भागसूचना
चतुर्विंशोऽध्यायः
सूचना (हिन्दी)
ब्रह्महत्याके समान पापोंका निरूपण
मूलम् (वचनम्)
युधिष्ठिर उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
इदं मे तत्त्वतो राजन् वक्तुमर्हसि भारत।
अहिंसयित्वापि कथं ब्रह्महत्या विधीयते ॥ १ ॥
मूलम्
इदं मे तत्त्वतो राजन् वक्तुमर्हसि भारत।
अहिंसयित्वापि कथं ब्रह्महत्या विधीयते ॥ १ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
युधिष्ठिरने पूछा— भरतवंशी नरेश! अब आप मुझे यह ठीक-ठीक बतानेकी कृपा करें कि ब्राह्मणकी हिंसा न करनेपर भी मनुष्यको ब्रह्महत्याका पाप कैसे लगता है?॥१॥
मूलम् (वचनम्)
भीष्म उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
व्यासमामन्त्र्य राजेन्द्र पुरा यत् पृष्टवानहम्।
तत्तेऽहं सम्प्रवक्ष्यामि तदिहैकमनाः शृणु ॥ २ ॥
मूलम्
व्यासमामन्त्र्य राजेन्द्र पुरा यत् पृष्टवानहम्।
तत्तेऽहं सम्प्रवक्ष्यामि तदिहैकमनाः शृणु ॥ २ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
भीष्मजीने कहा— राजेन्द्र! पूर्वकालमें मैंने एक बार व्यासजीको बुलाकर उनसे जो प्रश्न किया था (तथा उन्होंने मुझे उसका जो उत्तर दिया था), वह सब तुम्हें बता रहा हूँ। तुम यहाँ एकाग्रचित्त होकर सुनो॥२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
चतुर्थस्त्वं वसिष्ठस्य तत्त्वमाख्याहि मे मुने।
अहिंसयित्वा केनेह ब्रह्महत्या विधीयते ॥ ३ ॥
मूलम्
चतुर्थस्त्वं वसिष्ठस्य तत्त्वमाख्याहि मे मुने।
अहिंसयित्वा केनेह ब्रह्महत्या विधीयते ॥ ३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
मैंने पूछा था—‘मुने! आप वसिष्ठजीके वंशजोंमें चौथी पीढ़ीके पुरुष हैं। कृपया मुझे यह ठीक-ठीक बताइये कि ब्राह्मणकी हिंसा न करनेपर भी किन कर्मोंके करनेसे ब्रह्महत्याका पाप लगता है?’॥३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
इति पृष्टो मया राजन् पराशरशरीरजः।
अब्रवीन्निपुणो धर्मे निःसंशयमनुत्तमम् ॥ ४ ॥
मूलम्
इति पृष्टो मया राजन् पराशरशरीरजः।
अब्रवीन्निपुणो धर्मे निःसंशयमनुत्तमम् ॥ ४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
राजन्! मेरे द्वारा इस प्रकार पूछनेपर पराशर-पुत्र धर्मनिपुण व्यासजीने यह संदेहरहित परम उत्तम बात कही—॥४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ब्राह्मणं स्वयमाहूय भिक्षार्थे कृशवृत्तिनम्।
ब्रूयान्नास्तीति यः पश्चात्तं विद्याद् ब्रह्मघातिनम् ॥ ५ ॥
मूलम्
ब्राह्मणं स्वयमाहूय भिक्षार्थे कृशवृत्तिनम्।
ब्रूयान्नास्तीति यः पश्चात्तं विद्याद् ब्रह्मघातिनम् ॥ ५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘भीष्म! जिसकी जीविकावृत्ति नष्ट हो गयी है, ऐसे ब्राह्मणको भिक्षा देनेके लिये स्वयं बुलाकर जो पीछे देनेसे इनकार कर देता है, उसे ब्रह्महत्यारा समझो॥५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
मध्यस्थस्येह विप्रस्य योऽनूचानस्य भारत।
वृत्तिं हरति दुर्बुद्धिस्तं विद्याद् ब्रह्मघातिनम् ॥ ६ ॥
मूलम्
मध्यस्थस्येह विप्रस्य योऽनूचानस्य भारत।
वृत्तिं हरति दुर्बुद्धिस्तं विद्याद् ब्रह्मघातिनम् ॥ ६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘भरतनन्दन! जो दुष्ट बुद्धिवाला मनुष्य तटस्थ रहनेवाले विद्वान् ब्राह्मणकी जीविका छीन लेता है, उसे भी ब्रह्महत्यारा ही समझना चाहिये॥६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
