भागसूचना
सप्तत्रिंशोऽध्यायः
सूचना (हिन्दी)
दानपात्रकी परीक्षा
मूलम् (वचनम्)
युधिष्ठिर उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
अपूर्वश्च भवेत् पात्रमथवापि चिरोषितः।
दूरादभ्यागतं चापि किं पात्रं स्यात् पितामह ॥ १ ॥
मूलम्
अपूर्वश्च भवेत् पात्रमथवापि चिरोषितः।
दूरादभ्यागतं चापि किं पात्रं स्यात् पितामह ॥ १ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
युधिष्ठिरने पूछा— पितामह! दानका पात्र कौन होता है? अपरिचित पुरुष या बहुत दिनोंतक अपने साथ रहा हुआ पुरुष। अथवा किसी दूर देशसे आया हुआ मनुष्य? इनमेंसे किसको दानका उत्तम पात्र समझना चाहिये?॥१॥
मूलम् (वचनम्)
भीष्म उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
क्रिया भवति केषांचिदुपांशुव्रतमुत्तमम् ।
यो यो याचेत यत् किञ्चित् सर्वं दद्याम इत्यपि॥२॥
मूलम्
क्रिया भवति केषांचिदुपांशुव्रतमुत्तमम् ।
यो यो याचेत यत् किञ्चित् सर्वं दद्याम इत्यपि॥२॥
अनुवाद (हिन्दी)
भीष्मजीने कहा— युधिष्ठिर! कितने ही याचकोंका तो यज्ञ, गुरुदक्षिणा या कुटुम्बका भरण-पोषण आदि कार्य ही मनोरथ होता है और किन्हींका उत्तम मौनव्रतसे रहकर निर्वाह करना प्रयोजन होता है। इनमेंसे जो-जो याचक जिस किसी वस्तुकी याचना करे उन सबके लिये यही कहना चाहिये कि ‘हम देंगे’ (किसीको निराश नहीं करना चाहिये)॥२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अपीडयन् भूत्यवर्गमित्येवमनुशुश्रुम ।
पीडयन् भृत्यवर्गं हि आत्मानमपकर्षति ॥ ३ ॥
मूलम्
अपीडयन् भूत्यवर्गमित्येवमनुशुश्रुम ।
पीडयन् भृत्यवर्गं हि आत्मानमपकर्षति ॥ ३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
परंतु हमने सुना है कि ‘जिनके भरण-पोषणका अपने ऊपर भार है उस समुदायको कष्ट दिये बिना ही दाताको दान करना चाहिये। जो पोष्यवर्गको कष्ट देकर या भूखे मारकर दान करता है वह अपने आपको नीचे गिराता है’॥३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अपूर्वं भावयेत् पात्रं यच्चापि स्याच्चिरोषितम्।
दूरादभ्यागतं चापि तत्पात्रं च विदुर्बुधाः ॥ ४ ॥
मूलम्
अपूर्वं भावयेत् पात्रं यच्चापि स्याच्चिरोषितम्।
दूरादभ्यागतं चापि तत्पात्रं च विदुर्बुधाः ॥ ४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
इस दृष्टिसे विचार करनेपर जो पहलेसे परिचित नहीं है या जो चिरकालसे साथ रह चुका है, अथवा जो दूर देशसे आया हुआ है—इन तीनोंको ही विद्वान् पुरुष दान-पात्र समझते हैं॥४॥
मूलम् (वचनम्)
युधिष्ठिर उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
अपीडया च भूतानां धर्मस्याहिंसया तथा।
पात्रं विद्यात् तु तत्त्वेन यस्मै दत्तं न संतपेत्॥५॥
मूलम्
अपीडया च भूतानां धर्मस्याहिंसया तथा।
पात्रं विद्यात् तु तत्त्वेन यस्मै दत्तं न संतपेत्॥५॥
अनुवाद (हिन्दी)
युधिष्ठिरने पूछा— पितामह! किसी प्राणीको पीड़ा न दी जाय और धर्ममें भी बाधा न आने पाये, इस प्रकार दान देना उचित है; परंतु पात्रकी यथार्थ पहचान कैसे हो? जिससे दिया हुआ दान पीछे संतापका कारण न बने॥५॥
मूलम् (वचनम्)
भीष्म उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
ऋत्विक् पुरोहिताचार्याः शिष्यसम्बन्धिबान्धवाः ।
