भागसूचना
षट्त्रिंशोऽध्यायः
सूचना (हिन्दी)
ब्राह्मणकी प्रशंसाके विषयमें इन्द्र और शम्बरासुरका संवाद
मूलम् (वचनम्)
भीष्म उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
अत्राप्युदाहरन्तीममितिहासं पुरातनम् ।
शक्रशम्बरसंवादं तन्निबोध युधिष्ठिर ॥ १ ॥
मूलम्
अत्राप्युदाहरन्तीममितिहासं पुरातनम् ।
शक्रशम्बरसंवादं तन्निबोध युधिष्ठिर ॥ १ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
भीष्मजी कहते हैं— युधिष्ठिर! इस विषयमें इन्द्र और शम्बरासुरके संवादरूप इस प्राचीन इतिहासका उदाहरण दिया जाता है, इसे सुनो॥१॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
शक्रो ह्यज्ञातरूपेण जटी भूत्वा रजोगुणः।
विरूपं रथमास्थाय प्रश्नं पप्रच्छ शम्बरम् ॥ २ ॥
मूलम्
शक्रो ह्यज्ञातरूपेण जटी भूत्वा रजोगुणः।
विरूपं रथमास्थाय प्रश्नं पप्रच्छ शम्बरम् ॥ २ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
एक समयकी बात है, देवराज इन्द्र अज्ञातरूपसे रजोगुणसम्पन्न जटाधारी तपस्वी बनकर एक बेडौल रथपर सवार हो शम्बरासुरके पास गये। वहाँ पहुँचकर उन्होंने उससे पूछा॥२॥
मूलम् (वचनम्)
शक्र उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
केन शम्बर वृत्तेन स्वजात्यानधितिष्ठसि।
श्रेष्ठं त्वां केन मन्यन्ते तद् वै प्रब्रूहि तत्त्वतः॥३॥
मूलम्
केन शम्बर वृत्तेन स्वजात्यानधितिष्ठसि।
श्रेष्ठं त्वां केन मन्यन्ते तद् वै प्रब्रूहि तत्त्वतः॥३॥
अनुवाद (हिन्दी)
इन्द्र बोले— शम्बरासुर! किस बर्तावसे अपनी जातिवालोंपर शासन करते हो? वे किस कारण तुम्हें सर्वश्रेष्ठ मानते हैं? यह ठीक-ठीक बतलाओ॥३॥
मूलम् (वचनम्)
शम्बर उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
नासूयामि यदा विप्रान् ब्राह्ममेव च मे मतम्।
शास्त्राणि वदतो विप्रान् सम्मन्यामि यथासुखम् ॥ ४ ॥
मूलम्
नासूयामि यदा विप्रान् ब्राह्ममेव च मे मतम्।
शास्त्राणि वदतो विप्रान् सम्मन्यामि यथासुखम् ॥ ४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
शम्बरासुरने कहा— मैं ब्राह्मणोंमें कभी दोष नहीं देखता। उनके मतको ही अपना मत समझता हूँ और शास्त्रोंकी बात बतानेवाले विप्रोंका सदा सम्मान करता हूँ—उन्हें यथासाध्य सुख देनेकी चेष्टा करता हूँ॥४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
श्रुत्वा च नावजानामि नापराध्यामि कर्हिचित्।
अभ्यर्च्याभ्यनुपृच्छामि पादौ गृह्णामि धीमताम् ॥ ५ ॥
मूलम्
श्रुत्वा च नावजानामि नापराध्यामि कर्हिचित्।
अभ्यर्च्याभ्यनुपृच्छामि पादौ गृह्णामि धीमताम् ॥ ५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
सुनकर उनके वचनोंकी अवहेलना नहीं करता। कभी उनका अपराध नहीं करता। उनकी पूजा करके कुशल पूछता हूँ और बुद्धिमान् ब्राह्मणोंके पाँव पकड़ता हूँ॥५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ते विश्रब्धाः प्रभाषन्ते सम्पृच्छन्ते च मां सदा।
