भागसूचना
पञ्चत्रिंशोऽध्यायः
सूचना (हिन्दी)
ब्रह्माजीके द्वारा ब्राह्मणोंकी महत्ताका वर्णन
मूलम् (वचनम्)
भीष्म उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
जन्मनैव महाभागो ब्राह्मणो नाम जायते।
नमस्यः सर्वभूतानामतिथिः प्रसृताग्रभुक् ॥ १ ॥
मूलम्
जन्मनैव महाभागो ब्राह्मणो नाम जायते।
नमस्यः सर्वभूतानामतिथिः प्रसृताग्रभुक् ॥ १ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
भीष्मजी कहते हैं— युधिष्ठिर! ब्राह्मण जन्मसे ही महान् भाग्यशाली, समस्त प्राणियोंका वन्दनीय, अतिथि और प्रथम भोजन पानेका अधिकारी है॥१॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
सर्वार्थाः सुहृदस्तात ब्राह्मणाः सुमनोमुखाः।
गीर्भिर्मङ्गलयुक्ताभिरनुध्यायन्ति पूजिताः ॥ २ ॥
मूलम्
सर्वार्थाः सुहृदस्तात ब्राह्मणाः सुमनोमुखाः।
गीर्भिर्मङ्गलयुक्ताभिरनुध्यायन्ति पूजिताः ॥ २ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
तात! ब्राह्मण सब मनोरथोंको सिद्ध करनेवाले, सबके सुहृद् तथा देवताओंके मुख हैं। वे पूजित होनेपर अपनी मंगलयुक्त वाणीसे आशीर्वाद देकर मनुष्यके कल्याणका चिन्तन करते हैं॥२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
सर्वान्नो द्विषतस्तात ब्राह्मणा जातमन्यवः।
गीर्भिर्दारुणयुक्ताभिरभिहन्युरपूजिताः ॥ ३ ॥
मूलम्
सर्वान्नो द्विषतस्तात ब्राह्मणा जातमन्यवः।
गीर्भिर्दारुणयुक्ताभिरभिहन्युरपूजिताः ॥ ३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
तात! हमारे शत्रुओंके द्वारा पूजित न होनेपर उनके प्रति कुपित हुए ब्राह्मण उन सबको अभिशापयुक्त कठोर वाणीद्वारा नष्ट कर डालें॥३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अत्र गाथाः पुरागीताः कीर्तयन्ति पुराविदः।
सृष्ट्वा द्विजातीन् धाता हि यथापूर्वं समादधत् ॥ ४ ॥
न चान्यदिह कर्तव्यं किञ्चिदूर्ध्वं यथाविधि।
गुप्तो गोपायते ब्रह्मा श्रेयो वस्तेन शोभनम् ॥ ५ ॥
मूलम्
अत्र गाथाः पुरागीताः कीर्तयन्ति पुराविदः।
सृष्ट्वा द्विजातीन् धाता हि यथापूर्वं समादधत् ॥ ४ ॥
न चान्यदिह कर्तव्यं किञ्चिदूर्ध्वं यथाविधि।
गुप्तो गोपायते ब्रह्मा श्रेयो वस्तेन शोभनम् ॥ ५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
इस विषयमें पुराणवेत्ता पुरुष पहलेकी गायी हुई कुछ गाथाओंका वर्णन करते हैं—प्रजापतिने ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैश्योंको पूर्ववत् उत्पन्न करके उनको समझाया, ‘तुमलोगोंके लिये विधिपूर्वक स्वधर्मपालन और ब्राह्मणोंकी सेवाके सिवा और कोई कर्तव्य नहीं है। ब्राह्मणकी रक्षा की जाय तो वह स्वयं भी अपने रक्षककी रक्षा करता है; अतः ब्राह्मणकी सेवासे तुमलोगोंका परम कल्याण होगा॥४-५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
स्वमेव कुर्वतां कर्म श्रीर्वो ब्राह्मी भविष्यति।
प्रमाणं सर्वभूतानां प्रग्रहाश्च भविष्यथ ॥ ६ ॥
मूलम्
स्वमेव कुर्वतां कर्म श्रीर्वो ब्राह्मी भविष्यति।
प्रमाणं सर्वभूतानां प्रग्रहाश्च भविष्यथ ॥ ६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘ब्राह्मणकी रक्षारूप अपने कर्तव्यका पालन करनेसे ही तुमलोगोंको ब्राह्मी लक्ष्मी प्राप्त होगी। तुम सम्पूर्ण भूतोंके लिये प्रमाणभूत तथा उनको वशमें करनेवाले बन जाओगे॥६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
