०३२ श्येनकपोतसंवादे

भागसूचना

द्वात्रिंशोऽध्यायः

सूचना (हिन्दी)

राजर्षि वृषदर्भ (या उशीनर)-के द्वारा शरणागत कपोतकी रक्षा तथा उस पुण्यके प्रभावसे अक्षयलोककी प्राप्ति

मूलम् (वचनम्)

युधिष्ठिर उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

पितामह महाप्राज्ञ सर्वशास्त्रविशारद ।
त्वत्तोऽहं श्रोतुमिच्छामि धर्मं भरतसत्तम ॥ १ ॥

मूलम्

पितामह महाप्राज्ञ सर्वशास्त्रविशारद ।
त्वत्तोऽहं श्रोतुमिच्छामि धर्मं भरतसत्तम ॥ १ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

युधिष्ठिरने पूछा— महाप्राज्ञ पितामह! आप सम्पूर्ण शास्त्रोंके ज्ञानमें निपुण हैं, अतः भरतसत्तम! मैं आपसे ही धर्मविषयक उपदेश सुनना चाहता हूँ॥१॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

शरणागतं ये रक्षन्ति भूतग्रामं चतुर्विधम्।
किं तस्य भरतश्रेष्ठ फलं भवति तत्त्वतः ॥ २ ॥

मूलम्

शरणागतं ये रक्षन्ति भूतग्रामं चतुर्विधम्।
किं तस्य भरतश्रेष्ठ फलं भवति तत्त्वतः ॥ २ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

भरतश्रेष्ठ! अब यह बतानेकी कृपा कीजिये कि जो लोग शरणमें आए हुए अण्डज, पिण्डज, स्वेदज और उद्भिज्ज—इन चार प्रकारके प्राणियोंकी रक्षा करते हैं उनको वास्तवमें क्या फल मिलता है?॥२॥

मूलम् (वचनम्)

भीष्म उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

इदं शृणु महाप्राज्ञ धर्मपुत्र महायशः।
इतिहासं पुरावृत्तं शरणार्थं महाफलम् ॥ ३ ॥

मूलम्

इदं शृणु महाप्राज्ञ धर्मपुत्र महायशः।
इतिहासं पुरावृत्तं शरणार्थं महाफलम् ॥ ३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

भीष्मजीने कहा— महाप्राज्ञ, महायशस्वी धर्मपुत्र युधिष्ठिर! शरणागतकी रक्षा करनेसे जो महान् फल प्राप्त होता है, उसके विषयमें तुम यह एक प्राचीन इतिहास सुनो॥३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

प्रपात्यमानः श्येनेन कपोतः प्रियदर्शनः।
वृषदर्भं महाभागं नरेन्द्रं शरणं गतः ॥ ४ ॥

मूलम्

प्रपात्यमानः श्येनेन कपोतः प्रियदर्शनः।
वृषदर्भं महाभागं नरेन्द्रं शरणं गतः ॥ ४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

एक समयकी बात है, एक बाज किसी सुन्दर कबूतरको मार रहा था। वह कबूतर बाजके डरसे भागकर महाभाग राजा वृषदर्भ (उशीनर)-की शरणमें गया॥४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

स तं दृष्ट्वा विशुद्धात्मा त्रासादङ्कमुपागतम्।
आश्वास्याश्वसिहीत्याह न तेऽस्ति भयमण्डज ॥ ५ ॥

मूलम्

स तं दृष्ट्वा विशुद्धात्मा त्रासादङ्कमुपागतम्।
आश्वास्याश्वसिहीत्याह न तेऽस्ति भयमण्डज ॥ ५ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

भयके मारे अपनी गोदमें आये हुए उस कबूतरको देखकर विशुद्ध अन्तःकरणवाले राजा उशीनरने उस पक्षीको आश्वासन देकर कहा—‘अण्डज! शान्त रह। यहाँ तुझे कोई भय नहीं है॥५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

