भागसूचना
एकत्रिंशोऽध्यायः
सूचना (हिन्दी)
नारदजीके द्वारा पूजनीय पुरुषोंके लक्षण तथा उनके आदर-सत्कार और पूजनसे प्राप्त होनेवाले लाभका वर्णन
मूलम् (वचनम्)
युधिष्ठिर उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
के पूज्या वै त्रिलोकेऽस्मिन् मानवा भरतर्षभ।
विस्तरेण तदाचक्ष्व न हि तृप्यामि कथ्यतः ॥ १ ॥
मूलम्
के पूज्या वै त्रिलोकेऽस्मिन् मानवा भरतर्षभ।
विस्तरेण तदाचक्ष्व न हि तृप्यामि कथ्यतः ॥ १ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
युधिष्ठिरने पूछा— भरतश्रेष्ठ! इन तीनों लोकोंमें कौन-कौन-से मनुष्य पूज्य होते हैं? यह विस्तार-पूर्वक बताइये। आपकी बातें सुनते-सुनते मुझे तृप्ति नहीं होती है॥१॥
मूलम् (वचनम्)
भीष्म उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
अत्राप्युदाहरन्तीममितिहासं पुरातनम् ।
नारदस्य च संवादं वासुदेवस्य चोभयोः ॥ २ ॥
मूलम्
अत्राप्युदाहरन्तीममितिहासं पुरातनम् ।
नारदस्य च संवादं वासुदेवस्य चोभयोः ॥ २ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
भीष्मजीने कहा— युधिष्ठिर! इस विषयमें विज्ञ पुरुष देवर्षि नारद और भगवान् श्रीकृष्णके संवादरूप इस इतिहासका उदाहरण दिया करते हैं॥२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
नारदं प्राञ्जलिं दृष्ट्वा पूजयानं द्विजर्षभान्।
केशवः परिपप्रच्छ भगवन् कान् नमस्यसि ॥ ३ ॥
मूलम्
नारदं प्राञ्जलिं दृष्ट्वा पूजयानं द्विजर्षभान्।
केशवः परिपप्रच्छ भगवन् कान् नमस्यसि ॥ ३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
एक समयकी बात है, देवर्षि नारदजी हाथ जोड़कर उत्तम ब्राह्मणोंकी पूजा कर रहे थे। यह देखकर भगवान् श्रीकृष्णने पूछा—‘भगवन्! आप किनको नमस्कार कर रहे हैं?॥३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
बहुमानपरस्तेषु भगवन् यान् नमस्यसि।
शक्यं चेच्छ्रोतुमस्माभिर्ब्रूह्येतद् धर्मवित्तम ॥ ४ ॥
मूलम्
बहुमानपरस्तेषु भगवन् यान् नमस्यसि।
शक्यं चेच्छ्रोतुमस्माभिर्ब्रूह्येतद् धर्मवित्तम ॥ ४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘प्रभो! धर्मात्माओंमें श्रेष्ठ नारदजी! आपके हृदयमें जिनके प्रति बहुत बड़ा आदर है तथा आप भी जिनके सामने मस्तक झुकाते हैं, वे कौन हैं? यदि हमें सुनाना उचित समझें तो आप उन पूज्य पुरुषोंका परिचय दीजिये’॥४॥
मूलम् (वचनम्)
नारद उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
शृणु गोविन्द यानेतान् पूजयाम्यरिमर्दन।
त्वत्तोऽन्यः कः पुमाल्ँलोके श्रोतुमेतदिहार्हति ॥ ५ ॥
मूलम्
शृणु गोविन्द यानेतान् पूजयाम्यरिमर्दन।
त्वत्तोऽन्यः कः पुमाल्ँलोके श्रोतुमेतदिहार्हति ॥ ५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
नारदजीने कहा— शत्रुमर्दन गोविन्द! मैं जिनका पूजन करता हूँ उनका परिचय सुननेके लिये इस संसारमें आपसे बढ़कर दूसरा कौन पुरुष अधिकारी है?॥५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
वरुणं वायुमादित्यं पर्जन्यं जातवेदसम्।
स्थाणुं स्कन्दं तथा लक्ष्मीं विष्णुं ब्रह्माणमेव च ॥ ६ ॥
वाचस्पतिं चन्द्रमसमपः पृथ्वीं सरस्वतीम्।
सततं ये नमस्यन्ति तान् नमस्याम्यहं विभो ॥ ७ ॥
मूलम्
वरुणं वायुमादित्यं पर्जन्यं जातवेदसम्।