न शौद्रं कर्म कर्तव्यं ब्राह्मणेन विपश्चिता।
शौद्रं हि कुर्वतः कर्म धर्मः समुपरुध्यते ॥ ७ ॥
मूलम्
न शौद्रं कर्म कर्तव्यं ब्राह्मणेन विपश्चिता।
शौद्रं हि कुर्वतः कर्म धर्मः समुपरुध्यते ॥ ७ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘विद्वान् ब्राह्मणको शूद्रोचित कर्म नहीं करना चाहिये। शूद्रके कर्म करनेसे उसका धर्म नष्ट हो जाता है॥७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
श्रीश्च बुद्धिश्च तेजश्च विभूतिश्च प्रतापिनी।
स्वाध्याये चैव माहात्म्यं विपुलं प्रतिपत्स्यते ॥ ८ ॥
मूलम्
श्रीश्च बुद्धिश्च तेजश्च विभूतिश्च प्रतापिनी।
स्वाध्याये चैव माहात्म्यं विपुलं प्रतिपत्स्यते ॥ ८ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘स्वधर्मका पालन करनेसे लक्ष्मी, बुद्धि, तेज और प्रतापयुक्त ऐश्वर्यकी प्राप्ति होती है, तथा स्वाध्यायका अत्यधिक माहात्म्य उपलब्ध होता है॥८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
हुत्वा चाहवनीयस्थं महाभाग्ये प्रतिष्ठिताः।
अग्रभोज्याः प्रसूतीनां श्रिया ब्राह्म्यानुकल्पिताः ॥ ९ ॥
मूलम्
हुत्वा चाहवनीयस्थं महाभाग्ये प्रतिष्ठिताः।
अग्रभोज्याः प्रसूतीनां श्रिया ब्राह्म्यानुकल्पिताः ॥ ९ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘ब्राह्मण आहवनीय अग्निमें स्थित देवतागणोंको हवनसे तृप्त करके महान् सौभाग्यपूर्ण पदपर प्रतिष्ठित होते हैं। वे ब्राह्मी विद्यासे उत्तम पात्र बनकर बालकोंसे भी पहले भोजन पानेके अधिकारी होते हैं॥९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
श्रद्धया परया युक्ता ह्यनभिद्रोहलब्धया।
दमस्वाध्यायनिरताः सर्वान् कामानवाप्स्यथ ॥ १० ॥
मूलम्
श्रद्धया परया युक्ता ह्यनभिद्रोहलब्धया।
दमस्वाध्यायनिरताः सर्वान् कामानवाप्स्यथ ॥ १० ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘द्विजगण! यदि तुमलोग किसी भी प्राणीके साथ द्रोह न करनेके कारण प्राप्त हुई परम श्रद्धासे सम्पन्न हो इन्द्रियसंयम और स्वाध्यायमें लगे रहोगे तो सम्पूर्ण कामनाओंको प्राप्त कर लोगे॥१०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
यच्चैव मानुषे लोके यच्च देवेषु किञ्चन।
सर्वं तु तपसा साध्यं ज्ञानेन नियमेन च ॥ ११ ॥
मूलम्
यच्चैव मानुषे लोके यच्च देवेषु किञ्चन।
सर्वं तु तपसा साध्यं ज्ञानेन नियमेन च ॥ ११ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘मनुष्यलोकमें तथा देवलोकमें जो कुछ भी भोग्य वस्तुएँ हैं, वे सब ज्ञान, नियम और तपस्यासे प्राप्त होनेवाली हैं॥११॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
(युष्मत्सम्माननात् प्रीतिं पावनाः क्षत्रियाः श्रियम्।
अमुत्रेह समायान्ति वैश्यशूद्रादिकास्तथा ॥
अरक्षिताश्च युष्माभिर्विरुद्धा यान्ति विप्लवम्।
युष्मत्तेजोधृता लोकास्तद् रक्षथ जगत्त्रयम्॥)
मूलम्
(युष्मत्सम्माननात् प्रीतिं पावनाः क्षत्रियाः श्रियम्।
अमुत्रेह समायान्ति वैश्यशूद्रादिकास्तथा ॥
अरक्षिताश्च युष्माभिर्विरुद्धा यान्ति विप्लवम्।
युष्मत्तेजोधृता लोकास्तद् रक्षथ जगत्त्रयम्॥)
अनुवाद (हिन्दी)
