०३० वीतहव्योपाख्यानम्

भागसूचना

त्रिंशोऽध्यायः

सूचना (हिन्दी)

वीतहव्यके पुत्रोंसे काशी-नरेशोंका घोर युद्ध, प्रतर्दनद्वारा उनका वध और राजा वीतहव्यको भृगुके कथनसे ब्राह्मणत्व प्राप्त होनेकी कथा

मूलम् (वचनम्)

युधिष्ठिर उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

श्रुतं मे महदाख्यानमेतत् कुरुकुलोद्वह।
सुदुष्प्रापं यद् ब्रवीषि ब्राह्मण्यं वदतां वर ॥ १ ॥

मूलम्

श्रुतं मे महदाख्यानमेतत् कुरुकुलोद्वह।
सुदुष्प्रापं यद् ब्रवीषि ब्राह्मण्यं वदतां वर ॥ १ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

युधिष्ठिरने पूछा— कुरुकुलमें उत्पन्न! वक्ताओंमें श्रेष्ठ पितामह! आपके मुखसे यह महान् उपाख्यान मैंने सुन लिया। आप कह रहे हैं कि अन्य वर्णोंके लिये इसी शरीरसे ब्राह्मणत्वकी प्राप्ति बहुत ही कठिन है॥१॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

विश्वामित्रेण च पुरा ब्राह्मण्यं प्राप्तमित्युत।
श्रूयते वदसे तच्च दुष्प्रापमिति सत्तम ॥ २ ॥

मूलम्

विश्वामित्रेण च पुरा ब्राह्मण्यं प्राप्तमित्युत।
श्रूयते वदसे तच्च दुष्प्रापमिति सत्तम ॥ २ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

सत्पुरुषोंमें श्रेष्ठ पितामह! परंतु सुना जाता है कि पूर्वकालमें विश्वामित्रजीने इसी शरीरसे ब्राह्मणत्व प्राप्त कर लिया था और आप जो उसे सर्वथा दुर्लभ बता रहे हैं (ये दोनों बातें परस्पर विरुद्ध-सी जान पड़ती हैं)॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

वीतहव्यश्च नृपतिः श्रुतो मे विप्रतां गतः।
तदेव तावद् गाङ्गेय श्रोतुमिच्छाम्यहं विभो ॥ ३ ॥

मूलम्

वीतहव्यश्च नृपतिः श्रुतो मे विप्रतां गतः।
तदेव तावद् गाङ्गेय श्रोतुमिच्छाम्यहं विभो ॥ ३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

मेरे सुननेमें यह भी आया है कि राजा वीतहव्य क्षत्रियसे ब्राह्मण हो गये थे। गङ्गानन्दन प्रभो! अब मैं पहले उसी प्रसङ्गको सुनना चाहता हूँ॥३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

स केन कर्मणा प्राप्तो ब्राह्मण्यं राजसत्तमः।
वरेण तपसा वापि तन्मे व्याख्यातुमर्हसि ॥ ४ ॥

मूलम्

स केन कर्मणा प्राप्तो ब्राह्मण्यं राजसत्तमः।
वरेण तपसा वापि तन्मे व्याख्यातुमर्हसि ॥ ४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

वे नृपशिरोमणि वीतहव्य किस कर्मसे, किस वर अथवा तपस्यासे ब्राह्मणत्वको प्राप्त हुए? यह मुझे विस्तारपूर्वक बतानेकी कृपा करें॥४॥

मूलम् (वचनम्)

भीष्म उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

शृणु राजन् यथा राजा वीतहव्यो महायशाः।
राजर्षिर्दुर्लभं प्राप्तो ब्राह्मण्यं लोकसत्कृतम् ॥ ५ ॥

मूलम्

शृणु राजन् यथा राजा वीतहव्यो महायशाः।
राजर्षिर्दुर्लभं प्राप्तो ब्राह्मण्यं लोकसत्कृतम् ॥ ५ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

भीष्मजीने कहा— राजन्! महायशस्वी राजर्षि राजा वीतहव्यने जिस प्रकार लोकसम्मानित दुर्लभ ब्राह्मणत्व प्राप्त किया था, उसे बताता हूँ, सुनो॥५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

मनोर्महात्मनस्तात प्रजा धर्मेण शासतः।
बभूव पुत्रो धर्मात्मा शर्यातिरिति विश्रुतः ॥ ६ ॥

मूलम्

मनोर्महात्मनस्तात प्रजा धर्मेण शासतः।
बभूव पुत्रो धर्मात्मा शर्यातिरिति विश्रुतः ॥ ६ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

तात! पूर्वकालमें धर्मपूर्वक प्रजाका पालन करनेवाले महामनस्वी राजा मनुके एक धर्मात्मा पुत्र उत्पन्न हुआ, जिसका नाम था शर्याति॥६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तस्यान्ववाये द्वौ राजन् राजानौ सम्बभूवतुः।
हैहयस्तालजंघश्च वत्सस्य जयतां वर ॥ ७ ॥

मूलम्

तस्यान्ववाये द्वौ राजन् राजानौ सम्बभूवतुः।
हैहयस्तालजंघश्च वत्सस्य जयतां वर ॥ ७ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

विजयी वीरोंमें श्रेष्ठ नरेश! राजा शर्यातिके वंशमें दो राजा बड़े विख्यात हुए—हैहय और तालजंघ। ये दोनों ही राजा वत्सके पुत्र थे॥७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

हैहयस्य तु राजेन्द्र दशसु स्त्रीषु भारत।
शतं बभूव पुत्राणां शूराणामनिवर्तिनाम् ॥ ८ ॥