स्थाणुं स्कन्दं तथा लक्ष्मीं विष्णुं ब्रह्माणमेव च ॥ ६ ॥
वाचस्पतिं चन्द्रमसमपः पृथ्वीं सरस्वतीम्।
सततं ये नमस्यन्ति तान् नमस्याम्यहं विभो ॥ ७ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
जो लोग वरुण, वायु, आदित्य, पर्जन्य, अग्नि, रुद्र, स्वामी कार्तिकेय, लक्ष्मी, विष्णु, ब्रह्मा, बृहस्पति, चन्द्रमा, जल, पृथ्वी और सरस्वतीको सदा प्रणाम करते हैं, प्रभो! मैं उन्हीं पूज्य पुरुषोंको मस्तक झुकाता हूँ॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तपोधनान् वेदविदो नित्यं वेदपरायणान्।
महार्हान् वृष्णिशार्दूल सदा सम्पूजयाम्यहम् ॥ ८ ॥
मूलम्
तपोधनान् वेदविदो नित्यं वेदपरायणान्।
महार्हान् वृष्णिशार्दूल सदा सम्पूजयाम्यहम् ॥ ८ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
वृष्णिसिंह! तपस्या ही जिनका धन है, जो वेदोंके ज्ञाता तथा वेदोक्त धर्मका ही आश्रय लेनेवाले हैं, उन परम पूजनीय पुरुषोंकी ही मैं सदा पूजा करता रहता हूँ॥८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अभुक्त्वा देवकार्याणि कुर्वते येऽविकत्थनाः।
संतुष्टाश्च क्षमायुक्तास्तान् नमस्याम्यहं विभो ॥ ९ ॥
मूलम्
अभुक्त्वा देवकार्याणि कुर्वते येऽविकत्थनाः।
संतुष्टाश्च क्षमायुक्तास्तान् नमस्याम्यहं विभो ॥ ९ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
प्रभो! जो भोजनसे पहले देवताओंकी पूजा करते, अपनी झूठी बड़ाई नहीं करते, संतुष्ट रहते और क्षमाशील होते हैं, उनको मैं प्रणाम करता हूँ॥९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
सम्यग् यजन्ति ये चेष्टीः क्षान्ता दान्ता जितेन्द्रियाः।
सत्यं धर्मं क्षितिं गाश्च तान् नमस्यामि यादव ॥ १० ॥
मूलम्
सम्यग् यजन्ति ये चेष्टीः क्षान्ता दान्ता जितेन्द्रियाः।
सत्यं धर्मं क्षितिं गाश्च तान् नमस्यामि यादव ॥ १० ॥
अनुवाद (हिन्दी)
यदुनन्दन! जो विधिपूर्वक यज्ञोंका अनुष्ठान करते हैं, जो क्षमाशील, जितेन्द्रिय और मनको वशमें करनेवाले हैं और सत्य, धर्म, पृथ्वी तथा गौओंकी पूजा करते हैं, उन्हींको मैं प्रणाम करता हूँ॥१०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ये वै तपसि वर्तन्ते वने मूलफलाशनाः।
असंचयाः क्रियावन्तस्तान् नमस्यामि यादव ॥ ११ ॥
मूलम्
ये वै तपसि वर्तन्ते वने मूलफलाशनाः।
असंचयाः क्रियावन्तस्तान् नमस्यामि यादव ॥ ११ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
यादव! जो लोग वनमें फल-मूल खाकर तपस्यामें लगे रहते हैं, किसी प्रकारका संग्रह नहीं रखते और क्रियानिष्ठ होते हैं, उन्हींको मैं मस्तक झुकाता हूँ॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ये भृत्यभरणे शक्ताः सततं चातिथिव्रताः।
भुञ्जते देवशेषाणि तान् नमस्यामि यादव ॥ १२ ॥
मूलम्
ये भृत्यभरणे शक्ताः सततं चातिथिव्रताः।
भुञ्जते देवशेषाणि तान् नमस्यामि यादव ॥ १२ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
जो माता-पिता, कुटुम्बीजन एवं सेवक आदि भरण-पोषणके योग्य व्यक्तियोंका पालन करनेमें समर्थ हैं, जिन्होंने सदा अतिथिसेवाका व्रत ले रखा है तथा जो देवयज्ञसे बचे हुए अन्नको ही भोजन करते हैं, मैं उन्हींके सामने नतमस्तक होता हूँ॥१२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ये वेदं प्राप्य दुर्धर्षा वाग्मिनो ब्रह्मचारिणः।
