०२८ इन्द्रमतङ्गसंवादे

भागसूचना

अष्टाविंशोऽध्यायः

सूचना (हिन्दी)

ब्राह्मणत्व प्राप्त करनेका आग्रह छोड़कर दूसरा वर माँगनेके लिये इन्द्रका मनङ्गको समझाना

मूलम् (वचनम्)

भीष्म उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

एवमुक्तो मतङ्गस्तु संशितात्मा यतव्रतः।
अतिष्ठदेकपादेन वर्षाणां शतमच्युतः ॥ १ ॥

मूलम्

एवमुक्तो मतङ्गस्तु संशितात्मा यतव्रतः।
अतिष्ठदेकपादेन वर्षाणां शतमच्युतः ॥ १ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

भीष्मजी कहते हैं— राजन्! इन्द्रके ऐसा कहनेपर मतंगका मन और भी दृढ़ हो गया। वह संयमपूर्वक उत्तम व्रतका पालन करने लगा। अपने धैर्यसे च्युत न होनेवाला मतंग सौ वर्षोंतक एक पैरसे खड़ा रहा॥१॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तमुवाच ततः शक्रः पुनरेव महायशाः।
ब्राह्मण्यं दुर्लभं तात प्रार्थयानो न लप्स्यसे ॥ २ ॥

मूलम्

तमुवाच ततः शक्रः पुनरेव महायशाः।
ब्राह्मण्यं दुर्लभं तात प्रार्थयानो न लप्स्यसे ॥ २ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

तब महायशस्वी इन्द्रने पुनः आकर उससे कहा—‘तात! ब्राह्मणत्व दुर्लभ है। उसे माँगनेपर भी पा न सकोगे॥२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

मतङ्ग परमं स्थानं प्रार्थयन् विनशिष्यसि।
मा कृथाः साहसं पुत्र नैष धर्मपथस्तव ॥ ३ ॥

मूलम्

मतङ्ग परमं स्थानं प्रार्थयन् विनशिष्यसि।
मा कृथाः साहसं पुत्र नैष धर्मपथस्तव ॥ ३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

मतंग! तुम इस उत्तम स्थानको माँगते-माँगते मर जाओगे। बेटा! दुःसाहस न करो। तुम्हारे लिये यह धर्मका मार्ग नहीं है॥३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

न हि शक्यं त्वया प्राप्तुं ब्राह्मण्यमिह दुर्मते।
अप्राप्यं प्रार्थयानो हि नचिराद् विनशिष्यसि ॥ ४ ॥

मूलम्

न हि शक्यं त्वया प्राप्तुं ब्राह्मण्यमिह दुर्मते।
अप्राप्यं प्रार्थयानो हि नचिराद् विनशिष्यसि ॥ ४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘दुर्मते! तुम इस जीवनमें ब्राह्मणत्व नहीं पा सकते। उस अप्राप्य वस्तुके लिये प्रार्थना करते-करते शीघ्र ही कालके गालमें चले जाओगे॥४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

मतङ्ग परमं स्थानं वार्यमाणोऽसकृन्मया।
चिकीर्षस्येव तपसा सर्वथा न भविष्यसि ॥ ५ ॥

मूलम्

मतङ्ग परमं स्थानं वार्यमाणोऽसकृन्मया।
चिकीर्षस्येव तपसा सर्वथा न भविष्यसि ॥ ५ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘मतंग! मैं तुम्हें बार-बार मना करता हूँ तो भी उस उत्कृष्ट स्थानको तुम तपस्याद्वारा प्राप्त करनेकी अभिलाषा करते ही जाते हो। ऐसा करनेसे सर्वथा तुम्हारी सत्ता मिट जायगी॥५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तिर्यग्योनिगतः सर्वो मानुष्यं यदि गच्छति।
स जायते पुल्कसो वा चण्डालो वाप्यसंशयः ॥ ६ ॥

मूलम्

तिर्यग्योनिगतः सर्वो मानुष्यं यदि गच्छति।
स जायते पुल्कसो वा चण्डालो वाप्यसंशयः ॥ ६ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘पशु-पक्षीकी योनिमें पड़े हुए सभी प्राणी यदि कभी मनुष्ययोनिमें जाते हैं तो पहले पुल्कस या चाण्डालके रूपमें जन्म लेते हैं—इसमें संशय नहीं है॥६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

पुल्कसः पापयोनिर्वा यः कश्चिदिह लक्ष्यते।
स तस्यामेव सुचिरं मतङ्ग परिवर्तते ॥ ७ ॥

मूलम्

पुल्कसः पापयोनिर्वा यः कश्चिदिह लक्ष्यते।
स तस्यामेव सुचिरं मतङ्ग परिवर्तते ॥ ७ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘मतंग! पुल्कस या जो कोई भी पापयोनि पुरुष यहाँ दिखायी देता है वह सुदीर्घकालतक अपनी उसी योनिमें चक्कर लगाता रहता है॥७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

ततो दशशते काले लभते शूद्रतामपि।
शूद्रयोनावपि ततो बहुशः परिवर्तते ॥ ८ ॥

मूलम्

ततो दशशते काले लभते शूद्रतामपि।
शूद्रयोनावपि ततो बहुशः परिवर्तते ॥ ८ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘तदनन्तर एक हजार वर्ष बीतनेपर वह चाण्डाल या पुल्कस शूद्रयोनिमें जन्म लेता है और उसमें भी अनेक जन्मोंतक चक्कर लगाता रहता है॥८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

ततस्त्रिंशद्‌गुणे काले लभते वैश्यतामपि।
वैश्यतायां चिरं कालं तत्रैव परिवर्तते ॥ ९ ॥