मूलम्

हैहयस्य तु राजेन्द्र दशसु स्त्रीषु भारत।
शतं बभूव पुत्राणां शूराणामनिवर्तिनाम् ॥ ८ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

भरतवंशी राजेन्द्र! उन दोनोंमें हैहयके (जिसका दूसरा नाम वीतहव्य भी था) दस स्त्रियाँ थीं। उन स्त्रियोंके गर्भसे सौ शूरवीर पुत्र उत्पन्न हुए जो युद्धसे पीछे हटनेवाले नहीं थे॥८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तुल्यरूपप्रभावाणां बलिनां युद्धशालिनाम् ।
धनुर्वेदे च वेदे च सर्वत्रैव कृतश्रमाः ॥ ९ ॥

मूलम्

तुल्यरूपप्रभावाणां बलिनां युद्धशालिनाम् ।
धनुर्वेदे च वेदे च सर्वत्रैव कृतश्रमाः ॥ ९ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

उन सबके रूप और प्रभाव एक समान थे, वे सभी बलवान् तथा युद्धमें शोभा पानेवाले थे। उन्होंने धनुर्वेद और वेदके सभी विषयोंमें परिश्रम किया था॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

काशिष्वपि नृपो राजन् दिवोदासपितामहः।
हर्यश्व इति विख्यातो बभूव जयतां वरः ॥ १० ॥

मूलम्

काशिष्वपि नृपो राजन् दिवोदासपितामहः।
हर्यश्व इति विख्यातो बभूव जयतां वरः ॥ १० ॥

अनुवाद (हिन्दी)

उन्हीं दिनों काशी प्रान्तमें हर्यश्व नामके राजा राज्य करते थे, जो दिवोदासके पितामह थे। वे विजयशील वीरोंमें श्रेष्ठ समझे जाते थे॥१०॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

स वीतहव्यदायादैरागत्य पुरुषर्षभ ।
गङ्गायमुनयोर्मध्ये संग्रामे विनिपातितः ॥ ११ ॥

मूलम्

स वीतहव्यदायादैरागत्य पुरुषर्षभ ।
गङ्गायमुनयोर्मध्ये संग्रामे विनिपातितः ॥ ११ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

पुरुषप्रवर! वीतहव्यके पुत्रोंने हर्यश्वके राज्यपर चढ़ाई की उन्हें गंगा-यमुनाके बीच युद्धमें मार गिराया॥११॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तं तु हत्वा नरपतिं हैहयास्ते महारथाः।
प्रतिजग्मुः पुरीं रम्यां वत्सानामकुतोभयाः ॥ १२ ॥

मूलम्

तं तु हत्वा नरपतिं हैहयास्ते महारथाः।
प्रतिजग्मुः पुरीं रम्यां वत्सानामकुतोभयाः ॥ १२ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

राजा हर्यश्वको मारकर वे महारथी हैहय-राजकुमार निर्भय हो वत्सवंशी राजाओंकी सुरम्य पुरीको लौट गये॥१२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

हर्यश्वस्य च दायादः काशिराजोऽभ्यषिच्यत।
सुदेवो देवसंकाशः साक्षाद् धर्म इवापरः ॥ १३ ॥

मूलम्

हर्यश्वस्य च दायादः काशिराजोऽभ्यषिच्यत।
सुदेवो देवसंकाशः साक्षाद् धर्म इवापरः ॥ १३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

हर्यश्वके पुत्र सुदेव जो देवताके तुल्य तेजस्वी और साक्षात् दूसरे धर्मराजके समान न्यायशील थे, पिताके बाद काशिराजके पदपर अभिषिक्त किये गये॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

स पालयामास महीं धर्मात्मा काशिनन्दनः।
तैर्वीतहव्यैरागत्य युधि सर्वैर्विनिर्जितः ॥ १४ ॥

मूलम्

स पालयामास महीं धर्मात्मा काशिनन्दनः।
तैर्वीतहव्यैरागत्य युधि सर्वैर्विनिर्जितः ॥ १४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

धर्मात्मा काशिनन्दन सुदेव धर्मपूर्वक पृथ्वीका पालन करने लगे। इसी बीचमें वीतहव्यके सभी पुत्रोंने आक्रमण करके युद्धमें उन्हें भी परास्त कर दिया॥१४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तमथाजौ विनिर्जित्य प्रतिजग्मुर्यथागतम् ।
सौदेवस्त्वथ काशीशो दिवोदासोऽभ्यषिच्यत ॥ १५ ॥

मूलम्

तमथाजौ विनिर्जित्य प्रतिजग्मुर्यथागतम् ।
सौदेवस्त्वथ काशीशो दिवोदासोऽभ्यषिच्यत ॥ १५ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

समराङ्गणमें सुदेवको धराशायी करके वे हैहय-राजकुमार जैसे आये थे वैसे लौट गये। तत्पश्चात् सुदेवके पुत्र दिवोदासका काशिराजके पदपर अभिषेक किया गया॥१५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

दिवोदासस्तु विज्ञाय वीर्यं तेषां यतात्मनाम्।
वाराणसीं महातेजा निर्ममे शक्रशासनात् ॥ १६ ॥

मूलम्

दिवोदासस्तु विज्ञाय वीर्यं तेषां यतात्मनाम्।
वाराणसीं महातेजा निर्ममे शक्रशासनात् ॥ १६ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

दिवोदास बड़े तेजस्वी राजा थे। उन्होंने जब मनको वशमें रखनेवाले हैहयराजकुमारोंके पराक्रमपर विचार किया तब इन्द्रकी आज्ञासे वाराणसी नामवाली नगरी बसायी॥१६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

