०२३ स्वर्गनरकगामिवर्णने

भागसूचना

त्रयोविंशोऽध्यायः

सूचना (हिन्दी)

देवता और पितरोंके कार्यमें निमन्त्रण देने योग्य पात्रों तथा नरकगामी और स्वर्गगामी मनुष्योंके लक्षणोंका वर्णन

मूलम् (वचनम्)

युधिष्ठिर उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

श्राद्धकाले च दैवे च पित्र्येऽपि च पितामह।
इच्छामीह त्वयाऽऽख्यातं विहितं यत् सुरर्षिभिः ॥ १ ॥

मूलम्

श्राद्धकाले च दैवे च पित्र्येऽपि च पितामह।
इच्छामीह त्वयाऽऽख्यातं विहितं यत् सुरर्षिभिः ॥ १ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

युधिष्ठिरने पूछा— पितामह! देवता और ऋषियोंने श्राद्धके समय देवकार्य तथा पितृकार्यमें जिस-जिस कर्मका विधान किया है, उसका वर्णन मैं आपके मुखसे सुनना चाहता हूँ॥१॥

मूलम् (वचनम्)

भीष्म उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

दैवं पौर्वाह्णिकं कुर्यादपराह्णे तु पैतृकम्।
मङ्गलाचारसम्पन्नः कृतशौचः प्रयत्नवान् ॥ २ ॥
मनुष्याणां तु मध्याह्ने प्रदद्यादुपपत्तिभिः।
कालहीनं तु यद् दानं तं भागं रक्षसां विदुः॥३॥

मूलम्

दैवं पौर्वाह्णिकं कुर्यादपराह्णे तु पैतृकम्।
मङ्गलाचारसम्पन्नः कृतशौचः प्रयत्नवान् ॥ २ ॥
मनुष्याणां तु मध्याह्ने प्रदद्यादुपपत्तिभिः।
कालहीनं तु यद् दानं तं भागं रक्षसां विदुः॥३॥

अनुवाद (हिन्दी)

भीष्मजीने कहा— राजन्! मनुष्यको चाहिये कि वह स्नान आदिसे शुद्ध हो, मांगलिक कृत्य सम्पन्न करके प्रयत्नशील हो पूर्वाह्णमें देव-सम्बन्धी दान, अपराह्णमें पैतृक दान और मध्याह्नकालमें मनुष्य-सम्बन्धी दान आदरपूर्वक करे। असमयमें किया हुआ दान राक्षसोंका भाग माना गया है॥२-३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

लङ्घितं चावलीढं च कलिपूर्वं च यत् कृतम्।
रजस्वलाभिदृष्टं च तं भागं रक्षसां विदुः ॥ ४ ॥

मूलम्

लङ्घितं चावलीढं च कलिपूर्वं च यत् कृतम्।
रजस्वलाभिदृष्टं च तं भागं रक्षसां विदुः ॥ ४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

जिस भोज्य पदार्थको किसीने लाँघ दिया हो, चाट लिया हो, जो लड़ाई-झगड़ा करके तैयार किया गया हो तथा जिसपर रजस्वला स्त्रीकी दृष्टि पड़ी हो, उसे भी राक्षसोंका ही भाग माना गया है॥४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अवघुष्टं च यद् भुक्तमव्रतेन च भारत।
परामृष्टं शुना चैव तं भागं रक्षसां विदुः ॥ ५ ॥

मूलम्

अवघुष्टं च यद् भुक्तमव्रतेन च भारत।
परामृष्टं शुना चैव तं भागं रक्षसां विदुः ॥ ५ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

भरतनन्दन! जिसके लिये लोगोंमें घोषणा की गयी हो, जिसे व्रतहीन मनुष्यने भोजन किया हो अथवा जो कुत्तेसे छू गया हो, वह अन्न भी राक्षसोंका ही भाग समझा गया है॥५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

केशकीटावपतितं क्षुतं श्वभिरवेक्षितम् ।
रुदितं चावधूतं च तं भागं रक्षसां विदुः ॥ ६ ॥

मूलम्

केशकीटावपतितं क्षुतं श्वभिरवेक्षितम् ।
रुदितं चावधूतं च तं भागं रक्षसां विदुः ॥ ६ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

जिसमें केश या कीड़े पड़ गये हों, जो छींकसे दूषित हो गया हो, जिसपर कुत्तोंकी दृष्टि पड़ गयी हो तथा जो रोकर और तिरस्कारपूर्वक दिया गया हो, वह अन्न भी राक्षसोंका ही भाग माना गया है॥६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

निरोङ्कारेण यद् भुक्तं सशस्त्रेण च भारत।
दुरात्मना च यद् भुक्तं तं भागं रक्षसां विदुः॥७॥

मूलम्

निरोङ्कारेण यद् भुक्तं सशस्त्रेण च भारत।
दुरात्मना च यद् भुक्तं तं भागं रक्षसां विदुः॥७॥

अनुवाद (हिन्दी)

भरतनन्दन! जिस अन्नमेंसे पहले ऐसे व्यक्तिने खा लिया हो, जिसे खानेकी अनुमति नहीं दी गयी है अथवा जिसमेंसे पहले प्रणव आदि वेदमन्त्रोंके अनधिकारी शूद्र आदिने भोजन कर लिया हो अथवा किसी शस्त्रधारी या दुराचारी पुरुषने जिसका उपयोग कर लिया हो, उस अन्नको भी राक्षसोंका ही भाग बताया गया है॥७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

परोच्छिष्टं च यद् भुक्तं परिभुक्तं च यद् भवेत्।
दैवे पित्र्ये च सततं तं भागं रक्षसां विदुः॥८॥

मूलम्

परोच्छिष्टं च यद् भुक्तं परिभुक्तं च यद् भवेत्।
दैवे पित्र्ये च सततं तं भागं रक्षसां विदुः॥८॥

अनुवाद (हिन्दी)

जिसे दूसरोंने उच्छिष्ट कर दिया हो, जिसमेंसे किसीने भोजन कर लिया हो तथा जो देवता, पितर, अतिथि एवं बालक आदिको दिये बिना ही अपने उपभोगमें लाया गया हो, वह अन्न देवकर्म तथा पितृकर्ममें सदा राक्षसोंका ही भाग माना गया है॥८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

मन्त्रहीनं क्रियाहीनं यच्छ्राद्धं परिविष्यते।
त्रिभिर्वर्णैर्नरश्रेष्ठ तं भागं रक्षसां विदुः ॥ ९ ॥

मूलम्

मन्त्रहीनं क्रियाहीनं यच्छ्राद्धं परिविष्यते।
त्रिभिर्वर्णैर्नरश्रेष्ठ तं भागं रक्षसां विदुः ॥ ९ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

नरश्रेष्ठ! तीनों वर्णोंके लोग वैदिक मन्त्र एवं उसके विधि-विधानसे रहित जो श्राद्धका अन्न परोसते हैं, उसे राक्षसोंका ही भाग माना गया है॥९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

आज्याहुतिं विना चैव यत्किंचित् परिविष्यते।
दुराचारैश्च यद् भुक्तं तं भागं रक्षसां विदुः ॥ १० ॥
ये भागा रक्षसां प्राप्तास्त उक्ता भरतर्षभ।

मूलम्

आज्याहुतिं विना चैव यत्किंचित् परिविष्यते।
दुराचारैश्च यद् भुक्तं तं भागं रक्षसां विदुः ॥ १० ॥
ये भागा रक्षसां प्राप्तास्त उक्ता भरतर्षभ।

अनुवाद (हिन्दी)

घीकी आहुति दिये बिना ही जो कुछ परोसा जाता है तथा जिसमेंसे पहले कुछ दुराचारी मनुष्योंको भोजन करा दिया गया हो, वह राक्षसोंका भाग माना गया है। भरतश्रेष्ठ! अन्नके जो भाग राक्षसोंको प्राप्त होते हैं, उनका वर्णन यहाँ किया गया॥१०॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अत ऊर्ध्वं विसर्गस्य परीक्षां ब्राह्मणे शृणु ॥ ११ ॥
यावन्तः पतिता विप्रा जडोन्मत्तास्तथैव च।
दैवे वाप्यथ पित्र्ये वा राजन् नार्हन्ति केतनम् ॥ १२ ॥

मूलम्

अत ऊर्ध्वं विसर्गस्य परीक्षां ब्राह्मणे शृणु ॥ ११ ॥
यावन्तः पतिता विप्रा जडोन्मत्तास्तथैव च।
दैवे वाप्यथ पित्र्ये वा राजन् नार्हन्ति केतनम् ॥ १२ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

अब दान और भोजनके लिये ब्राह्मणकी परीक्षा करनेके विषयमें जो बात बतायी जाती है, उसे सुनो। राजन्! जो ब्राह्मण पतित, जड या उन्मत्त हो गये हों वे देवकार्य या पितृकार्यमें निमन्त्रण पानेके योग्य नहीं हैं॥११-१२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

श्वित्री क्लीबश्च कुष्ठी च तथा यक्ष्महतश्च यः।
अपस्मारी च यश्चान्धो राजन् नार्हन्ति केतनम् ॥ १३ ॥

मूलम्

श्वित्री क्लीबश्च कुष्ठी च तथा यक्ष्महतश्च यः।
अपस्मारी च यश्चान्धो राजन् नार्हन्ति केतनम् ॥ १३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

राजन्! जिसके शरीरमें सफेद दाग हो, जो कोढ़ी, नपुंसक, राजयक्ष्मासे पीड़ित, मृगीका रोगी और अन्धा हो, ऐसे लोग श्राद्धमें निमन्त्रण पानेके अधिकारी नहीं हैं॥१३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

चिकित्सका देवलका वृथा नियमधारिणः।
सोमविक्रयिणश्चैव राजन् नार्हन्ति केतनम् ॥ १४ ॥

मूलम्

चिकित्सका देवलका वृथा नियमधारिणः।
सोमविक्रयिणश्चैव राजन् नार्हन्ति केतनम् ॥ १४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

