भागसूचना
द्वाविंशोऽध्यायः
सूचना (हिन्दी)
युधिष्ठिरके विविध धर्मयुक्त प्रश्नोंका उत्तर तथा श्राद्ध और दानके उत्तम पात्रोंका लक्षण
[मार्कण्डेयजीके द्वारा विविध प्रश्न और नारदजीके द्वारा उनका उत्तर]
मूलम् (वचनम्)
(युधिष्ठिर उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
पुत्रैः कथं महाराज पुरुषस्तरितो भवेत्।
यावन्न लब्धवान् पुत्रमफलः पुरुषो नृप॥
मूलम्
पुत्रैः कथं महाराज पुरुषस्तरितो भवेत्।
यावन्न लब्धवान् पुत्रमफलः पुरुषो नृप॥
अनुवाद (हिन्दी)
युधिष्ठिरने पूछा— नरेश्वर! महाराज! पुत्रोंद्वारा पुरुषका कैसे उद्धार होता है? जबतक पुत्रकी प्राप्ति न हो तबतक पुरुषका जीवन निष्फल क्यों माना जाता है?॥
मूलम् (वचनम्)
भीष्म उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
अत्राप्युदाहरन्तीममितिहासं पुरातनम् ।
नारदेन पुरा गीतं मार्कण्डेयाय पृच्छते॥
मूलम्
अत्राप्युदाहरन्तीममितिहासं पुरातनम् ।
नारदेन पुरा गीतं मार्कण्डेयाय पृच्छते॥
अनुवाद (हिन्दी)
भीष्मजीने कहा— राजन्! इस विषयमें इस प्राचीन इतिहासका उदाहरण दिया जाता है। पूर्वकालमें मार्कण्डेयके पूछनेपर देवर्षि नारदने जो उपदेश दिया था, उसीका इस इतिहासमें उल्लेख हुआ है॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
पर्वतं नारदं चैवमसितं देवलं च तम्।
आरुणेयं च रैभ्यं च एतानत्रागतान् पुरा॥
गङ्गायमुनयोर्मध्ये भोगवत्याः समागमे ।
दृष्ट्वा पूर्वसमासीनान् मार्कण्डेयोऽभ्यगच्छत ॥
मूलम्
पर्वतं नारदं चैवमसितं देवलं च तम्।
आरुणेयं च रैभ्यं च एतानत्रागतान् पुरा॥
गङ्गायमुनयोर्मध्ये भोगवत्याः समागमे ।
दृष्ट्वा पूर्वसमासीनान् मार्कण्डेयोऽभ्यगच्छत ॥
अनुवाद (हिन्दी)
पहलेकी बात है, गंगा-यमुनाके मध्यभागमें जहाँ भोगवतीका समागम हुआ है वहीं पर्वत, नारद, असित, देवल, आरुणेय और रैभ्य—ये ऋषि एकत्र हुए थे। इन सब ऋषियोंको वहाँ पहलेसे विराजमान देख मार्कण्डेयजी भी गये॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ऋषयस्तु मुनिं दृष्ट्वा समुत्थायोन्मुखाः स्थिताः।
अर्चयित्वार्हतो विप्रं किं कुर्म इति चाब्रुवन्॥
मूलम्
ऋषयस्तु मुनिं दृष्ट्वा समुत्थायोन्मुखाः स्थिताः।
अर्चयित्वार्हतो विप्रं किं कुर्म इति चाब्रुवन्॥
अनुवाद (हिन्दी)
ऋषियोंने जब मुनिको आते देखा, तब वे सब-के-सब उठकर उनकी ओर मुख करके खड़े हो गये और उन ब्रह्मर्षिकी उनके योग्य पूजा करके सबने पूछा—‘हम आपकी क्या सेवा करें?’॥
मूलम् (वचनम्)
मार्कण्डेय उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
अयं समागमः सद्भिर्यत्नेनासादितो मया।
अत्र प्राप्स्यामि धर्माणामाचारस्य च निश्चयम्॥
मूलम्
अयं समागमः सद्भिर्यत्नेनासादितो मया।
अत्र प्राप्स्यामि धर्माणामाचारस्य च निश्चयम्॥
अनुवाद (हिन्दी)