प्रमत्तेष्वप्रमत्तोऽस्मि सदा सुप्तेषु जागृमि ॥ ६ ॥
मूलम्
ते विश्रब्धाः प्रभाषन्ते सम्पृच्छन्ते च मां सदा।
प्रमत्तेष्वप्रमत्तोऽस्मि सदा सुप्तेषु जागृमि ॥ ६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
ब्राह्मण भी अत्यन्त विश्वस्त होकर मेरे साथ बातचीत करते और मेरी कुशल पूछते हैं। ब्राह्मणोंके असावधान रहनेपर भी मैं सदा सावधान रहता हूँ। उनके सोते रहनेपर भी मैं जागता रहता हूँ॥६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ते मां शास्त्रपथे युक्तं ब्रह्मण्यमनसूयकम्।
समासिञ्चन्ति शास्तारः क्षौद्रं मध्विव मक्षिकाः ॥ ७ ॥
मूलम्
ते मां शास्त्रपथे युक्तं ब्रह्मण्यमनसूयकम्।
समासिञ्चन्ति शास्तारः क्षौद्रं मध्विव मक्षिकाः ॥ ७ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
मुझे शास्त्रीय मार्गपर चलनेवाला ब्राह्मणभक्त तथा अदोषदर्शी जानकर वे उपदेशक ब्राह्मण मुझे उसी प्रकार सदुपदेशके अमृतसे सींचते रहते हैं जैसे मधुमक्खियाँ मधुके छत्तेको॥७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
यच्च भाषन्ति संतुष्टास्तच्च गृह्णामि मेधया।
समाधिमात्मनो नित्यमनुलोममचिन्तयम् ॥ ८ ॥
मूलम्
यच्च भाषन्ति संतुष्टास्तच्च गृह्णामि मेधया।
समाधिमात्मनो नित्यमनुलोममचिन्तयम् ॥ ८ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
संतुष्ट होकर वे मुझसे जो कुछ कहते हैं उसे मैं अपनी बुद्धिके द्वारा ग्रहण करता हूँ। सदा ब्राह्मणोंमें अपनी निष्ठा बनाये रखता हूँ और नित्यप्रति उनके अनुकूल विचार रखता हूँ॥८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
सोऽहं वागग्रमृष्टानां रसानामवलेहकः ।
स्वजात्यानधितिष्ठामि नक्षत्राणीव चन्द्रमाः ॥ ९ ॥
मूलम्
सोऽहं वागग्रमृष्टानां रसानामवलेहकः ।
स्वजात्यानधितिष्ठामि नक्षत्राणीव चन्द्रमाः ॥ ९ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
उनकी वाणीसे जो उपदेशका मधुर रस प्रवाहित होता है उसका मैं आस्वादन करता रहता हूँ। इसीलिये नक्षत्रोंपर चन्द्रमाकी भाँति मैं अपनी जातिवालोंपर शासन करता हूँ॥९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
एतत् पृथिव्याममृतमेतच्चक्षुरनुत्तमम् ।
यद् ब्राह्मणमुखात् शास्त्रमिह श्रुत्वा प्रवर्तते ॥ १० ॥
मूलम्
एतत् पृथिव्याममृतमेतच्चक्षुरनुत्तमम् ।
यद् ब्राह्मणमुखात् शास्त्रमिह श्रुत्वा प्रवर्तते ॥ १० ॥
अनुवाद (हिन्दी)
ब्राह्मणके मुखसे शास्त्रका उपदेश सुनकर इस जीवनमें उसके अनुसार बर्ताव करना ही पृथ्वीपर सर्वोत्तम अमृत और सर्वोत्तम दृष्टि है॥१०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
एतत् कारणमाज्ञाय दृष्ट्वा देवासुरं पुरा।
युद्धं पिता मे हृष्टात्मा विस्मितः समपद्यत ॥ ११ ॥
मूलम्
एतत् कारणमाज्ञाय दृष्ट्वा देवासुरं पुरा।