नरेश्वर! चिकित्सक या वैद्य, देवालयके पुजारी, पाखण्डी और सोमरस बेचनेवाले ब्राह्मण निमन्त्रण देने योग्य नहीं हैं॥१४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

गायना नर्तकाश्चैव प्लवका वादकास्तथा।
कथका योधकाश्चैव राजन् नार्हन्ति केतनम् ॥ १५ ॥

मूलम्

गायना नर्तकाश्चैव प्लवका वादकास्तथा।
कथका योधकाश्चैव राजन् नार्हन्ति केतनम् ॥ १५ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

राजन्! जो गाते-बजाते, नाचते, खेल-कूदकर तमाशा दिखाते, व्यर्थकी बातें बनाते और पहलवानी करते हैं, वे भी निमन्त्रण पानेके अधिकारी नहीं हैं॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

होतारो वृषलानां च वृषलाध्यापकास्तथा।
तथा वृषलशिष्याश्च राजन् नार्हन्ति केतनम् ॥ १६ ॥

मूलम्

होतारो वृषलानां च वृषलाध्यापकास्तथा।
तथा वृषलशिष्याश्च राजन् नार्हन्ति केतनम् ॥ १६ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

नरेश्वर! जो शूद्रोंका यज्ञ कराते, उनको पढ़ाते अथवा स्वयं उनके शिष्य बनकर उनसे शिक्षा लेते या उनकी दासता करते हैं, वे भी निमन्त्रण देने योग्य नहीं हैं॥१६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अनुयोक्ता च यो विप्रो अनुयुक्तश्च भारत।
नार्हतस्तावपि श्राद्धं ब्रह्मविक्रयिणौ हि तौ ॥ १७ ॥

मूलम्

अनुयोक्ता च यो विप्रो अनुयुक्तश्च भारत।
नार्हतस्तावपि श्राद्धं ब्रह्मविक्रयिणौ हि तौ ॥ १७ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

भरतनन्दन! जो ब्राह्मण वेतन लेकर पढ़ाता है और वेतन देकर पढ़ता है, वे दोनों ही वेदको बेचनेवाले हैं; अतः वे श्राद्धमें सम्मिलित करनेयोग्य नहीं हैं॥१७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अग्रणीर्यः कृतः पूर्वं वर्णावरपरिग्रहः।
ब्राह्मणः सर्वविद्योऽपि राजन् नार्हति केतनम् ॥ १८ ॥

मूलम्

अग्रणीर्यः कृतः पूर्वं वर्णावरपरिग्रहः।
ब्राह्मणः सर्वविद्योऽपि राजन् नार्हति केतनम् ॥ १८ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

राजन्! जो ब्राह्मण पहले समाजका अगुआ रहा हो और पीछे उसने शूद्र-स्त्रीसे विवाह कर लिया हो, वह ब्राह्मण सम्पूर्ण विद्याओंका ज्ञाता होनेपर भी श्राद्धमें बुलाने योग्य नहीं है॥१८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अनग्नयश्च ये विप्रा मृतनिर्यातकाश्च ये।
स्तेनाश्च पतिताश्चैव राजन् नार्हन्ति केतनम् ॥ १९ ॥

मूलम्

अनग्नयश्च ये विप्रा मृतनिर्यातकाश्च ये।
स्तेनाश्च पतिताश्चैव राजन् नार्हन्ति केतनम् ॥ १९ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

नरेश्वर! जो ब्राह्मण अग्निहोत्र नहीं करते, जो मुर्दा ढोते, चोरी करते और जो पापोंके कारण पतित हो गये हैं, वे भी श्राद्धमें बुलाने योग्य नहीं हैं॥१९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अपरिज्ञातपूर्वाश्च गणपूर्वाश्च भारत ।
पुत्रिकापूर्वपुत्राश्च श्राद्धे नार्हन्ति केतनम् ॥ २० ॥

मूलम्

अपरिज्ञातपूर्वाश्च गणपूर्वाश्च भारत ।
पुत्रिकापूर्वपुत्राश्च श्राद्धे नार्हन्ति केतनम् ॥ २० ॥

अनुवाद (हिन्दी)

भारत! जिनके विषयमें पहलेसे कुछ ज्ञात न हो, जो गाँवके अगुआ हों तथा पुत्रिका1-धर्मके अनुसार व्याही गयी स्त्रीके गर्भसे उत्पन्न होकर नानाके घरमें निवास करते हों, ऐसे ब्राह्मण भी श्राद्धमें निमन्त्रण पानेके अधिकारी नहीं हैं॥२०॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

ऋणकर्ता च यो राजन् यश्च वार्धुषिको नरः।
प्राणिविक्रयवृत्तिश्च राजन् नार्हन्ति केतनम् ॥ २१ ॥

मूलम्

ऋणकर्ता च यो राजन् यश्च वार्धुषिको नरः।
प्राणिविक्रयवृत्तिश्च राजन् नार्हन्ति केतनम् ॥ २१ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

राजन्! जो ब्राह्मण रुपया-पैसा बढ़ानेके लिये लोगोंको ब्याजपर ऋण देता हो अथवा जो सस्ता अन्न खरीदकर उसे मँहगे भावपर बेचता और उसका मुनाफा खाता हो अथवा प्राणियोंके क्रय-विक्रयसे जीविका चलाता हो, ऐसे ब्राह्मण श्राद्धमें बुलाने योग्य नहीं हैं॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

स्त्रीपूर्वाः काण्डपृष्ठाश्च यावन्तो भरतर्षभ।
अजपा ब्राह्मणाश्चैव श्राद्धे नार्हन्ति केतनम् ॥ २२ ॥

मूलम्

स्त्रीपूर्वाः काण्डपृष्ठाश्च यावन्तो भरतर्षभ।
अजपा ब्राह्मणाश्चैव श्राद्धे नार्हन्ति केतनम् ॥ २२ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

जो स्त्रीकी कमाई खाते हों, वेश्याके पति हों और गायत्री-जप एवं संध्या-वन्दनसे हीन हों, ऐसे ब्राह्मण भी श्राद्धमें सम्मिलित होने योग्य नहीं हैं॥२२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

श्राद्धे दैवे च निर्दिष्टो ब्राह्मणो भरतर्षभ।
दातुः प्रतिग्रहीतुश्च शृणुष्वानुग्रहं पुनः ॥ २३ ॥

मूलम्

श्राद्धे दैवे च निर्दिष्टो ब्राह्मणो भरतर्षभ।
दातुः प्रतिग्रहीतुश्च शृणुष्वानुग्रहं पुनः ॥ २३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

भरतश्रेष्ठ! देवयज्ञ और श्राद्धकर्ममें वर्जित ब्राह्मणका निर्देश किया गया। अब दान देने और लेनेवाले ऐसे पुरुषोंका वर्णन करता हूँ जो श्राद्धमें निषिद्ध होनेपर भी किसी विशेष गुणके कारण अनुग्रहपूर्वक ग्राह्य माने गये हैं। उनके विषयमें सुनो॥२३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

चीर्णव्रता गुणैर्युक्ता भवेयुर्येऽपि कर्षकाः।
सावित्रीज्ञाः क्रियावन्तस्ते राजन् केतनक्षमाः ॥ २४ ॥

मूलम्

चीर्णव्रता गुणैर्युक्ता भवेयुर्येऽपि कर्षकाः।
सावित्रीज्ञाः क्रियावन्तस्ते राजन् केतनक्षमाः ॥ २४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

राजन्! जो ब्राह्मण व्रतका पालन करनेवाले, सद्‌गुण-सम्पन्न, क्रियानिष्ठ और गायत्रीमन्त्रके ज्ञाता हों, वे खेती करनेवाले होनेपर भी उन्हें श्राद्धमें निमन्त्रण दिया जा सकता है॥२४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

क्षात्रधर्मिणमप्याजौ केतयेत् कुलजं द्विजम्।
न त्वेव वणिजं तात श्राद्धे च परिकल्पयेत् ॥ २५ ॥

मूलम्

क्षात्रधर्मिणमप्याजौ केतयेत् कुलजं द्विजम्।
न त्वेव वणिजं तात श्राद्धे च परिकल्पयेत् ॥ २५ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

तात! जो कुलीन ब्राह्मण युद्धमें क्षत्रियधर्मका पालन करता हो, उसे भी श्राद्धमें निमन्त्रित करना चाहिये; परंतु जो वाणिज्य करता हो उसे कभी श्राद्धमें सम्मिलित न करें॥२५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अग्निहोत्री च यो विप्रो ग्रामवासी च यो भवेत्।
अस्तेनश्चातिथिज्ञश्च स राजन् केतनक्षमः ॥ २६ ॥

मूलम्

अग्निहोत्री च यो विप्रो ग्रामवासी च यो भवेत्।
अस्तेनश्चातिथिज्ञश्च स राजन् केतनक्षमः ॥ २६ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

राजन्! जो ब्राह्मण अग्निहोत्री हो, अपने ही गाँवका निवासी हो, चोरी न करता हो और अतिथिसत्कारमें प्रवीण हो, उसे भी निमन्त्रण दिया जा सकता है॥२६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

सावित्रीं जपते यस्तु त्रिकालं भरतर्षभ।
भिक्षावृत्तिः कियावांश्च स राजन् केतनक्षमः ॥ २७ ॥

मूलम्

सावित्रीं जपते यस्तु त्रिकालं भरतर्षभ।
भिक्षावृत्तिः कियावांश्च स राजन् केतनक्षमः ॥ २७ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

भरतभूषण नरेश! जो तीनों समय गायत्री-मन्त्रका जप करता है, भिक्षासे जीविका चलाता है और क्रियानिष्ठ है, वह श्राद्धमें निमन्त्रण पानेका अधिकारी है॥२७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