याजनाध्यापने युक्ता नित्यं तान् पूजयाम्यहम् ॥ १३ ॥
मूलम्
ये वेदं प्राप्य दुर्धर्षा वाग्मिनो ब्रह्मचारिणः।
याजनाध्यापने युक्ता नित्यं तान् पूजयाम्यहम् ॥ १३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
जो वेदका अध्ययन करके दुर्धर्ष और बोलनेमें कुशल हो गये हैं, ब्रह्मचर्यका पालन करते हैं और यज्ञ कराने तथा वेद पढ़ानेमें लगे रहते हैं उनकी मैं सदा पूजा किया करता हूँ॥१३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
प्रसन्नहृदयाश्चैव सर्वसत्त्वेषु नित्यशः ।
आपृष्ठतापात् स्वाध्याये युक्तास्तान् पूजयाम्यहम् ॥ १४ ॥
मूलम्
प्रसन्नहृदयाश्चैव सर्वसत्त्वेषु नित्यशः ।
आपृष्ठतापात् स्वाध्याये युक्तास्तान् पूजयाम्यहम् ॥ १४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
जो नित्य-निरन्तर समस्त प्राणियोंपर प्रसन्नचित्त रहते और सबेरेसे दोपहरतक वेदोंके स्वाध्यायमें संलग्न रहते हैं, उनका मैं पूजन करता हूँ॥१४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
गुरुप्रसादे स्वाध्याये यतन्तो ये स्थिरव्रताः।
शुश्रूषवोऽनसूयन्तस्तान् नमस्यामि यादव ॥ १५ ॥
मूलम्
गुरुप्रसादे स्वाध्याये यतन्तो ये स्थिरव्रताः।
शुश्रूषवोऽनसूयन्तस्तान् नमस्यामि यादव ॥ १५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
यदुकुलतिलक! जो गुरुको प्रसन्न रखने और स्वाध्याय करनेके लिये सदा यत्नशील रहते हैं, जिनका व्रत कभी भंग नहीं होने पाता, जो गुरुजनोंकी सेवा करते और किसीके भी दोष नहीं देखते उनको मैं प्रणाम करता हूँ॥१५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
सुव्रता मुनयो ये च ब्राह्मणाः सत्यसंगराः।
वोढारो हव्यकव्यानां तान् नमस्यामि यादव ॥ १६ ॥
मूलम्
सुव्रता मुनयो ये च ब्राह्मणाः सत्यसंगराः।
वोढारो हव्यकव्यानां तान् नमस्यामि यादव ॥ १६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
यदुनन्दन! जो उत्तम व्रतका पालन करनेवाले, मननशील, सत्यप्रतिज्ञ तथा हव्य-कव्यको नियमित-रूपसे चलानेवाले ब्राह्मण हैं उनको मैं मस्तक झुकाता हूँ॥१६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
भैक्ष्यचर्यासु निरताः कृशा गुरुकुलाश्रयाः।
निःसुखा निर्धना ये तु तान् नमस्यामि यादव ॥ १७ ॥
मूलम्
भैक्ष्यचर्यासु निरताः कृशा गुरुकुलाश्रयाः।
निःसुखा निर्धना ये तु तान् नमस्यामि यादव ॥ १७ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
यदुकुलभूषण! जो गुरुकुलमें रहकर भिक्षासे जीवन निर्वाह करते हैं, तपस्यासे जिनका शरीर दुर्बल हो गया है और जो कभी धन तथा सुखकी चिन्ता नहीं करते हैं उनको मैं प्रणाम करता हूँ॥१७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
निर्ममा निष्प्रतिद्वन्द्वा निर्ह्रीका निष्प्रयोजनाः।
ये वेदं प्राप्य दुर्धर्षा वाग्मिनो ब्रह्मवादिनः ॥ १८ ॥
अहिंसानिरता ये च ये च सत्यव्रता नराः।
दान्ताः शमपराश्चैव तान् नमस्यामि केशव ॥ १९ ॥
मूलम्
निर्ममा निष्प्रतिद्वन्द्वा निर्ह्रीका निष्प्रयोजनाः।
ये वेदं प्राप्य दुर्धर्षा वाग्मिनो ब्रह्मवादिनः ॥ १८ ॥
अहिंसानिरता ये च ये च सत्यव्रता नराः।