सर्वे पूज्याश्च मान्याश्च श्रुतवन्तोऽनसूयकाः ॥ ६ ॥
मूलम्
ऋत्विक् पुरोहिताचार्याः शिष्यसम्बन्धिबान्धवाः ।
सर्वे पूज्याश्च मान्याश्च श्रुतवन्तोऽनसूयकाः ॥ ६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
भीष्मजीने कहा— बेटा! ऋत्विक्, पुरोहित, आचार्य, शिष्य, सम्बन्धी, बान्धव, विद्वान् और दोष-दृष्टिसे रहित पुरुष—ये सभी पूजनीय और माननीय हैं॥६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अतोऽन्यथा वर्तमानाः सर्वे नार्हन्ति सत्क्रियाम्।
तस्मान्नित्यं परीक्षेत पुरुषान् प्रणिधाय वै ॥ ७ ॥
मूलम्
अतोऽन्यथा वर्तमानाः सर्वे नार्हन्ति सत्क्रियाम्।
तस्मान्नित्यं परीक्षेत पुरुषान् प्रणिधाय वै ॥ ७ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
इनसे भिन्न प्रकारके तथा भिन्न बर्ताववाले जो लोग हैं, वे सब सत्कारके पात्र नहीं हैं; अतः एकाग्रचित्त होकर प्रतिदिन सुपात्र पुरुषोंकी परीक्षा करनी चाहिये॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अक्रोधः सत्यवचनमहिंसा दम आर्जवम्।
अद्रोहोऽनभिमानश्च ह्रीस्तितिक्षा दमः शमः ॥ ८ ॥
यस्मिन्नेतानि दृश्यन्ते न चाकार्याणि भारत।
स्वभावतो निविष्टानि तत्पात्रं मानमर्हति ॥ ९ ॥
मूलम्
अक्रोधः सत्यवचनमहिंसा दम आर्जवम्।
अद्रोहोऽनभिमानश्च ह्रीस्तितिक्षा दमः शमः ॥ ८ ॥
यस्मिन्नेतानि दृश्यन्ते न चाकार्याणि भारत।
स्वभावतो निविष्टानि तत्पात्रं मानमर्हति ॥ ९ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
भारत! क्रोधका अभाव, सत्य-भाषण, अहिंसा, इन्द्रियसंयम, सरलता, द्रोहहीनता, अभिमानशून्यता, लज्जा, सहनशीलता, दम और मनोनिग्रह—ये गुण जिनमें स्वभावतः दिखायी दें और धर्मविरुद्ध कार्य दृष्टिगोचर न हों, वे ही दानके उत्तम पात्र और सम्मानके अधिकारी हैं॥८-९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तथा चिरोषितं चापि सम्प्रत्यागतमेव च।
अपूर्वं चैव पूर्वं च तत्पात्रं मानमर्हति ॥ १० ॥
मूलम्
तथा चिरोषितं चापि सम्प्रत्यागतमेव च।
अपूर्वं चैव पूर्वं च तत्पात्रं मानमर्हति ॥ १० ॥
अनुवाद (हिन्दी)
जो पुरुष बहुत दिनोंतक अपने साथ रहा हो, एवं जो कहींसे तत्काल आया हो, वह पहलेका परिचित हो या अपरिचित, वह दानका पात्र और सम्मानका अधिकारी है॥१०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अप्रामाण्यं च वेदानां शास्त्राणां चाभिलङ्घनम्।
अव्यवस्था च सर्वत्र एतान्नाशनमात्मनः ॥ ११ ॥
मूलम्
अप्रामाण्यं च वेदानां शास्त्राणां चाभिलङ्घनम्।
अव्यवस्था च सर्वत्र एतान्नाशनमात्मनः ॥ ११ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
वेदोंको अप्रामाणिक मानना, शास्त्रकी आज्ञाका उल्लङ्घन करना तथा सर्वत्र अव्यवस्था फैलाना—ये सब अपना ही नाश करनेवाले हैं॥११॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
भवेत् पण्डितमानी यो ब्राह्मणो वेदनिन्दकः।
आन्वीक्षिकीं तर्कविद्यामनुरक्तो निरर्थिकाम् ॥ १२ ॥
हेतुवादान् ब्रुवन् सत्सु विजेताहेतुवादिकः।
आक्रोष्टा चातिवक्ता च ब्राह्मणानां सदैव हि ॥ १३ ॥
सर्वाभिशङ्की मूढश्च बालः कटुकवागपि।
बोद्धव्यस्तादृशस्तात नरं श्वानं हि तं विदुः ॥ १४ ॥
मूलम्
भवेत् पण्डितमानी यो ब्राह्मणो वेदनिन्दकः।