उदितास्तमितो यश्च तथैवास्तमितोदितः ।
अहिंस्रश्चाल्पदोषश्च स राजन् केतनक्षमः ॥ २८ ॥

मूलम्

उदितास्तमितो यश्च तथैवास्तमितोदितः ।
अहिंस्रश्चाल्पदोषश्च स राजन् केतनक्षमः ॥ २८ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

राजन्! जो ब्राह्मण उन्नत होकर तत्काल ही अवनत और अवनत होकर उन्नत हो जाता है एवं किसी जीवकी हिंसा नहीं करता है, वह थोड़ा दोषी हो तो भी उसे श्राद्धमें निमन्त्रण देना उचित है॥२८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अकल्कको ह्यतर्कश्च ब्राह्मणो भरतर्षभ।
संसर्गे भैक्ष्यवृत्तिश्च स राजन् केतनक्षमः ॥ २९ ॥

मूलम्

अकल्कको ह्यतर्कश्च ब्राह्मणो भरतर्षभ।
संसर्गे भैक्ष्यवृत्तिश्च स राजन् केतनक्षमः ॥ २९ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

भरतश्रेष्ठ! जो दम्भरहित, व्यर्थ तर्क-वितर्क न करनेवाला तथा सम्पर्क स्थापित करनेके योग्य घरसे भिक्षा लेकर जीवन-निर्वाह करनेवाला है, वह ब्राह्मण निमन्त्रण पानेका अधिकारी है॥२९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अव्रती कितवः स्तेनः प्राणिविक्रयिको वणिक्।
पश्चाच्च पीतवान् सोमं स राजन् केतनक्षमः ॥ ३० ॥

मूलम्

अव्रती कितवः स्तेनः प्राणिविक्रयिको वणिक्।
पश्चाच्च पीतवान् सोमं स राजन् केतनक्षमः ॥ ३० ॥

अनुवाद (हिन्दी)

राजन्! जो व्रतहीन, धूर्त, चोर, प्राणियोंका क्रय-विक्रय करनेवाला तथा वणिक्-वृत्तिसे जीविका चलानेवाला होकर भी पीछे यज्ञका अनुष्ठान करके उसमें सोमरसका पान कर चुका है, वह भी निमन्त्रण पानेका अधिकारी है॥३०॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अर्जयित्वा धनं पूर्वं दारुणैरपि कर्मभिः।
भवेत् सर्वातिथिः पश्चात् स राजन्‌ केतनक्षमः ॥ ३१ ॥

मूलम्

अर्जयित्वा धनं पूर्वं दारुणैरपि कर्मभिः।
भवेत् सर्वातिथिः पश्चात् स राजन्‌ केतनक्षमः ॥ ३१ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

नरेश्वर! जो पहले कठोर कर्मोंद्वारा भी धनका उपार्जन करके पीछे सब प्रकारसे अतिथियोंका सेवक हो जाता है, वह श्राद्धमें बुलाने योग्य है॥३१॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

ब्रह्मविक्रयनिर्दिष्टं स्त्रिया यच्चार्जितं धनम्।
अदेयं पितृविप्रेभ्यो यच्च क्लैब्यादुपार्जितम् ॥ ३२ ॥

मूलम्

ब्रह्मविक्रयनिर्दिष्टं स्त्रिया यच्चार्जितं धनम्।
अदेयं पितृविप्रेभ्यो यच्च क्लैब्यादुपार्जितम् ॥ ३२ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

जो धन वेद बेचकर लाया गया हो या स्त्रीकी कमाईसे प्राप्त हुआ हो अथवा लोगोंके सामने दीनता दिखाकर माँग लाया गया हो, वह श्राद्धमें ब्राह्मणोंको देने योग्य नहीं है॥३२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

क्रियमाणेऽपवर्गे च यो द्विजो भरतर्षभ।
न व्याहरति यद्युक्तं तस्याधर्मो गवानृतम् ॥ ३३ ॥

मूलम्

क्रियमाणेऽपवर्गे च यो द्विजो भरतर्षभ।
न व्याहरति यद्युक्तं तस्याधर्मो गवानृतम् ॥ ३३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

भरतश्रेष्ठ! जो ब्राह्मण श्राद्धकी समाप्ति होनेपर ‘अस्तु स्वधा’ आदि तत्कालोचित वचनोंका प्रयोग नहीं करता है, उसे गायकी झूठी शपथ खानेका पाप लगता है॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

श्राद्धस्य ब्राह्मणः कालः प्राप्तं दधि घृतं तथा।
सोमक्षयश्च मांसं च यदारण्यं युधिष्ठिर ॥ ३४ ॥

मूलम्

श्राद्धस्य ब्राह्मणः कालः प्राप्तं दधि घृतं तथा।
सोमक्षयश्च मांसं च यदारण्यं युधिष्ठिर ॥ ३४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

युधिष्ठिर! जिस दिन भी सुपात्र ब्राह्मण, दही, घी, अमावास्या तिथि तथा जंगली कन्द, मूल और फलोंका गूदा प्राप्त हो जाय, वही श्राद्धका उत्तम काल है॥३४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

(मुहूर्तानां त्रयं पूर्वमह्नः प्रातरिति स्मृतम्।
जपध्यानादिभिस्तस्मिन् विप्रैः कार्यं शुभव्रतम्॥

मूलम्

(मुहूर्तानां त्रयं पूर्वमह्नः प्रातरिति स्मृतम्।
जपध्यानादिभिस्तस्मिन् विप्रैः कार्यं शुभव्रतम्॥

अनुवाद (हिन्दी)

दिनका प्रथम तीन मुहूर्त प्रातःकाल कहलाता है। उसमें ब्राह्मणोंको जप और ध्यान आदिके द्वारा अपने लिये कल्याणकारी व्रत आदिका पालन करना चाहिये॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

सङ्गवाख्यं त्रिभागं तु मध्याह्नस्त्रिमुहूर्तकः।
लौकिकं सङ्गवेऽर्थ्यं च स्नानादि ह्यथ मध्यमे॥

मूलम्

सङ्गवाख्यं त्रिभागं तु मध्याह्नस्त्रिमुहूर्तकः।
लौकिकं सङ्गवेऽर्थ्यं च स्नानादि ह्यथ मध्यमे॥

अनुवाद (हिन्दी)

उसके बादका तीन मुहूर्त सङ्गव कहलाता है तथा सङ्गवके बादका तीन मुहूर्त मध्याह्न कहलाता है। सङ्गव कालमें लौकिक कार्य देखना चाहिये और मध्याह्नकालमें स्नान-संध्यावन्दन आदि करना उचित है॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

चतुर्थमपराह्णं तु त्रिमुहूर्तं तु पित्र्यकम्।

मूलम्

चतुर्थमपराह्णं तु त्रिमुहूर्तं तु पित्र्यकम्।

Misc Detail

सायाह्नस्त्रिमुहूर्तं च मध्यमं कविभिः स्मृतम्॥ )

अनुवाद (हिन्दी)

मध्याह्नके बादका तीन मुहूर्त अपराह्न कहलाता है। यह दिनका चौथा भाग पितृकार्यके लिये उपयोगी है। उसके बादका तीन मुहूर्त सायाह्न कहा गया है। इसे विद्वानोंने दिन और रातके बीचका समय माना है॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

श्राद्धापवर्गे विप्रस्य स्वधा वै मुदिता भवेत्।
क्षत्रियस्यापि यो ब्रूयात् प्रीयन्तां पितरस्त्विति ॥ ३५ ॥

मूलम्

श्राद्धापवर्गे विप्रस्य स्वधा वै मुदिता भवेत्।
क्षत्रियस्यापि यो ब्रूयात् प्रीयन्तां पितरस्त्विति ॥ ३५ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

ब्राह्मणके यहाँ श्राद्ध समाप्त होनेपर ‘स्वधा सम्पद्यताम्’ इस वाक्यका उच्चारण करनेपर पितरोंको प्रसन्नता होती है। क्षत्रियके यहाँ श्राद्धकी समाप्तिमें ‘पितरः प्रीयन्ताम्’ (पितर तृप्त हो जायँ) इस वाक्यका उच्चारण करना चाहिये॥३५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अपवर्गे तु वैश्यस्य श्राद्धकर्मणि भारत।
अक्षय्यमभिधातव्यं स्वस्ति शूद्रस्य भारत ॥ ३६ ॥

मूलम्

अपवर्गे तु वैश्यस्य श्राद्धकर्मणि भारत।
अक्षय्यमभिधातव्यं स्वस्ति शूद्रस्य भारत ॥ ३६ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

भारत! वैश्यके घर श्राद्धकर्मकी समाप्तिपर ‘अक्षय्यमस्तु’ (श्राद्धका दान अक्षय हो) कहना चाहिये और शूद्रके श्राद्धकी समाप्तिके अवसरपर ‘स्वस्ति’ (कल्याण हो) इस वाक्यका उच्चारण करना उचित है॥३६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

पुण्याहवाचनं दैवं ब्राह्मणस्य विधीयते।
एतदेव निरोङ्कारं क्षत्रियस्य विधीयते ॥ ३७ ॥

मूलम्

पुण्याहवाचनं दैवं ब्राह्मणस्य विधीयते।
एतदेव निरोङ्कारं क्षत्रियस्य विधीयते ॥ ३७ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

इसी तरह जब ब्राह्मणके यहाँ देवकार्य होता हो, तब उसमें ॐकारसहित पुण्याहवाचनका विधान है (अर्थात् ‘पुण्याहं भवन्तो ब्रुवन्तु— आपलोग पुण्याहवाचन करें’ ऐसा यजमानके कहनेपर ब्राह्मणोंको ‘ॐ पुण्याहम् ॐ पुण्याहम्’ इस प्रकार कहना चाहिये)। यही वाक्य क्षत्रियके यहाँ बिना ॐकारके उच्चारण करना चाहिये॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

