भागसूचना
त्रयस्त्रिंशोऽध्यायः
सूचना (हिन्दी)
ब्राह्मणके महत्त्वका वर्णन
मूलम् (वचनम्)
युधिष्ठिर उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
किं राज्ञः सर्वकृत्यानां गरीयः स्यात् पितामह।
कुर्वन् किं कर्म नृपतिरुभौ लोकौ समश्नुते ॥ १ ॥
मूलम्
किं राज्ञः सर्वकृत्यानां गरीयः स्यात् पितामह।
कुर्वन् किं कर्म नृपतिरुभौ लोकौ समश्नुते ॥ १ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
युधिष्ठिरने पूछा— पितामह! राजाके सम्पूर्ण कृत्योंमें किसका महत्त्व सबसे अधिक है? किस कर्मका अनुष्ठान करनेवाला राजा इहलोक और परलोक दोनोंमें सुखी होता है?॥१॥
मूलम् (वचनम्)
भीष्म उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
एतद् राज्ञः कृत्यतममभिषिक्तस्य भारत।
ब्राह्मणानामनुष्ठानमत्यन्तं सुखमिच्छता ॥ २ ॥
कर्तव्यं पार्थिवेन्द्रेण तथैव भरतर्षभ।
मूलम्
एतद् राज्ञः कृत्यतममभिषिक्तस्य भारत।
ब्राह्मणानामनुष्ठानमत्यन्तं सुखमिच्छता ॥ २ ॥
कर्तव्यं पार्थिवेन्द्रेण तथैव भरतर्षभ।
अनुवाद (हिन्दी)
भीष्मजीने कहा— भारत! राजसिंहासनपर अभिषिक्त होकर राज्यशासन करनेवाले राजाका सबसे प्रधान कर्तव्य यही है कि वह ब्राह्मणोंकी सेवा-पूजा करे। भरतश्रेष्ठ! अक्षय सुखकी इच्छा रखनेवाले नरेशको ऐसा ही करना चाहिये॥२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
श्रोत्रियान् ब्राह्मणान् वृद्धान् नित्यमेवाभिपूजयेत् ॥ ३ ॥
पौरजानपदांश्चापि ब्राह्मणांश्च बहुश्रुतान् ।
सान्त्वेन भोगदानेन नमस्कारैस्तथार्चयेत् ॥ ४ ॥
मूलम्
श्रोत्रियान् ब्राह्मणान् वृद्धान् नित्यमेवाभिपूजयेत् ॥ ३ ॥
पौरजानपदांश्चापि ब्राह्मणांश्च बहुश्रुतान् ।
सान्त्वेन भोगदानेन नमस्कारैस्तथार्चयेत् ॥ ४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
राजा वेदज्ञ ब्राह्मणों तथा बड़े-बूढ़ोंका सदा ही आदर करे। नगर और जनपदमें रहनेवाले बहुश्रुत ब्राह्मणोंको मधुर वचन बोलकर, उत्तम भोग प्रदानकर तथा सादर शीश झुकाकर सम्मानित करे॥३-४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
एतत् कृत्यतमं राज्ञो नित्यमेवोपलक्षयेत्।
यथाऽऽत्मानं यथा पुत्रांस्तथैतान् प्रतिपालयेत् ॥ ५ ॥
मूलम्
एतत् कृत्यतमं राज्ञो नित्यमेवोपलक्षयेत्।
यथाऽऽत्मानं यथा पुत्रांस्तथैतान् प्रतिपालयेत् ॥ ५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
राजा जिस प्रकार अपनी तथा अपने पुत्रोंकी रक्षा करता है उसी प्रकार इन ब्राह्मणोंकी भी करे। यही राजाका प्रधान कर्तव्य है; जिसपर उसे सदा ही दृष्टि रखनी चाहिये॥५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ये चाप्येषां पूज्यतमास्तान् दृढ़ं प्रतिपूजयेत्।
तेषु शान्तेषु तद् राष्ट्रं सर्वमेव विराजते ॥ ६ ॥
मूलम्
ये चाप्येषां पूज्यतमास्तान् दृढ़ं प्रतिपूजयेत्।
तेषु शान्तेषु तद् राष्ट्रं सर्वमेव विराजते ॥ ६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