मार्कण्डेयजीने कहा— मैंने बड़े यत्नसे सत्पुरुषोंका यह संग प्राप्त किया है। मुझे आशा है, यहाँ धर्म और आचारका निर्णय प्राप्त होगा॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ऋजुः कृतयुगे धर्मस्तस्मिन् क्षीणे विमुह्यति।
युगे युगे महर्षिभ्यो धर्ममिच्छामि वेदितुम्॥
मूलम्
ऋजुः कृतयुगे धर्मस्तस्मिन् क्षीणे विमुह्यति।
युगे युगे महर्षिभ्यो धर्ममिच्छामि वेदितुम्॥
अनुवाद (हिन्दी)
सत्ययुगमें धर्मका अनुष्ठान सरल होता है। उस युगके समाप्त हो जानेपर धर्मका स्वरूप मनुष्योंके मोहसे आच्छन्न हो जाता है; अतः प्रत्येक युगके धर्मका क्या स्वरूप है? इसे मैं आप सब महर्षियोंसे जानना चाहता हूँ॥
मूलम् (वचनम्)
भीष्म उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
ऋषिभिर्नारदः प्रोक्तो ब्रूहि यत्रास्य संशयः।
धर्माधर्मेषु तत्त्वज्ञ त्वं विच्छेत्तासि संशयान्॥
मूलम्
ऋषिभिर्नारदः प्रोक्तो ब्रूहि यत्रास्य संशयः।
धर्माधर्मेषु तत्त्वज्ञ त्वं विच्छेत्तासि संशयान्॥
अनुवाद (हिन्दी)
भीष्मजी कहते हैं— राजन्! तब सब ऋषियोंने मिलकर नारदजीसे कहा—‘तत्त्वज्ञ देवर्षे! मार्कण्डेयजीको जिस विषयमें संदेह है उसका आप निरूपण कीजिये। क्योंकि धर्म और अधर्मके विषयमें होनेवाले समस्त संशयोंका निवारण करनेमें आप समर्थ हैं’॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ऋषिभ्योऽनुमतो वाक्यं नियोगान्नारदोऽब्रवीत् ।
सर्वधर्मार्थतत्त्वज्ञं मार्कण्डेयं ततोऽब्रवीत् ॥
मूलम्
ऋषिभ्योऽनुमतो वाक्यं नियोगान्नारदोऽब्रवीत् ।
सर्वधर्मार्थतत्त्वज्ञं मार्कण्डेयं ततोऽब्रवीत् ॥
अनुवाद (हिन्दी)
ऋषियोंकी यह अनुमति और आदेश पाकर नारदजीने सम्पूर्ण धर्म और अर्थके तत्त्वको जाननेवाले मार्कण्डेयजीसे पूछा॥
मूलम् (वचनम्)
नारद उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
दीर्घायो तपसा दीप्त वेदवेदाङ्गतत्त्ववित्।
यत्र ते संशयो ब्रह्मन् समुत्पन्नः स उच्यताम्॥
मूलम्
दीर्घायो तपसा दीप्त वेदवेदाङ्गतत्त्ववित्।
यत्र ते संशयो ब्रह्मन् समुत्पन्नः स उच्यताम्॥
अनुवाद (हिन्दी)
नारदजी बोले— तपस्यासे प्रकाशित होनेवाले दीर्घायु मार्कण्डेयजी! आप तो स्वयं ही वेदों और वेदांगोंके तत्त्वको जाननेवाले हैं, तथापि ब्रह्मन्! जहाँ आपको संशय उत्पन्न हुआ हो वह विषय उपस्थित कीजिये॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
धर्मं लोकोपकारं वा यच्चान्यच्छ्रोतुमिच्छसि।
तदहं कथयिष्यामि ब्रूहि त्वं सुमहातपाः॥
मूलम्
धर्मं लोकोपकारं वा यच्चान्यच्छ्रोतुमिच्छसि।
तदहं कथयिष्यामि ब्रूहि त्वं सुमहातपाः॥
अनुवाद (हिन्दी)
महातपस्वी महर्षे! धर्म, लोकोपकार अथवा और जिस किसी विषयमें आप सुनना चाहते हों उसे कहिये। मैं उस विषयका निरूपण करूँगा॥
मूलम् (वचनम्)
मार्कण्डेय उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
युगे युगे व्यतीतेऽस्मिन् धर्मसेतुः प्रणश्यति।