वैश्यस्य दैवे वक्तव्यं प्रीयन्तां देवता इति।
कर्मणामानुपूर्व्येण विधिपूर्वं कृतं शृणु ॥ ३८ ॥

मूलम्

वैश्यस्य दैवे वक्तव्यं प्रीयन्तां देवता इति।
कर्मणामानुपूर्व्येण विधिपूर्वं कृतं शृणु ॥ ३८ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

वैश्यके घर देवकर्ममें ‘प्रीयन्तां देवताः’ इस वाक्यका उच्चारण करना चाहिये। अब क्रमशः तीनों वर्णोंके कर्मानुष्ठानकी विधि सुनो॥३८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

जातकर्मादिकाः सर्वास्त्रिषु वर्णेषु भारत।
ब्रह्मक्षत्रे हि मन्त्रोक्ता वैश्यस्य च युधिष्ठिर ॥ ३९ ॥

मूलम्

जातकर्मादिकाः सर्वास्त्रिषु वर्णेषु भारत।
ब्रह्मक्षत्रे हि मन्त्रोक्ता वैश्यस्य च युधिष्ठिर ॥ ३९ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

भरतवंशी युधिष्ठिर! तीनों वर्णोंमें जातकर्म आदि समस्त संस्कारोंका विधान है। ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैश्य तीनोंके सभी संस्कार वेद-मन्त्रोंके उच्चारण-पूर्वक होने चाहिये॥३९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

विप्रस्य रशना मौञ्जी मौर्वी राजन्यगामिनी।
बाल्वजी ह्येव वैश्यस्य धर्म एष युधिष्ठिर ॥ ४० ॥

मूलम्

विप्रस्य रशना मौञ्जी मौर्वी राजन्यगामिनी।
बाल्वजी ह्येव वैश्यस्य धर्म एष युधिष्ठिर ॥ ४० ॥

अनुवाद (हिन्दी)

युधिष्ठिर! उपनयनके समय ब्राह्मणको मूँजकी, क्षत्रियको प्रत्यञ्जाकी और वैश्यको शणकी मेखला धारण करनी चाहिये। यही धर्म है॥४०॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

(पालाशो द्विजदण्डः स्यादश्वत्थः क्षत्रियस्य तु।
औदुम्बरश्च वैश्यस्य धर्म एष युधिष्ठिर॥)

मूलम्

(पालाशो द्विजदण्डः स्यादश्वत्थः क्षत्रियस्य तु।
औदुम्बरश्च वैश्यस्य धर्म एष युधिष्ठिर॥)

अनुवाद (हिन्दी)

ब्राह्मणका दण्ड पलाशका, क्षत्रियके लिये पीपलका और वैश्यके लिये गूलरका होना चाहिये। युधिष्ठिर! ऐसा ही धर्म है॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

दातुः प्रतिग्रहीतुश्च धर्माधर्माविमौ शृणु।
ब्राह्मणस्यानृतेऽधर्मः प्रोक्तः पातकसंज्ञितः ।
चतुर्गुणः क्षत्रियस्य वैश्यस्याष्टगुणः स्मृतः ॥ ४१ ॥

मूलम्

दातुः प्रतिग्रहीतुश्च धर्माधर्माविमौ शृणु।
ब्राह्मणस्यानृतेऽधर्मः प्रोक्तः पातकसंज्ञितः ।
चतुर्गुणः क्षत्रियस्य वैश्यस्याष्टगुणः स्मृतः ॥ ४१ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

अब दान देने और दान लेनेवालेके धर्माधर्मका वर्णन सुनो। ब्राह्मणको झूठ बोलनेसे जो अधर्म या पातक बताया गया है उससे चौगुना क्षत्रियको और आठगुना वैश्यको लगता है॥४१॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

नान्यत्र ब्राह्मणोऽश्नीयात् पूर्वं विप्रेण केतितः।
यवीयान् पशुहिंसायां तुल्यधर्मो भवेत् स हि ॥ ४२ ॥

मूलम्

नान्यत्र ब्राह्मणोऽश्नीयात् पूर्वं विप्रेण केतितः।
यवीयान् पशुहिंसायां तुल्यधर्मो भवेत् स हि ॥ ४२ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

यदि किसी ब्राह्मणने पहलेसे ही श्राद्धका निमन्त्रण दे रखा हो तो निमन्त्रित ब्राह्मणको दूसरी जगह जाकर भोजन नहीं करना चाहिये। यदि वह करता है तो छोटा समझा जाता है और उसे पशुहिंसाके समान पाप लगता है॥४२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तथा राजन्यवैश्याभ्यां यद्यश्नीयात्तु केतितः।
यवीयान् पशुहिंसायां भागार्धं समवाप्नुयात् ॥ ४३ ॥

मूलम्

तथा राजन्यवैश्याभ्यां यद्यश्नीयात्तु केतितः।
यवीयान् पशुहिंसायां भागार्धं समवाप्नुयात् ॥ ४३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

यदि उसे क्षत्रिय या वैश्यने पहलेसे निमन्त्रण दे रखा हो और वह कहीं अन्यत्र जाकर भोजन कर ले तो छोटा समझे जानेके साथ ही वह पशुहिंसाके आधे पापका भागी होता है॥४३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

दैवं वाप्यथवा पित्र्यं योऽश्नीयाद् ब्राह्मणादिषु।
अस्नातो ब्राह्मणो राजंस्तस्याधर्मो गवानृतम् ॥ ४४ ॥

मूलम्

दैवं वाप्यथवा पित्र्यं योऽश्नीयाद् ब्राह्मणादिषु।
अस्नातो ब्राह्मणो राजंस्तस्याधर्मो गवानृतम् ॥ ४४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

नरेश्वर! जो ब्राह्मण ब्राह्मणादि तीनों वर्णोंके यहाँ देवयज्ञ अथवा श्राद्धमें स्नान किये बिना ही भोजन करता है, उसे गौकी झूठी शपथ खानेके समान पाप लगता है॥४४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

आशौचो ब्राह्मणो राजन्‌ योऽश्नीयाद् ब्राह्मणादिषु।
ज्ञानपूर्वमथो लोभात् तस्याधर्मो गवानृतम् ॥ ४५ ॥

मूलम्

आशौचो ब्राह्मणो राजन्‌ योऽश्नीयाद् ब्राह्मणादिषु।
ज्ञानपूर्वमथो लोभात् तस्याधर्मो गवानृतम् ॥ ४५ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

राजन्! जो ब्राह्मण अपने घरमें अशौच रहते हुए भी लोभवश जान-बूझकर दूसरे ब्राह्मण आदिके यहाँ श्राद्धका अन्न ग्रहण करता है उसे भी गौकी झूठी शपथ खानेका पाप लगता है॥४५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अर्थेनान्येन यो लिप्सेत् कर्मार्थं चैव भारत।
आमन्त्रयति राजेन्द्र तस्याधर्मोऽनृतं स्मृतम् ॥ ४६ ॥

मूलम्

अर्थेनान्येन यो लिप्सेत् कर्मार्थं चैव भारत।
आमन्त्रयति राजेन्द्र तस्याधर्मोऽनृतं स्मृतम् ॥ ४६ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

भरतनन्दन! राजेन्द्र! जो तीर्थयात्रा आदि दूसरा प्रयोजन बताकर उसीके बहाने अपनी जीविकाके लिये धन माँगता है अथवा ‘मुझे अमुक (यज्ञादि) कर्म करनेके लिये धन दीजिये’ ऐसा कहकर जो दाताको अपनी ओर अभिमुख करता है उसके लिये भी वही झूठी शपथ खानेका पाप बताया गया है॥४६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अवेदव्रतचारित्रास्त्रिभिर्वर्णैर्युधिष्ठिर ।
मन्त्रवत्परिविष्यन्ते त्स्याधर्मो गवानृतम् ॥ ४७ ॥

मूलम्

अवेदव्रतचारित्रास्त्रिभिर्वर्णैर्युधिष्ठिर ।
मन्त्रवत्परिविष्यन्ते त्स्याधर्मो गवानृतम् ॥ ४७ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

युधिष्ठिर! जो ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैश्य वेदव्रतका पालन न करनेवाले ब्राह्मणोंको श्राद्धमें मन्त्रोच्चारणपूर्वक अन्न परोसते हैं, उन्हें भी गायकी झूठी शपथ खानेका पाप लगता है॥४७॥

मूलम् (वचनम्)

युधिष्ठिर उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

पित्र्यं वाप्यथवा दैवं दीयते यत् पितामह।
एतदिच्छाम्यहं ज्ञातुं दत्तं केषु महाफलम् ॥ ४८ ॥

मूलम्

पित्र्यं वाप्यथवा दैवं दीयते यत् पितामह।
एतदिच्छाम्यहं ज्ञातुं दत्तं केषु महाफलम् ॥ ४८ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

युधिष्ठिरने पूछा— पितामह! देवयज्ञ अथवा श्राद्ध-कर्ममें जो दान दिया जाता है, वह कैसे पुरुषोंको देनेसे महान् फलकी प्राप्ति करानेवाला होता है? मैं इस बातको जानना चाहता हूँ॥४८॥

मूलम् (वचनम्)

भीष्म उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

येषां दाराः प्रतीक्षन्ते सुवृष्टिमिव कर्षकाः।
उच्छेषपरिशेषं हि तान् भोजय युधिष्ठिर ॥ ४९ ॥

मूलम्

येषां दाराः प्रतीक्षन्ते सुवृष्टिमिव कर्षकाः।
उच्छेषपरिशेषं हि तान् भोजय युधिष्ठिर ॥ ४९ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

भीष्मजीने कहा— युधिष्ठिर! जैसे किसान वर्षाकी बाट जोहता रहता है, उसी प्रकार जिनके घरोंकी स्त्रियाँ अपने स्वामीके खा लेनेपर बचे हुए अन्नकी प्रतीक्षा करती रहती हैं (अर्थात् जिनके घरमें बनी हुई रसोईके सिवा और कोई अन्नका संग्रह न हो), उन निर्धन ब्राह्मणोंको तुम अवश्य भोजन कराओ॥४९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