विप्रक्षत्रियसम्बाधां वैश्यशूद्रसमाकुलाम् ।
नैकद्रव्योच्चयवतीं समृद्धविपणापणाम् ॥ १७ ॥

मूलम्

विप्रक्षत्रियसम्बाधां वैश्यशूद्रसमाकुलाम् ।
नैकद्रव्योच्चयवतीं समृद्धविपणापणाम् ॥ १७ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

वह पुरी ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य तथा शूद्रोंसे भरी हुई थी। नाना प्रकारके द्रव्योंके संग्रहसे सम्पन्न थी; तथा उसके बाजार-हाट और दूकानें धन-वैभवसे भरपूर थीं॥१७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

गङ्गाया उत्तरे कूले वप्रान्ते राजसत्तम।
गोमत्या दक्षिणे कूले शक्रस्येवामरावतीम् ॥ १८ ॥

मूलम्

गङ्गाया उत्तरे कूले वप्रान्ते राजसत्तम।
गोमत्या दक्षिणे कूले शक्रस्येवामरावतीम् ॥ १८ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

नृपश्रेष्ठ! उस नगरीके घेरेका एक छोर गंगाजीके उत्तर तटतक दूसरा छोर गोमतीके दक्षिण किनारेतक फैला हुआ था। वह नगरी इन्द्रकी अमरावतीपुरीके समान जान पड़ती थी॥१८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तत्र तं राजशार्दूलं निवसन्तं महीपतिम्।
आगत्य हैहया भूयः पर्यधावन्त भारत ॥ १९ ॥

मूलम्

तत्र तं राजशार्दूलं निवसन्तं महीपतिम्।
आगत्य हैहया भूयः पर्यधावन्त भारत ॥ १९ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

भारत! उस नगरीमें निवास करते हुए राजसिंह भूपाल दिवोदासपर पुनः हैहयराजकुमारोंने धावा किया॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

स निष्क्रम्य ददौ युद्धं तेभ्यो राजा महाबलः।
देवासुरसमं घोरं दिवोदासो महाद्युतिः ॥ २० ॥

मूलम्

स निष्क्रम्य ददौ युद्धं तेभ्यो राजा महाबलः।
देवासुरसमं घोरं दिवोदासो महाद्युतिः ॥ २० ॥

अनुवाद (हिन्दी)

महातेजस्वी महाबली राजा दिवोदासने पुरीसे बाहर निकलकर उन राजकुमारोंके साथ युद्ध किया। उनका वह युद्ध देवासुर-संग्रामके समान भयंकर था॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

स तु युद्धे महाराज दिनानां दशतीर्दश।
हतवाहनभूयिष्ठस्ततो दैन्यमुपागमत् ॥ २१ ॥
हतयोधस्ततो राजन् क्षीणकोशश्च भूमिपः।
दिवोदासः पुरीं त्यक्त्वा पलायनपरोऽभवत् ॥ २२ ॥

मूलम्

स तु युद्धे महाराज दिनानां दशतीर्दश।
हतवाहनभूयिष्ठस्ततो दैन्यमुपागमत् ॥ २१ ॥
हतयोधस्ततो राजन् क्षीणकोशश्च भूमिपः।
दिवोदासः पुरीं त्यक्त्वा पलायनपरोऽभवत् ॥ २२ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

महाराज! काशिनरेशने एक हजार दिन (दो वर्ष नौ महीने दस दिन)-तक शत्रुओंके साथ युद्ध किया। इस युद्धमें दिवोदासके बहुत-से सिपाही और हाथी, घोड़े आदि वाहन मारे गये। उनका खजाना खाली हो गया और वे बड़ी दयनीय दशामें पड़ गये। अन्तमें अपनी राजधानी छोड़कर भाग निकले॥२१-२२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

गत्वाऽऽश्रमपदं रम्यं भरद्वाजस्य धीमतः।
जगाम शरणं राजा कृताञ्जलिररिंदम ॥ २३ ॥

मूलम्

गत्वाऽऽश्रमपदं रम्यं भरद्वाजस्य धीमतः।
जगाम शरणं राजा कृताञ्जलिररिंदम ॥ २३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

शत्रुदमन नरेश! बुद्धिमान् भरद्वाजके रमणीय आश्रमपर जाकर राजा दिवोदास हाथ जोड़े हुए वहाँ मुनिकी शरणमें गये॥२३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तमुवाच भरद्वाजो ज्येष्ठः पुत्रो बृहस्पतेः।
पुरोधाः शीलसम्पन्नो दिवोदासं महीपतिम् ॥ २४ ॥
किमागमनकृत्यं ते सर्वं प्रब्रूहि मे नृप।
यत् ते प्रियं तत् करिष्ये न मेऽत्रास्ति विचारणा॥२५॥

मूलम्

तमुवाच भरद्वाजो ज्येष्ठः पुत्रो बृहस्पतेः।
पुरोधाः शीलसम्पन्नो दिवोदासं महीपतिम् ॥ २४ ॥
किमागमनकृत्यं ते सर्वं प्रब्रूहि मे नृप।
यत् ते प्रियं तत् करिष्ये न मेऽत्रास्ति विचारणा॥२५॥

अनुवाद (हिन्दी)

बृहस्पतिके ज्येष्ठ पुत्र भरद्वाजजी बड़े शीलवान् और दिवोदासके पुरोहित थे। उन्होंने राजाको उपस्थित देखकर पूछा—‘नरेश्वर! तुम्हें यहाँ आनेकी क्या आवश्यकता पड़ी? मुझे अपना सब समाचार बता दो। तुम्हारा जो भी प्रिय कार्य होगा उसे मैं करूँगा। इसके लिये मेरे मनमें कोई अन्यथा विचार नहीं होगा’॥२४-२५॥