कथं धर्मच्छलेनाहं प्राप्नुयामिति मे मतिः॥
मूलम्
युगे युगे व्यतीतेऽस्मिन् धर्मसेतुः प्रणश्यति।
कथं धर्मच्छलेनाहं प्राप्नुयामिति मे मतिः॥
अनुवाद (हिन्दी)
मार्कण्डेयजी बोले— प्रत्येक युगके बीत जानेपर धर्मकी मर्यादा नष्ट हो जाती है। फिर धर्मके बहानेसे अधर्म करनेपर मैं उस धर्मका फल कैसे प्राप्त कर सकता हूँ? मेरे मनमें यही प्रश्न उठता है॥
मूलम् (वचनम्)
नारद उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
आसीद् धर्मः पुरा विप्र चतुष्पादः कृते युगे।
ततो ह्यधर्मः कालेन प्रवृत्तः किञ्चिदुन्नतः॥
मूलम्
आसीद् धर्मः पुरा विप्र चतुष्पादः कृते युगे।
ततो ह्यधर्मः कालेन प्रवृत्तः किञ्चिदुन्नतः॥
अनुवाद (हिन्दी)
नारदजीने कहा— विप्रवर! पहले सत्ययुगमें धर्म अपने चारों पैरोंसे युक्त होकर सबके द्वारा पालित होता था। तदनन्तर समयानुसार अधर्मकी प्रवृत्ति हुई और उसने अपना सिर कुछ ऊँचा किया॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ततस्त्रेतायुगं नाम प्रवृत्तं धर्मदूषणम्।
तस्मिन् व्यतीते सम्प्राप्तं तृतीयं द्वापरं युगम्॥
तदा धर्मस्य द्वौ पादावधर्मो नाशयिष्यति।
मूलम्
ततस्त्रेतायुगं नाम प्रवृत्तं धर्मदूषणम्।
तस्मिन् व्यतीते सम्प्राप्तं तृतीयं द्वापरं युगम्॥
तदा धर्मस्य द्वौ पादावधर्मो नाशयिष्यति।
अनुवाद (हिन्दी)
तदनन्तर धर्मको अंशतः दूषित करनेवाले त्रेतानामक दूसरे युगकी प्रवृत्ति हुई। जब वह भी बीत गया तब तीसरे युग द्वापरका पदार्पण हुआ। उस समय धर्मके दो पैरोंको अधर्म नष्ट कर देता है॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
द्वापरे तु परिक्षीणे नन्दिके समुपस्थिते॥
लोकवृत्तं च धर्मं च उच्यमानं निबोध मे।
मूलम्
द्वापरे तु परिक्षीणे नन्दिके समुपस्थिते॥
लोकवृत्तं च धर्मं च उच्यमानं निबोध मे।
अनुवाद (हिन्दी)
द्वापरके नष्ट होनेपर जब नन्दिक (कलियुग) उपस्थित होता है उस समय लोकाचार और धर्मका जैसा स्वरूप रह जाता है, उसे बताता हूँ, सुनिये॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
चतुर्थं नन्दिकं नाम धर्मः पादावशेषितः॥
ततः प्रभृति जायन्ते क्षीणप्रज्ञायुषो नराः।
क्षीणप्राणधना लोके धर्माचारबहिष्कृताः ॥
मूलम्
चतुर्थं नन्दिकं नाम धर्मः पादावशेषितः॥
ततः प्रभृति जायन्ते क्षीणप्रज्ञायुषो नराः।
क्षीणप्राणधना लोके धर्माचारबहिष्कृताः ॥
अनुवाद (हिन्दी)
चौथे युगका नाम है नन्दिक। उस समय धर्मका एक ही पाद (अंश) शेष रह जाता है। तभीसे मन्दबुद्धि और अल्पायु मनुष्य उत्पन्न होने लगते हैं। लोकमें उनकी प्राणशक्ति बहुत कम हो जाती है। वे निर्धन तथा धर्म और सदाचारसे बहिष्कृत होते हैं॥
मूलम् (वचनम्)
मार्कण्डेय उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
एवं विलुलिते धर्मे लोके चाधर्मसंयुते।
किं चतुर्वर्णनियतं हव्यं कव्यं न नश्यति॥
मूलम्