चारित्रनिरता राजन् ये कृशाः कृशवृत्तयः।
अर्थिनश्चोपगच्छन्ति तेषु दत्तं महाफलम् ॥ ५० ॥

मूलम्

चारित्रनिरता राजन् ये कृशाः कृशवृत्तयः।
अर्थिनश्चोपगच्छन्ति तेषु दत्तं महाफलम् ॥ ५० ॥

अनुवाद (हिन्दी)

राजन्! जो सदाचारपरायण हों, जिनकी जीविकाका साधन नष्ट हो गया हो और इसीलिये भोजन न मिलनेके कारण जो अत्यन्त दुर्बल हो गये हों, ऐसे लोग यदि याचक होकर दाताके पास आते हैं तो उन्हें दिया हुआ दान महान् फलकी प्राप्ति करानेवाला होता है॥५०॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तद्भक्तास्तद्‌गृहा राजंस्तद्बलास्तदपाश्रयाः ।
अर्थिनश्च भवन्त्यर्थे तेषु दत्तं महाफलम् ॥ ५१ ॥

मूलम्

तद्भक्तास्तद्‌गृहा राजंस्तद्बलास्तदपाश्रयाः ।
अर्थिनश्च भवन्त्यर्थे तेषु दत्तं महाफलम् ॥ ५१ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

नरेश्वर! जो सदाचारके ही भक्त हैं, जिनके घरमें सदाचारका ही पालन होता है, जिन्हें सदाचारका ही बल है तथा जिन्होंने सदाचारका ही आश्रय ले रखा है, वे यदि आवश्यकता पड़नेपर याचना करते हैं तो उनको दिया हुआ दान महान् फलकी प्राप्ति करानेवाला होता है॥५१॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तस्करेभ्यः परेभ्यो वा ये भयार्ता युधिष्ठिर।
अर्थिनो भोक्तुमिच्छन्ति तेषु दत्तं महाफलम् ॥ ५२ ॥

मूलम्

तस्करेभ्यः परेभ्यो वा ये भयार्ता युधिष्ठिर।
अर्थिनो भोक्तुमिच्छन्ति तेषु दत्तं महाफलम् ॥ ५२ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

युधिष्ठिर! चोरों और शत्रुओंके भयसे पीड़ित होकर आये हुए जो याचक केवल भोजन चाहते हैं उन्हें दिया हुआ दान महान् फलकी प्राप्ति करानेवाला होता है॥५२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अकल्ककस्य विप्रस्य रौक्ष्यात् करकृतात्मनः।
वटवो यस्य भिक्षन्ति तेभ्यो दत्तं महाफलम् ॥ ५३ ॥

मूलम्

अकल्ककस्य विप्रस्य रौक्ष्यात् करकृतात्मनः।
वटवो यस्य भिक्षन्ति तेभ्यो दत्तं महाफलम् ॥ ५३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

जिसके मनमें किसी तरहका कपट नहीं है, अत्यन्त दरिद्रताके कारण जिसके हाथमें अन्न आते ही उसके भूखे बच्चे ‘मुझे दो,’ ‘मुझे दो’ ऐसा कहकर माँगने लगते हैं; ऐसे निर्धन ब्राह्मण और उसके उन बच्चोंको दिया हुआ दान महान् फलदायक होता है॥५३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

हृतस्वा हृतदाराश्च ये विप्रा देशसम्प्लवे।
अर्थार्थमभिगच्छन्ति तेभ्यो दत्तं महाफलम् ॥ ५४ ॥

मूलम्

हृतस्वा हृतदाराश्च ये विप्रा देशसम्प्लवे।
अर्थार्थमभिगच्छन्ति तेभ्यो दत्तं महाफलम् ॥ ५४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

देशमें विप्लव होनेके समय जिनके धन और स्त्रियाँ छिन गयी हों; वे ब्राह्मण यदि धनकी याचनाके लिये आयें तो उन्हें दिया हुआ दान महान् फलदायक होता है॥५४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

व्रतिनो नियमस्थाश्च ये विप्राः श्रुतसम्मताः।
तत्समाप्त्यर्थमिच्छन्ति तेभ्यो दत्तं महाफलम् ॥ ५५ ॥

मूलम्

व्रतिनो नियमस्थाश्च ये विप्राः श्रुतसम्मताः।
तत्समाप्त्यर्थमिच्छन्ति तेभ्यो दत्तं महाफलम् ॥ ५५ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

जो व्रत और नियममें लगे हुए ब्राह्मण वेद-शास्त्रोंकी सम्मतिके अनुसार चलते हैं और अपने व्रतकी समाप्तिके लिये धन चाहते हैं, उन्हें देनेसे महान् फलकी प्राप्ति होती है॥५५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अत्युक्रान्ताश्च धर्मेषु पाषण्डसमयेषु च।
कृशप्राणाः कृशधनास्तेभ्यो दत्तं महाफलम् ॥ ५६ ॥

मूलम्

अत्युक्रान्ताश्च धर्मेषु पाषण्डसमयेषु च।
कृशप्राणाः कृशधनास्तेभ्यो दत्तं महाफलम् ॥ ५६ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

जो पाखण्डियोंके धर्मसे दूर रहते हैं, जिनके पास धनका अभाव है तथा जो अन्न न मिलनेके कारण दुर्बल हो गये हैं, उनको दिया हुआ दान महान् फलदायक होता है॥५६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

(व्रतानां पारणार्थाय गुर्वर्थे यज्ञदक्षिणाम्।
निवेशार्थं च विद्वांसस्तेषां दत्तं महाफलम्॥

मूलम्

(व्रतानां पारणार्थाय गुर्वर्थे यज्ञदक्षिणाम्।
निवेशार्थं च विद्वांसस्तेषां दत्तं महाफलम्॥

अनुवाद (हिन्दी)

जो विद्वान् पुरुष व्रतोंका पारण, गुरुदक्षिणा, यज्ञदक्षिणा तथा विवाहके लिये धन चाहते हों, उन्हें दिया हुआ दान महान् फलदायक होता है॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

पित्रोश्च रक्षणार्थाय पुत्रदारार्थमेव वा।
महाव्याधिविमोक्षाय तेषु दत्तं महाफलम्॥

मूलम्

पित्रोश्च रक्षणार्थाय पुत्रदारार्थमेव वा।
महाव्याधिविमोक्षाय तेषु दत्तं महाफलम्॥

अनुवाद (हिन्दी)

जो माता-पिताकी रक्षाके लिये, स्त्री-पुत्रोंके पालन तथा महान् रोगोंसे छुटकारा पानेके लिये धन चाहते हैं, उन्हें दिया हुआ दान महान् फलदायक होता है॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

बालाः स्त्रियश्च वाञ्छन्ति सुभक्तं चाप्यसाधनाः।
स्वर्गमायान्ति दत्त्वैषां निरयान् नोपयान्ति ते॥)

मूलम्

बालाः स्त्रियश्च वाञ्छन्ति सुभक्तं चाप्यसाधनाः।
स्वर्गमायान्ति दत्त्वैषां निरयान् नोपयान्ति ते॥)

अनुवाद (हिन्दी)

जो बालक और स्त्रियाँ सब प्रकारके साधनोंसे रहित होनेके कारण केवल भोजन चाहती हैं, उन्हें भोजन देकर दाता स्वर्गमें जाते हैं। वे नरकमें नहीं पड़ते हैं॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

कृतसर्वस्वहरणा निर्दोषाः प्रभविष्णुभिः ।
स्पृहयन्ति च भुक्त्वान्नं तेषु दत्तं महाफलम् ॥ ५७ ॥

मूलम्

कृतसर्वस्वहरणा निर्दोषाः प्रभविष्णुभिः ।
स्पृहयन्ति च भुक्त्वान्नं तेषु दत्तं महाफलम् ॥ ५७ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

प्रभावशाली डाकुओंने जिन निर्दोष मनुष्योंका सर्वस्व छीन लिया हो, अतः जो खानेके लिये अन्न चाहते हों, उन्हें दिया हुआ दान महान् फलदायक होता है॥५७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तपस्विनस्तपोनिष्ठास्तेषां भैक्षचराश्च ये ।
अर्थिनः किञ्चिदिच्छन्ति तेषु दत्तं महाफलम् ॥ ५८ ॥

मूलम्

तपस्विनस्तपोनिष्ठास्तेषां भैक्षचराश्च ये ।
अर्थिनः किञ्चिदिच्छन्ति तेषु दत्तं महाफलम् ॥ ५८ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

जो तपस्वी और तपोनिष्ठ हैं तथा तपस्वी जनोंके लिये ही भीख माँगते हैं, ऐसे याचक यदि कुछ चाहते हैं तो उन्हें दिया हुआ दान महान् फलदायक होता है॥५८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

महाफलविधिर्दाने श्रुतस्ते भरतर्षभ ।
निरयं येन गच्छन्ति स्वर्गं चैव हि तत् शृणु॥५९॥

मूलम्

महाफलविधिर्दाने श्रुतस्ते भरतर्षभ ।
निरयं येन गच्छन्ति स्वर्गं चैव हि तत् शृणु॥५९॥

अनुवाद (हिन्दी)

भरतश्रेष्ठ! किनको दान देनेसे महान् फलकी प्राप्ति होती है, यह विषय मैंने तुम्हें सुना दिया। अब जिन कर्मोंसे मनुष्य नरक या स्वर्गमें जाते हैं, उन्हें सुनो॥५९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

गुर्वर्थमभयार्थं वा वर्जयित्वा युधिष्ठिर।
येऽनृतं कथयन्ति स्म ते वै निरयगामिनः ॥ ६० ॥

