च हंसकोकिलरूपवान् ॥ ३३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

वे इन्द्र कभी अनुलोम संकरका रूप धारण करते हैं तो कभी विलोम संकरका। वे तोते, कौए, हंस और कोयलके रूपमें भी दिखायी देते हैं॥३३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

सिंहव्याघ्रगजानां च रूपं धारयते पुनः।
दैवं दैत्यमथो राज्ञां वपुर्धारयतेऽपि च ॥ ३४ ॥

मूलम्

सिंहव्याघ्रगजानां च रूपं धारयते पुनः।
दैवं दैत्यमथो राज्ञां वपुर्धारयतेऽपि च ॥ ३४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

सिंह, व्याघ्र और हाथीके भी रूप बारंबार धारण करते हैं। देवताओं, दैत्यों तथा राजाओंके शरीर भी धारण कर लेते हैं॥३४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अकृशो वायुभग्नाङ्गः शकुनिर्विकृतस्तथा ।
चतुष्पाद् बहुरूपश्च पुनर्भवति बालिशः ॥ ३५ ॥

मूलम्

अकृशो वायुभग्नाङ्गः शकुनिर्विकृतस्तथा ।
चतुष्पाद् बहुरूपश्च पुनर्भवति बालिशः ॥ ३५ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

वे कभी हृष्ट-पुष्ट, कभी वातरोगसे भग्न शरीरवाले और कभी पक्षी बन जाते हैं। कभी विकृत वेश बना लेते हैं। फिर कभी चौपाया (पशु), कभी बहुरूपिया और कभी गँवार बन जाते हैं॥३५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

मक्षिकामशकादीनां वपुर्धारयतेऽपि च ।
न शक्यमस्य ग्रहणं कर्तुं विपुल केनचित् ॥ ३६ ॥
अपि विश्वकृता तात येन सृष्टमिदं जगत्।
पुनरन्तर्हितः शक्रो दृश्यते ज्ञानचक्षुषा ॥ ३७ ॥

मूलम्

मक्षिकामशकादीनां वपुर्धारयतेऽपि च ।
न शक्यमस्य ग्रहणं कर्तुं विपुल केनचित् ॥ ३६ ॥
अपि विश्वकृता तात येन सृष्टमिदं जगत्।
पुनरन्तर्हितः शक्रो दृश्यते ज्ञानचक्षुषा ॥ ३७ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

वे मक्खी और मच्छर आदिके भी रूप धारण करते हैं। विपुल! कोई भी उन्हें पकड़ नहीं सकता। तात! औरोंकी तो बात ही क्या है? जिन्होंने इस संसारको बनाया है वे विधाता भी उन्हें अपने काबूमें नहीं कर सकते। अन्तर्धान हो जानेपर इन्द्र केवल ज्ञानदृष्टिसे दिखायी देते हैं॥३६-३७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

वायुभूतश्च स पुनर्देवराजो भवत्युत।
एवं रूपाणि सततं कुरुते पाकशासनः ॥ ३८ ॥

मूलम्

वायुभूतश्च स पुनर्देवराजो भवत्युत।
एवं रूपाणि सततं कुरुते पाकशासनः ॥ ३८ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

फिर वे वायुरूप होकर तुरंत ही देवराजके रूपमें प्रकट हो जाते हैं। इस तरह पाकशासन इन्द्र सदा नये-नये रूप धारण करता और बदलता रहता है॥३८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तस्माद् विपुल यत्नेन रक्षेमां तनुमध्यमाम्।
यथा रुचिं नावलिहेद् देवेन्द्रो भृगुसत्तम ॥ ३९ ॥
क्रतावुपहिते न्यस्तं हविः श्वेव दुरात्मवान्।

मूलम्

तस्माद् विपुल यत्नेन रक्षेमां तनुमध्यमाम्।
यथा रुचिं नावलिहेद् देवेन्द्रो भृगुसत्तम ॥ ३९ ॥
क्रतावुपहिते न्यस्तं हविः श्वेव दुरात्मवान्।

अनुवाद (हिन्दी)

भृगुश्रेष्ठ विपुल! इसलिये तुम यत्नपूर्वक इस तनुमध्यमा रुचिकी रक्षा करना जिससे दुरात्मा देवराज इन्द्र यज्ञमें रखे हुए हविष्यको चाटनेकी इच्छावाले कुत्तेकी भाँति मेरी पत्नी रुचिका स्पर्श न कर सके॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

एवमाख्याय स मुनिर्यज्ञकारोऽगमत् तदा ॥ ४० ॥
देवशर्मा महाभागस्ततो भरतसत्तम ।

मूलम्

एवमाख्याय स मुनिर्यज्ञकारोऽगमत् तदा ॥ ४० ॥
देवशर्मा महाभागस्ततो भरतसत्तम ।

अनुवाद (हिन्दी)