एवं विलुलिते धर्मे लोके चाधर्मसंयुते।
किं चतुर्वर्णनियतं हव्यं कव्यं न नश्यति॥
अनुवाद (हिन्दी)
मार्कण्डेयजीने पूछा— जब इस प्रकार धर्मका लोप होकर जगत्में अधर्म छा जाता है तब चारों वर्णोंके लिये नियत हव्य और कव्यका नाश क्यों नहीं हो जाता है?॥
मूलम् (वचनम्)
नारद उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
मन्त्रपूतं सदा हव्यं कव्यं चैव न नश्यति।
प्रतिगृह्णन्ति तद् देवा दातुर्न्यायात् प्रयच्छतः॥
मूलम्
मन्त्रपूतं सदा हव्यं कव्यं चैव न नश्यति।
प्रतिगृह्णन्ति तद् देवा दातुर्न्यायात् प्रयच्छतः॥
अनुवाद (हिन्दी)
नारदजीने कहा— वेदमन्त्रसे सदा पवित्र होनेके कारण हव्य और कव्य नहीं नष्ट होते हैं। यदि दाता न्यायपूर्वक उनका दान करते हैं तो देवता और पितर उन्हें सादर ग्रहण करते हैं॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
सत्त्वयुक्तश्च दाता च सर्वान् कामानवाप्नुयात्।
अवाप्तकामः स्वर्गे च महीयेत यथेप्सितम्॥
मूलम्
सत्त्वयुक्तश्च दाता च सर्वान् कामानवाप्नुयात्।
अवाप्तकामः स्वर्गे च महीयेत यथेप्सितम्॥
अनुवाद (हिन्दी)
जो दाता सात्त्विक भावसे युक्त होता है, वह इस लोकमें सम्पूर्ण मनोवाञ्छित कामनाओंको प्राप्त कर लेता है। यहाँ आप्तकाम होकर वह स्वर्गमें भी अपनी इच्छाके अनुसार सम्मानित होता है॥
मूलम् (वचनम्)
मार्कण्डेय उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
चत्वारो ह्यथ ये वर्णा हव्यं कव्यं प्रदास्यते।
मन्त्रहीनमवज्ञातं तेषां दत्तं क्व गच्छति॥
मूलम्
चत्वारो ह्यथ ये वर्णा हव्यं कव्यं प्रदास्यते।
मन्त्रहीनमवज्ञातं तेषां दत्तं क्व गच्छति॥
अनुवाद (हिन्दी)
मार्कण्डेयजीने पूछा— यहाँ जो चार वर्णके लोग हैं, उनके द्वारा यदि मन्त्ररहित और अवहेलना-पूर्वक हव्य-कव्यका दान दिया जाय तो उनका वह दान कहाँ जाता है?॥
मूलम् (वचनम्)
नारद उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
असुरान् गच्छते दत्तं विप्रै रक्षांसि क्षत्रियैः।
वैश्यैः प्रेतानि वै दत्तं शूद्रैर्भूतानि गच्छति॥
मूलम्
असुरान् गच्छते दत्तं विप्रै रक्षांसि क्षत्रियैः।
वैश्यैः प्रेतानि वै दत्तं शूद्रैर्भूतानि गच्छति॥
अनुवाद (हिन्दी)
नारदजीने कहा— यदि ब्राह्मणोंने वैसा दान किया है तो वह असुरोंको प्राप्त होता है, क्षत्रियोंने किया है तो उसे राक्षस ले जाते हैं, वैश्योंद्वारा किये गये वैसे दानको प्रेत ग्रहण करते हैं और शूद्रोंद्वारा किया गया अवज्ञापूर्वक दान भूतोंको प्राप्त होता है॥
मूलम् (वचनम्)
मार्कण्डेय उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
अथ वर्णावरे जाताश्चातुर्वर्ण्योपदेशिनः ।
दास्यन्ति हव्यकव्यानि तेषां दत्तं क्व गच्छति॥
मूलम्
अथ वर्णावरे जाताश्चातुर्वर्ण्योपदेशिनः ।
दास्यन्ति हव्यकव्यानि तेषां दत्तं क्व गच्छति॥
अनुवाद (हिन्दी)
