भागसूचना
एकोनत्रिंशोऽध्यायः
सूचना (हिन्दी)
मतङ्गकी तपस्या और इन्द्रका उसे वरदान देना
मूलम् (वचनम्)
भीष्म उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
एवमुक्तो मतङ्गस्तु संशितात्मा यतव्रतः।
सहस्रमेकपादेन ततो ध्याने व्यतिष्ठत ॥ १ ॥
मूलम्
एवमुक्तो मतङ्गस्तु संशितात्मा यतव्रतः।
सहस्रमेकपादेन ततो ध्याने व्यतिष्ठत ॥ १ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
भीष्मजी कहते हैं— युधिष्ठिर! इन्द्रके ऐसा कहनेपर मतंग अपने मनको और भी दृढ़ और संयमशील बनाकर एक हजार वर्षोंतक एक पैरसे ध्यान लगाये खड़ा रहा॥१॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तं सहस्रावरे काले शक्रो द्रष्टुमुपागमत्।
तदेव च पुनर्वाक्यमुवाच बलवृत्रहा ॥ २ ॥
मूलम्
तं सहस्रावरे काले शक्रो द्रष्टुमुपागमत्।
तदेव च पुनर्वाक्यमुवाच बलवृत्रहा ॥ २ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
जब एक हजार वर्ष पूरे होनेमें कुछ ही बाकी था, उस समय बल और वृत्रासुरके शत्रु देवराज इन्द्र फिर मतंगको देखनेके लिये आये और पुनः उससे उन्होंने पहलेकी कही हुई बात ही दुहरायी॥२॥
मूलम् (वचनम्)
मतङ्ग उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
इदं वर्षसहस्रं वै ब्रह्मचारी समाहितः।
अतिष्ठमेकपादेन ब्राह्मण्यं नाप्नुयां कथम् ॥ ३ ॥
मूलम्
इदं वर्षसहस्रं वै ब्रह्मचारी समाहितः।
अतिष्ठमेकपादेन ब्राह्मण्यं नाप्नुयां कथम् ॥ ३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
मतंगने कहा— देवराज! मैंने ब्रह्मचर्य-पालनपूर्वक एकाग्रचित्त हो एक हजार वर्षोंतक एक पैरसे खड़ा होकर तप किया है। फिर मुझे ब्राह्मणत्व कैसे नहीं प्राप्त हो सकता?॥३॥
मूलम् (वचनम्)
शक्र उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
चण्डालयोनौ जातेन नावाप्यं वै कथंचन।
अन्यं कामं वृणीष्व त्वं मा वृथा तेऽस्त्वयं श्रमः॥४॥
मूलम्
चण्डालयोनौ जातेन नावाप्यं वै कथंचन।
अन्यं कामं वृणीष्व त्वं मा वृथा तेऽस्त्वयं श्रमः॥४॥
अनुवाद (हिन्दी)
इन्द्रने कहा— मतंग! चाण्डालकी योनिमें जन्म लेनेवालेको किसी तरह ब्राह्मणत्व नहीं मिल सकता; इसलिये तुम दूसरी कोई अभीष्ट वस्तु माँग लो। जिससे तुम्हारा यह परिश्रम व्यर्थ न जाय॥४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
एवमुक्तो मतङ्गस्तु भृशं शोकपरायणः।
अध्यतिष्ठद् गयां गत्वा सोंऽगुष्ठेन शतं समाः ॥ ५ ॥
मूलम्
एवमुक्तो मतङ्गस्तु भृशं शोकपरायणः।
अध्यतिष्ठद् गयां गत्वा सोंऽगुष्ठेन शतं समाः ॥ ५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
उनके ऐसा कहनेपर मतंग अत्यन्त शोकमग्न हो गयामें जाकर अंगूठेके बलपर सौ वर्षोंतक खड़ा रहा॥५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