गोकुलस्य तृषार्तस्य जलार्थे वसुधाधिप।
उत्पादयति यो विघ्नं तं विद्याद् ब्रह्मघातिनम् ॥ ७ ॥
मूलम्
गोकुलस्य तृषार्तस्य जलार्थे वसुधाधिप।
उत्पादयति यो विघ्नं तं विद्याद् ब्रह्मघातिनम् ॥ ७ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘पृथ्वीनाथ! जो प्याससे पीड़ित हुई गौओंके पानी पीनेमें विघ्न डालता है, उसे भी ब्रह्मघाती जाने॥७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
यः प्रवृत्तां श्रुतिं सम्यक् शास्त्रं वा मुनिभिः कृतम्।
दूषयत्यनभिज्ञाय तं विद्याद् ब्रह्मघातिनम् ॥ ८ ॥
मूलम्
यः प्रवृत्तां श्रुतिं सम्यक् शास्त्रं वा मुनिभिः कृतम्।
दूषयत्यनभिज्ञाय तं विद्याद् ब्रह्मघातिनम् ॥ ८ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘जो मनुष्य उत्तम कर्मका विधान करनेवाली श्रुतियों और ऋषिप्रणीत शास्त्रोंपर बिना समझे-बूझे दोषारोपण करता है, उसको भी ब्रह्मघाती ही समझो॥८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
आत्मजां रूपसम्पन्नां महतीं सदृशे वरे।
न प्रयच्छति यः कन्यां तं विद्याद् ब्रह्मघातिनम् ॥ ९ ॥
मूलम्
आत्मजां रूपसम्पन्नां महतीं सदृशे वरे।
न प्रयच्छति यः कन्यां तं विद्याद् ब्रह्मघातिनम् ॥ ९ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
जो अपनी रूपवती कन्याकी बड़ी उम्र हो जानेपर भी उसका योग्य वरके साथ विवाह नहीं करता, उसे ब्रह्महत्यारा जाने॥९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अधर्मनिरतो मूढो मिथ्या यो वै द्विजातिषु।
दद्यान्मर्मातिगं शोकं तं विद्याद् ब्रह्मघातिनम् ॥ १० ॥
मूलम्
अधर्मनिरतो मूढो मिथ्या यो वै द्विजातिषु।
दद्यान्मर्मातिगं शोकं तं विद्याद् ब्रह्मघातिनम् ॥ १० ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘जो पापपरायण मूढ़ मनुष्य ब्राह्मणोंको अकारण ही मर्मभेदी शोक प्रदान करता है, उसे ब्रह्मघाती जाने॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
चक्षुषा विप्रहीणस्य पंगुलस्य जडस्य वा।
हरेत यो वै सर्वस्वं तं विद्याद् ब्रह्मघातिनम् ॥ ११ ॥
मूलम्
चक्षुषा विप्रहीणस्य पंगुलस्य जडस्य वा।
हरेत यो वै सर्वस्वं तं विद्याद् ब्रह्मघातिनम् ॥ ११ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘जो अन्धे, लूले और गूँगे मनुष्योंका सर्वस्व हर लेता है, उसे ब्रह्मघाती जाने॥११॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
आश्रमे वा वने वापि ग्रामे वा यदि वा पुरे।
अग्निं समुत्सृजेन्मोहात्तं विद्याद् ब्रह्मघातिनम् ॥ १२ ॥
मूलम्
आश्रमे वा वने वापि ग्रामे वा यदि वा पुरे।
अग्निं समुत्सृजेन्मोहात्तं विद्याद् ब्रह्मघातिनम् ॥ १२ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘जो मोहवश आश्रम, वन, गाँव अथवा नगरमें आग लगा देता है, उसे भी ब्रह्मघाती ही समझना चाहिये’॥१२॥
मूलम् (समाप्तिः)
इति श्रीमहाभारते अनुशासनपर्वणि दानधर्मपर्वणि ब्रह्मघ्नकथने चतुर्विंशोऽध्यायः ॥ २४ ॥
मूलम् (वचनम्)
इस प्रकार श्रीमहाभारत अनुशासनपर्वके अन्तर्गत दानधर्मपर्वमें ब्रह्महत्यारोंका कथनविषयक चौबीसवाँ अध्याय पूरा हुआ॥२४॥