भागसूचना
चतुस्त्रिंशोऽध्यायः
सूचना (हिन्दी)
श्रेष्ठ ब्राह्मणोंकी प्रशंसा
मूलम् (वचनम्)
भीष्म उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
ब्राह्मणानेव सततं भृशं सम्परिपूजयेत्।
एते हि सोमराजान ईश्वराः सुखदुःखयोः ॥ १ ॥
मूलम्
ब्राह्मणानेव सततं भृशं सम्परिपूजयेत्।
एते हि सोमराजान ईश्वराः सुखदुःखयोः ॥ १ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
भीष्मजी कहते हैं— युधिष्ठिर! ब्राह्मणोंका सदा ही भलीभाँति पूजन करना चाहिये। चन्द्रमा इनके राजा हैं। ये मनुष्यको सुख और दुःख देनेमें समर्थ हैं॥१॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
एते भोगैरलङ्कारैरन्यैश्चैव किमिच्छकैः ।
सदा पूज्या नमस्कारै रक्ष्याश्च पितृवन्नृपैः ॥ २ ॥
ततो राष्ट्रस्य शान्तिर्हि भूतानामिव वासवात्।
मूलम्
एते भोगैरलङ्कारैरन्यैश्चैव किमिच्छकैः ।
सदा पूज्या नमस्कारै रक्ष्याश्च पितृवन्नृपैः ॥ २ ॥
ततो राष्ट्रस्य शान्तिर्हि भूतानामिव वासवात्।
अनुवाद (हिन्दी)
राजाओंको चाहिये कि वे उत्तम भोग, आभूषण तथा पूछकर प्रस्तुत किये गये दूसरे मनोवांछित पदार्थ देकर नमस्कार आदिके द्वारा सदा ब्राह्मणोंकी पूजा करें और पिताके समान उनके पालन-पोषणका ध्यान रखें। तभी इन ब्राह्मणोंसे राष्ट्रमें शान्ति रह सकती है। ठीक उसी तरह, जैसे इन्द्रसे वृष्टि प्राप्त होनेपर समस्त प्राणियोंको सुख-शान्ति मिलती है॥२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
जायतां ब्रह्मवर्चस्वी राष्ट्रे वै ब्राह्मणः शुचिः ॥ ३ ॥
महारथश्च राजन्य एष्टव्यः शत्रुतापनः।
मूलम्
जायतां ब्रह्मवर्चस्वी राष्ट्रे वै ब्राह्मणः शुचिः ॥ ३ ॥
महारथश्च राजन्य एष्टव्यः शत्रुतापनः।
अनुवाद (हिन्दी)
सबको यह इच्छा करनी चाहिये कि राष्ट्रमें ब्रह्मतेजसे सम्पन्न पवित्र ब्राह्मण उत्पन्न हो और शत्रुओंको संताप देनेवाले महारथी क्षत्रियकी उत्पत्ति हो॥३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ब्राह्मणं जातिसम्पन्नं धर्मज्ञं संशितव्रतम् ॥ ४ ॥
वासयेत गृहे राजन् न तस्मात् परमस्ति वै।
मूलम्
ब्राह्मणं जातिसम्पन्नं धर्मज्ञं संशितव्रतम् ॥ ४ ॥
वासयेत गृहे राजन् न तस्मात् परमस्ति वै।
अनुवाद (हिन्दी)
राजन्! विशुद्ध जातिसे युक्त तथा तीक्ष्ण व्रतका पालन करनेवाले धर्मज्ञ ब्राह्मणको अपने घरमें ठहराना चाहिये। इससे बढ़कर दूसरा कोई पुण्यकर्म नहीं है॥४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ब्राह्मणेभ्यो हविर्दत्तं प्रतिगृह्णन्ति देवताः ॥ ५ ॥
पितरः सर्वभूतानां नैतेभ्यो विद्यते परम्।
मूलम्
ब्राह्मणेभ्यो हविर्दत्तं प्रतिगृह्णन्ति देवताः ॥ ५ ॥
पितरः सर्वभूतानां नैतेभ्यो विद्यते परम्।
अनुवाद (हिन्दी)
ब्राह्मणोंको जो हविष्य अर्पित किया जाता है उसे देवता ग्रहण करते हैं; क्योंकि ब्राह्मण समस्त प्राणियोंके पिता हैं। इनसे बढ़कर दूसरा कोई प्राणी नहीं है॥५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
आदित्यश्चन्द्रमा वायुरापो भूरम्बरं दिशः ॥ ६ ॥
सर्वे ब्राह्मणमाविश्य सदान्नमुपभुञ्जते ।
मूलम्
आदित्यश्चन्द्रमा वायुरापो भूरम्बरं दिशः ॥ ६ ॥
सर्वे ब्राह्मणमाविश्य सदान्नमुपभुञ्जते ।