सुदुर्वहं बहन् योगं कृशो धमनिसंततः।
त्वगस्थिभूतो धर्मात्मा स पपातेति नः श्रुतम् ॥ ६ ॥
मूलम्
सुदुर्वहं बहन् योगं कृशो धमनिसंततः।
त्वगस्थिभूतो धर्मात्मा स पपातेति नः श्रुतम् ॥ ६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
उसने दुर्धर योगका अनुष्ठान किया। उसका सारा शरीर अत्यन्त दुर्बल हो गया। नस-नाड़ियाँ उबड़ आयीं। धर्मात्मा मतंगका शरीर चमड़ेसे ढकी हुई हड्डियोंका ढाँचामात्र रह गया। उस अवस्थामें अपनेको न सँभाल सकनेके कारण वह गिर पड़ा—यह बात हमारे सुननेमें आयी है॥६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तं पतन्तमभिद्रुत्य परिजग्राह वासवः।
वराणामीश्वरो दाता सर्वभूतहिते रतः ॥ ७ ॥
मूलम्
तं पतन्तमभिद्रुत्य परिजग्राह वासवः।
वराणामीश्वरो दाता सर्वभूतहिते रतः ॥ ७ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
उसे गिरते देख सम्पूर्ण भूतोंके हितमें तत्पर रहनेवाले वर देनेमें समर्थ इन्द्रने दौड़कर पकड़ लिया॥
मूलम् (वचनम्)
शक्र उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
मतङ्ग ब्राह्मणत्वं ते विरुद्धमिह दृश्यते।
ब्राह्मण्यं दुर्लभतरं संवृतं परिपन्थिभिः ॥ ८ ॥
मूलम्
मतङ्ग ब्राह्मणत्वं ते विरुद्धमिह दृश्यते।
ब्राह्मण्यं दुर्लभतरं संवृतं परिपन्थिभिः ॥ ८ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
इन्द्रने कहा— मतंग! इस जन्ममें तुम्हारे लिये ब्राह्मणत्वकी प्राप्ति असम्भव दिखायी देती है। ब्राह्मणत्व अत्यन्त दुर्लभ है; साथ ही वह काम-क्रोध आदि लुटेरोंसे घिरा हुआ है॥८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
पूजयन् सुखमाप्नोति दुःखमाप्नोत्यपूजयन् ।
ब्राह्मणः सर्वभूतानां योगक्षेमसमर्पिता ॥ ९ ॥
मूलम्
पूजयन् सुखमाप्नोति दुःखमाप्नोत्यपूजयन् ।
ब्राह्मणः सर्वभूतानां योगक्षेमसमर्पिता ॥ ९ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
जो ब्राह्मणका आदर करता है वह सुख पाता है, और जो अनादर करता है वह दुःख पाता है। ब्राह्मण समस्त प्राणियोंको योगक्षेमकी प्राप्ति करानेवाला है॥९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ब्राह्मणेभ्योऽनुतृप्यन्ते पितरो देवतास्तथा ।
ब्राह्मणः सर्वभूतानां मतंग पर उच्यते ॥ १० ॥
मूलम्
ब्राह्मणेभ्योऽनुतृप्यन्ते पितरो देवतास्तथा ।
ब्राह्मणः सर्वभूतानां मतंग पर उच्यते ॥ १० ॥
अनुवाद (हिन्दी)
मतंग! ब्राह्मणोंके तृप्त होनेसे ही देवता और पितर भी तृप्त होते हैं। ब्राह्मणको समस्त प्राणियोंमें सर्वश्रेष्ठ कहा जाता है॥१०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ब्राह्मणः कुरुते तद्धि यथा यद् यच्च वाञ्छति।
वह्वीस्तु संविशन् योनीर्जायमानः पुनः पुनः ॥ ११ ॥
पर्याये तात कस्मिंश्चिद् ब्राह्मण्यमिह विन्दति।