दान्ताः शमपराश्चैव तान् नमस्यामि केशव ॥ १९ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
केशव! जिनके मनमें ममता नहीं है, जो प्रति-द्वन्द्वियोंसे रहित, लज्जासे ऊपर उठे हुए तथा कहीं भी कोई प्रयोजन न रखनेवाले हैं, जो वेदोंके ज्ञानका बल पाकर दुर्धर्ष हो गये हैं, प्रवचन-कुशल और ब्रह्मवादी हैं, जिन्होंने अहिंसामें तत्पर रहकर सदा सत्य बोलनेका व्रत ले रखा है तथा जो इन्द्रियसंयम एवं मनोनिग्रहके साधनमें संलग्न रहते हैं उनको मैं नमस्कार करता हूँ॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
देवतातिथिपूजायां युक्ता ये गृहमेधिनः।
कपोतवृत्तयो नित्यं तान् नमस्यामि यादव ॥ २० ॥
मूलम्
देवतातिथिपूजायां युक्ता ये गृहमेधिनः।
कपोतवृत्तयो नित्यं तान् नमस्यामि यादव ॥ २० ॥
अनुवाद (हिन्दी)
यादव! जो गृहस्थ ब्राह्मण सदा कपोतवृत्तिसे रहते हुए देवता और अतिथियोंकी पूजामें संलग्न रहते हैं, उनको मैं मस्तक झुकाता हूँ॥२०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
येषां त्रिवर्गः कृत्येषु वर्तते नोपहीयते।
शिष्टाचारप्रवृत्ताश्च तान् नमस्याम्यहं सदा ॥ २१ ॥
मूलम्
येषां त्रिवर्गः कृत्येषु वर्तते नोपहीयते।
शिष्टाचारप्रवृत्ताश्च तान् नमस्याम्यहं सदा ॥ २१ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
जिनके कार्योंमें धर्म, अर्थ और काम तीनोंका निर्वाह होता है, किसी एककी भी हानि नहीं होने पाती तथा जो सदा शिष्टाचारमें ही संलग्न रहते हैं, उनको मैं नमस्कार करता हूँ॥२१॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ब्राह्मणाः श्रुतसम्पन्ना ये त्रिवर्गमनुष्ठिताः।
अलोलुपाः पुण्यशीलास्तान् नमस्यामि केशव ॥ २२ ॥
मूलम्
ब्राह्मणाः श्रुतसम्पन्ना ये त्रिवर्गमनुष्ठिताः।
अलोलुपाः पुण्यशीलास्तान् नमस्यामि केशव ॥ २२ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
केशव! जो ब्राह्मण वेद-शास्त्रोंके ज्ञानसे सम्पन्न, धर्म, अर्थ और कामका सेवन करनेवाले, लोलुपतासे रहित और स्वभावतः पुण्यात्मा हैं उन्हें मैं नमस्कार करता हूँ॥२२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अब्भक्षा वायुभक्षाश्च सुधाभक्षाश्च ये सदा।
व्रतैश्च विविधैर्युक्तास्तान् नमस्यामि माधव ॥ २३ ॥
मूलम्
अब्भक्षा वायुभक्षाश्च सुधाभक्षाश्च ये सदा।
व्रतैश्च विविधैर्युक्तास्तान् नमस्यामि माधव ॥ २३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
माधव! जो नाना प्रकारके व्रतोंका पालन करते हुए केवल पानी या हवा पीकर ही रह जाते हैं तथा जो सदा यज्ञशेष अन्नका ही भोजन करते हैं उनके चरणोंमें मैं प्रणाम करता हूँ॥२३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अयोनीनग्नियोनींश्च ब्रह्मयोनींस्तथैव च ।
सर्वभूतात्मयोनींश्च तान् नमस्याम्यहं सदा ॥ २४ ॥
मूलम्
अयोनीनग्नियोनींश्च ब्रह्मयोनींस्तथैव च ।
सर्वभूतात्मयोनींश्च तान् नमस्याम्यहं सदा ॥ २४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
जो स्त्री नहीं रखते अर्थात् ब्रह्मचर्यका पालन करते हैं, जो अग्निहोत्रसे युक्त हैं तथा जो वेदोंको धारण करनेवाले हैं और समस्त प्राणियोंके आत्मस्वरूप परमात्माको ही सबका कारण माननेवाले हैं उनकी मैं सदा वन्दना करता हूँ॥२४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