अनुवाद (हिन्दी)
सूर्य, चन्द्रमा, वायु, जल, पृथ्वी, आकाश और दिशा—इन सबके अधिष्ठाता देवता सदा ब्राह्मणके शरीरमें प्रवेश करके अन्न भोजन करते हैं॥६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
न तस्याश्नन्ति पितरो यस्य विप्रा न भुञ्जते ॥ ७ ॥
देवाश्चाप्यस्य नाश्नन्ति पापस्य ब्राह्मणद्विषः।
मूलम्
न तस्याश्नन्ति पितरो यस्य विप्रा न भुञ्जते ॥ ७ ॥
देवाश्चाप्यस्य नाश्नन्ति पापस्य ब्राह्मणद्विषः।
अनुवाद (हिन्दी)
ब्राह्मण जिसका अन्न नहीं खाते उसके अन्नको पितर भी नहीं स्वीकार करते। उस ब्राह्मणद्रोही पापात्माका अन्न देवता भी नहीं ग्रहण करते हैं॥७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ब्राह्मणेषु तु तुष्टेषु प्रीयन्ते पितरः सदा ॥ ८ ॥
तथैव देवता राजन् नात्र कार्या विचारणा।
मूलम्
ब्राह्मणेषु तु तुष्टेषु प्रीयन्ते पितरः सदा ॥ ८ ॥
तथैव देवता राजन् नात्र कार्या विचारणा।
अनुवाद (हिन्दी)
राजन्! यदि ब्राह्मण संतुष्ट हो जायँ तो पितर तथा देवता भी सदा प्रसन्न रहते हैं। इसमें कोई अन्यथा विचार नहीं करना चाहिये॥८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तथैव तेऽपि प्रीयन्ते येषां भवति तद्धविः ॥ ९ ॥
न च प्रेत्य विनश्यन्ति गच्छन्ति च परां गतिम्।
मूलम्
तथैव तेऽपि प्रीयन्ते येषां भवति तद्धविः ॥ ९ ॥
न च प्रेत्य विनश्यन्ति गच्छन्ति च परां गतिम्।
अनुवाद (हिन्दी)
इसी प्रकार वे यजमान भी प्रसन्न होते हैं जिनकी दी हुई हवि ब्राह्मणोंके उपयोगमें आती है। वे मरनेके बाद नष्ट नहीं होते हैं, उत्तम गतिको प्राप्त हो जाते हैं॥९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
येन येनैव हविषा ब्राह्मणांस्तर्पयेन्नरः ॥ १० ॥
तेन तेनैव प्रीयन्ते पितरो देवतास्तथा।
मूलम्
येन येनैव हविषा ब्राह्मणांस्तर्पयेन्नरः ॥ १० ॥
तेन तेनैव प्रीयन्ते पितरो देवतास्तथा।
अनुवाद (हिन्दी)
मनुष्य जिस-जिस हविष्यसे ब्राह्मणोंको तृप्त करता है, उसी-उसीसे देवता और पितर भी तृप्त होते हैं॥१०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ब्राह्मणादेव तद् भूतं प्रभवन्ति यतः प्रजाः ॥ ११ ॥
यतश्चायं प्रभवति प्रेत्य यत्र च गच्छति।
वेदैष मार्गं स्वर्गस्य तथैव नरकस्य च ॥ १२ ॥
आगतानागते चोभे ब्राह्मणो द्विपदं वरः।
ब्राह्मणो भरतश्रेष्ठ स्वधर्मं चैव वेद यः ॥ १३ ॥
मूलम्
ब्राह्मणादेव तद् भूतं प्रभवन्ति यतः प्रजाः ॥ ११ ॥
यतश्चायं प्रभवति प्रेत्य यत्र च गच्छति।
वेदैष मार्गं स्वर्गस्य तथैव नरकस्य च ॥ १२ ॥
आगतानागते चोभे ब्राह्मणो द्विपदं वरः।
ब्राह्मणो भरतश्रेष्ठ स्वधर्मं चैव वेद यः ॥ १३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
जिससे समस्त प्रजा उत्पन्न होती है, वह यज्ञ आदि कर्म ब्राह्मणोंसे ही सम्पन्न होता है। जीव जहाँसे उत्पन्न होता है और मृत्युके पश्चात् जहाँ जाता है, उस तत्त्वको, स्वर्ग और नरकके मार्गको तथा भूत, वर्तमान और भविष्यको ब्राह्मण ही जानता है। ब्राह्मण मनुष्योंमें सबसे श्रेष्ठ है। भरतश्रेष्ठ! जो अपने धर्मको जानता है और उसका पालन करता है, वही सच्चा ब्राह्मण है॥११—१३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ये चैनमनुवर्तन्ते ते न यान्ति पराभवम्।