जो इन ब्राह्मणोंके भी पूजनीय हों उन पुरुषोंका भी सुस्थिर चित्तसे पूजन करे; क्योंकि उनके शान्त रहनेपर ही सारा राष्ट्र शान्त एवं सुखी रह सकता है॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ते पूज्यास्ते नमस्कार्या मान्यास्ते पितरो यथा।
तेष्वेव यात्रा लोकानां भूतानामिव वासवे ॥ ७ ॥
मूलम्
ते पूज्यास्ते नमस्कार्या मान्यास्ते पितरो यथा।
तेष्वेव यात्रा लोकानां भूतानामिव वासवे ॥ ७ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
राजाके लिये ब्राह्मण ही पिताकी भाँति पूजनीय, वन्दनीय और माननीय है। जैसे प्राणियोंका जीवन वर्षा करनेवाले इन्द्रपर निर्भर है उसी प्रकार जगत्की जीवन-यात्रा ब्राह्मणोंपर ही अवलम्बित है॥७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अभिचारैरुपायैश्च दहेयुरपि चेतसा ।
निःशेषं कुपिताः कुर्युरुग्राः सत्यपराक्रमाः ॥ ८ ॥
मूलम्
अभिचारैरुपायैश्च दहेयुरपि चेतसा ।
निःशेषं कुपिताः कुर्युरुग्राः सत्यपराक्रमाः ॥ ८ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
ये सत्य-पराक्रमी ब्राह्मण जब कुपित होकर उग्ररूप धारण कर लेते हैं उस समय अभिचार या अन्य उपायोंद्वारा संकल्पमात्रसे अपने विरोधियोंको भस्म कर सकते हैं और उनका सर्वनाश कर डालते हैं॥८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
नान्तमेषां प्रपश्यामि न दिशश्चाप्यपावृताः।
कुपिताः समुदीक्षन्ते दावेष्वग्निशिखा इव ॥ ९ ॥
मूलम्
नान्तमेषां प्रपश्यामि न दिशश्चाप्यपावृताः।
कुपिताः समुदीक्षन्ते दावेष्वग्निशिखा इव ॥ ९ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
मुझे इनका अन्त दिखायी नहीं देता। इनके लिये किसी भी दिशाका द्वार बंद नहीं है। ये जिस समय क्रोधमें भर जाते हैं उस समय दावानलकी लपटोंके समान हो जाते हैं और वैसी ही दाहक दृष्टिसे देखने लगते हैं॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
बिभ्यत्येषां साहसिका गुणास्तेषामतीव हि।
कूपा इव तृणच्छन्ना विशुद्धा द्यौरिवापरे ॥ १० ॥
मूलम्
बिभ्यत्येषां साहसिका गुणास्तेषामतीव हि।
कूपा इव तृणच्छन्ना विशुद्धा द्यौरिवापरे ॥ १० ॥
अनुवाद (हिन्दी)
बड़े-बड़े साहसी भी इनसे भय मानते हैं; क्योंकि इनके भीतर गुण ही अधिक होते हैं। इन ब्राह्मणोंमेंसे कुछ तो घास-फूससे ढके हुए कूपकी तरह अपने तेजको छिपाए रखते हैं और कुछ निर्मल आकाशकी भाँति प्रकाशित होते रहते हैं॥१०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
प्रसह्यकारिणः केचित् कार्पासमृदवो परे।
(मान्यास्तेषां साधवो ये न निन्द्याश्चाप्यसाधवः।)
सन्ति चैषामतिशठास्तथैवान्ये तपस्विनः ॥ ११ ॥
मूलम्
प्रसह्यकारिणः केचित् कार्पासमृदवो परे।
(मान्यास्तेषां साधवो ये न निन्द्याश्चाप्यसाधवः।)
सन्ति चैषामतिशठास्तथैवान्ये तपस्विनः ॥ ११ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