नित्यमेतान् नमस्यामि कृष्ण लोककरानृषीन्।
लोकज्येष्ठान् कुलज्येष्ठांस्तमोघ्नाल्ँलोकभास्करान् ॥ २५ ॥
मूलम्
नित्यमेतान् नमस्यामि कृष्ण लोककरानृषीन्।
लोकज्येष्ठान् कुलज्येष्ठांस्तमोघ्नाल्ँलोकभास्करान् ॥ २५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
श्रीकृष्ण! जो लोकोंकी सृष्टि करनेवाले, संसारमें सबसे श्रेष्ठ, उत्तम कुलमें उत्पन्न, अज्ञानान्धकारका नाश करनेवाले तथा सूर्यके समान जगत्को ज्ञानालोक प्रदान करनेवाले हैं उन ऋषियोंको मैं सदा मस्तक झुकाता हूँ॥२५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तस्मात् त्वमपि वार्ष्णेय द्विजान् पूजय नित्यदा।
पूजिताः पूजनार्हा हि सुखं दास्यन्ति तेऽनघ ॥ २६ ॥
मूलम्
तस्मात् त्वमपि वार्ष्णेय द्विजान् पूजय नित्यदा।
पूजिताः पूजनार्हा हि सुखं दास्यन्ति तेऽनघ ॥ २६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
वार्ष्णेय! अतः आप भी सदा ब्राह्मणोंका पूजन करें। निष्पाप श्रीकृष्ण! वे पूजनीय ब्राह्मण पूजित होनेपर आपको अपने आशीर्वादसे सुख प्रदान करेंगे॥२६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अस्मिल्लोँके सदा ह्येते परत्र च सुखप्रदाः।
चरन्ते मान्यमाना वै प्रदास्यन्ति सुखं तव ॥ २७ ॥
मूलम्
अस्मिल्लोँके सदा ह्येते परत्र च सुखप्रदाः।
चरन्ते मान्यमाना वै प्रदास्यन्ति सुखं तव ॥ २७ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
ये ब्राह्मण सदा इहलोक और परलोकमें भी सुख प्रदान करते हुए विचरते हैं। ये सम्मानित होनेपर आपको अवश्य ही सुख प्रदान करेंगे॥२७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ये सर्वातिथयो नित्यं गोषु च ब्राह्मणेषु च।
नित्यं सत्ये चाभिरता दुर्गाण्यतितरन्ति ते ॥ २८ ॥
मूलम्
ये सर्वातिथयो नित्यं गोषु च ब्राह्मणेषु च।
नित्यं सत्ये चाभिरता दुर्गाण्यतितरन्ति ते ॥ २८ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
जो सबका अतिथि सत्कार करते तथा गौ-ब्राह्मण और सत्यपर प्रेम रखते हैं वे बड़े-बड़े संकटसे पार हो जाते हैं॥२८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
नित्यं शमपरा ये च तथा ये चानसूयकाः।
नित्यस्वाध्यायिनो ये च दुर्गाण्यतितरन्ति ते ॥ २९ ॥
मूलम्
नित्यं शमपरा ये च तथा ये चानसूयकाः।
नित्यस्वाध्यायिनो ये च दुर्गाण्यतितरन्ति ते ॥ २९ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
जो सदा मनको वशमें रखते, किसीके दोषपर दृष्टि नहीं डालते और प्रतिदिन स्वाध्यायमें संलग्न रहते हैं वे दुर्गम संकटसे पार हो जाते हैं॥२९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
सर्वान् देवान् नमस्यन्ति ये चैकं वेदमाश्रिताः।
श्रद्दधानाश्च दान्ताश्च दुर्गाण्यतितरन्ति ते ॥ ३० ॥
मूलम्
सर्वान् देवान् नमस्यन्ति ये चैकं वेदमाश्रिताः।
श्रद्दधानाश्च दान्ताश्च दुर्गाण्यतितरन्ति ते ॥ ३० ॥
अनुवाद (हिन्दी)
जो सब देवताओंको प्रणाम करते हैं, एकमात्र वेदका आश्रय लेते, श्रद्धा रखते और इन्द्रियोंको वशमें रखते हैं वे भी दुस्तर संकटसे छुटकारा पा जाते हैं॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तथैव विप्रप्रवरान् नमस्कृत्य यतव्रताः।
भवन्ति ये दानरता दुर्गाण्यतितरन्ति ते ॥ ३१ ॥