न ते प्रेत्य विनश्यन्ति गच्छन्ति न पराभवम् ॥ १४ ॥
मूलम्
ये चैनमनुवर्तन्ते ते न यान्ति पराभवम्।
न ते प्रेत्य विनश्यन्ति गच्छन्ति न पराभवम् ॥ १४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
जो लोग ब्राह्मणोंका अनुसरण करते हैं उनकी कभी पराजय नहीं होती तथा मृत्युके पश्चात् उनका पतन नहीं होता। वे अपमानको भी नहीं प्राप्त होते हैं॥१४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
यद् ब्राह्मणमुखात् प्राप्तं प्रतिगृह्णन्ति वै वचः।
भूतात्मानो महात्मानस्ते न यान्ति पराभवम् ॥ १५ ॥
मूलम्
यद् ब्राह्मणमुखात् प्राप्तं प्रतिगृह्णन्ति वै वचः।
भूतात्मानो महात्मानस्ते न यान्ति पराभवम् ॥ १५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
ब्राह्मणके मुखसे जो वाणी निकलती है, उसे जो शिरोधार्य करते हैं, वे सम्पूर्ण भूतोंको आत्मभावसे देखनेवाले महात्मा कभी पराभवको नहीं प्राप्त होते हैं॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
क्षत्रियाणां प्रतपतां तेजसा च बलेन च।
ब्राह्मणेष्वेव शाम्यन्ति तेजांसि च बलानि च ॥ १६ ॥
मूलम्
क्षत्रियाणां प्रतपतां तेजसा च बलेन च।
ब्राह्मणेष्वेव शाम्यन्ति तेजांसि च बलानि च ॥ १६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
अपने तेज और बलसे तपते हुए क्षत्रियोंके तेज और बल ब्राह्मणोंके सामने आनेपर ही शान्त होते हैं॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
भृगवस्तालजंघांश्च नीपानाङ्गिरसोऽजयन् ।
भरद्वाजो वैहतव्यानैलांश्च भरतर्षभ ॥ १७ ॥
मूलम्
भृगवस्तालजंघांश्च नीपानाङ्गिरसोऽजयन् ।
भरद्वाजो वैहतव्यानैलांश्च भरतर्षभ ॥ १७ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
भरतश्रेष्ठ! भृगुवंशी ब्राह्मणोंने तालजंघोंको, अंगिराकी संतानोंने नीपवंशी राजाओंको तथा भरद्वाजने हैहयोंको और इलाके पुत्रोंको पराजित किया था॥१७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
चित्रायुधांश्चाप्यजयन्नेते कृष्णाजिनध्वजाः ।
प्रक्षिप्याथ च कुम्भान् वै पारगामिनमारभेत् ॥ १८ ॥
मूलम्
चित्रायुधांश्चाप्यजयन्नेते कृष्णाजिनध्वजाः ।
प्रक्षिप्याथ च कुम्भान् वै पारगामिनमारभेत् ॥ १८ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
क्षत्रियोंके पास अनेक प्रकारके विचित्र आयुध थे तो भी कृष्णमृगचर्म धारण करनेवाले इन ब्राह्मणोंने उन्हें हरा दिया। क्षत्रियको चाहिये कि ब्राह्मणोंको जलपूर्ण कलश दान करके पारलौकिक कार्य आरम्भ करे॥१८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
यत् किंचित् कथ्यते लोके श्रूयते पठ्यतेऽपि वा।
सर्वं तद् ब्राह्मणेष्वेव गूढोऽग्निरिव दारुषु ॥ १९ ॥
मूलम्
यत् किंचित् कथ्यते लोके श्रूयते पठ्यतेऽपि वा।
सर्वं तद् ब्राह्मणेष्वेव गूढोऽग्निरिव दारुषु ॥ १९ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
संसारमें जो कुछ कहा-सुना या पढ़ा जाता है वह सब काठमें छिपी हुई आगकी तरह ब्राह्मणोंमें ही स्थित है॥१९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अत्राप्युदाहरन्तीममितिहासं पुरातनम् ।
संवादं वासुदेवस्य पृथ्व्याश्च भरतर्षभ ॥ २० ॥