‘आपलोगोंके समादरसे पवित्र हुए क्षत्रिय, वैश्य तथा शूद्र आदि प्राणी इहलोक और परलोकमें भी प्रीति एवं सम्पत्ति पाते हैं। जो आपके विरोधी हैं, वे आपसे अरक्षित होनेके कारण विनाशको प्राप्त होते हैं। आपके तेजसे ही ये सम्पूर्ण लोक टिके हुए हैं; अतः आप तीनों लोकोंकी रक्षा करें’॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
इत्येवं ब्रह्मगीतास्ते समाख्याता मयानघ।
विप्राणामनुकम्पार्थं तेन प्रोक्तं हि धीमता ॥ १२ ॥
मूलम्
इत्येवं ब्रह्मगीतास्ते समाख्याता मयानघ।
विप्राणामनुकम्पार्थं तेन प्रोक्तं हि धीमता ॥ १२ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
निष्पाप युधिष्ठिर! इस प्रकार ब्रह्माजीकी गायी हुई गाथा मैंने तुम्हें बतायी है। उन परम बुद्धिमान् धाताने ब्राह्मणोंपर कृपा करनेके लिये ही ऐसा कहा है॥१२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
भूयस्तेषां बलं मन्ये यथा राज्ञस्तपस्विनः।
दुरासदाश्च चण्डाश्च रभसाः क्षिप्रकारिणः ॥ १३ ॥
मूलम्
भूयस्तेषां बलं मन्ये यथा राज्ञस्तपस्विनः।
दुरासदाश्च चण्डाश्च रभसाः क्षिप्रकारिणः ॥ १३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
मैं ब्राह्मणोंका बल तपस्वी राजाके समान बहुत बड़ा मानता हूँ। वे दुर्जय, प्रचण्ड, वेगशाली और शीघ्रकारी होते हैं॥१३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
सन्त्येषां सिंहसत्त्वाश्च व्याघ्रसत्त्वास्तथापरे ।
वराहमृगसत्त्वाश्च जलसत्त्वास्तथापरे ॥ १४ ॥
मूलम्
सन्त्येषां सिंहसत्त्वाश्च व्याघ्रसत्त्वास्तथापरे ।
वराहमृगसत्त्वाश्च जलसत्त्वास्तथापरे ॥ १४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
ब्राह्मणोंमें कुछ सिंहके समान शक्तिशाली होते हैं और कुछ व्याघ्रके समान। कितनोंकी शक्ति वाराह और मृगके समान होती है। कितने ही जल-जन्तुओंके समान होते हैं॥१४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
सर्पस्पर्शसमाः केचित् तथान्ये मकरस्पृशः।
विभाष्यघातिनः केचित् तथा चक्षुर्हणोऽपरे ॥ १५ ॥
मूलम्
सर्पस्पर्शसमाः केचित् तथान्ये मकरस्पृशः।
विभाष्यघातिनः केचित् तथा चक्षुर्हणोऽपरे ॥ १५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
किन्हींका स्पर्श सर्पके समान होता है तो किन्हींका घड़ियालोंके समान। कोई शाप देकर मारते हैं तो कोई क्रोधभरी दृष्टिसे देखकर ही भस्म कर देते हैं॥१५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
सन्ति चाशीविषसमाः सन्ति मन्दास्तथापरे।
विविधानीह वृत्तानि ब्राह्मणानां युधिष्ठिर ॥ १६ ॥
मूलम्
सन्ति चाशीविषसमाः सन्ति मन्दास्तथापरे।
विविधानीह वृत्तानि ब्राह्मणानां युधिष्ठिर ॥ १६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
कुछ ब्राह्मण विषधर सर्पके समान भयंकर होते हैं और कुछ मन्द स्वभावके भी होते हैं। युधिष्ठिर! इस जगत्में ब्राह्मणोंके स्वभाव और आचार-व्यवहार अनेक प्रकारके हैं॥१६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
मेकला द्राविडा लाटाः पौण्ड्राः कान्वशिरास्तथा।
शौण्डिका दरदा दार्वाश्चौराः शबरबर्बराः ॥ १७ ॥
किराता यवनाश्चैव तास्ताः क्षत्रियजातयः।
वृषलत्वमनुप्राप्ता ब्राह्मणानाममर्षणात् ॥ १८ ॥
मूलम्
मेकला द्राविडा लाटाः पौण्ड्राः कान्वशिरास्तथा।
शौण्डिका दरदा दार्वाश्चौराः शबरबर्बराः ॥ १७ ॥