मूलम्

गुर्वर्थमभयार्थं वा वर्जयित्वा युधिष्ठिर।
येऽनृतं कथयन्ति स्म ते वै निरयगामिनः ॥ ६० ॥

अनुवाद (हिन्दी)

युधिष्ठिर! गुरुकी भलाईके लिये तथा दूसरेको भयसे मुक्त करनेके लिये जो झूठ बोलनेका अवसर आता है, उसे छोड़कर अन्यत्र जो झूठ बोलते हैं वे मनुष्य निश्चय ही नरकगामी होते हैं॥६०॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

परदाराभिहर्तारः परदाराभिमर्शिनः ।
परदारप्रयोक्तारस्ते वै निरयगामिनः ॥ ६१ ॥

मूलम्

परदाराभिहर्तारः परदाराभिमर्शिनः ।
परदारप्रयोक्तारस्ते वै निरयगामिनः ॥ ६१ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

जो दूसरोंकी स्त्री चुरानेवाले, परायी स्त्रीका सतीत्व नष्ट करनेवाले तथा दूत बनकर परस्त्रीको दूसरोंसे मिलानेवाले हैं, वे निश्चय ही नरकगामी होते हैं॥६१॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

ये परस्वापहर्तारः परस्वानां च नाशकाः।
सूचकाश्च परेषां ये ते वै निरयगामिनः ॥ ६२ ॥

मूलम्

ये परस्वापहर्तारः परस्वानां च नाशकाः।
सूचकाश्च परेषां ये ते वै निरयगामिनः ॥ ६२ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

जो दूसरोंके धनको हड़पनेवाले और नष्ट करनेवाले हैं तथा दूसरोंकी चुगली खानेवाले हैं, उन्हें निश्चय ही नरकमें गिरना पड़ता है॥६२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

प्रपाणां च सभानां च संक्रमाणां च भारत।
अगाराणां च भेत्तारो नरा निरयगामिनः ॥ ६३ ॥

मूलम्

प्रपाणां च सभानां च संक्रमाणां च भारत।
अगाराणां च भेत्तारो नरा निरयगामिनः ॥ ६३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

भरतनन्दन! जो पौंसलों, सभाओं, पुलों और किसीके घरोंको नष्ट करनेवाले हैं, वे मनुष्य निश्चय ही नरकमें पड़ते हैं॥६३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अनाथां प्रमदां बालां वृद्धां भीतां तपस्विनीम्।
वञ्चयन्ति नरा ये च ते वै निरयगामिनः ॥ ६४ ॥

मूलम्

अनाथां प्रमदां बालां वृद्धां भीतां तपस्विनीम्।
वञ्चयन्ति नरा ये च ते वै निरयगामिनः ॥ ६४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

जो लोग अनाथ, बूढ़ी, तरुणी, बालिका, भयभीत और तपस्विनी स्त्रियोंको धोखेमें डालते हैं, वे निश्चय ही नरकगामी होते हैं॥६४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

वृत्तिच्छेदं गृहच्छेदं दारच्छेदं च भारत।
मित्रच्छेदं तथाऽऽशायास्ते वै निरयगामिनः ॥ ६५ ॥

मूलम्

वृत्तिच्छेदं गृहच्छेदं दारच्छेदं च भारत।
मित्रच्छेदं तथाऽऽशायास्ते वै निरयगामिनः ॥ ६५ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

भरतनन्दन! जो दूसरोंकी जीविका नष्ट करते, घर उजाड़ते, पति-पत्नीमें विछोह डालते, मित्रोंमें विरोध पैदा करते और किसीकी आशा भङ्ग करते हैं, वे निश्चय ही नरकमें जाते हैं॥६५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

सूचकाः सेतुभेत्तारः परवृत्त्युपजीवकाः ।
अकृतज्ञाश्च मित्राणां ते वै निरयगामिनः ॥ ६६ ॥

मूलम्

सूचकाः सेतुभेत्तारः परवृत्त्युपजीवकाः ।
अकृतज्ञाश्च मित्राणां ते वै निरयगामिनः ॥ ६६ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

जो चुगली खानेवाले, कुल या धर्मकी मर्यादा नष्ट करनेवाले, दूसरोंकी जीविकापर गुजारा करनेवाले तथा मित्रोंद्वारा किये गये उपकारको भुला देनेवाले हैं, वे निश्चय ही नरकमें पड़ते हैं॥६६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

पाषण्डा दूषकाश्चैव समयानां च दूषकाः।
ये प्रत्यवसिताश्चैव ते वै निरयगामिनः ॥ ६७ ॥

मूलम्

पाषण्डा दूषकाश्चैव समयानां च दूषकाः।
ये प्रत्यवसिताश्चैव ते वै निरयगामिनः ॥ ६७ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

जो पाखण्डी, निन्दक, धार्मिक नियमोंके विरोधी तथा एक बार संन्यास लेकर फिर गृहस्थ-आश्रममें लौट आनेवाले हैं, वे निश्चय ही नरकगामी होते हैं॥६७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

विषमव्यवहाराश्च विषमाश्चैव वृद्धिषु ।
लाभेषु विषमाश्चैव ते वै निरयगामिनः ॥ ६८ ॥

मूलम्

विषमव्यवहाराश्च विषमाश्चैव वृद्धिषु ।
लाभेषु विषमाश्चैव ते वै निरयगामिनः ॥ ६८ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

जिनका व्यवहार सबके प्रति समान नहीं है तथा जो लाभ और वृद्धिमें विषम दृष्टि रखते हैं—ईमानदारीसे उसका वितरण नहीं करते हैं, वे अवश्य ही नरकगामी होते हैं॥६८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

दूतसंव्यवहाराश्च निष्परीक्षाश्च मानवाः ।
प्राणिहिंसाप्रवृत्ताश्च ते वै निरयगामिनः ॥ ६९ ॥

मूलम्

दूतसंव्यवहाराश्च निष्परीक्षाश्च मानवाः ।
प्राणिहिंसाप्रवृत्ताश्च ते वै निरयगामिनः ॥ ६९ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

जो किसी मनुष्यकी परख करनेमें समर्थ नहीं हैं और दूतका काम करते हैं, जिनकी सदा जीवहिंसामें प्रवृत्ति होती है, वे निश्चय ही नरकमें गिरते हैं॥६९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

कृताशं कृतनिर्देशं कृतभक्तं कृतश्रमम्।
भेदैर्ये व्यपकर्षन्ति ते वै निरयगामिनः ॥ ७० ॥

मूलम्

कृताशं कृतनिर्देशं कृतभक्तं कृतश्रमम्।
भेदैर्ये व्यपकर्षन्ति ते वै निरयगामिनः ॥ ७० ॥

अनुवाद (हिन्दी)

जो वेतनपर रखे हुए परिश्रमी नौकरको कुछ देनेकी आशा देकर और देनेका समय नियत करके उसके पहले ही भेदनीतिके द्वारा उसे मालिकके यहाँसे निकलवा देते हैं, वे अवश्य ही नरकमें जाते हैं॥७०॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

पर्यश्नन्ति च ये दारानग्निभृत्यातिथींस्तथा।
उत्सन्नपितृदेवेज्यास्ते वै निरयगामिनः ॥ ७१ ॥

मूलम्

पर्यश्नन्ति च ये दारानग्निभृत्यातिथींस्तथा।
उत्सन्नपितृदेवेज्यास्ते वै निरयगामिनः ॥ ७१ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

जो पितरों और देवताओंके यजन-पूजनका त्याग करके अग्निमें आहुति दिये बिना तथा अतिथि, पोष्यवर्ग और स्त्री-बच्चोंको अन्न दिये बिना ही भोजन कर लेते हैं, वे निःसंदेह नरकगामी होते हैं॥७१॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

वेदविक्रयिणश्चैव वेदानां चैव दूषकाः।
वेदानां लेखकाश्चैव ते वै निरयगामिनः ॥ ७२ ॥

मूलम्

वेदविक्रयिणश्चैव वेदानां चैव दूषकाः।
वेदानां लेखकाश्चैव ते वै निरयगामिनः ॥ ७२ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

जो वेद बेचते हैं, वेदोंकी निन्दा करते हैं और विक्रयके लिये ही वेदोंके मन्त्र लिखते हैं, वे भी निश्चय ही नरकगामी होते हैं॥७२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

चातुराश्रम्यबाह्याश्च श्रुतिबाह्याश्च ये नराः।
विकर्मभिश्च जीवन्ति ते वै निरयगामिनः ॥ ७३ ॥

मूलम्

चातुराश्रम्यबाह्याश्च श्रुतिबाह्याश्च ये नराः।
विकर्मभिश्च जीवन्ति ते वै निरयगामिनः ॥ ७३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

जो मनुष्य चारों आश्रमों और वेदोंकी मर्यादासे बाहर हैं तथा शास्त्रविरुद्ध कर्मोंसे ही जीविका चलाते हैं, उन्हें निश्चय ही नरकमें गिरना पड़ता है॥७३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

केशविक्रयिका राजन् विषविक्रयिकाश्च ये।
क्षीरविक्रयिकाश्चैव ते वै निरयगामिनः ॥ ७४ ॥

मूलम्

केशविक्रयिका राजन् विषविक्रयिकाश्च ये।
क्षीरविक्रयिकाश्चैव ते वै निरयगामिनः ॥ ७४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

राजन्! जो (ब्राह्मण) केश, विष और दूध बेचते हैं, वे भी नरकमें ही जाते हैं॥७४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

ब्राह्मणानां गवां चैव कन्यानां च युधिष्ठिर।
येऽन्तरं यान्ति कार्येषु ते वै निरयगामिनः ॥ ७५ ॥

मूलम्

ब्राह्मणानां गवां चैव कन्यानां च युधिष्ठिर।
येऽन्तरं यान्ति कार्येषु ते वै निरयगामिनः ॥ ७५ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