कुछ हठी होते हैं और कुछ रूईकी तरह कोमल। इनमें जो श्रेष्ठ पुरुष हों, उनका सम्मान करना चाहिये; परंतु जो श्रेष्ठ न हों, उनकी भी निन्दा नहीं करनी चाहिये। इन ब्राह्मणोंमें कुछ तो अत्यन्त शठ होते हैं और दूसरे महान् तपस्वी॥११॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
कृषिगोरक्ष्यमप्येके भैक्ष्यमन्येऽप्यनुष्ठिताः ।
चौराश्चान्येऽनृताश्चान्ये तथान्ये नटनर्तकाः ॥ १२ ॥
मूलम्
कृषिगोरक्ष्यमप्येके भैक्ष्यमन्येऽप्यनुष्ठिताः ।
चौराश्चान्येऽनृताश्चान्ये तथान्ये नटनर्तकाः ॥ १२ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
कोई-कोई ब्राह्मण खेती और गोरक्षासे जीवन चलाते हैं, कोई भिक्षापर जीवन-निर्वाह करते हैं, कितने ही चोरी करते हैं, कोई झूठ बोलते हैं और दूसरे कितने ही नटोंका तथा नाचनेका कार्य करते हैं॥१२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
सर्वकर्मसहाश्चान्ये पार्थिवेष्वितरेषु च ।
विविधाकारयुक्ताश्च ब्राह्मणा भरतर्षभ ॥ १३ ॥
मूलम्
सर्वकर्मसहाश्चान्ये पार्थिवेष्वितरेषु च ।
विविधाकारयुक्ताश्च ब्राह्मणा भरतर्षभ ॥ १३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
भरतश्रेष्ठ! कितने ही ब्राह्मण राजाओं तथा अन्य लोगोंके यहाँ सब प्रकारके कार्य करनेमें समर्थ होते हैं और अनेक ब्राह्मण नाना प्रकारके आकार धारण करते हैं॥१३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
नानाकर्मसु रक्तानां बहुकर्मोपजीविनाम् ।
धर्मज्ञानां सतां तेषां नित्यमेवानुकीर्तयेत् ॥ १४ ॥
मूलम्
नानाकर्मसु रक्तानां बहुकर्मोपजीविनाम् ।
धर्मज्ञानां सतां तेषां नित्यमेवानुकीर्तयेत् ॥ १४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
नाना प्रकारके कर्मोंमें संलग्न तथा अनेक कर्मोंसे जीविका चलानेवाले उन धर्मज्ञ एवं सत्पुरुष ब्राह्मणोंका सदा ही गुण गाना चाहिये॥१४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
पितॄणां देवतानां च मनुष्योरगरक्षसाम्।
पुराप्येते महाभागा ब्राह्मणा वै जनाधिप ॥ १५ ॥
मूलम्
पितॄणां देवतानां च मनुष्योरगरक्षसाम्।
पुराप्येते महाभागा ब्राह्मणा वै जनाधिप ॥ १५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
नरेश्वर! प्राचीनकालसे ही ये महाभाग ब्राह्मण-लोग देवता, पितर, मनुष्य, नाग और राक्षसोंके पूजनीय हैं॥१५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
नैते देवैर्न पितृभिर्न गन्धर्वैर्न राक्षसैः।
नासुरैर्न पिशाचैश्च शक्या जेतुं द्विजातयः ॥ १६ ॥
मूलम्
नैते देवैर्न पितृभिर्न गन्धर्वैर्न राक्षसैः।
नासुरैर्न पिशाचैश्च शक्या जेतुं द्विजातयः ॥ १६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
ये द्विज न तो देवताओं, न पितरों, न गन्धर्वों, न राक्षसों, न असुरों और न पिशाचोंद्वारा ही जीते जा सकते हैं॥१६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अदैवं दैवतं कुर्युर्दैवतं चाप्यदैवतम्।