मूलम्
ब्राह्मणः कुरुते तद्धि यथा यद् यच्च वाञ्छति।
वह्वीस्तु संविशन् योनीर्जायमानः पुनः पुनः ॥ ११ ॥
पर्याये तात कस्मिंश्चिद् ब्राह्मण्यमिह विन्दति।
अनुवाद (हिन्दी)
ब्राह्मण जो-जो जिस प्रकार करना चाहता है, अपने तपके प्रभावसे वैसा ही कर सकता है। तात! जीव इस जगत्के भीतर अनेक योनियोंमें भ्रमण करता हुआ बारंबार जन्म लेता है। इसी तरह जन्म लेते-लेते कभी किसी समयमें वह ब्राह्मणत्वको प्राप्त कर लेता है॥११॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तदुत्सृज्येह दुष्प्रापं ब्राह्मण्यमकृतात्मभिः ॥ १२ ॥
अन्यं वरं वृणीष्व त्वं दुर्लभोऽयं हि ते वरः।
मूलम्
तदुत्सृज्येह दुष्प्रापं ब्राह्मण्यमकृतात्मभिः ॥ १२ ॥
अन्यं वरं वृणीष्व त्वं दुर्लभोऽयं हि ते वरः।
अनुवाद (हिन्दी)
अतः जिनका मन अपने वशमें नहीं है, ऐसे लोगोंके लिये सर्वथा दुष्प्राप्य ब्राह्मणत्वको पानेका आग्रह छोड़कर तुम कोई दूसरा ही वर माँगो। यह वर तो तुम्हारे लिये दुर्लभ ही है॥१२॥
मूलम् (वचनम्)
मतंग उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
किं मां तुदसि दुःखार्तं मृतं मारयसे च माम्॥१३॥
त्वां तु शोचामि यो लब्ध्वा ब्राह्मण्यं न बुभूषसे।
मूलम्
किं मां तुदसि दुःखार्तं मृतं मारयसे च माम्॥१३॥
त्वां तु शोचामि यो लब्ध्वा ब्राह्मण्यं न बुभूषसे।
अनुवाद (हिन्दी)
मतंगने कहा— देवराज! मैं तो यों ही दुःखसे आतुर हो रहा हूँ, फिर तुम भी क्यों मुझे पीड़ा दे रहे हो? मुझ मरे हुए को क्यों मारते हो? मैं तो तुम्हारे लिये शोक करता हूँ, जो जन्मसे ही ब्राह्मणत्वको पाकर भी तुम उसे अपना नहीं रहे हो॥१३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ब्राह्मणं यदि दुष्प्रापं त्रिभिर्वर्णैः शतक्रतो ॥ १४ ॥
सुदुर्लभं सदावाप्य नानुतिष्ठन्ति मानवाः।
मूलम्
ब्राह्मणं यदि दुष्प्रापं त्रिभिर्वर्णैः शतक्रतो ॥ १४ ॥
सुदुर्लभं सदावाप्य नानुतिष्ठन्ति मानवाः।
अनुवाद (हिन्दी)
शतक्रतो! यदि क्षत्रिय आदि तीन वर्णोंके लिये ब्राह्मणत्व दुर्लभ है तो उस परम दुर्लभ ब्राह्मणत्वको पाकर भी मनुष्य ब्राह्मणोचित शम-दमका अनुष्ठान नहीं करते हैं। यह कितने दुःखकी बात है!॥१४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
यः पापेभ्यः पापतमस्तेषामधम एव सः ॥ १५ ॥
ब्राह्मण्यं यो न जानीते धनं लब्ध्वेव दुर्लभम्।
मूलम्
यः पापेभ्यः पापतमस्तेषामधम एव सः ॥ १५ ॥
ब्राह्मण्यं यो न जानीते धनं लब्ध्वेव दुर्लभम्।
अनुवाद (हिन्दी)
वह पापियोंसे भी बढ़कर अत्यन्त पापी और उनमें भी अधम ही है, जो दुर्लभ धनकी भाँति ब्राह्मणत्वको पाकर भी उसके महत्त्वको नहीं समझता है॥१५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
दुष्प्रापं खलु विप्रत्वं प्राप्तं दुरनुपालनम् ॥ १६ ॥