किराता यवनाश्चैव तास्ताः क्षत्रियजातयः।
वृषलत्वमनुप्राप्ता ब्राह्मणानाममर्षणात् ॥ १८ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
मेकल, द्राविड़, लाट, पौण्ड्र, कान्वशिरा, शौण्डिक, दरद, दार्व, चौर, शबर, बर्बर, किरात और यवन—ये सब पहले क्षत्रिय थे; किंतु ब्राह्मणोंके साथ ईर्ष्या करनेसे नीच हो गये॥१७-१८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ब्राह्मणानां परिभवादसुराः सलिलेशयाः ।
ब्राह्मणानां प्रसादाच्च देवाः स्वर्गनिवासिनः ॥ १९ ॥
मूलम्
ब्राह्मणानां परिभवादसुराः सलिलेशयाः ।
ब्राह्मणानां प्रसादाच्च देवाः स्वर्गनिवासिनः ॥ १९ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
ब्राह्मणोंके तिरस्कारसे ही असुरोंको समुद्रमें रहना पड़ा और ब्राह्मणोंके कृपाप्रसादसे देवता स्वर्गलोकमें निवास करते हैं॥१९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अशक्यं स्प्रष्टुमाकाशमचाल्यो हिमवान् गिरिः।
अधार्या सेतुना गङ्गा दुर्जया ब्राह्मणा भुवि ॥ २० ॥
मूलम्
अशक्यं स्प्रष्टुमाकाशमचाल्यो हिमवान् गिरिः।
अधार्या सेतुना गङ्गा दुर्जया ब्राह्मणा भुवि ॥ २० ॥
अनुवाद (हिन्दी)
जैसे आकाशको छूना, हिमालयको विचलित करना और बाँध बाँधकर गङ्गाके प्रवाहको रोक देना असम्भव है, उसी प्रकार इस भूतलपर ब्राह्मणोंको जीतना सर्वथा असम्भव है॥२०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
न ब्राह्मणविरोधेन शक्या शास्तुं वसुन्धरा।
ब्राह्मणा हि महात्मानो देवानामपि देवताः ॥ २१ ॥
मूलम्
न ब्राह्मणविरोधेन शक्या शास्तुं वसुन्धरा।
ब्राह्मणा हि महात्मानो देवानामपि देवताः ॥ २१ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
ब्राह्मणोंसे विरोध करके भूमण्डलका राज्य नहीं चलाया जा सकता; क्योंकि महात्मा ब्राह्मण देवताओंके भी देवता हैं॥२१॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तान् पूजयस्व सततं दानेन परिचर्यया।
यदीच्छसि महीं भोक्तुमिमां सागरमेखलाम् ॥ २२ ॥
मूलम्
तान् पूजयस्व सततं दानेन परिचर्यया।
यदीच्छसि महीं भोक्तुमिमां सागरमेखलाम् ॥ २२ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
युधिष्ठिर! यदि तुम इस समुद्रपर्यन्त पृथ्वीका राज्य भोगना चाहते हो तो दान और सेवाके द्वारा सदा ब्राह्मणोंकी पूजा करते रहो॥२२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
प्रतिग्रहेण तेजो हि विप्राणां शाम्यतेऽनघ।
प्रतिग्रहं ये नेच्छेयुस्तेभ्यो रक्ष्यं त्वया नृप ॥ २३ ॥
मूलम्
प्रतिग्रहेण तेजो हि विप्राणां शाम्यतेऽनघ।
प्रतिग्रहं ये नेच्छेयुस्तेभ्यो रक्ष्यं त्वया नृप ॥ २३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
निष्पाप नरेश! दान लेनेसे ब्राह्मणोंका तेज शान्त हो जाता है; इसलिये जो दान नहीं लेना चाहते उन ब्राह्मणोंसे तुम्हें अपने कुलकी रक्षा करनी चाहिये॥२३॥
मूलम् (समाप्तिः)
इति श्रीमहाभारते अनुशासनपर्वणि दानधर्मपर्वणि ब्राह्मणप्रशंसायां पञ्चत्रिंशोऽध्यायः ॥ ३५ ॥
मूलम् (वचनम्)
इस प्रकार श्रीमहाभारत अनुशासनपर्वके अन्तर्गत दानधर्मपर्वमें ब्राह्मणकी प्रशंसाविषयक पैंतीसवाँ अध्याय पूरा हुआ॥३५॥
सूचना (हिन्दी)
(दाक्षिणात्य अधिक पाठके दो श्लोक मिलाकर कुल २५ श्लोक हैं)