मूलम् (वचनम्)

राजोवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

भगवन् वैतहव्यैर्मे युद्धे वंशः प्रणाशितः।
अहमेकः परिद्यूनो भवन्तं शरणं गतः ॥ २६ ॥

मूलम्

भगवन् वैतहव्यैर्मे युद्धे वंशः प्रणाशितः।
अहमेकः परिद्यूनो भवन्तं शरणं गतः ॥ २६ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

राजाने कहा— भगवन्! संग्राममें वीतहव्यके पुत्रोंने मेरे कुलका विनाश कर डाला। मैं अकेला ही अत्यन्त संतप्त हो आपकी शरणमें आया हूँ॥२६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

शिष्यस्नेहेन भगवंस्त्वं मां रक्षितुमर्हसि।
एकशेषः कृतो वंशो मम तैः पापकर्मभिः ॥ २७ ॥

मूलम्

शिष्यस्नेहेन भगवंस्त्वं मां रक्षितुमर्हसि।
एकशेषः कृतो वंशो मम तैः पापकर्मभिः ॥ २७ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

भगवन्! मैं आपका शिष्य हूँ और आप मेरे गुरु हैं। शिष्यके प्रति गुरुका जो सहज स्नेह होता है उसीके द्वारा आप मेरी रक्षा कीजिये। उन पापकर्मियोंने मेरे कुलमें केवल मुझ एक ही व्यक्तिको शेष छोड़ा है॥२७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तमुवाच महाभागो भरद्वाजः प्रतापवान्।
न भेतव्यं न भेतव्यं सौदेव व्येतु ते भयम्॥२८॥

मूलम्

तमुवाच महाभागो भरद्वाजः प्रतापवान्।
न भेतव्यं न भेतव्यं सौदेव व्येतु ते भयम्॥२८॥

अनुवाद (हिन्दी)

यह सुनकर प्रतापी महर्षि महाभाग भरद्वाजने कहा—‘सुदेवनन्दन! तुम न डरो, न डरो। तुम्हारा भय दूर हो जाना चाहिये॥२८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अहमिष्टिं करिष्यामि पुत्रार्थं ते विशाम्पते।
वीतहव्यसहस्राणि येन त्वं प्रहरिष्यसि ॥ २९ ॥

मूलम्

अहमिष्टिं करिष्यामि पुत्रार्थं ते विशाम्पते।
वीतहव्यसहस्राणि येन त्वं प्रहरिष्यसि ॥ २९ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘प्रजानाथ! मैं तुम्हारी पुत्र-प्राप्तिके लिये एक यज्ञ करूँगा जिसकी सहायतासे तुम हजारों वीतहव्य-पुत्रोंको मार गिराओगे’॥२९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तत इष्टिं चकारर्षिस्तस्य वै पुत्रकामिकीम्।
अथास्य तनयो जज्ञे प्रतर्दन इति श्रुतः ॥ ३० ॥

मूलम्

तत इष्टिं चकारर्षिस्तस्य वै पुत्रकामिकीम्।
अथास्य तनयो जज्ञे प्रतर्दन इति श्रुतः ॥ ३० ॥

अनुवाद (हिन्दी)

तब ऋषिने राजासे पुत्रेष्टि यज्ञ कराया। इससे उनके प्रतर्दन नामसे विख्यात पुत्र हुआ॥३०॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

स जातमात्रो ववृधे समाः सद्यस्त्रयोदश।
वेदं चापि जगौ कृत्स्नं धनुर्वेदं च भारत ॥ ३१ ॥

मूलम्

स जातमात्रो ववृधे समाः सद्यस्त्रयोदश।
वेदं चापि जगौ कृत्स्नं धनुर्वेदं च भारत ॥ ३१ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

भारत! वह पैदा होते ही इतना बढ़ गया कि तुरंत तेरह वर्षकी अवस्थाका-सा दिखायी देने लगा। उसी समय उसने अपने मुखसे सम्पूर्ण वेद और धनुर्वेदका गान किया॥३१॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

योगेन च समाविष्टो भरद्वाजेन धीमता।
तेजो लोक्यं स संगृह्य तस्मिन् देशे समाविशत् ॥ ३२ ॥

मूलम्

योगेन च समाविष्टो भरद्वाजेन धीमता।
तेजो लोक्यं स संगृह्य तस्मिन् देशे समाविशत् ॥ ३२ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

बुद्धिमान् भरद्वाजमुनिने उसे योगशक्तिसे सम्पन्न कर दिया और उसके शरीरमें सम्पूर्ण जगत्‌का तेज भर दिया॥३२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

ततः स कवची धन्वी स्तूयमानः सुरर्षिभिः।
वन्दिभिर्वन्द्यमानश्च बभौ सूर्य इवोदितः ॥ ३३ ॥

मूलम्

ततः स कवची धन्वी स्तूयमानः सुरर्षिभिः।
वन्दिभिर्वन्द्यमानश्च बभौ सूर्य इवोदितः ॥ ३३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

तदनन्तर राजकुमार प्रतर्दनने अपने शरीरपर कवच धारण किया और हाथमें धनुष ले लिया। उस समय देवर्षिगण उसका यश गाने लगे। वन्दीजनोंसे वन्दित हो वह नवोदित सूर्यके समान प्रकाशित होने लगा॥३३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

स रथी बद्धनिस्त्रिंशो बभौ दीप्त इवानलः।
प्रययौ स धनुर्धुन्वन् खड्‌गी चर्मी शरासनी ॥ ३४ ॥