भरतश्रेष्ठ! ऐसा कहकर महाभाग देवशर्मा मुनि यज्ञ करनेके लिये चले गये॥४०॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

विपुलस्तु वचः श्रुत्वा गुरोश्चिन्तामुपेयिवान् ॥ ४१ ॥
रक्षां च परमां चक्रे देवराजान्महाबलात्।

मूलम्

विपुलस्तु वचः श्रुत्वा गुरोश्चिन्तामुपेयिवान् ॥ ४१ ॥
रक्षां च परमां चक्रे देवराजान्महाबलात्।

अनुवाद (हिन्दी)

गुरुकी बात सुनकर विपुल बड़ी चिन्तामें पड़ गये और महाबली देवराजसे उस स्त्रीकी बड़ी तत्परताके साथ रक्षा करने लगे॥४१॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

किं नु शक्यं मया कर्तुं गुरुदाराभिरक्षणे ॥ ४२ ॥
मायावी हि सुरेन्द्रोऽसौ दुर्धर्षश्चापि वीर्यवान्।

मूलम्

किं नु शक्यं मया कर्तुं गुरुदाराभिरक्षणे ॥ ४२ ॥
मायावी हि सुरेन्द्रोऽसौ दुर्धर्षश्चापि वीर्यवान्।

अनुवाद (हिन्दी)

उन्होंने मन-ही-मन सोचा, ‘मैं गुरुपत्नीकी रक्षाके लिये क्या कर सकता हूँ, क्योंकि वह देवराज इन्द्र मायावी होनेके साथ ही बड़ा दुर्धर्ष और पराक्रमी है॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

नापिधायाश्रमं शक्यो रक्षितुं पाकशासनः ॥ ४३ ॥
उटजं वा तथा ह्यस्य नानाविधसरूपता।

मूलम्

नापिधायाश्रमं शक्यो रक्षितुं पाकशासनः ॥ ४३ ॥
उटजं वा तथा ह्यस्य नानाविधसरूपता।

अनुवाद (हिन्दी)

‘कुटी या आश्रमके दरवाजोंको बंद करके भी पाकशासन इन्द्रका आना नहीं रोका जा सकता; क्योंकि वे कई प्रकारके रूप धारण करते हैं॥४३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

वायुरूपेण वा शक्रो गुरुपत्नीं प्रधर्षयेत् ॥ ४४ ॥
तस्मादिमां सम्प्रविश्य रुचिं स्थास्येऽहमद्य वै।

मूलम्

वायुरूपेण वा शक्रो गुरुपत्नीं प्रधर्षयेत् ॥ ४४ ॥
तस्मादिमां सम्प्रविश्य रुचिं स्थास्येऽहमद्य वै।

अनुवाद (हिन्दी)

सम्भव है, इन्द्र वायुका रूप धारण करके आये और गुरुपत्नीको दूषित कर डाले; इसलिये आज मैं रुचिके शरीरमें प्रवेश करके रहूँगा॥४४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अथवा पौरुषेणेयं न शक्या रक्षितुं मया ॥ ४५ ॥
बहुरूपो हि भगवान् श्रूयते पाकशासनः।
सोऽहं योगबलादेनां रक्षिष्ये पाकशासनात् ॥ ४६ ॥

मूलम्

अथवा पौरुषेणेयं न शक्या रक्षितुं मया ॥ ४५ ॥
बहुरूपो हि भगवान् श्रूयते पाकशासनः।
सोऽहं योगबलादेनां रक्षिष्ये पाकशासनात् ॥ ४६ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘अथवा पुरुषार्थके द्वारा मैं इसकी रक्षा नहीं कर सकता; क्योंकि ऐश्वर्यवाली पाकशासन इन्द्र बहुरूपिया सुने जाते हैं। अतः योगबलका आश्रय लेकर ही मैं इन्द्रसे इसकी रक्षा करूँगा॥४५-४६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

गात्राणि गात्रैरस्याहं सम्प्रवेक्ष्ये हि रक्षितुम्।
यद्युच्छिष्टामिमां पत्नीमद्य पश्यति मे गुरुः ॥ ४७ ॥
शप्स्यत्यसंशयं कोपाद् दिव्यज्ञानो महातपाः।

मूलम्

गात्राणि गात्रैरस्याहं सम्प्रवेक्ष्ये हि रक्षितुम्।
यद्युच्छिष्टामिमां पत्नीमद्य पश्यति मे गुरुः ॥ ४७ ॥
शप्स्यत्यसंशयं कोपाद् दिव्यज्ञानो महातपाः।

अनुवाद (हिन्दी)