मार्कण्डेयजीने पूछा— जो नीच वर्णमें उत्पन्न होकर चारों वर्णोंको उपदेश देते और हव्य-कव्यका दान देते हैं, उनका दिया हुआ दान कहाँ जाता है?॥
मूलम् (वचनम्)
नारद उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
वर्णावराणां भूतानां हव्यकव्यप्रदातृणाम् ।
नैव देवा न पितरः प्रतिगृह्णन्ति तत् स्वयम्॥
मूलम्
वर्णावराणां भूतानां हव्यकव्यप्रदातृणाम् ।
नैव देवा न पितरः प्रतिगृह्णन्ति तत् स्वयम्॥
अनुवाद (हिन्दी)
नारदजीने कहा— जब नीच वर्णके लोग हव्य-कव्यका दान करते हैं, तब उनके उस दानको न देवता ग्रहण करते हैं न पितर॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
यातुधानाः पिशाचाश्च भूता ये चापि नैर्ऋताः।
तेषां सा विहिता वृत्तिः पितृदैवतनिर्गता॥
मूलम्
यातुधानाः पिशाचाश्च भूता ये चापि नैर्ऋताः।
तेषां सा विहिता वृत्तिः पितृदैवतनिर्गता॥
अनुवाद (हिन्दी)
जो यातुधान, पिशाच, भूत और राक्षस हैं, उन्हींके लिये उस वृत्तिका विधान किया गया है। पितरों और देवताओंने वैसी वृत्तिका परित्याग कर दिया है॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तेषां सर्वप्रदातॄणां हव्यकव्यं समाहिताः।
यत् प्रयच्छन्ति विधिवत् तद् वै भुञ्जन्ति देवताः॥
मूलम्
तेषां सर्वप्रदातॄणां हव्यकव्यं समाहिताः।
यत् प्रयच्छन्ति विधिवत् तद् वै भुञ्जन्ति देवताः॥
अनुवाद (हिन्दी)
जो सब कुछ देनेवाले और उस कर्मके अधिकारी हैं, वे एकाग्रचित्त होकर विधिपूर्वक जो हव्य और कव्य समर्पित करते हैं, उसे देवता और पितर ग्रहण करते हैं॥
मूलम् (वचनम्)
मार्कण्डेय उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
श्रुतं वर्णावरैर्दत्तं हव्यं कव्यं च नारद।
सम्प्रयोगे च पुत्राणां कन्यानां च ब्रवीहि मे॥
मूलम्
श्रुतं वर्णावरैर्दत्तं हव्यं कव्यं च नारद।
सम्प्रयोगे च पुत्राणां कन्यानां च ब्रवीहि मे॥
अनुवाद (हिन्दी)
मार्कण्डेयजीने पूछा— नारदजी! नीच वर्णके दिये हुए हव्य और कव्योंकी जो दशा होती है, उसे मैंने सुन ली। अब पुत्रों और कन्याओंके विषयमें एवं इनके संयोगके विषयमें मुझे कुछ बातें बताइये॥
मूलम् (वचनम्)
नारद उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
कन्याप्रदानं पुत्राणां स्त्रीणां संयोगमेव च।
आनुपूर्व्यान्मया सम्यगुच्यमानं निबोध मे॥
मूलम्
कन्याप्रदानं पुत्राणां स्त्रीणां संयोगमेव च।
आनुपूर्व्यान्मया सम्यगुच्यमानं निबोध मे॥
अनुवाद (हिन्दी)
नारदजीने कहा— अब मैं कन्या-विवाहके और पुत्रोंके विषयमें एवं स्त्रियोंके संयोगके विषयमें क्रमशः बता रहा हूँ, उसे सुनो॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
जातमात्रा तु दातव्या कन्यका सदृशे वरे।
काले दत्तासु कन्यासु पिता धर्मेण युज्यते॥
मूलम्
जातमात्रा तु दातव्या कन्यका सदृशे वरे।
काले दत्तासु कन्यासु पिता धर्मेण युज्यते॥