भयं ते सुमहत् कस्मात् कुत्र किं वा कृतं त्वया।
येन त्वमिह सम्प्राप्तो विसंज्ञो भ्रान्तचेतनः ॥ ६ ॥

मूलम्

भयं ते सुमहत् कस्मात् कुत्र किं वा कृतं त्वया।
येन त्वमिह सम्प्राप्तो विसंज्ञो भ्रान्तचेतनः ॥ ६ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘बता, तुझे यह महान् भय कहाँ और किससे प्राप्त हुआ है? तूने क्या अपराध किया है? जिससे तेरी चेतना भ्रान्त-सी हो रही है तथा तू यहाँ बेसुध-सा होकर आया है॥६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

नवनीलोत्पलापीडचारुवर्ण सुदर्शन ।
दाडिमाशोकपुष्पाक्ष मा त्रसस्वाभयं तव ॥ ७ ॥

मूलम्

नवनीलोत्पलापीडचारुवर्ण सुदर्शन ।
दाडिमाशोकपुष्पाक्ष मा त्रसस्वाभयं तव ॥ ७ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘नूतन नील-कमलके हारकी भाँति तेरी मनोहर कान्ति है। तू देखनेमें बड़ा सुन्दर है। तेरी आँखें अनार और अशोकके फूलोंकी भाँति लाल हैं। तू भयभीत न हो। मैं तुझे अभय दान देता हूँ॥७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

मत्सकाशमनुप्राप्तं न त्वां कश्चित् समुत्सहेत्।
मनसा ग्रहणं कर्तुं रक्षाध्यक्षपुरस्कृतम् ॥ ८ ॥

मूलम्

मत्सकाशमनुप्राप्तं न त्वां कश्चित् समुत्सहेत्।
मनसा ग्रहणं कर्तुं रक्षाध्यक्षपुरस्कृतम् ॥ ८ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘अब तू मेरे पास आ गया है; अतः रक्षाध्यक्षके सामने है। यहाँ तुझे कोई मनसे भी पकड़नेका साहस नहीं कर सकता॥८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

काशिराज्यं तदद्यैव त्वदर्थं जीवितं तथा।
त्यजेयं भव विश्रब्धः कपोत न भयं तव ॥ ९ ॥

मूलम्

काशिराज्यं तदद्यैव त्वदर्थं जीवितं तथा।
त्यजेयं भव विश्रब्धः कपोत न भयं तव ॥ ९ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘कबूतर! आज ही मैं तेरी रक्षाके लिये यह काशिराज्य अर्थात् प्रकाशमान उशीनर देशका राज्य तथा अपना जीवन भी निछावर कर दूँगा। तू इस बातपर विश्वास करके निश्चिन्त हो जा। अब तूझे कोई भय नहीं है’॥९॥

मूलम् (वचनम्)

श्येन उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

ममैतद् विहितं भक्ष्यं न राजंस्त्रातुमर्हसि।
अतिक्रान्तं च प्राप्तं च प्रयत्नाच्चोपपादितम् ॥ १० ॥

मूलम्

ममैतद् विहितं भक्ष्यं न राजंस्त्रातुमर्हसि।
अतिक्रान्तं च प्राप्तं च प्रयत्नाच्चोपपादितम् ॥ १० ॥

अनुवाद (हिन्दी)

इतनेहीमें बाज भी वहाँ आ गया और बोला— राजन्! विधाताने इस कबूतरको मेरा भोजन नियत किया है। आप इसकी रक्षा न करें। इसका जीवन गया हुआ ही है; क्योंकि अब यह मुझे मिल गया है। इसे मैंने बड़े प्रयत्नसे प्राप्त किया है॥१०॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

मांसं च रुधिरं चास्य मज्जा मेदश्च मे हितम्।
परितोषकरो ह्येष मम मास्याग्रतो भव ॥ ११ ॥

मूलम्

मांसं च रुधिरं चास्य मज्जा मेदश्च मे हितम्।
परितोषकरो ह्येष मम मास्याग्रतो भव ॥ ११ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