युधिष्ठिर! जो बाह्मण, गौ तथा कन्याओंके लिये हितकर कार्यमें विघ्न डालते हैं, वे भी अवश्य ही नरकगामी होते हैं॥७५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

शस्त्रविक्रयिकाश्चैव कर्तारश्च युधिष्ठिर ।
शल्यानां धनुषां चैव ते वै निरयगामिनः ॥ ७६ ॥

मूलम्

शस्त्रविक्रयिकाश्चैव कर्तारश्च युधिष्ठिर ।
शल्यानां धनुषां चैव ते वै निरयगामिनः ॥ ७६ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

राजा युधिष्ठिर! जो (ब्राह्मण) हथियार बेचते और धनुष-बाण आदि शस्त्रोंको बनाते हैं, वे नरकगामी होते हैं॥७६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

शिलाभिः शङ्कुभिर्वापि श्वभ्रैर्वा भरतर्षभ।
ये मार्गमनुरुन्धन्ति ते वै निरयगामिनः ॥ ७७ ॥

मूलम्

शिलाभिः शङ्कुभिर्वापि श्वभ्रैर्वा भरतर्षभ।
ये मार्गमनुरुन्धन्ति ते वै निरयगामिनः ॥ ७७ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

भरतश्रेष्ठ! जो पत्थर रखकर, काँटे बिछाकर और गड्ढे खोदकर रास्ता रोकते हैं, वे भी नरकमें ही गिरते हैं॥७७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

उपाध्यायांश्च भृत्यांश्च भक्ताश्चं भरतर्षभ।
ये त्यजन्त्यविकारांस्त्रींस्ते वै निरयगामिनः ॥ ७८ ॥

मूलम्

उपाध्यायांश्च भृत्यांश्च भक्ताश्चं भरतर्षभ।
ये त्यजन्त्यविकारांस्त्रींस्ते वै निरयगामिनः ॥ ७८ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

भरतभूषण! जो अध्यापकों, सेवकों तथा अपने भक्तोंको बिना किसी अपराधके ही त्याग देते हैं, उन्हें भी नरकमें ही गिरना पड़ता है॥७८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अप्राप्तदमकाश्चैव नासानां वेधकाश्च ये।
बन्धकाश्च पशूनां ये ते वै निरयगामिनः ॥ ७९ ॥

मूलम्

अप्राप्तदमकाश्चैव नासानां वेधकाश्च ये।
बन्धकाश्च पशूनां ये ते वै निरयगामिनः ॥ ७९ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

जो काबूमें न आनेवाले पशुओंका दमन करते, नाथते अथवा कटघरेमें बंद करते हैं, वे नरकगामी होते हैं॥७९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अगोप्तारश्च राजानो बलिषड्भागतस्कराः ।
समर्थाश्चाप्यदातारस्ते वै निरयगामिनः ॥ ८० ॥

मूलम्

अगोप्तारश्च राजानो बलिषड्भागतस्कराः ।
समर्थाश्चाप्यदातारस्ते वै निरयगामिनः ॥ ८० ॥

अनुवाद (हिन्दी)

जो राजा होकर भी प्रजाकी रक्षा नहीं करते और उसकी आमदनीके छठे भागको लगानके रूपमें लूटते रहते हैं तथा जो समर्थ होनेपर भी दान नहीं करते, उन्हें भी निःसंदेह नरकमें जाना पड़ता है॥८०॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

(संश्रुत्य चाप्रदातारो दरिद्राणां विनिन्दकाः।
श्रोत्रियाणां विनीतानां दरिद्राणां विशेषतः॥
क्षमिणां निन्दकाश्चैव ते वै निरयगामिनः।)

मूलम्

(संश्रुत्य चाप्रदातारो दरिद्राणां विनिन्दकाः।
श्रोत्रियाणां विनीतानां दरिद्राणां विशेषतः॥
क्षमिणां निन्दकाश्चैव ते वै निरयगामिनः।)

अनुवाद (हिन्दी)

जो देनेकी प्रतिज्ञा करके भी नहीं देते, दरिद्रोंकी एवं विनयशील निर्धन श्रोत्रियोंकी और क्षमाशीलोंकी निन्दा करते हैं, वे भी अवश्य ही नरकमें जाते हैं॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

क्षान्तान्‌ दान्तांस्तथा प्राज्ञान् दीर्घकालं सहोषितान्।
त्यजन्ति कृतकृत्या ये ते वै निरयगामिनः ॥ ८१ ॥

मूलम्

क्षान्तान्‌ दान्तांस्तथा प्राज्ञान् दीर्घकालं सहोषितान्।
त्यजन्ति कृतकृत्या ये ते वै निरयगामिनः ॥ ८१ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

जो क्षमाशील, जितेन्द्रिय तथा दीर्घकालतक साथ रहे हुए विद्वानोंको अपना काम निकल जानेके बाद त्याग देते हैं, वे नरकमें गिरते हैं॥८१॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

बालानामथ वृद्धानां दासानां चैव ये नराः।
अदत्त्वा भक्षयन्त्यग्रे ते वै निरयगामिनः ॥ ८२ ॥

मूलम्

बालानामथ वृद्धानां दासानां चैव ये नराः।
अदत्त्वा भक्षयन्त्यग्रे ते वै निरयगामिनः ॥ ८२ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

जो बालकों, बूढ़ों और सेवकोंको दिये बिना ही पहले स्वयं भोजन कर लेते हैं, वे भी निःसंदेह नरकगामी होते हैं॥८२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

एते पूर्वं विनिर्दिष्टाः प्रोक्ता निरयगामिनः।
भागिनः स्वर्गलोकस्य वक्ष्यामि भरतर्षभ ॥ ८३ ॥

मूलम्

एते पूर्वं विनिर्दिष्टाः प्रोक्ता निरयगामिनः।
भागिनः स्वर्गलोकस्य वक्ष्यामि भरतर्षभ ॥ ८३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

भरतश्रेष्ठ! पहलेके संकेतके अनुसार यहाँ नरकगामी मनुष्योंका वर्णन किया गया है। अब स्वर्गलोकमें जानेवालोंका परिचय देता हूँ, सुनो॥८३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

सर्वेष्वेव तु कार्येषु दैवपूर्वेषु भारत।
हन्ति पुत्रान् पशून् कृत्स्नान्‌ ब्राह्मणातिक्रमः कृतः ॥ ८४ ॥

मूलम्

सर्वेष्वेव तु कार्येषु दैवपूर्वेषु भारत।
हन्ति पुत्रान् पशून् कृत्स्नान्‌ ब्राह्मणातिक्रमः कृतः ॥ ८४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

भरतनन्दन! जिनमें पहले देवताओंकी पूजा की जाती है, उन समस्त कार्योंमें यदि ब्राह्मणका अपमान किया जाय तो वह अपमान करनेवालेके समस्त पुत्रों और पशुओंका नाश कर देता है॥८४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

दानेन तपसा चैव सत्येन च युधिष्ठिर।
ये धर्ममनुवर्तन्ते ते नराः स्वर्गगामिनः ॥ ८५ ॥

मूलम्

दानेन तपसा चैव सत्येन च युधिष्ठिर।
ये धर्ममनुवर्तन्ते ते नराः स्वर्गगामिनः ॥ ८५ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

जो दान, तपस्या और सत्यके द्वारा धर्मका अनुष्ठान करते हैं, वे मनुष्य स्वर्गगामी होते हैं॥८५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

शुश्रूषाभिस्तपोभिश्च विद्यामादाय भारत ।
ये प्रतिग्रहनिःस्नेहास्ते नराः स्वर्गगामिनः ॥ ८६ ॥

मूलम्

शुश्रूषाभिस्तपोभिश्च विद्यामादाय भारत ।
ये प्रतिग्रहनिःस्नेहास्ते नराः स्वर्गगामिनः ॥ ८६ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

भारत! जो गुरुशुश्रूषा और तपस्यापूर्वक वेदाध्ययन करके प्रतिग्रहमें आसक्त नहीं होते, वे लोग स्वर्गगामी होते हैं॥८६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

भयात्पापात्तथा बाधाद्‌ दारिद्र्याद् व्याधिधर्षणात्।
यत्कृते प्रतिमुच्यन्ते ते नराः स्वर्गगामिनः ॥ ८७ ॥

मूलम्

भयात्पापात्तथा बाधाद्‌ दारिद्र्याद् व्याधिधर्षणात्।
यत्कृते प्रतिमुच्यन्ते ते नराः स्वर्गगामिनः ॥ ८७ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

जिनके प्रयत्नसे मनुष्य भय, पाप, बाधा, दरिद्रता तथा व्याधिजनित पीड़ासे छुटकारा पा जाते हैं, वे लोग स्वर्गमें जाते हैं॥८७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

क्षमावन्तश्च धीराश्च धर्मकार्येषु चोत्थिताः।
मङ्गलाचारसम्पन्नाः पुरुषाः स्वर्गगामिनः ॥ ८८ ॥

मूलम्

क्षमावन्तश्च धीराश्च धर्मकार्येषु चोत्थिताः।
मङ्गलाचारसम्पन्नाः पुरुषाः स्वर्गगामिनः ॥ ८८ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

जो क्षमावान्, धीर, धर्मकार्यके लिये उद्यत रहनेवाले और मांगलिक आचारसे सम्पन्न हैं, वे पुरुष भी स्वर्गगामी होते हैं॥८८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

निवृत्ता मधुमांसेभ्यः परदारेभ्य एव च।
निवृत्ताश्चैव मद्येभ्यस्ते नराः स्वर्गगामिनः ॥ ८९ ॥

मूलम्

निवृत्ता मधुमांसेभ्यः परदारेभ्य एव च।
निवृत्ताश्चैव मद्येभ्यस्ते नराः स्वर्गगामिनः ॥ ८९ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

जो मद, मांस, मदिरा और परस्त्रीसे दूर रहते हैं, वे मनुष्य स्वर्गलोकमें जाते हैं॥८९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