अनुवाद (हिन्दी)
जो कन्या उत्पन्न हो जाती है, उसे किसी योग्य वरको सौंप देना आवश्यक होता है। यदि ठीक समयपर कन्याओंका दान हो गया तो पिता धर्मफलका भागी होता है॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
यस्तु पुष्पवतीं कन्यां बान्धवो न प्रयच्छति।
मासि मासि गते बन्धुस्तस्या भ्रौणघ्न्यमाप्नुते॥
मूलम्
यस्तु पुष्पवतीं कन्यां बान्धवो न प्रयच्छति।
मासि मासि गते बन्धुस्तस्या भ्रौणघ्न्यमाप्नुते॥
अनुवाद (हिन्दी)
जो भाई-बन्धु रजस्वलावस्थामें पहुँच जानेपर भी कन्याका किसी योग्य वरके साथ विवाह नहीं कर देता, वह उसके एक-एक मास बीतनेपर भ्रूणहत्याके फलका भागी होता है॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
यस्तु कन्यां गृहे रुन्ध्याद् ग्राम्यैर्भोगैर्विवर्जिताम्।
अवध्यातः स कन्याया बन्धुः प्राप्नोति भ्रूणहाम्॥
मूलम्
यस्तु कन्यां गृहे रुन्ध्याद् ग्राम्यैर्भोगैर्विवर्जिताम्।
अवध्यातः स कन्याया बन्धुः प्राप्नोति भ्रूणहाम्॥
अनुवाद (हिन्दी)
जो भाई-बन्धु कन्याको विषय-भोगोंसे वंचित करके घरमें रोके रखता है, वह उस कन्याके द्वारा अनिष्ट चिन्तन किये जानेके कारण भ्रूणहत्याके पापका भागी होता है॥
मूलम् (वचनम्)
मार्कण्डेय उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
केन मङ्गलकृत्येषु विनियुज्यन्ति कन्यकाः।
एतदिच्छामि विज्ञातुं तत्त्वेनेह महामुने॥
मूलम्
केन मङ्गलकृत्येषु विनियुज्यन्ति कन्यकाः।
एतदिच्छामि विज्ञातुं तत्त्वेनेह महामुने॥
अनुवाद (हिन्दी)
मार्कण्डेयजीने पूछा— महामुने! किस कारणसे कन्याओंको मांगलिक कर्मोंमें नियुक्त किया जाता है? मैं इस बातको यथार्थरूपसे जानना चाहता हूँ॥
मूलम् (वचनम्)
नारद उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
नित्यं निवसते लक्ष्मीः कन्यकासु प्रतिष्ठिता।
शोभना शुभयोग्या च पूज्या मङ्गलकर्मसु॥
मूलम्
नित्यं निवसते लक्ष्मीः कन्यकासु प्रतिष्ठिता।
शोभना शुभयोग्या च पूज्या मङ्गलकर्मसु॥
अनुवाद (हिन्दी)
नारदजीने कहा— कन्याओंमें सदा लक्ष्मी निवास करती हैं। वे उनमें नित्य प्रतिष्ठित होती हैं; इसलिये प्रत्येक कन्या शोभासम्पन्न, शुभ कर्मके योग्य तथा मंगल कर्मोंमें पूजनीय होती है॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
आकरस्थं यथा रत्नं सर्वकामफलोपगम्।
तथा कन्या महालक्ष्मीः सर्वलोकस्य मङ्गलम्॥
मूलम्
आकरस्थं यथा रत्नं सर्वकामफलोपगम्।
तथा कन्या महालक्ष्मीः सर्वलोकस्य मङ्गलम्॥
अनुवाद (हिन्दी)
जैसे खानमें स्थित हुआ रत्न सम्पूर्ण कामनाओं एवं फलोंकी प्राप्ति करानेवाला होता है, उसी प्रकार महालक्ष्मीस्वरूपा कन्या सम्पूर्ण जगत्के लिये मंगल-कारिणी होती है॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
एवं कन्या परा लक्ष्मी रतिस्तोषश्च देहिनाम्।
महाकुलानां चारित्रं वृत्तेन निकषोपलम्॥