इसके रक्त, मांस, मज्जा और मेदा सभी मेरे लिये हितकर हैं। यह कबूतर मेरी क्षुधा मिटाकर मुझे पूर्णतः तृप्त कर देगा; अतः आप इस मेरे आहारके आगे आकर विघ्न न डालिये॥११॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तृष्णा मे बाधतेऽत्युग्रा क्षुधा निर्दहतीव माम्।
मुञ्चैनं न हि शक्ष्यामि राजन्‌ मन्दयितुं क्षुधाम् ॥ १२ ॥

मूलम्

तृष्णा मे बाधतेऽत्युग्रा क्षुधा निर्दहतीव माम्।
मुञ्चैनं न हि शक्ष्यामि राजन्‌ मन्दयितुं क्षुधाम् ॥ १२ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

मुझे बड़े जोरकी प्यास सता रही है। भूखकी ज्वाला मुझे दग्ध-सा किये देती है। राजन्! उसे छोड़ दीजिये। मैं अपनी भूखको दबा नहीं सकूँगा॥१२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

मया ह्यनुसृतो ह्येष मत्पक्षनखविक्षतः।
किंचिदुच्छ्‌वासनिःश्वासं न राजन्‌ गोप्तुमर्हसि ॥ १३ ॥

मूलम्

मया ह्यनुसृतो ह्येष मत्पक्षनखविक्षतः।
किंचिदुच्छ्‌वासनिःश्वासं न राजन्‌ गोप्तुमर्हसि ॥ १३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

मैं बड़ी दूरसे इसके पीछे पड़ा हुआ हूँ। यह मेरे पंखों और पंजोंसे घायल हो चुका है। अब इसकी कुछ-कुछ साँस बाकी रह गयी है। राजन्! ऐसी दशामें आप इसकी रक्षा न करें॥१३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

यदि स्वविषये राजन् प्रभुस्त्वं रक्षणे नृणाम्।
खेचरस्य तृषार्तस्य न त्वं प्रभुरथोत्तम ॥ १४ ॥

मूलम्

यदि स्वविषये राजन् प्रभुस्त्वं रक्षणे नृणाम्।
खेचरस्य तृषार्तस्य न त्वं प्रभुरथोत्तम ॥ १४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

श्रेष्ठ नरेश्वर! अपने देशमें रहनेवाले मनुष्योंकी ही रक्षा करनेके लिये आप राजा बनाये गये हैं। भूख-प्याससे पीड़ित हुए पक्षीके आप स्वामी नहीं हैं॥१४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

यदि वैरिषु भृत्येषु स्वजनव्यवहारयोः।
विषयेष्विन्द्रियाणां च आकाशे मा पराक्रम ॥ १५ ॥

मूलम्

यदि वैरिषु भृत्येषु स्वजनव्यवहारयोः।
विषयेष्विन्द्रियाणां च आकाशे मा पराक्रम ॥ १५ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

यदि आपमें शक्ति है तो वैरियों, सेवकों, स्वजनों, वादी-प्रतिवादीके व्यवहारों (मुद्दई-मुद्दालहोंके मामलों) तथा इन्द्रियोंके विषयोंपर पराक्रम प्रकट कीजिये। आकाशमें रहनेवालोंपर अपने बलका प्रयोग न कीजिये॥१५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

प्रभुत्वं हि पराक्रम्य सम्यक् पक्षहरेषु ते।
यदि त्वमिह धर्मार्थी मामपि द्रष्टुमर्हसि ॥ १६ ॥

मूलम्

प्रभुत्वं हि पराक्रम्य सम्यक् पक्षहरेषु ते।
यदि त्वमिह धर्मार्थी मामपि द्रष्टुमर्हसि ॥ १६ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

जो लोग आपकी आज्ञाभंग करनेवाले शत्रुकोटिके अन्तर्गत हैं उनपर पराक्रम करके अपनी प्रभुता प्रकट करना आपके लिये उचित हो सकता है। यदि धर्मके लिये आप यहाँ कबूतरकी रक्षा करते हों तो मुझ भूखे पक्षीपर भी आपको दृष्टि डालनी चाहिये॥१६॥