‘मैं गुरुपत्नीकी रक्षा करनेके लिये अपने सम्पूर्ण अंगोंसे इसके सम्पूर्ण अंगोंमें समा जाऊँगा। यदि आज मेरे गुरुजी अपनी इस पत्नीको किसी पर-पुरुषद्वारा दूषित हुई देख लेंगे तो कुपित होकर मुझे निस्संदेह शाप दे देंगे; क्योंकि वे महा तपस्वी गुरु दिव्यज्ञानसे सम्पन्न हैं॥४७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

न चेयं रक्षितुं शक्या यथान्या प्रमदा नृभिः ॥ ४८ ॥
मायावी हि सुरेन्द्रोऽसावहो प्राप्तोऽस्मि संशयम्।

मूलम्

न चेयं रक्षितुं शक्या यथान्या प्रमदा नृभिः ॥ ४८ ॥
मायावी हि सुरेन्द्रोऽसावहो प्राप्तोऽस्मि संशयम्।

अनुवाद (हिन्दी)

‘दूसरी युवतियोंकी तरह इस गुरुपत्नीकी भी मनुष्योंद्वारा रक्षा नहीं की जा सकती; क्योंकि देवराज इन्द्र बड़े मायावी हैं। अहो! मैं बड़ी संशयजनित अवस्थामें पड़ गया॥४८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अवश्यं करणीयं हि गुरोरिह हि शासनम् ॥ ४९ ॥
यदि त्वेतदहं कुर्यामाश्चर्यं स्यात् कृतं मया।

मूलम्

अवश्यं करणीयं हि गुरोरिह हि शासनम् ॥ ४९ ॥
यदि त्वेतदहं कुर्यामाश्चर्यं स्यात् कृतं मया।

अनुवाद (हिन्दी)

‘यहाँ गुरुने जो आज्ञा दी है, उसका पालन मुझे अवश्य करना चाहिये। यदि मैं ऐसा कर सका तो मेरे द्वारा यह एक आश्चर्यजनक कार्य सम्पन्न होगा॥४९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

योगेनाथ प्रवेशो हि गुरुपत्न्याः कलेवरे ॥ ५० ॥
एवमेव शरीरेऽस्या निवत्स्यामि समाहितः।
असक्तः पद्मपत्रस्थो जलबिन्दुर्यथाचलः ॥ ५१ ॥

मूलम्

योगेनाथ प्रवेशो हि गुरुपत्न्याः कलेवरे ॥ ५० ॥
एवमेव शरीरेऽस्या निवत्स्यामि समाहितः।
असक्तः पद्मपत्रस्थो जलबिन्दुर्यथाचलः ॥ ५१ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘अतः मुझे गुरुपत्नीके शरीरमें योगबलसे प्रवेश करना चाहिये। जिस प्रकार कमलके पत्तेपर पड़ी हुई जलकी बूँद उसपर निर्लिप्त भावसे स्थिर रहती है उसी प्रकार मैं भी अनासक्त भावसे गुरुपत्नीके भीतर निवास करूँगा॥५०-५१॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

निर्मुक्तस्य रजोरूपान्नापराधो भवेन्मम ।
यथा हि शून्यां पथिकः सभामध्यावसेत् पथि ॥ ५२ ॥
तथाद्यावासयिष्यामि गुरुपत्न्याः कलेवरम् ।
एवमेव शरीरेऽस्या निवत्स्यामि समाहितः ॥ ५३ ॥

मूलम्

निर्मुक्तस्य रजोरूपान्नापराधो भवेन्मम ।
यथा हि शून्यां पथिकः सभामध्यावसेत् पथि ॥ ५२ ॥
तथाद्यावासयिष्यामि गुरुपत्न्याः कलेवरम् ।
एवमेव शरीरेऽस्या निवत्स्यामि समाहितः ॥ ५३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘मैं रजोगुणसे मुक्ता हूँ; अतः मेरे द्वारा कोई अपराध नहीं हो सकता, जैसे राह चलनेवाला बटोही कभी किसी सूनी धर्मशालामें ठहर जाता है उसी प्रकार आज मैं सावधान होकर गुरुपत्नीके शरीरमें निवास करूँगा। इसी तरह इसके शरीरमें मेरा निवास हो सकेगा’॥५२-५३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

इत्येवं धर्ममालोक्य वेदवेदांश्च सर्वशः।
तपश्च विपुलं दृष्ट्वा गुरोरात्मन एव च ॥ ५४ ॥
इति निश्चित्य मनसा रक्षां प्रति स भार्गवः।
अन्वतिष्ठत् परं यत्नं यथा तच्छृणु पार्थिव ॥ ५५ ॥

मूलम्

इत्येवं धर्ममालोक्य वेदवेदांश्च सर्वशः।
तपश्च विपुलं दृष्ट्वा गुरोरात्मन एव च ॥ ५४ ॥
इति निश्चित्य मनसा रक्षां प्रति स भार्गवः।
अन्वतिष्ठत् परं यत्नं यथा तच्छृणु पार्थिव ॥ ५५ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