आन्वीक्षिकीं तर्कविद्यामनुरक्तो निरर्थिकाम् ॥ १२ ॥
हेतुवादान् ब्रुवन् सत्सु विजेताहेतुवादिकः।
आक्रोष्टा चातिवक्ता च ब्राह्मणानां सदैव हि ॥ १३ ॥
सर्वाभिशङ्की मूढश्च बालः कटुकवागपि।
बोद्धव्यस्तादृशस्तात नरं श्वानं हि तं विदुः ॥ १४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
जो ब्राह्मण अपने पाण्डित्यका अभिमान करके व्यर्थके तर्कका आश्रय लेकर वेदोंकी निन्दा करता है, आन्वीक्षिकी निरर्थक तर्कविद्यामें अनुराग रखता है, सत्पुरुषोंकी सभामें कोरी तर्ककी बातें कहकर विजय पाता, शास्त्रानुकूल युक्तियोंका प्रतिपादन नहीं करता, जोर-जोरसे हल्ला मचाता और ब्राह्मणोंके प्रति सदा अतिवाद (अमर्यादित वचन)-का प्रयोग करता है, जो सबपर संदेह करता है, जो बालकों और मूर्खोंका-सा व्यवहार करता तथा कटुवचन बोलता है, तात! ऐसे मनुष्यको अस्पृश्य समझना चाहिये। विद्वान् पुरुषोंने ऐसे पुरुषको कुत्ता माना है॥१२—१४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
यथा श्वा भषितुं चैव हन्तुं चैवावसज्जते।
एवं सम्भाषणार्थाय सर्वशास्त्रवधाय च ॥ १५ ॥
मूलम्
यथा श्वा भषितुं चैव हन्तुं चैवावसज्जते।
एवं सम्भाषणार्थाय सर्वशास्त्रवधाय च ॥ १५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
जैसे कुत्ता भूँकने और काटनेके लिये निकट आ जाता है, उसी प्रकार वह बहस करने और शास्त्रोंका खण्डन करनेके लिये इधर-उधर दौड़ता-फिरता है (ऐसा व्यक्ति दानका पात्र नहीं है)॥१५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
लोकयात्रा च द्रष्टव्या धर्मश्चात्महितानि च।
एवं नरो वर्तमानः शाश्वतीर्वर्धते समाः ॥ १६ ॥
मूलम्
लोकयात्रा च द्रष्टव्या धर्मश्चात्महितानि च।
एवं नरो वर्तमानः शाश्वतीर्वर्धते समाः ॥ १६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
मनुष्यको जगत्के व्यवहारपर दृष्टि डालनी चाहिये। धर्म और अपने कल्याणके उपायोंपर भी विचार करना चाहिये। ऐसा करनेवाला मनुष्य सदा ही अभ्युदयशील होता है॥१६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ऋणमुन्मुच्य देवानामृषीणां च तथैव च।
पितॄणामथ विप्राणामतिथीनां च पञ्चमम् ॥ १७ ॥
पर्यायेण विशुद्धेन सुविनीतेन कर्मणा।
एवं गृहस्थः कर्माणि कुर्वन् धर्मान्न हीयते ॥ १८ ॥
मूलम्
ऋणमुन्मुच्य देवानामृषीणां च तथैव च।
पितॄणामथ विप्राणामतिथीनां च पञ्चमम् ॥ १७ ॥
पर्यायेण विशुद्धेन सुविनीतेन कर्मणा।
एवं गृहस्थः कर्माणि कुर्वन् धर्मान्न हीयते ॥ १८ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
जो यज्ञ-यागादि करके देवताओंके ऋणसे, वेदोंका स्वाध्याय करके ऋषियोंके ऋणसे, श्रेष्ठ पुत्रकी उत्पत्ति तथा श्राद्ध करके पितरोंके ऋणसे, दान देकर ब्राह्मणोंके ऋणसे और आतिथ्य सत्कार करके अतिथियोंके ऋणसे मुक्त होता है तथा क्रमशः विशुद्ध और विनययुक्त प्रयत्नसे शास्त्रोक्त कर्मोंका अनुष्ठान करता है, वह गृहस्थ कभी धर्मसे भ्रष्ट नहीं होता॥१७-१८॥
मूलम् (समाप्तिः)
इति श्रीमहाभारते अनुशासनपर्वणि दानधर्मपर्वणि पात्रपरीक्षायां सप्तत्रिंशोऽध्यायः ॥ ३७ ॥
मूलम् (वचनम्)
इस प्रकार श्रीमहाभारत अनुशासनपर्वके अन्तर्गत दानधर्मपर्वमें पात्रकी परीक्षाविषयक सैंतीसवाँ अध्याय पूरा हुआ॥३७॥