मूलम् (वचनम्)

भीष्म उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

श्रुत्वा श्येनस्य तद् वाक्यं राजर्षिर्विस्मयं गतः।
सम्भाव्य चैनं तद्वाक्यं तदर्थी प्रत्यभाषत ॥ १७ ॥

मूलम्

श्रुत्वा श्येनस्य तद् वाक्यं राजर्षिर्विस्मयं गतः।
सम्भाव्य चैनं तद्वाक्यं तदर्थी प्रत्यभाषत ॥ १७ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

भीष्मजी कहते हैं— युधिष्ठिर! बाजकी यह बात सुनकर राजर्षि उशीनरको बड़ा विस्मय हुआ। वे उसके कथनकी प्रशंसा करके कपोतकी रक्षाके लिये इस प्रकार बोले—॥१७॥

मूलम् (वचनम्)

राजोवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

गोवृषो वा वराहो वा मृगो वा महिषोऽपि वा।
त्वदर्थमद्य क्रियतां क्षुधाप्रशमनाय ते ॥ १८ ॥

मूलम्

गोवृषो वा वराहो वा मृगो वा महिषोऽपि वा।
त्वदर्थमद्य क्रियतां क्षुधाप्रशमनाय ते ॥ १८ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

राजाने कहा— बाज! तुम चाहो तो तुम्हारी भूख मिटानेके लिये आज तुम्हारे भोजनके निमित्त बैल, भैंसा, सूअर अथवा मृग प्रस्तुत कर दिया जाय॥१८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

शरणागतं न त्यजेयमिति मे व्रतमाहितम्।
न मुञ्चति ममाङ्गानि द्विजोऽयं पश्य वै द्विज ॥ १९ ॥

मूलम्

शरणागतं न त्यजेयमिति मे व्रतमाहितम्।
न मुञ्चति ममाङ्गानि द्विजोऽयं पश्य वै द्विज ॥ १९ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

विहंगम! मैं शरणागतका त्याग नहीं कर सकता—यह मेरा व्रत है। देखो, यह पक्षी भयके मारे मेरे अंगोंको छोड़ नहीं रहा है॥१९॥

मूलम् (वचनम्)

श्येन उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

न वराहं न चोक्षाणं न चान्यान् विविधान् द्विजान्।
भक्षयामि महाराज किमन्याद्येन तेन मे ॥ २० ॥

मूलम्

न वराहं न चोक्षाणं न चान्यान् विविधान् द्विजान्।
भक्षयामि महाराज किमन्याद्येन तेन मे ॥ २० ॥

अनुवाद (हिन्दी)

बाजने कहा— महाराज! मैं न तो सूअर, न बैल और न दूसरे ही नाना प्रकारके पक्षियोंका मांस खाऊँगा। जो दूसरोंका भोजन है उसे लेकर मैं क्या करूँगा॥२०॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

यस्तु मे विहितो भक्ष्यः स्वयं देवैः सनातनः।
श्येनाः कपोतान् खादन्ति स्थितिरेषा सनातनी ॥ २१ ॥

मूलम्

यस्तु मे विहितो भक्ष्यः स्वयं देवैः सनातनः।
श्येनाः कपोतान् खादन्ति स्थितिरेषा सनातनी ॥ २१ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

साक्षात् देवताओंने सनातनकालसे मेरे लिये जो खाद्य नियत कर दिया है वही मुझे मिलना चाहिये। प्राचीनकालसे लोग इस बातको जानते हैं कि बाज कबूतर खाते हैं॥२१॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

उशीनर कपोते तु यदि स्नेहस्तवानघ।
ततस्त्वं मे प्रयच्छाद्य स्वमांसं तुलया धृतम् ॥ २२ ॥

मूलम्

उशीनर कपोते तु यदि स्नेहस्तवानघ।
ततस्त्वं मे प्रयच्छाद्य स्वमांसं तुलया धृतम् ॥ २२ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