मूलम्
अत्राप्युदाहरन्तीममितिहासं पुरातनम् ।
संवादं वासुदेवस्य पृथ्व्याश्च भरतर्षभ ॥ २० ॥
अनुवाद (हिन्दी)
भरतश्रेष्ठ! इस विषयमें जानकार लोग भगवान् श्रीकृष्ण और पृथ्वीके संवादरूप इस प्राचीन इतिहासका उदाहरण दिया करते हैं॥२०॥
मूलम् (वचनम्)
वासुदेव उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
मातरं सर्वभूतानां पृच्छे त्वां संशयं शुभे।
केनस्वित् कर्मणा पापं व्यपोहति नरो गृही ॥ २१ ॥
मूलम्
मातरं सर्वभूतानां पृच्छे त्वां संशयं शुभे।
केनस्वित् कर्मणा पापं व्यपोहति नरो गृही ॥ २१ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
श्रीकृष्णने पूछा— शुभे! तुम सम्पूर्ण भूतोंकी माता हो, इसलिये मैं तुमसे एक संदेह पूछ रहा हूँ। गृहस्थ मनुष्य किस कर्मके अनुष्ठानसे अपने पापका नाश कर सकता है?॥२१॥
मूलम् (वचनम्)
पृथिव्युवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
ब्राह्मणानेव सेवेत पवित्रं ह्येतदुत्तमम्।
ब्राह्मणान् सेवमानस्य रजः सर्वं प्रणश्यति।
अतो भूतिरतः कीर्तिरतो बुद्धिः प्रजायते ॥ २२ ॥
मूलम्
ब्राह्मणानेव सेवेत पवित्रं ह्येतदुत्तमम्।
ब्राह्मणान् सेवमानस्य रजः सर्वं प्रणश्यति।
अतो भूतिरतः कीर्तिरतो बुद्धिः प्रजायते ॥ २२ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
पृथ्वीने कहा— भगवन्! इसके लिये मनुष्यको ब्राह्मणोंकी ही सेवा करनी चाहिये। यही सबसे पवित्र और उत्तम कार्य है। ब्राह्मणोंकी सेवा करनेवाले पुरुषका समस्त रजोगुण नष्ट हो जाता है। इसीसे ऐश्वर्य, इसीसे कीर्ति और इसीसे उत्तम बुद्धि भी प्राप्त होती है॥२२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
महारथश्च राजन्य एष्टव्यः शत्रुतापनः।
इति मां नारदः प्राह सततं सर्वभूतये ॥ २३ ॥
मूलम्
महारथश्च राजन्य एष्टव्यः शत्रुतापनः।
इति मां नारदः प्राह सततं सर्वभूतये ॥ २३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
सदा सब प्रकारकी समृद्धिके लिये नारदजीने मुझसे कहा कि शत्रुओंको संताप देनेवाले महारथी क्षत्रियके उत्पन्न होनेकी कामना करनी चाहिये॥२३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ब्राह्मणं जातिसम्पन्नं धर्मज्ञं संशितं शुचिम्।
अपरेषां परेषां च परेभ्यश्चैव येऽपरे ॥ २४ ॥
ब्राह्मणा यं प्रशंसन्ति स मनुष्यः प्रवर्धते।
अथ यो ब्राह्मणान् क्रुष्टः पराभवति सोऽचिरात् ॥ २५ ॥
मूलम्
ब्राह्मणं जातिसम्पन्नं धर्मज्ञं संशितं शुचिम्।
अपरेषां परेषां च परेभ्यश्चैव येऽपरे ॥ २४ ॥
ब्राह्मणा यं प्रशंसन्ति स मनुष्यः प्रवर्धते।
अथ यो ब्राह्मणान् क्रुष्टः पराभवति सोऽचिरात् ॥ २५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
उत्तम जातिसे सम्पन्न, धर्मज्ञ, दृढ़तापूर्वक व्रतका पालन करनेवाले तथा पवित्र ब्राह्मणके उत्पन्न होनेकी भी इच्छा रखनी चाहिये। छोटे-बड़े सब लोगोंसे जो बड़े हैं, उनसे भी ब्राह्मण बड़े माने गये हैं। ऐसे ब्राह्मण जिसकी प्रशंसा करते हैं उस मनुष्यकी वृद्धि होती है और जो ब्राह्मणोंकी निन्दा करता है वह शीघ्र ही पराभवको प्राप्त होता है॥२४-२५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