दुरावापमवाप्यैतन्नानुतिष्ठन्ति मानवाः ।
मूलम्
दुष्प्रापं खलु विप्रत्वं प्राप्तं दुरनुपालनम् ॥ १६ ॥
दुरावापमवाप्यैतन्नानुतिष्ठन्ति मानवाः ।
अनुवाद (हिन्दी)
पहले तो ब्राह्मणत्वका प्राप्त होना ही कठिन है। यदि वह प्राप्त हो जाय तो उसका पालन करना और भी कठिन हो जाता है; किंतु बहुत-से मनुष्य इस दुर्लभ वस्तुको पाकर भी तदनुकूल आचरण नहीं करते हैं॥१६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
एकारामो ह्यहं शक्र निर्द्वन्द्वो निष्परिग्रहः ॥ १७ ॥
अहिंसादममास्थाय कथं नार्हामि विप्रताम्।
मूलम्
एकारामो ह्यहं शक्र निर्द्वन्द्वो निष्परिग्रहः ॥ १७ ॥
अहिंसादममास्थाय कथं नार्हामि विप्रताम्।
अनुवाद (हिन्दी)
शक्र! मैं एकान्तमें आनन्दपूर्वक रहता हूँ तथा द्वन्द्वों और परिग्रहोंसे दूर हूँ। अहिंसा और दमका पालन किया करता हूँ। ऐसी दशामें मैं ब्राह्मणत्व पाने योग्य क्यों नहीं हूँ?॥१७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
दैवं तु कथमेतद् वै यदहं मातृदोषतः ॥ १८ ॥
एतामवस्थां सम्प्राप्तो धर्मज्ञः सन् पुरंदर।
मूलम्
दैवं तु कथमेतद् वै यदहं मातृदोषतः ॥ १८ ॥
एतामवस्थां सम्प्राप्तो धर्मज्ञः सन् पुरंदर।
अनुवाद (हिन्दी)
पुरंदर! मैं धर्मज्ञ होकर भी केवल माताके दोषसे इस अवस्थामें आ पहुँचा हूँ। यह मेरा कैसा दुर्भाग्य है?॥१८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
नूनं दैवं न शक्यं हि पौरुषेणातिवर्तितुम् ॥ १९ ॥
यदर्थं यत्नवानेव न लभे विप्रतां विभो।
मूलम्
नूनं दैवं न शक्यं हि पौरुषेणातिवर्तितुम् ॥ १९ ॥
यदर्थं यत्नवानेव न लभे विप्रतां विभो।
अनुवाद (हिन्दी)
प्रभो! निश्चय ही पुरुषार्थके द्वारा दैवका उल्लंघन नहीं किया जा सकता; क्योंकि मैं जिसके लिये ऐसा प्रयत्नशील हूँ उस ब्राह्मणत्वको नहीं उपलब्ध कर पाता हूँ॥१९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
एवंगते तु धर्मज्ञ दातुमर्हसि मे वरम् ॥ २० ॥
यदि तेऽहमनुग्राह्यः किंचिद् वा सुकृतं मम।
मूलम्
एवंगते तु धर्मज्ञ दातुमर्हसि मे वरम् ॥ २० ॥
यदि तेऽहमनुग्राह्यः किंचिद् वा सुकृतं मम।
अनुवाद (हिन्दी)
धर्मज्ञ देवराज! यदि ऐसी अवस्थामें मैं आपका कृपापात्र हूँ अथवा यदि मेरा कुछ भी पुण्य शेष हो तो आप मुझे वर प्रदान कीजिये॥२०॥
मूलम् (वचनम्)
वैशम्पायन उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
वृणीष्वेति तदा प्राह ततस्तं बलवृत्रहा ॥ २१ ॥
चोदितस्तु महेन्द्रेण मतङ्गः प्राब्रवीदिदम्।
मूलम्
वृणीष्वेति तदा प्राह ततस्तं बलवृत्रहा ॥ २१ ॥
चोदितस्तु महेन्द्रेण मतङ्गः प्राब्रवीदिदम्।
अनुवाद (हिन्दी)
वैशम्पायनजी कहते हैं— जनमेजय! तब बल और वृत्रासुरको मारनेवाले इन्द्रने मतङ्गसे कहा—‘तुम मुझसे वर माँगो।’ महेन्द्रसे प्रेरित होकर मतङ्गने इस प्रकार कहा—॥२१॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