निष्पाप महाराज उशीनर! यदि आपको इस कबूतरपर बड़ा स्नेह है तो आप मुझे इसके बराबर अपना ही मांस तराजूपर तौलकर दे दीजिये॥२२॥

मूलम् (वचनम्)

राजोवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

महाननुग्रहो मेऽद्य यस्त्वमेवमिहात्थ माम्।
बाढमेव करिष्यामीत्युक्त्वासौ राजसत्तमः ॥ २३ ॥
उत्कृत्योत्कृत्य मांसानि तुलया समतोलयत्।

मूलम्

महाननुग्रहो मेऽद्य यस्त्वमेवमिहात्थ माम्।
बाढमेव करिष्यामीत्युक्त्वासौ राजसत्तमः ॥ २३ ॥
उत्कृत्योत्कृत्य मांसानि तुलया समतोलयत्।

अनुवाद (हिन्दी)

राजाने कहा— ‘बाज! तुमने ऐसी बात कहकर मुझपर बड़ा अनुग्रह किया। बहुत अच्छा, मैं ऐसा ही करूँगा।’ यों कहकर नृपश्रेष्ठ उशीनरने अपना मांस काट-काटकर तराजूपर रखना आरम्भ किया॥२३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अन्तःपुरे ततस्तस्य स्त्रियो रत्नविभूषिताः ॥ २४ ॥
हाहाभूता विनिष्क्रान्ताः श्रुत्वा परमदुःखिताः।

मूलम्

अन्तःपुरे ततस्तस्य स्त्रियो रत्नविभूषिताः ॥ २४ ॥
हाहाभूता विनिष्क्रान्ताः श्रुत्वा परमदुःखिताः।

अनुवाद (हिन्दी)

यह समाचार सुनकर अन्तःपुरकी रत्नविभूषित रानियाँ बहुत दुःखी हुईं और हाहाकार करती हुई बाहर निकल आयीं॥२४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तासां रुदितशब्देन मन्त्रिभृत्यजनस्य च ॥ २५ ॥
बभूव सुमहान् नादो मेघगम्भीरनिःस्वनः।

मूलम्

तासां रुदितशब्देन मन्त्रिभृत्यजनस्य च ॥ २५ ॥
बभूव सुमहान् नादो मेघगम्भीरनिःस्वनः।

अनुवाद (हिन्दी)

उनके रोनेके शब्दसे तथा मन्त्रियों और भृत्यजनोंके हाहाकारसे मेघकी गम्भीर गर्जनाके समान वहाँ बड़ा भारी कोलाहल मच गया॥२५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

निरुद्धं गगनं सर्वं शुभ्रं मेघैः समन्ततः ॥ २६ ॥
मही प्रचलिता चासीत् तस्य सत्येन कर्मणा।

मूलम्

निरुद्धं गगनं सर्वं शुभ्रं मेघैः समन्ततः ॥ २६ ॥
मही प्रचलिता चासीत् तस्य सत्येन कर्मणा।

अनुवाद (हिन्दी)

सारा शुभ्र आकाश सब ओरसे मेघोंद्वारा आच्छादित हो गया। उनके सत्यकर्मके प्रभावसे पृथ्वी काँपने लगी॥२६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

स राजा पार्श्वतश्चैव बाहुभ्यामूरुतश्च यत् ॥ २७ ॥
तानि मांसानि संच्छिद्य तुलां पूरयतेऽशनैः।
तथापि न समस्तेन कपोतेन बभूव ह ॥ २८ ॥

मूलम्

स राजा पार्श्वतश्चैव बाहुभ्यामूरुतश्च यत् ॥ २७ ॥
तानि मांसानि संच्छिद्य तुलां पूरयतेऽशनैः।
तथापि न समस्तेन कपोतेन बभूव ह ॥ २८ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