मूलम्

स रथी बद्धनिस्त्रिंशो बभौ दीप्त इवानलः।
प्रययौ स धनुर्धुन्वन् खड्‌गी चर्मी शरासनी ॥ ३४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

वह रथपर बैठ गया और कमरमें तलवार बाँधकर प्रज्वलित अग्निके समान उद्भासित होने लगा। ढाल, तलवार और धनुषसे सम्पन्न हो वह धनुषकी टंकार करता हुआ आगे बढ़ा॥३४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तं दृष्ट्वा परमं हर्षं सुदेवतनयो ययौ।
मेने च मनसा दग्धान् वैतहव्यान् स पार्थिवः ॥ ३५ ॥

मूलम्

तं दृष्ट्वा परमं हर्षं सुदेवतनयो ययौ।
मेने च मनसा दग्धान् वैतहव्यान् स पार्थिवः ॥ ३५ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

उसे देखकर सुदेव-पुत्र राजा दिवोदासको बड़ा हर्ष हुआ। उन्होंने मन-ही-मन वीतहव्यके पुत्रोंको अपने पुत्रके तेजसे दग्ध हुआ ही समझा॥३५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

ततोऽसौ यौवराज्ये च स्थापयित्वा प्रतर्दनम्।
कृतकृत्यं तदाऽऽत्मानं स राजा अभ्यनन्दत ॥ ३६ ॥

मूलम्

ततोऽसौ यौवराज्ये च स्थापयित्वा प्रतर्दनम्।
कृतकृत्यं तदाऽऽत्मानं स राजा अभ्यनन्दत ॥ ३६ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

तत्पश्चात् राजा दिवोदासने प्रतर्दनको युवराजके पदपर स्थापित करके अपने आपको कृतकृत्य माना और बड़े आनन्दका अनुभव किया॥३६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

ततस्तु वैतहव्यानां वधाय स महीपतिः।
पुत्रं प्रस्थापयामास प्रतर्दनमरिंदमम् ॥ ३७ ॥

मूलम्

ततस्तु वैतहव्यानां वधाय स महीपतिः।
पुत्रं प्रस्थापयामास प्रतर्दनमरिंदमम् ॥ ३७ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

इसके बाद राजाने अपने पुत्र शत्रुदमन प्रतर्दनको वीतहव्यके पुत्रोंका वध करनेके लिये भेजा॥३७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

सरथः स तु संतीर्य गङ्गामाशु पराक्रमी।
प्रययौ वीतहव्यानां पुरीं परपुरञ्जयः ॥ ३८ ॥

मूलम्

सरथः स तु संतीर्य गङ्गामाशु पराक्रमी।
प्रययौ वीतहव्यानां पुरीं परपुरञ्जयः ॥ ३८ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

पिताकी आज्ञा पाकर वह शत्रुनगरीपर विजय पानेवाला पराक्रमी वीर शीघ्र ही रथसहित गंगापार करके वीतहव्यपुत्रोंकी राजधानीकी ओर चल दिया॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

वैतहव्यास्तु संश्रुत्य रथघोषं समुद्धतम्।
निर्ययुर्नगराकारै रथैः पररथारुजैः ॥ ३९ ॥
निष्क्रम्य ते नरव्याघ्रा दंशिताश्चित्रयोधिनः।
प्रतर्दनं समाजग्मुः शरवर्षैरुदायुधाः ॥ ४० ॥

मूलम्

वैतहव्यास्तु संश्रुत्य रथघोषं समुद्धतम्।
निर्ययुर्नगराकारै रथैः पररथारुजैः ॥ ३९ ॥
निष्क्रम्य ते नरव्याघ्रा दंशिताश्चित्रयोधिनः।
प्रतर्दनं समाजग्मुः शरवर्षैरुदायुधाः ॥ ४० ॥

अनुवाद (हिन्दी)

उसके रथकी घोर घरघराहट सुनकर विचित्र ढंगसे युद्ध करनेवाले पुरुषसिंह हैहयराजकुमार कवचसे सुसज्जित होकर शत्रुओंके रथको तोड़ डालनेवाले नगराकार विशाल रथोंपर बैठे हुए पुरीसे बाहर निकले और धनुष उठाये बाणोंकी वर्षा करते हुए प्रतर्दनपर चढ़ आये॥३९-४०॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

शस्त्रैश्च विविधाकारै रथौघैश्च युधिष्ठिर।
अभ्यवर्षन्त राजानं हिमवन्तमिवाम्बुदाः ॥ ४१ ॥

मूलम्

शस्त्रैश्च विविधाकारै रथौघैश्च युधिष्ठिर।
अभ्यवर्षन्त राजानं हिमवन्तमिवाम्बुदाः ॥ ४१ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

युधिष्ठिर! जैसे बादल हिमालयपर जल बरसाते हैं, उसी प्रकार हैहयराजकुमारोंने रथसमूहोंद्वारा आकर राजा प्रतर्दनपर नाना प्रकारके अस्त्र-शस्त्रोंकी वर्षा प्रारम्भ कर दी॥४१॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अस्त्रैरस्त्राणि संवार्य तेषां राजा प्रतर्दनः।
जघान तान् महातेजा वज्रानलसमैः शरैः ॥ ४२ ॥

मूलम्

अस्त्रैरस्त्राणि संवार्य तेषां राजा प्रतर्दनः।
जघान तान् महातेजा वज्रानलसमैः शरैः ॥ ४२ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

तब महा तेजस्वी राजा प्रतर्दनने अपने अस्त्रोंद्वारा शत्रुओंके अस्त्रोंका निवारण करके वज्र और अग्निके समान तेजस्वी बाणोंसे उन सबको मार डाला॥४२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