युद्धं पिता मे हृष्टात्मा विस्मितः समपद्यत ॥ ११ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
इस कारणको जानकर अर्थात् ब्राह्मणके उपदेशके अनुसार चलना ही अमृत है—इस बातको भलीभाँति समझकर पूर्वकालमें देवासुरसंग्रामको उपस्थित हुआ देख मेरे पिता मन-ही-मन प्रसन्न और विस्मित हुए थे॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
दृष्ट्वा च ब्राह्मणानां तु महिमानं महात्मनाम्।
पर्यपृच्छत् कथममी सिद्धा इति निशाकरम् ॥ १२ ॥
मूलम्
दृष्ट्वा च ब्राह्मणानां तु महिमानं महात्मनाम्।
पर्यपृच्छत् कथममी सिद्धा इति निशाकरम् ॥ १२ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
महात्मा ब्राह्मणोंकी इस महिमाको देखकर उन्होंने चन्द्रमासे पूछा—‘निशाकर! इन ब्राह्मणोंको किस प्रकार सिद्धि प्राप्त हुई?’॥१२॥
मूलम् (वचनम्)
सोम उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
ब्राह्मणास्तपसा सर्वे सिध्यन्ते वाग्बलाः सदा।
भुजवीर्याश्च राजानो वागस्त्राश्च द्विजातयः ॥ १३ ॥
मूलम्
ब्राह्मणास्तपसा सर्वे सिध्यन्ते वाग्बलाः सदा।
भुजवीर्याश्च राजानो वागस्त्राश्च द्विजातयः ॥ १३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
चन्द्रमाने कहा— दानवराज! सम्पूर्ण ब्राह्मण तपस्यासे ही सिद्ध हुए हैं। इनका बल सदा इनकी वाणीमें ही होता है। राजाओंका बल उनकी भुजाएँ हैं और ब्राह्मणोंका बल उनकी वाणी॥१३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
प्रणवं चाप्यधीयीत ब्राह्मीर्दुर्वसतीर्वसन् ।
निर्मन्युरपि निर्वाणो यदि स्यात् समदर्शनः ॥ १४ ॥
मूलम्
प्रणवं चाप्यधीयीत ब्राह्मीर्दुर्वसतीर्वसन् ।
निर्मन्युरपि निर्वाणो यदि स्यात् समदर्शनः ॥ १४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
पहले गुरुके घरमें ब्रह्मचर्यका पालन करते हुए क्लेश-सहनपूर्वक निवास करके प्रणवसहित वेदका अध्ययन करना चाहिये। फिर अन्तमें क्रोध त्यागकर शान्तभावसे संन्यास ग्रहण करना चाहिये। यदि संन्यासी हो तो सर्वत्र समान दृष्टि रखे॥१४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अपि च ज्ञानसम्पन्नः सर्वान् वेदान् पितुर्गृहे।
श्लाघमान इवाधीयाद् ग्राम्य इत्येव तं विदुः ॥ १५ ॥
मूलम्
अपि च ज्ञानसम्पन्नः सर्वान् वेदान् पितुर्गृहे।
श्लाघमान इवाधीयाद् ग्राम्य इत्येव तं विदुः ॥ १५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
जो सम्पूर्ण वेदोंको पिताके घरमें रहकर पढ़ता है वह ज्ञानसम्पन्न और प्रशंसनीय होनेपर भी विद्वानोंके द्वारा ग्रामीण (गँवार) ही समझा जाता है। (वास्तवमें गुरुके घरमें क्लेश-सहनपूर्वक रहकर वेद पढ़नेवाला ही श्रेष्ठ है)॥१५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
भूमिरेतौ निगिरति सर्पो बिलशयानिव।
राजानं चाप्ययोद्धारं ब्राह्मणं चाप्रवासिनम् ॥ १६ ॥
मूलम्