राजा अपनी पसलियों, भुजाओं और जाँघोंसे मांस काटकर जल्दी-जल्दी तराजू भरने लगे। तथापि वह मांसराशि उस कबूतरके बराबर नहीं हुई॥२७-२८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अस्थिभूतो यदा राजा निर्मांसो रुधिरस्रवः।
तुलां ततः समारूढः स्वं मांसक्षयमुत्सृजन् ॥ २९ ॥

मूलम्

अस्थिभूतो यदा राजा निर्मांसो रुधिरस्रवः।
तुलां ततः समारूढः स्वं मांसक्षयमुत्सृजन् ॥ २९ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

जब राजाके शरीरका मांस चुक गया और रक्तकी धारा बहाता हुआ हड्डियोंका ढाँचामात्र रह गया तब वे मांस काटनेका काम बंद करके स्वयं ही तराजूपर चढ़ गये॥२९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

ततः सेन्द्रास्त्रयो लोकास्तं नरेन्द्रमुपस्थिताः।
भेर्यश्चाकाशगैस्तत्र वादिता देवदुन्दुभिः ॥ ३० ॥

मूलम्

ततः सेन्द्रास्त्रयो लोकास्तं नरेन्द्रमुपस्थिताः।
भेर्यश्चाकाशगैस्तत्र वादिता देवदुन्दुभिः ॥ ३० ॥

अनुवाद (हिन्दी)

फिर तो इन्द्र आदि देवताओंसहित तीनों लोकोंके प्राणी उन नरेन्द्रके पास आ पहुँचे। कुछ देवता आकाशमें ही खड़े होकर दुन्दुभियाँ बजाने लगे॥३०॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अमृतेनावसिक्तश्च वृषदर्भो नरेश्वरः ।
दिव्यैश्च सुसुखैर्माल्यैरभिवृष्टः पुनः पुनः ॥ ३१ ॥

मूलम्

अमृतेनावसिक्तश्च वृषदर्भो नरेश्वरः ।
दिव्यैश्च सुसुखैर्माल्यैरभिवृष्टः पुनः पुनः ॥ ३१ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

कुछ देवताओंने राजा वृषदर्भको अमृतसे नहलाया और उनके ऊपर अत्यन्त सुखदायक दिव्य पुष्पोंकी बारंबार वर्षा की॥३१॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

देवगन्धर्वसंघातैरप्सरोभिश्च सर्वतः ।
नृत्तश्चैवोपगीतश्च पितामह इव प्रभुः ॥ ३२ ॥

मूलम्

देवगन्धर्वसंघातैरप्सरोभिश्च सर्वतः ।
नृत्तश्चैवोपगीतश्च पितामह इव प्रभुः ॥ ३२ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

देव-गन्धर्वोंके समुदाय और अप्सराएँ सब ओरसे उन्हें घेरकर गाने और नाचने लगीं। वे उनके बीचमें भगवान् ब्रह्माजीके समान शोभा पाने लगे॥३२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

हेमप्रासादसम्बाधं मणिकाञ्चनतोरणम् ।
स वैदूर्यमणिस्तम्भं विमानं समधिष्ठितः ॥ ३३ ॥

मूलम्

हेमप्रासादसम्बाधं मणिकाञ्चनतोरणम् ।
स वैदूर्यमणिस्तम्भं विमानं समधिष्ठितः ॥ ३३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

इतनेहीमें एक दिव्य विमान उपस्थित हुआ जिसमें सुवर्णके महल बने हुए थे। सोने और मणियोंकी बन्दनवारें लगी थीं और वैदूर्यमणिके खम्भे शोभा पा रहे थे॥३३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

स राजर्षिर्गतः स्वर्गं कर्मणा तेन शाश्वतम्।

मूलम्

स राजर्षिर्गतः स्वर्गं कर्मणा तेन शाश्वतम्।

अनुवाद (हिन्दी)

राजर्षि उशीनर उस विमानमें बैठकर उस पुण्यकर्मके प्रभावसे सनातन दिव्यलोकको प्राप्त हुए॥३३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