कृत्तोत्तमाङ्गास्ते राजन् भल्लैः शतसहस्रशः।
अपतन् रुधिरार्द्राङ्गा निकृत्ता इव किंशुकाः ॥ ४३ ॥

मूलम्

कृत्तोत्तमाङ्गास्ते राजन् भल्लैः शतसहस्रशः।
अपतन् रुधिरार्द्राङ्गा निकृत्ता इव किंशुकाः ॥ ४३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

राजन्! भल्लोंकी मारसे उनके मस्तकोंके सैकड़ों और हजारों टुकड़े हो गये थे। उनके सारे अंग खूनसे लथपथ हो गये और वे कटे हुए पलाशके वृक्षकी भाँति धरतीपर गिर पड़े॥४३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

हतेषु तेषु सर्वेषु वीतहव्यः सुतेष्वथ।
प्राद्रवन्नगरं हित्वा भृगोराश्रममप्युत ॥ ४४ ॥

मूलम्

हतेषु तेषु सर्वेषु वीतहव्यः सुतेष्वथ।
प्राद्रवन्नगरं हित्वा भृगोराश्रममप्युत ॥ ४४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

उन सब पुत्रोंके मारे जानेपर राजा वीतहव्य अपना नगर छोड़कर महर्षि भृगुके आश्रममें भाग गये॥४४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

ययौ भृगुं च शरणं वीतहव्यो नराधिपः।
अभयं च ददौ तस्मै राजे राजन् भृगुस्तदा ॥ ४५ ॥

मूलम्

ययौ भृगुं च शरणं वीतहव्यो नराधिपः।
अभयं च ददौ तस्मै राजे राजन् भृगुस्तदा ॥ ४५ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

राजन्! वहाँ नरेश्वर वीतहव्यने महर्षि भृगुकी शरण ली। तब भृगुने राजाको अभयदान दे दिया॥४५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अथानुपदमेवाशु तत्रागच्छत् प्रतर्दनः ।
स प्राप्य चाश्रमपदं दिवोदासात्मजोऽब्रवीत् ॥ ४६ ॥

मूलम्

अथानुपदमेवाशु तत्रागच्छत् प्रतर्दनः ।
स प्राप्य चाश्रमपदं दिवोदासात्मजोऽब्रवीत् ॥ ४६ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

इतनेहीमें उनके पीछे लगा हुआ दिवोदासकुमार प्रतर्दन भी शीघ्र ही वहाँ पहुँचा। आश्रममें पहुँचकर उसने इस प्रकार कहा—॥४६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

भो भोः केऽत्राश्रमे सन्ति भृगोः शिष्या महात्मनः।
द्रष्टुमिच्छे मुनिमहं तस्याचक्षत मामिति ॥ ४७ ॥

मूलम्

भो भोः केऽत्राश्रमे सन्ति भृगोः शिष्या महात्मनः।
द्रष्टुमिच्छे मुनिमहं तस्याचक्षत मामिति ॥ ४७ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

भाइयो! इस आश्रममें महात्मा भृगुके शिष्य कौन-कौन हैं? मैं महर्षिका दर्शन करना चाहता हूँ। आपलोग उन्हें मेरे आगमनकी सूचना दे दें॥४७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

स तं विदित्वा तु भृगुर्निश्चक्रामाश्रमात् तदा।
पूजयामास च ततो विधिना नृपसत्तमम् ॥ ४८ ॥

मूलम्

स तं विदित्वा तु भृगुर्निश्चक्रामाश्रमात् तदा।
पूजयामास च ततो विधिना नृपसत्तमम् ॥ ४८ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

प्रतर्दनको आया जान भृगुजी आश्रमसे निकले। उन्होंने नृपश्रेष्ठ प्रतर्दनका विधिपूर्वक स्वागत-सत्कार किया॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

उवाच चैनं राजेन्द्र किं कार्यं ब्रूहि पार्थिव।
स चोवाच नृपस्तस्मै यदागमनकारणम् ॥ ४९ ॥

मूलम्

उवाच चैनं राजेन्द्र किं कार्यं ब्रूहि पार्थिव।
स चोवाच नृपस्तस्मै यदागमनकारणम् ॥ ४९ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

और इस प्रकार पूछा—‘राजेन्द्र! पृथ्वीनाथ! मुझसे आपका क्या काम है, बताइये।’ तब राजाने उनसे अपने आगमनका जो कारण था, उसे इस प्रकार बताया॥४९॥

मूलम् (वचनम्)

राजोवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

अयं ब्रह्मन्नितो राजा वीतहव्यो विसर्ज्यताम्।
तस्य पुत्रैर्हि मे कृत्स्नो ब्रह्मन् वंशः प्रणाशितः ॥ ५० ॥

मूलम्

अयं ब्रह्मन्नितो राजा वीतहव्यो विसर्ज्यताम्।
तस्य पुत्रैर्हि मे कृत्स्नो ब्रह्मन् वंशः प्रणाशितः ॥ ५० ॥

अनुवाद (हिन्दी)

राजाने कहा— ब्रह्मन्! राजा वीतहव्यको आप यहाँसे बाहर निकाल दीजिये। विप्रवर! इनके पुत्रोंने मेरे सम्पूर्ण कुलका विनाश कर डाला है॥५०॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

उत्सादितश्च विषयः काशीनां रत्नसंचयः।
एतस्य वीर्यदृप्तस्य हतं पुत्रशतं मया ॥ ५१ ॥
अस्येदानीं वधादद्य भविष्याम्यनृणः पितुः।

मूलम्

उत्सादितश्च विषयः काशीनां रत्नसंचयः।
एतस्य वीर्यदृप्तस्य हतं पुत्रशतं मया ॥ ५१ ॥
अस्येदानीं वधादद्य भविष्याम्यनृणः पितुः।