मूलम्
तथैव विप्रप्रवरान् नमस्कृत्य यतव्रताः।
भवन्ति ये दानरता दुर्गाण्यतितरन्ति ते ॥ ३१ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
इसी प्रकार जो नियमपूर्वक व्रतोंका पालन करते हैं और श्रेष्ठ ब्राह्मणोंको नमस्कार करके उन्हें दान देते हैं वे दुस्तर विपत्ति लाँघ जाते हैं॥३१॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तपस्विनश्च ये नित्यं कौमारब्रह्मचारिणः।
तपसा भावितात्मानो दुर्गाण्यतितरन्ति ते ॥ ३२ ॥
मूलम्
तपस्विनश्च ये नित्यं कौमारब्रह्मचारिणः।
तपसा भावितात्मानो दुर्गाण्यतितरन्ति ते ॥ ३२ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
जो तपस्वी, आबालब्रह्मचारी और तपस्यासे शुद्ध अन्तःकरणवाले हैं वे दुर्गम संकटसे पार हो जाते हैं॥३२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
देवतातिथिभृत्यानां पितॄणां चार्चने रताः।
शिष्टान्नभोजिनो ये च दुर्गाण्यतितरन्ति ते ॥ ३३ ॥
मूलम्
देवतातिथिभृत्यानां पितॄणां चार्चने रताः।
शिष्टान्नभोजिनो ये च दुर्गाण्यतितरन्ति ते ॥ ३३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
जो देवता, अतिथि, पोष्यवर्ग तथा पितरोंके पूजनमें तत्पर रहते हैं और यज्ञशिष्ट अन्नका भोजन करते हैं वे भी दुर्गम संकटसे पार हो जाते हैं॥३३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अग्निमाधाय विधिवत् प्रणता धारयन्ति ये।
प्राप्ताः सोमाहुतिं चैव दुर्गाण्यतितरन्ति ते ॥ ३४ ॥
मूलम्
अग्निमाधाय विधिवत् प्रणता धारयन्ति ये।
प्राप्ताः सोमाहुतिं चैव दुर्गाण्यतितरन्ति ते ॥ ३४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
जो विधिपूर्वक अग्निकी स्थापना करके सदा अग्निदेवकी उपासना और वन्दना करते हुए सर्वदा उस अग्निकी रक्षा करते हैं; तथा उसमें सोमरसकी आहुति देते हैं वे दुस्तर विपत्तिसे पार हो जाते हैं॥३४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
मातापित्रोर्गुरुषु च सम्यग् वर्तन्ति ये सदा।
यथा त्वं वृष्णिशार्दूलेत्युक्त्वैवं विरराम सः ॥ ३५ ॥
मूलम्
मातापित्रोर्गुरुषु च सम्यग् वर्तन्ति ये सदा।
यथा त्वं वृष्णिशार्दूलेत्युक्त्वैवं विरराम सः ॥ ३५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
वृष्णिसिंह! जो आपकी ही भाँति माता-पिता और गुरुके प्रति पूर्णतः न्याययुक्त बर्ताव करते हैं वे भी संकटसे पार हो जाते हैं—ऐसा कहकर नारदजी चुप हो गये॥३५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तस्मात् त्वमपि कौन्तेय पितृदेवद्विजातिथीन्।
सम्यक् पूजयसे नित्यं गतिमिष्टामवाप्स्यसि ॥ ३६ ॥
मूलम्
तस्मात् त्वमपि कौन्तेय पितृदेवद्विजातिथीन्।
सम्यक् पूजयसे नित्यं गतिमिष्टामवाप्स्यसि ॥ ३६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
अतः कुन्तीनन्दन! यदि तुम भी सदा देवताओं, पितरों, ब्राह्मणों और अतिथियोंका भलीभाँति पूजन एवं सत्कार करते रहोगे तो अभीष्ट गति प्राप्त कर लोगे॥३६॥
मूलम् (समाप्तिः)
इति श्रीमहाभारते अनुशासनपर्वणि दानधर्मपर्वणि कृष्णनारदसंवादे एकत्रिंशोऽध्यायः ॥ ३१ ॥
मूलम् (वचनम्)
इस प्रकार श्रीमहाभारत अनुशासनपर्वके अन्तर्गत दानधर्मपर्वमें श्रीकृष्ण-नारदसंवादविषयक इकतीसवाँ अध्याय पूरा हुआ॥३१॥