यथा कामविहारी स्यां कामरूपी विहङ्गमः ॥ २२ ॥
ब्रह्मक्षत्राविरोधेन पूजां च प्राप्नुयामहम्।
यथा ममाक्षया कीर्तिर्भवेच्चापि पुरंदर ॥ २३ ॥
कर्तुमर्हसि तद् देव शिरसा त्वां प्रसादये।
मूलम्
यथा कामविहारी स्यां कामरूपी विहङ्गमः ॥ २२ ॥
ब्रह्मक्षत्राविरोधेन पूजां च प्राप्नुयामहम्।
यथा ममाक्षया कीर्तिर्भवेच्चापि पुरंदर ॥ २३ ॥
कर्तुमर्हसि तद् देव शिरसा त्वां प्रसादये।
अनुवाद (हिन्दी)
देव पुरंदर! आप ऐसी कृपा करें जिससे मैं इच्छानुसार विचरनेवाला तथा अपनी इच्छाके अनुसार रूप धारण करनेवाला आकाशचारी देवता होऊँ। ब्राह्मण और क्षत्रियोंके विरोधसे रहित हो मैं सर्वत्र पूजा एवं सत्कार प्राप्त करूँ तथा मेरी अक्षय कीर्तिका विस्तार हो। मैं आपके चरणोंमें मस्तक रखकर आपकी प्रसन्नता चाहता हूँ। आप मेरी इस प्रार्थनाको सफल बनाइये॥
मूलम् (वचनम्)
शक्र उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
छन्दोदेव इति ख्यातः स्त्रीणां पूज्यो भविष्यसि ॥ २४ ॥
कीर्तिश्च तेऽतुला वत्स त्रिषु लोकेषु यास्यति।
मूलम्
छन्दोदेव इति ख्यातः स्त्रीणां पूज्यो भविष्यसि ॥ २४ ॥
कीर्तिश्च तेऽतुला वत्स त्रिषु लोकेषु यास्यति।
अनुवाद (हिन्दी)
इन्द्रने कहा— वत्स! तुम स्त्रियोंके पूजनीय होओगे। ‘छन्दोदेव’ के नामसे तुम्हारी ख्याति होगी और तीनों लोकोंमें तुम्हारी अनुपम कीर्तिका विस्तार होगा॥२४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
एवं तस्मै वरं दत्त्वा वासवोऽन्तरधीयत ॥ २५ ॥
प्राणांस्त्यक्त्वा मतङ्गोऽपि सम्प्राप्तः स्थानमुत्तमम्।
मूलम्
एवं तस्मै वरं दत्त्वा वासवोऽन्तरधीयत ॥ २५ ॥
प्राणांस्त्यक्त्वा मतङ्गोऽपि सम्प्राप्तः स्थानमुत्तमम्।
अनुवाद (हिन्दी)
इस प्रकार उसे वर देकर इन्द्र वहीं अन्तर्धान हो गये। मतंग भी अपने प्राणोंका परित्याग करके उत्तम स्थान (ब्रह्मलोक)-को प्राप्त हुआ॥२५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
एवमेतत् परं स्थानं ब्राह्मण्यं नाम भारत।
तच्च दुष्प्रापमिह वै महेन्द्रवचनं यथा ॥ २६ ॥
मूलम्
एवमेतत् परं स्थानं ब्राह्मण्यं नाम भारत।
तच्च दुष्प्रापमिह वै महेन्द्रवचनं यथा ॥ २६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
भारत! इस तरह यह ब्राह्मणत्व परम उत्तम स्थान है। जैसा कि इन्द्रका कथन है, उसके अनुसार यह इस जीवनमें दूसरे वर्णके लोगोंके लिये दुर्लभ है॥२६॥
मूलम् (समाप्तिः)
इति श्रीमहाभारते अनुशासनपर्वणि दानधर्मपर्वणि इन्द्रमतङ्गसंवादे एकोनत्रिंशोऽध्यायः ॥ २९ ॥
मूलम् (वचनम्)
इस प्रकार श्रीमहाभारत अनुशासनपर्वके अन्तर्गत दानधर्मपर्वमें इन्द्र और मतङ्गका संवादविषयक उनतीसवाँ अध्याय पूरा हुआ॥२९॥