अनुवाद (हिन्दी)

इतना ही नहीं, उनके पुत्रोंने काशिप्रान्तका सारा राज्य उजाड़ डाला और रत्नोंका संग्रह लूट लिया है। बलके घमंडमें भरे हुए इन राजाके सौ पुत्रोंको तो मैंने मार डाला; अब केवल ये ही रह गये हैं। इस समय इनका भी वध करके मैं पिताके ऋणसे उऋण हो जाऊँगा?॥५१॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तमुवाच कृपाविष्टो भृगुर्धर्मभृतां वरः ॥ ५२ ॥
नेहास्ति क्षत्रियः कश्चित् सर्वे हीमे द्विजातयः।

मूलम्

तमुवाच कृपाविष्टो भृगुर्धर्मभृतां वरः ॥ ५२ ॥
नेहास्ति क्षत्रियः कश्चित् सर्वे हीमे द्विजातयः।

अनुवाद (हिन्दी)

तब धर्मात्माओंमें श्रेष्ठ भृगुने दयासे द्रवित होकर उनसे कहा—‘राजन्! यहाँ कोई क्षत्रिय नहीं है। ये सब-के-सब ब्राह्मण हैं॥५२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

एतत् तु वचनं श्रुत्वा भृगोस्तथ्यं प्रतर्दनः ॥ ५३ ॥
पादावुपस्मृश्य शनैः प्रहृष्टो वाक्यमब्रवीत्।
एवमप्यस्मि भगवन् कृतकृत्यो न संशयः ॥ ५४ ॥

मूलम्

एतत् तु वचनं श्रुत्वा भृगोस्तथ्यं प्रतर्दनः ॥ ५३ ॥
पादावुपस्मृश्य शनैः प्रहृष्टो वाक्यमब्रवीत्।
एवमप्यस्मि भगवन् कृतकृत्यो न संशयः ॥ ५४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

महर्षि भृगुका यह यथार्थ वचन सुनकर प्रतर्दन बहुत प्रसन्न हुआ और धीरेसे उनके दोनों चरण छूकर बोला—‘भगवन्! यदि ऐसी बात है तो मैं कृतकृत्य हो गया, इसमें संशय नहीं है॥५३-५४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

य एष राजा वीर्येण स्वजातिं त्याजितो मया।
अनुजानीहि मां ब्रह्मन् ध्यायस्व च शिवेन माम् ॥ ५५ ॥

मूलम्

य एष राजा वीर्येण स्वजातिं त्याजितो मया।
अनुजानीहि मां ब्रह्मन् ध्यायस्व च शिवेन माम् ॥ ५५ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘क्योंकि इन राजाको मैंने अपने पराक्रमसे अपनी जाति त्याग देनेके लिये विवश कर दिया। ब्रह्मन्! मुझे जानेकी आज्ञा दीजिये और मेरा कल्याण-चिन्तन कीजिये॥५५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

त्याजितो हि मया जातिमेष राजा भृगूद्वह।
ततस्तेनाभ्यनुज्ञातो ययौ राजा प्रतर्दनः ॥ ५६ ॥
यथागतं महाराज मुक्त्वा विषमिवोरगः।

मूलम्

त्याजितो हि मया जातिमेष राजा भृगूद्वह।
ततस्तेनाभ्यनुज्ञातो ययौ राजा प्रतर्दनः ॥ ५६ ॥
यथागतं महाराज मुक्त्वा विषमिवोरगः।

अनुवाद (हिन्दी)

भृगुवंशी महर्षे! मैंने इन राजासे अपनी जातिका त्याग करवा दिया।’ महाराज! तदनन्तर महर्षिकी आज्ञा लेकर राजा प्रतर्दन जैसे साँप अपने विषको त्याग देता है, उसी प्रकार क्रोध छोड़कर जैसे आया था वैसे लौट गया॥५६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

भृगोर्वचनमात्रेण स च ब्रह्मर्षितां गतः ॥ ५७ ॥
वीतहव्यो महाराज ब्रह्मवादित्वमेव च।

मूलम्

भृगोर्वचनमात्रेण स च ब्रह्मर्षितां गतः ॥ ५७ ॥
वीतहव्यो महाराज ब्रह्मवादित्वमेव च।

अनुवाद (हिन्दी)

नरेश्वर! इस प्रकार राजा वीतहव्य भृगुजीके कथनमात्रसे ब्रह्मर्षि एवं ब्रह्मवादी हो गये॥५७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तस्य गृत्समदः पुत्रो रूपेणेन्द्र इवापरः ॥ ५८ ॥
शक्रस्त्वमिति यो दैत्यैर्निगृहीतः किलाभवत्।

मूलम्

तस्य गृत्समदः पुत्रो रूपेणेन्द्र इवापरः ॥ ५८ ॥
शक्रस्त्वमिति यो दैत्यैर्निगृहीतः किलाभवत्।

अनुवाद (हिन्दी)

उनके पुत्रो गृत्समद हुए जो रूपमें दूसरे इन्द्रके समान थे। कहते हैं, किसी समय दैत्योंने उन्हें यह कहते हुए पकड़ लिया था कि ‘तुम इन्द्र हो’॥५८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

ऋग्वेदे वर्तते चाग्र्या श्रुतिर्यस्य महात्मनः ॥ ५९ ॥
यत्र गृत्समदो राजन् ब्राह्मणैः स महीयते।
स ब्रह्मचारी विप्रर्षिः श्रीमान् गृत्समदोऽभवत् ॥ ६० ॥