मूलम्

ततस्त्रिंशद्‌गुणे काले लभते वैश्यतामपि।
वैश्यतायां चिरं कालं तत्रैव परिवर्तते ॥ ९ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘तत्पश्चात् तीसगुना समय बीतनेपर वह वैश्य-योनिमें आता है और चिरकालतक उसीमें चक्कर काटता रहता है॥९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

ततः षष्टिगुणे काले राजन्यो नाम जायते।
ततः षष्टिगुणे काले लभते ब्रह्मबन्धुताम् ॥ १० ॥

मूलम्

ततः षष्टिगुणे काले राजन्यो नाम जायते।
ततः षष्टिगुणे काले लभते ब्रह्मबन्धुताम् ॥ १० ॥

अनुवाद (हिन्दी)

इसके बाद साठगुना समय बीतनेपर वह क्षत्रियकी योनिमें जन्म लेता है। फिर उससे भी साठगुना समय बीतनेपर वह गिरे हुए ब्राह्मणके घरमें जन्म लेता है॥१०॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

ब्रह्मबन्धुश्चिरं कालं ततस्तु परिवर्तते।
ततस्तु द्विशते काले लभते काण्डपृष्ठताम् ॥ ११ ॥

मूलम्

ब्रह्मबन्धुश्चिरं कालं ततस्तु परिवर्तते।
ततस्तु द्विशते काले लभते काण्डपृष्ठताम् ॥ ११ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘दीर्घकालतक ब्राह्मणाधम रहकर जब उसकी अवस्था परिवर्तित होती है तब वह अस्त्र-शस्त्रोंसे जीविका चलानेवाले ब्राह्मणके यहाँ जन्म लेता है॥११॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

काण्डपृष्ठिश्चिरं कालं तत्रैव परिवर्तते।
ततस्तु त्रिशते काले लभते जपतामपि ॥ १२ ॥

मूलम्

काण्डपृष्ठिश्चिरं कालं तत्रैव परिवर्तते।
ततस्तु त्रिशते काले लभते जपतामपि ॥ १२ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

फिर चिरकालतक वह उसी योनिमें पड़ा रहता है। तदनन्तर तीन सौ वर्षका समय व्यतीत होनेपर वह गायत्री-मात्रका जप करनेवाले ब्राह्मणके यहाँ जन्म लेता है॥१२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तं च प्राप्य चिरं कालं तत्रैव परिवर्तते।
ततश्चतुःशते काले श्रोत्रियो नाम जायते।
श्रोत्रियत्वे चिरं कालं तत्रैव परिवर्तते ॥ १३ ॥

मूलम्

तं च प्राप्य चिरं कालं तत्रैव परिवर्तते।
ततश्चतुःशते काले श्रोत्रियो नाम जायते।
श्रोत्रियत्वे चिरं कालं तत्रैव परिवर्तते ॥ १३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

उस जन्मको पाकर वह चिरकालतक उसी योनिमें जन्मता-मरता रहता है। फिर चार सौ वर्षोंका समय व्यतीत होनेपर वह श्रोत्रिय (वेदवेत्ता) ब्राह्मणके कुलमें जन्म लेता है और उसी कुलमें चिरकालतक उसका आवागमन होता रहता है॥१३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तदेवं शोकहर्षौ तु कामद्वेषौ च पुत्रक।
अतिमानातिवादौ च प्रविशेते द्विजाधमम् ॥ १४ ॥

मूलम्

तदेवं शोकहर्षौ तु कामद्वेषौ च पुत्रक।
अतिमानातिवादौ च प्रविशेते द्विजाधमम् ॥ १४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

बेटा! इस प्रकार शोक-हर्ष, राग-द्वेष, अतिमान और अतिवाद आदि दोषोंका अधम द्विजके भीतर प्रवेश होता है॥१४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तांश्चेज्जयति शत्रून् स तदा प्राप्नोति सद्‌गतिम्।
अथ ते वै जयन्त्येनं तालाग्रादिव पात्यते ॥ १५ ॥

मूलम्

तांश्चेज्जयति शत्रून् स तदा प्राप्नोति सद्‌गतिम्।
अथ ते वै जयन्त्येनं तालाग्रादिव पात्यते ॥ १५ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

यदि वह इन शत्रुओंको जीत लेता है तो सद्‌गतिको प्राप्त होता है और यदि वे शत्रु ही उसे जीत लेते हैं तो ताड़के वृक्षके ऊपरसे गिरनेवाले फलकी भाँति वह नीचे गिरा दिया जाता है॥१५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

मतङ्ग सम्प्रधार्यैवं यदहं त्वामचूचुदम्।
वृणीष्व काममन्यं त्वं ब्राह्मण्यं हि सुदुर्लभम् ॥ १६ ॥

मूलम्

मतङ्ग सम्प्रधार्यैवं यदहं त्वामचूचुदम्।
वृणीष्व काममन्यं त्वं ब्राह्मण्यं हि सुदुर्लभम् ॥ १६ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘मतंग! यही सोचकर मैंने तुमसे कहा था कि तुम कोई दूसरी अभीष्ट वस्तु माँग लो; क्योंकि ब्राह्मणत्व अत्यन्त दुर्लभ है’॥१६॥

मूलम् (समाप्तिः)

इति श्रीमहाभारते अनुशासनपर्वणि दानधर्मपर्वणि इन्द्रमतङ्गसंवादे अष्टाविंशोऽध्यायः ॥ २८ ॥

मूलम् (वचनम्)

इस प्रकार श्रीमहाभारत अनुशासनपर्वके अन्तर्गत दानधर्मपर्वमें इन्द्र और मतङ्गका संवादविषयक अट्‌ठाईसवाँ अध्याय पूरा हुआ॥२८॥