यमिच्छेयुः स राजा स्याद् ये नेष्टः स पराभवेत्॥१७॥
मूलम्
अदैवं दैवतं कुर्युर्दैवतं चाप्यदैवतम्।
यमिच्छेयुः स राजा स्याद् ये नेष्टः स पराभवेत्॥१७॥
अनुवाद (हिन्दी)
ये चाहें तो जो देवता नहीं है उसे देवता बना दें और जो देवता हैं उन्हें भी देवत्वसे गिरा दें। ये जिसे राजा बनाना चाहें वही राजा रह सकता है। जिसे राजाके रूपमें ये न देखना चाहें उसका पराभव हो जाता है॥१७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
परिवादं च ये कुर्युर्ब्राह्मणानामचेतसः।
सत्यं ब्रवीमि ते राजन् विनश्येयुर्न संशयः ॥ १८ ॥
मूलम्
परिवादं च ये कुर्युर्ब्राह्मणानामचेतसः।
सत्यं ब्रवीमि ते राजन् विनश्येयुर्न संशयः ॥ १८ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
राजन्! मैं तुमसे यह सच्ची बात बता रहा हूँ कि जो मूढ़ मानव ब्राह्मणोंकी निन्दा करते हैं वे नष्ट हो जाते हैं—इसमें संशय नहीं है॥१८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
निन्दाप्रशंसाकुशलाः कीर्त्यकीर्तिपरायणाः ।
परिकुप्यन्ति ते राजन् सततं द्विषतां द्विजाः ॥ १९ ॥
मूलम्
निन्दाप्रशंसाकुशलाः कीर्त्यकीर्तिपरायणाः ।
परिकुप्यन्ति ते राजन् सततं द्विषतां द्विजाः ॥ १९ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
निन्दा और प्रशंसामें निपुण तथा लोगोंके यश और अपयशको बढ़ानेमें तत्पर रहनेवाले द्विज अपने प्रति सदा द्वेष रखनेवालोंपर कुपित हो उठते हैं॥१९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ब्राह्मणा यं प्रशंसन्ति पुरुषः स प्रवर्धते।
ब्राह्मणैर्यः पराकृष्टः पराभूयात् क्षणाद्धि सः ॥ २० ॥
मूलम्
ब्राह्मणा यं प्रशंसन्ति पुरुषः स प्रवर्धते।
ब्राह्मणैर्यः पराकृष्टः पराभूयात् क्षणाद्धि सः ॥ २० ॥
अनुवाद (हिन्दी)
ब्राह्मण जिसकी प्रशंसा करते हैं; उस पुरुषका अभ्युदय होता है और जिसको वे शाप देते हैं; उसका एक क्षणमें पराभव हो जाता है॥२०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
शका यवनकाम्बोजास्तास्ताः क्षत्रियजातयः ।
वृषलत्वं परिगता ब्राह्मणानामदर्शनात् ॥ २१ ॥
मूलम्
शका यवनकाम्बोजास्तास्ताः क्षत्रियजातयः ।
वृषलत्वं परिगता ब्राह्मणानामदर्शनात् ॥ २१ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
शक, यवन और काम्बोज आदि जातियाँ पहले क्षत्रिय ही थीं; किंतु ब्राह्मणोंकी कृपादृष्टिसे वञ्चित होनेके कारण उन्हें वृषल (शूद्र एवं म्लेच्छ) होना पड़ा॥२१॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
द्राविडाश्च कलिङ्गाश्च पुलिन्दाश्चाप्युशीनराः ।
कोलिसर्पा माहिषकास्तास्ताः क्षत्रियजातयः ॥ २२ ॥
वृषलत्वं परिगता ब्राह्मणानामदर्शनात् ।
श्रेयान् पराजयस्तेभ्यो न जयो जयतां वर ॥ २३ ॥
मूलम्
द्राविडाश्च कलिङ्गाश्च पुलिन्दाश्चाप्युशीनराः ।
कोलिसर्पा माहिषकास्तास्ताः क्षत्रियजातयः ॥ २२ ॥