यथा महार्णवे क्षिप्त आमलोष्टो विनश्यति।
तथा दुश्चरितं सर्वं पराभावाय कल्पते ॥ २६ ॥
मूलम्
यथा महार्णवे क्षिप्त आमलोष्टो विनश्यति।
तथा दुश्चरितं सर्वं पराभावाय कल्पते ॥ २६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
जैसे महासागरमें फेंका हुआ कच्ची मिट्टीका ढेला तुरंत गल जाता है, उसी प्रकार ब्राह्मणोंका संग प्राप्त होते ही सारा दुष्कर्म नष्ट हो जाता है॥२६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
पश्य चन्द्रे कृतं लक्ष्म समुद्रो लवणोदकः।
तथा भगसहस्रेण महेन्द्रः परिचिह्नितः ॥ २७ ॥
तेषामेव प्रभावेण सहस्रनयनो ह्यसौ।
शतक्रतुः समभवत् पश्य माधव यादृशम् ॥ २८ ॥
मूलम्
पश्य चन्द्रे कृतं लक्ष्म समुद्रो लवणोदकः।
तथा भगसहस्रेण महेन्द्रः परिचिह्नितः ॥ २७ ॥
तेषामेव प्रभावेण सहस्रनयनो ह्यसौ।
शतक्रतुः समभवत् पश्य माधव यादृशम् ॥ २८ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
माधव! देखिये, ब्राह्मणोंका कैसा प्रभाव है, उन्होंने चन्द्रमामें कलंक लगा दिया, समुद्रका पानी खारा बना दिया तथा देवराज इन्द्रके शरीरमें एक हजार भगके चिह्न उत्पन्न कर दिये और फिर उन्हींके प्रभावसे वे भग नेत्रके रूपमें परिणत हो गये; जिनके कारण शतक्रतु इन्द्र ‘सहस्राक्ष’ नामसे प्रसिद्ध हुए॥२७-२८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
इच्छन् कीर्तिं च भूतिं च लोकांश्च मधुसूदन।
ब्राह्मणानुमते तिष्ठेत् पुरुषः शुचिरात्मवान् ॥ २९ ॥
मूलम्
इच्छन् कीर्तिं च भूतिं च लोकांश्च मधुसूदन।
ब्राह्मणानुमते तिष्ठेत् पुरुषः शुचिरात्मवान् ॥ २९ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
मधुसूदन! जो कीर्ति, ऐश्वर्य और उत्तम लोकोंको प्राप्त करना चाहता हो, वह मनको वशमें रखनेवाला पवित्र पुरुष ब्राह्मणोंकी आज्ञाके अधीन रहे॥२९॥
मूलम् (वचनम्)
भीष्म उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
इत्येतद् वचनं श्रुत्वा मेदिन्या मधुसूदनः।
साधु साध्विति कौरव्य मेदिनीं प्रत्यपूजयत् ॥ ३० ॥
मूलम्
इत्येतद् वचनं श्रुत्वा मेदिन्या मधुसूदनः।
साधु साध्विति कौरव्य मेदिनीं प्रत्यपूजयत् ॥ ३० ॥
अनुवाद (हिन्दी)
भीष्मजी कहते हैं— कुरुनन्दन! पृथ्वीके ये वचन सुनकर भगवान् मधुसूदनने कहा—‘वाह-वाह, तुमने बहुत अच्छी बात बतायी।’ ऐसा कहकर उन्होंने भूदेवीकी भूरि-भूरि प्रशंसा की॥३०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
एतां श्रुत्वोपमां पार्थ प्रयतो ब्राह्मणर्षभान्।
सततं पूजयेथास्त्वं ततः श्रेयोऽभिपत्स्यसे ॥ ३१ ॥
मूलम्
एतां श्रुत्वोपमां पार्थ प्रयतो ब्राह्मणर्षभान्।
सततं पूजयेथास्त्वं ततः श्रेयोऽभिपत्स्यसे ॥ ३१ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
कुन्तीनन्दन! इस दृष्टान्त एवं ब्राह्मण-माहात्म्यको सुनकर तुम सदा पवित्रभावसे श्रेष्ठ ब्राह्मणोंका पूजन करते रहो। इससे तुम कल्याणके भागी होओगे॥३१॥
मूलम् (समाप्तिः)
इति श्रीमहाभारते अनुशासनपर्वणि दानधर्मपर्वणि पृथ्वीवासुदेवसंवादे चतुस्त्रिंशोऽध्यायः ॥ ३४ ॥
मूलम् (वचनम्)
इस प्रकार श्रीमहाभारत अनुशासनपर्वके अन्तर्गत दानधर्मपर्वमें पृथ्वी और वासुदेवका संवादविषयक चौंतीसवाँ अध्याय पूरा हुआ॥३४॥