आश्रमाणां च कर्तारः कुलानां चैव भारत।
देशानां नगराणां च ते नराः स्वर्गगामिनः ॥ ९० ॥

मूलम्

आश्रमाणां च कर्तारः कुलानां चैव भारत।
देशानां नगराणां च ते नराः स्वर्गगामिनः ॥ ९० ॥

अनुवाद (हिन्दी)

भारत! जो आश्रम, कुल, देश और नगरके निर्माता तथा संरक्षक हैं, वे पुरुष स्वर्गमें जाते हैं॥९०॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

वस्त्राभरणदातारो भक्तपानान्नदास्तथा ।
कुटुम्बानां च दातारः पुरुषाः स्वर्गगामिनः ॥ ९१ ॥

मूलम्

वस्त्राभरणदातारो भक्तपानान्नदास्तथा ।
कुटुम्बानां च दातारः पुरुषाः स्वर्गगामिनः ॥ ९१ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

जो वस्त्र, आभूषण, भोजन, पानी तथा अन्न दान करते हैं एवं दूसरोंके कुटुम्बकी वृद्धिमें सहायक होते हैं, वे पुरुष स्वर्गलोकमें जाते हैं॥९१॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

सर्वहिंसानिवृत्ताश्च नराः सर्वसहाश्च ये।
सर्वल्याश्रयभूताश्च ते नराः स्वर्गगामिनः ॥ ९२ ॥

मूलम्

सर्वहिंसानिवृत्ताश्च नराः सर्वसहाश्च ये।
सर्वल्याश्रयभूताश्च ते नराः स्वर्गगामिनः ॥ ९२ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

जो सब प्रकारकी हिंसाओंसे अलग रहते हैं, सब कुछ सहते हैं और सबको आश्रय देते रहते हैं, वे मनुष्य स्वर्गलोकमें जाते हैं॥९२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

मातरं पितरं चैव शुश्रूषन्ति जितेन्द्रियाः।
भ्रातॄणां चैव सस्नेहास्ते नराः स्वर्गगामिनः ॥ ९३ ॥

मूलम्

मातरं पितरं चैव शुश्रूषन्ति जितेन्द्रियाः।
भ्रातॄणां चैव सस्नेहास्ते नराः स्वर्गगामिनः ॥ ९३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

जो जितेन्द्रिय होकर माता-पिताकी सेवा करते हैं तथा भाइयोंपर स्नेह रखते हैं, वे लोग स्वर्गलोकमें जाते हैं॥९३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

आढ्याश्च बलवन्तश्च यौवनस्थाश्च भारत।
ये वै जितेन्द्रिया धीरास्ते नराः स्वर्गगामिनः ॥ ९४ ॥

मूलम्

आढ्याश्च बलवन्तश्च यौवनस्थाश्च भारत।
ये वै जितेन्द्रिया धीरास्ते नराः स्वर्गगामिनः ॥ ९४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

भारत! जो धनी, बलवान् और नौजवान होकर भी अपनी इन्द्रियोंको वशमें रखते हैं, वे धीर पुरुष स्वर्गगामी होते हैं॥९४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अपराधिषु सस्नेहा मृदवो मृदुवत्सलाः।
आराधनसुखाश्चापि पुरुषाः स्वर्गगामिनः ॥ ९५ ॥

मूलम्

अपराधिषु सस्नेहा मृदवो मृदुवत्सलाः।
आराधनसुखाश्चापि पुरुषाः स्वर्गगामिनः ॥ ९५ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

जो अपराधियोंके प्रति भी दया रखते हैं, जिनका स्वभाव मृदुल होता है, जो मृदुल स्वभाववाले व्यक्तियोंपर प्रेम रखते हैं तथा जिन्हें दूसरोंकी आराधना (सेवा) करनेमें ही सुख मिलता है, वे मनुष्य स्वर्गलोकमें जाते हैं॥९५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

सहस्रपरिवेष्टारस्तथैव च सहस्रदाः ।
त्रातारश्च सहस्राणां ते नराः स्वर्गगामिनः ॥ ९६ ॥

मूलम्

सहस्रपरिवेष्टारस्तथैव च सहस्रदाः ।
त्रातारश्च सहस्राणां ते नराः स्वर्गगामिनः ॥ ९६ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

जो मनुष्य सहस्रों मनुष्योंको भोजन परोसते, सहस्रोंको दान देते तथा सहस्रोंकी रक्षा करते हैं, वे स्वर्गगामी होते हैं॥९६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

सुवर्णस्य च दातारो गवां च भरतर्षभ।
यानानां वाहनानां च ते नराः स्वर्गगामिनः ॥ ९७ ॥

मूलम्

सुवर्णस्य च दातारो गवां च भरतर्षभ।
यानानां वाहनानां च ते नराः स्वर्गगामिनः ॥ ९७ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

भरतश्रेष्ठ! जो सुवर्ण, गौ, पालकी और सवारीका दान करते हैं, वे मनुष्य स्वर्गलोकमें जाते हैं॥९७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

वैवाहिकानां द्रव्याणां प्रेष्याणां च युधिष्ठिर।
दातारो वाससां चैव ते नराः स्वर्गगामिनः ॥ ९८ ॥

मूलम्

वैवाहिकानां द्रव्याणां प्रेष्याणां च युधिष्ठिर।
दातारो वाससां चैव ते नराः स्वर्गगामिनः ॥ ९८ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

युधिष्ठिर! जो वैवाहिक द्रव्य, दास-दासी तथा वस्त्र दान करते हैं, वे मनुष्य स्वर्गगामी होते हैं॥९८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

विहारावसथोद्यानकूपारामसभाप्रपाः ।
वप्राणां चैव कर्तारस्ते नराः स्वर्गगामिनः ॥ ९९ ॥

मूलम्

विहारावसथोद्यानकूपारामसभाप्रपाः ।
वप्राणां चैव कर्तारस्ते नराः स्वर्गगामिनः ॥ ९९ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

जो दूसरोंके लिये आश्रम, गृह, उद्यान, कुआँ, बागीचा, धर्मशाला, पौंसला तथा चहारदीवारी बनवाते हैं, वे लोग स्वर्गलोकमें जाते हैं॥९९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

निवेशनानां क्षेत्राणां वसतीनां च भारत।
दातारः प्रार्थितानां च ते नराः स्वर्गगामिनः ॥ १०० ॥

मूलम्

निवेशनानां क्षेत्राणां वसतीनां च भारत।
दातारः प्रार्थितानां च ते नराः स्वर्गगामिनः ॥ १०० ॥

अनुवाद (हिन्दी)

भरतनन्दन! जो याचकोंकी याचनाके अनुसार घर, खेत और गाँव प्रदान करते हैं, वे मनुष्य स्वर्गलोकमें जाते हैं॥१००॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

रसानां चाथ बीजानां धान्यानां च युधिष्ठिर।
स्वयमुत्पाद्य दातारः पुरुषाः स्वर्गगामिनः ॥ १०१ ॥

मूलम्

रसानां चाथ बीजानां धान्यानां च युधिष्ठिर।
स्वयमुत्पाद्य दातारः पुरुषाः स्वर्गगामिनः ॥ १०१ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

युधिष्ठिर! जो स्वयं ही पैदा करके रस, बीज और अन्नका दान करते हैं, वे पुरुष स्वर्गगामी होते हैं॥१०१॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

यस्मिंस्तस्मिन् कुले जाता बहुपुत्राः शतायुषः।
सानुक्रोशा जितक्रोधाः पुरुषाः स्वर्गगामिनः ॥ १०२ ॥

मूलम्

यस्मिंस्तस्मिन् कुले जाता बहुपुत्राः शतायुषः।
सानुक्रोशा जितक्रोधाः पुरुषाः स्वर्गगामिनः ॥ १०२ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

जो किसी भी कुलमें उत्पन्न हो बहुत-से पुत्रों और सौ वर्षकी आयुसे युक्त होते हैं, दूसरोंपर दया करते हैं और क्रोधको काबूमें रखते हैं, वे पुरुष स्वर्गलोकमें जाते हैं॥१०२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

एतदुक्तममुत्रार्थं दैवं पित्र्यं च भारत।
दानधर्मं च दानस्य यत् पूर्वमृषिभिः कृतम् ॥ १०३ ॥

मूलम्

एतदुक्तममुत्रार्थं दैवं पित्र्यं च भारत।
दानधर्मं च दानस्य यत् पूर्वमृषिभिः कृतम् ॥ १०३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

भारत! यह मैंने तुमसे परलोकमें कल्याण करनेवाले देवकार्य और पितृकार्यका वर्णन किया तथा प्राचीनकालमें ऋषियोंद्वारा बतलाये हुए दानधर्म और दानकी महिमाका भी निरूपण किया है॥१०३॥

मूलम् (समाप्तिः)

इति श्रीमहाभारते अनुशासनपर्वणि दानधर्मपर्वणि स्वर्गनरकगामिवर्णने त्रयोविंशोऽध्यायः ॥ २३ ॥

मूलम् (वचनम्)

इस प्रकार श्रीमहाभारत अनुशासनपर्वके अन्तर्गत दानधर्मपर्वमें स्वर्ग और नरकमें जानेवालोंका वर्णनविषयक तेईसवाँ अध्याय पूरा हुआ॥२३॥

सूचना (हिन्दी)

(दाक्षिणात्य अधिक पाठके ८ श्लोक मिलाकर कुल १११ श्लोक हैं)


  1. जब कोई अपनी कन्याको इस शर्तपर ब्याहता है कि ‘इससे जो पहला पुत्र होगा, उसे मैं गोद ले लूँगा और अपना पुत्र मानूँगा’ तो उसे ‘पुत्रिकाधर्मके अनुसार विवाह’ कहते हैं। इस नियमसे प्राप्त होनेवाला पुत्र श्राद्धका अधिकारी नहीं है। ↩︎