मूलम्

ऋग्वेदे वर्तते चाग्र्या श्रुतिर्यस्य महात्मनः ॥ ५९ ॥
यत्र गृत्समदो राजन् ब्राह्मणैः स महीयते।
स ब्रह्मचारी विप्रर्षिः श्रीमान् गृत्समदोऽभवत् ॥ ६० ॥

अनुवाद (हिन्दी)

ऋग्वेदमें महामना गृत्समदकी श्रेष्ठ श्रुति विद्यमान है। राजन्! वहाँ ब्राह्मणलोग गृत्समदका बड़ा सम्मान करते हैं। ब्रह्मर्षि गृत्समद बड़े तेजस्वी और ब्रह्मचारी थे॥५९-६०॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

पुत्रो गृत्समदस्यापि सुचेता अभवद् द्विजः।
वर्चाः सुचेतसः पुत्रो विहव्यस्तस्य चात्मजः ॥ ६१ ॥

मूलम्

पुत्रो गृत्समदस्यापि सुचेता अभवद् द्विजः।
वर्चाः सुचेतसः पुत्रो विहव्यस्तस्य चात्मजः ॥ ६१ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

गृत्समदके पुत्र सुचेता नामके ब्राह्मण हुए। सुचेताके पुत्र वर्चा और वर्चाके पुत्र विहव्य हुए॥६१॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

विहव्यस्य तु पुत्रस्तु वितत्यस्तस्य चात्मजः।
वितत्यस्य सुतः सत्यः संतः सत्यस्य चात्मजः ॥ ६२ ॥

मूलम्

विहव्यस्य तु पुत्रस्तु वितत्यस्तस्य चात्मजः।
वितत्यस्य सुतः सत्यः संतः सत्यस्य चात्मजः ॥ ६२ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

विहव्यके पुत्रका नाम वितत्य था। वितत्यके पुत्र सत्य और सत्यके पुत्र सन्त हुए॥६२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

श्रवास्तस्य सुतश्चर्षिः श्रवसश्चाभवत् तमः।
तमसश्च प्रकाशोऽभूत् तनयो द्विजसत्तमः।
प्रकाशस्य च वागिन्द्रो बभूव जयतां वरः ॥ ६३ ॥

मूलम्

श्रवास्तस्य सुतश्चर्षिः श्रवसश्चाभवत् तमः।
तमसश्च प्रकाशोऽभूत् तनयो द्विजसत्तमः।
प्रकाशस्य च वागिन्द्रो बभूव जयतां वरः ॥ ६३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

सन्तके पुत्र महर्षि श्रवा, श्रवाके तम और तमके पुत्र द्विजश्रेष्ठ प्रकाश हुए। प्रकाशका पुत्र विजयशीलोंमें श्रेष्ठ वागिन्द्र था॥६३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तस्यात्मजश्च प्रमितिर्वेदवेदाङ्गपारगः ।
घृताच्यां तस्य पुत्रस्तु रुरुर्नामोदपद्यत ॥ ६४ ॥

मूलम्

तस्यात्मजश्च प्रमितिर्वेदवेदाङ्गपारगः ।
घृताच्यां तस्य पुत्रस्तु रुरुर्नामोदपद्यत ॥ ६४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

वागिन्द्रके पुत्र प्रमिति हुए जो वेदों और वेदांगोंके पारंगत विद्वान् थे। प्रमितिके घृताची अप्सरासे रुरुनामक पुत्र हुआ॥६४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

प्रमद्वरायां तु रुरोः पुत्रः समुदपद्यत।
शुनको नाम विप्रर्षिर्यस्य पुत्रोऽथ शौनकः ॥ ६५ ॥

मूलम्

प्रमद्वरायां तु रुरोः पुत्रः समुदपद्यत।
शुनको नाम विप्रर्षिर्यस्य पुत्रोऽथ शौनकः ॥ ६५ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

रुरुसे प्रमद्वराके गर्भसे ब्रह्मर्षि शुनकका जन्म हुआ, जिनके पुत्र शौनक मुनि हैं॥६५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

एवं विप्रत्वमगमद् वीतहव्यो नराधिपः।
भृगोः प्रसादाद् राजेन्द्र क्षत्रियः क्षत्रियर्षभ ॥ ६६ ॥

मूलम्

एवं विप्रत्वमगमद् वीतहव्यो नराधिपः।
भृगोः प्रसादाद् राजेन्द्र क्षत्रियः क्षत्रियर्षभ ॥ ६६ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

राजेन्द्र! क्षत्रियशिरोमणे! इस प्रकार राजा वीतहव्य क्षत्रिय होकर भी भृगुके प्रसादसे ब्राह्मण हो गये॥६६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तथैव कथितो वंशो मया गार्त्समदस्तव।
विस्तरेण महाराज किमन्यदनुपृच्छसि ॥ ६७ ॥

मूलम्

तथैव कथितो वंशो मया गार्त्समदस्तव।
विस्तरेण महाराज किमन्यदनुपृच्छसि ॥ ६७ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

महाराज! इसी तरह मैंने गृत्समदके वंशका भी विस्तारपूर्वक वर्णन किया है। अब और क्या पूछ रहे हो?॥

मूलम् (समाप्तिः)

इति श्रीमहाभारते अनुशासनपर्वणि दानधर्मपर्वणि वीतहव्योपाख्यानं नाम त्रिंशोऽध्यायः ॥ ३० ॥

मूलम् (वचनम्)

इस प्रकार श्रीमहाभारत अनुशासनपर्वके अन्तर्गत दानधर्मपर्वमें वीतहव्यका उपाख्याननामक तीसवाँ अध्याय पूरा हुआ॥३०॥