भूमिरेतौ निगिरति सर्पो बिलशयानिव।
राजानं चाप्ययोद्धारं ब्राह्मणं चाप्रवासिनम् ॥ १६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
जैसे साँप बिलमें रहनेवाले छोटे जीवोंको निगल जाता है, उसी प्रकार युद्ध न करनेवाले क्षत्रिय और विद्याके लिये प्रवास न करनेवाले ब्राह्मणको यह पृथ्वी निगल जाती है॥१६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अभिमानः श्रियं हन्ति पुरुषस्याल्पमेधसः।
गर्भेण दुष्यते कन्या गृहवासेन च द्विजः ॥ १७ ॥
मूलम्
अभिमानः श्रियं हन्ति पुरुषस्याल्पमेधसः।
गर्भेण दुष्यते कन्या गृहवासेन च द्विजः ॥ १७ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
मन्दबुद्धि पुरुषके भीतर जो अभिमान होता है वह उसकी लक्ष्मीका नाश करता है। गर्भ धारण करनेसे कन्या दूषित हो जाती है और सदा घरमें रहनेसे ब्राह्मण दूषित समझे जाते हैं॥१७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
(विद्याविदो लोकविदः तपोबलसमन्विताः ।
नित्यपूज्याश्च वन्द्याश्च द्विजा लोकद्वयेच्छुभिः॥)
मूलम्
(विद्याविदो लोकविदः तपोबलसमन्विताः ।
नित्यपूज्याश्च वन्द्याश्च द्विजा लोकद्वयेच्छुभिः॥)
अनुवाद (हिन्दी)
जो इहलोक और परलोक दोनोंको सुधारना चाहते हों, उन्हें विद्वान्, लौकिक बातोंके ज्ञाता, तपस्वी और शक्तिशाली ब्राह्मणोंकी सदा पूजा और वन्दना करनी चाहिये॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
इत्येतन्मे पिता श्रुत्वा सोमादद्भुतदर्शनात्।
ब्राह्मणान् पूजयामास तथैवाहं महाव्रतान् ॥ १८ ॥
मूलम्
इत्येतन्मे पिता श्रुत्वा सोमादद्भुतदर्शनात्।
ब्राह्मणान् पूजयामास तथैवाहं महाव्रतान् ॥ १८ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
अद्भुत दर्शनवाले चन्द्रमासे यह बात सुनकर मेरे पिताजीने महान् व्रतधारी ब्राह्मणोंका पूजन किया। वैसे ही मैं भी करता हूँ॥१८॥
मूलम् (वचनम्)
भीष्म उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
श्रुत्वैतद् वचनं शक्रो दानवेन्द्रमुखाच्च्युतम्।
द्विजान् सम्पूजयामास महेन्द्रत्वमवाप च ॥ १९ ॥
मूलम्
श्रुत्वैतद् वचनं शक्रो दानवेन्द्रमुखाच्च्युतम्।
द्विजान् सम्पूजयामास महेन्द्रत्वमवाप च ॥ १९ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
भीष्मजी कहते हैं— भारत! दानवराज शम्बरके मुखसे यह वचन सुनकर इन्द्रने ब्राह्मणोंका पूजन किया, इससे उन्हें महेन्द्रपदकी प्राप्ति हुई॥१९॥
मूलम् (समाप्तिः)
इति श्रीमहाभारते अनुशासनपर्वणि दानधर्मपर्वणि ब्राह्मणप्रशंसायामिन्द्रशम्बरसंवादे षट्त्रिंशोऽध्यायः ॥ ३६ ॥
मूलम् (वचनम्)
इस प्रकार श्रीमहाभारत अनुशासनपर्वके अन्तर्गत दानधर्मपर्वमें ब्राह्मणकी प्रशंसाके प्रसंगमें इन्द्र और शम्बरासुरका संवादविषयक छत्तीसवाँ अध्याय पूरा हुआ॥३६॥
सूचना (हिन्दी)
(दाक्षिणात्य अधिक पाठका १ श्लोक मिलाकर कुल २० श्लोक हैं)