पृथ्वीनाथ! इस तरह धर्मपर दृष्टि डाल, सम्पूर्ण वेद-शास्त्रोंपर विचार करके अपनी तथा गुरुकी प्रचुर तपस्याको दृष्टिमें रखते हुए भृगुवंशी विपुलने गुरुपत्नीकी रक्षाके लिये अपने मनसे उपर्युक्त उपाय ही निश्चित किया और इसके लिये जो महान् प्रयत्न किया, वह बताता हूँ, सुनो—॥५४-५५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

गुरुपत्नीं समासीनो विपुलः स महातपाः।
उपासीनामनिन्द्याङ्गीं कथाभिः समलोभयत् ॥ ५६ ॥

मूलम्

गुरुपत्नीं समासीनो विपुलः स महातपाः।
उपासीनामनिन्द्याङ्गीं कथाभिः समलोभयत् ॥ ५६ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘महा तपस्वी विपुल गुरुपत्नीके पास बैठ गये और पास ही बैठी हुई निर्दोष अंगोंवाली उस रुचिको अनेक प्रकारकी कथा-वार्ता सुनाकर अपनी बातोंमें लुभाने लगे॥५६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

नेत्राभ्यां नेत्रयोरस्या रश्मिं संयोज्य रश्मिभिः।
विवेश विपुलः कायमाकाशं पवनो यथा ॥ ५७ ॥

मूलम्

नेत्राभ्यां नेत्रयोरस्या रश्मिं संयोज्य रश्मिभिः।
विवेश विपुलः कायमाकाशं पवनो यथा ॥ ५७ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘फिर अपने दोनों नेत्रोंको उन्होंने उसके नेत्रोंकी ओर लगाया और अपने नेत्रोंकी किरणोंको उसके नेत्रोंकी किरणोंके साथ जोड़ दिया। फिर उसी मार्गसे आकाशमें प्रविष्ट होनेवाली वायुकी भाँति रुचिके शरीरमें प्रवेश किया’॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

लक्षणं लक्षणेनैव वदनं वदनेन च।
अविचेष्टन्नतिष्ठद् वै छायेवान्तर्हितो मुनिः ॥ ५८ ॥

मूलम्

लक्षणं लक्षणेनैव वदनं वदनेन च।
अविचेष्टन्नतिष्ठद् वै छायेवान्तर्हितो मुनिः ॥ ५८ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘वे लक्षणोंसे लक्षणोंमें और मुखके द्वारा मुखमें प्रविष्ट हो कोई चेष्टा न करते हुए स्थिर भावसे स्थित हो गये। उस समय अन्तर्हित हुए विपुल मुनि छायाके समान प्रतीत होते थे’॥५८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

ततो विष्टभ्य विपुलो गुरुपत्न्याः कलेवरम्।
उवास रक्षणे युक्तो न च सा तमबुद्‌ध्यत ॥ ५९ ॥

मूलम्

ततो विष्टभ्य विपुलो गुरुपत्न्याः कलेवरम्।
उवास रक्षणे युक्तो न च सा तमबुद्‌ध्यत ॥ ५९ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘विपुल गुरुपत्नीके शरीरको स्तम्भित करके उसकी रक्षामें संलग्न हो वहीं निवास करने लगे। परंतु रुचिको अपने शरीरमें उनके आनेका पता न चला॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

यं कालं नागतो राजन् गुरुस्तस्य महात्मनः।
क्रतुं समाप्य स्वगृहं तं कालं सोऽभ्यरक्षत ॥ ६० ॥

मूलम्

यं कालं नागतो राजन् गुरुस्तस्य महात्मनः।
क्रतुं समाप्य स्वगृहं तं कालं सोऽभ्यरक्षत ॥ ६० ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘राजन्! जबतक महात्मा विपुलके गुरु यज्ञ पूरा करके अपने घर नहीं लौटे तबतक विपुल इसी प्रकार अपनी गुरुपत्नीकी रक्षा करते रहे’॥६०॥

मूलम् (समाप्तिः)

इति श्रीमहाभारते अनुशासनपर्वणि दानधर्मपर्वणि विपुलोपाख्याने चत्वारिंशोऽध्यायः ॥ ४० ॥

मूलम् (वचनम्)

इस प्रकार श्रीमहाभारत अनुशासनपर्वके अन्तर्गत दानधर्मपर्वमें विपुलका उपाख्यानविषयक चालीसवाँ अध्याय पूरा हुआ॥४०॥

सूचना (हिन्दी)

(दाक्षिणात्य अधिक पाठके २ श्लोक मिलाकर कुल ६२ श्लोक हैं)