शरणागतेषु चैवं त्वं कुरु सर्वं युधिष्ठिर ॥ ३४ ॥
भक्तानामनुरक्तानामाश्रितानां च रक्षिता ।
दयावान् सर्वभूतेषु परत्र सुखमेधते ॥ ३५ ॥

मूलम्

शरणागतेषु चैवं त्वं कुरु सर्वं युधिष्ठिर ॥ ३४ ॥
भक्तानामनुरक्तानामाश्रितानां च रक्षिता ।
दयावान् सर्वभूतेषु परत्र सुखमेधते ॥ ३५ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

युधिष्ठिर! तुम भी शरणागतोंके लिये इसी प्रकार अपना सर्वस्व निछावर कर दो। जो मनुष्य अपने भक्त, प्रेमी और शरणागत पुरुषोंकी रक्षा करता है तथा सब प्राणियोंपर दया रखता है वह परलोकमें सुख पाता है॥३४-३५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

साधुवृत्तो हि यो राजा सद्‌वृत्तमनुतिष्ठति।
किं न प्राप्तं भवेत् तेन स्वव्याजेनेह कर्मणा ॥ ३६ ॥

मूलम्

साधुवृत्तो हि यो राजा सद्‌वृत्तमनुतिष्ठति।
किं न प्राप्तं भवेत् तेन स्वव्याजेनेह कर्मणा ॥ ३६ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

जो राजा सदाचारी होकर सबके साथ सद्‌बर्ताव करता है वह अपने निश्छल कर्मसे किस वस्तुको नहीं प्राप्त कर लेता॥३६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

स राजर्षिर्विशुद्धात्मा धीरः सत्यपराक्रमः।
काशीनामीश्वरः ख्यातस्त्रिषु लोकेषु कर्मणा ॥ ३७ ॥

मूलम्

स राजर्षिर्विशुद्धात्मा धीरः सत्यपराक्रमः।
काशीनामीश्वरः ख्यातस्त्रिषु लोकेषु कर्मणा ॥ ३७ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

सत्यपराक्रमी, धीर और शुद्ध हृदयवाले काशीनरेश राजर्षि उशीनर अपने पुण्यकर्मसे तीनों लोकोंमें विख्यात हो गये॥३७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

योऽप्यन्यः कारयेदेवं शरणागतरक्षणम् ।
सोऽपि गच्छेत तामेव गतिं भरतसत्तम ॥ ३८ ॥

मूलम्

योऽप्यन्यः कारयेदेवं शरणागतरक्षणम् ।
सोऽपि गच्छेत तामेव गतिं भरतसत्तम ॥ ३८ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

भरतश्रेष्ठ! यदि दूसरा कोई भी पुरुष इसी प्रकार शरणागतकी रक्षा करेगा तो वह भी उसी गतिको प्राप्त करेगा॥३८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

इदं वृत्तं हि राजर्षेर्वृषदर्भस्य कीर्तयन्।
पूतात्मा वै भवेत्‌ लोके शृणुयाद्‌ यश्च नित्यशः ॥ ३९ ॥

मूलम्

इदं वृत्तं हि राजर्षेर्वृषदर्भस्य कीर्तयन्।
पूतात्मा वै भवेत्‌ लोके शृणुयाद्‌ यश्च नित्यशः ॥ ३९ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

राजर्षि वृषदर्भ (उशीनर)-के इस चरित्रका जो सदा श्रवण और वर्णन करता है वह संसारमें पुण्यात्मा होता है॥

मूलम् (समाप्तिः)

इति श्रीमहाभारते अनुशासनपर्वणि दानधर्मपर्वणि श्येनकपोतसंवादे द्वात्रिंशोऽध्यायः ॥ ३२ ॥

मूलम् (वचनम्)

इस प्रकार श्रीमहाभारत अनुशासनपर्वके अन्तर्गत दानधर्मपर्वमें बाज और कबूतरका संवादविषयक बत्तीसवाँ अध्याय पूरा हुआ॥३२॥