वृषलत्वं परिगता ब्राह्मणानामदर्शनात् ।
श्रेयान् पराजयस्तेभ्यो न जयो जयतां वर ॥ २३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
विजयी वीरोंमें श्रेष्ठ नरेश! द्राविड़, कलिंग, पुलिन्द, उशीनर, कोलिसर्प और माहिषक आदि क्षत्रिय जातियाँ भी ब्राह्मणोंकी कृपादृष्टि न मिलनेसे ही शूद्र हो गयीं। ब्राह्मणोंसे हार मान लेनेमें ही कल्याण है, उन्हें हराना अच्छा नहीं है॥२२-२३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
यस्तु सर्वमिदं हन्याद् ब्राह्मणं च न तत्समम्।
ब्रह्मवध्या महान् दोष इत्याहुः परमर्षयः ॥ २४ ॥
मूलम्
यस्तु सर्वमिदं हन्याद् ब्राह्मणं च न तत्समम्।
ब्रह्मवध्या महान् दोष इत्याहुः परमर्षयः ॥ २४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
जो इस सम्पूर्ण जगत्को मार डाले तथा जो ब्राह्मणका वध करे, उन दोनोंका पाप समान नहीं है। महर्षियोंका कहना है कि ब्रह्महत्या महान् दोष है॥२४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
परिवादो द्विजातीनां न श्रोतव्यः कथंचन।
आसीताधोमुखस्तूष्णीं समुत्थाय व्रजेच्च वा ॥ २५ ॥
मूलम्
परिवादो द्विजातीनां न श्रोतव्यः कथंचन।
आसीताधोमुखस्तूष्णीं समुत्थाय व्रजेच्च वा ॥ २५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
ब्राह्मणोंकी निन्दा किसी तरह नहीं सुननी चाहिये। जहाँ उनकी निन्दा होती हो, वहाँ नीचे मुँह करके चुपचाप बैठे रहना या वहाँसे उठकर चल देना चाहिये॥२५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
न स जातोऽजनिष्यद् वा पृथिव्यामिह कश्चन।
यो ब्राह्मणविरोधेन सुखं जीवितुमुत्सहेत् ॥ २६ ॥
मूलम्
न स जातोऽजनिष्यद् वा पृथिव्यामिह कश्चन।
यो ब्राह्मणविरोधेन सुखं जीवितुमुत्सहेत् ॥ २६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
इस पृथ्वीपर ऐसा कोई मनुष्य न तो पैदा हुआ है और न आगे पैदा होगा ही जो ब्राह्मणके साथ विरोध करके सुखपूर्वक जीवित रहनेका साहस करे॥२६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
दुर्ग्राह्यो मुष्टिना वायुर्दुःस्पर्शः पाणिना शशी।
दुर्धरा पृथिवी राजन् दुर्जया ब्राह्मणा भुवि ॥ २७ ॥
मूलम्
दुर्ग्राह्यो मुष्टिना वायुर्दुःस्पर्शः पाणिना शशी।
दुर्धरा पृथिवी राजन् दुर्जया ब्राह्मणा भुवि ॥ २७ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
राजन्! हवाको मुट्ठीमें पकड़ना, चन्द्रमाको हाथसे छूना और पृथ्वीको उठा लेना जैसे अत्यन्त कठिन काम है, उसी तरह इस पृथ्वीपर ब्राह्मणोंको जीतना दुष्कर है॥२७॥
मूलम् (समाप्तिः)
इति श्रीमहाभारते अनुशासनपर्वणि दानधर्मपर्वणि ब्राह्मणप्रशंसा नाम त्रयस्त्रिंशोऽध्यायः ॥ ३३ ॥
मूलम् (वचनम्)
इस प्रकार श्रीमहाभारत अनुशासनपर्वके अन्तर्गत दानधर्मपर्वमें ब्राह्मणकी प्रशंसा नामक तैंतीसवाँ अध्याय पूरा हुआ॥३३॥
सूचना (हिन्दी)
(दाक्षिणात्य अधिक पाठक श्लोक मिलाकर २७ श्लोक हैं)