मूलम्
एवं कन्या परा लक्ष्मी रतिस्तोषश्च देहिनाम्।
महाकुलानां चारित्रं वृत्तेन निकषोपलम्॥
अनुवाद (हिन्दी)
इस तरह कन्याको लक्ष्मीका सर्वोत्कृष्ट रूप जानना चाहिये। उससे देहधारियोंको सुख और संतोषकी प्राप्ति होती है। वह अपने सदाचारके द्वारा उच्च कुलोंके चरित्रकी कसौटी समझी जाती है॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
आनयित्वा स्वकाद् वर्णात् कन्यकां यो भजेन्नरः।
दातारं हव्यकव्यानां पुत्रकं या प्रसूयते॥
मूलम्
आनयित्वा स्वकाद् वर्णात् कन्यकां यो भजेन्नरः।
दातारं हव्यकव्यानां पुत्रकं या प्रसूयते॥
अनुवाद (हिन्दी)
जो मनुष्य अपने ही वर्णकी कन्याको विवाहके द्वारा लाकर उसे पत्नीके स्थानपर प्रतिष्ठित करता है, उसकी वह साध्वी पत्नी हव्य-कव्य प्रदान करनेवाले पुत्रको जन्म देती है॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
साध्वी कुलं वर्धयति साध्वी पुष्टिर्गृहे परा।
साध्वी लक्ष्मी रतिः साक्षात् प्रतिष्ठा संततिस्तथा॥
मूलम्
साध्वी कुलं वर्धयति साध्वी पुष्टिर्गृहे परा।
साध्वी लक्ष्मी रतिः साक्षात् प्रतिष्ठा संततिस्तथा॥
अनुवाद (हिन्दी)
साध्वी स्त्री कुलकी वृद्धि करती है। साध्वी स्त्री घरमें परम पुष्टिरूप है तथा साध्वी स्त्री घरकी लक्ष्मी है, रति है, मूर्तिमती प्रतिष्ठा है तथा संतान-परम्पराकी आधार है॥
मूलम् (वचनम्)
मार्कण्डेय उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
कानि तीर्थानि भगवन् नृणां देहाश्रितानि वै।
तानि वै शंस भगवन् याथातथ्येन पृच्छतः॥
मूलम्
कानि तीर्थानि भगवन् नृणां देहाश्रितानि वै।
तानि वै शंस भगवन् याथातथ्येन पृच्छतः॥
अनुवाद (हिन्दी)
मार्कण्डेयजीने पूछा— भगवन्! मनुष्योंके शरीरमें कौन-कौन-से तीर्थ हैं? मैं यह जानना चाहता हूँ। अतः आप यथार्थरूपसे मुझे बताइये॥
मूलम् (वचनम्)
नारद उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
देवर्षिपितृतीर्थानि बाह्मं मध्येऽथ वैष्णवम्।
नृणां तीर्थानि पञ्चाहुः पाणौ संनिहितानि वै॥
मूलम्
देवर्षिपितृतीर्थानि बाह्मं मध्येऽथ वैष्णवम्।
नृणां तीर्थानि पञ्चाहुः पाणौ संनिहितानि वै॥
अनुवाद (हिन्दी)
नारदजीने कहा— मनीषी पुरुष कहते हैं, मनुष्योंके हाथमें ही पाँच तीर्थ हैं। उनके नाम इस प्रकार हैं—देवतीर्थ, ऋषितीर्थ, पितृतीर्थ, ब्राह्मतीर्थ और वैष्णवतीर्थ। (अंगुलियोंके अग्रभागमें देवतीर्थ है। कनिष्ठा और अनामिका अंगुलिके मूलभागमें आर्षतीर्थ है। इसीको कायतीर्थ और प्राजापत्यतीर्थ भी कहते हैं। अंगुष्ठ और तर्जनीके मध्यभागमें पितृतीर्थ है। अंगुष्ठके मूलभागमें ब्राह्मतीर्थ है और हथेलीके मध्यभागमें वैष्णवतीर्थ है।)॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
आद्यतीर्थं तु तीर्थानां वैष्णवो भाग उच्यते।
यत्रोपस्पृश्य वर्णानां चतुर्णां वर्धते कुलम्॥
पितृदैवतकार्याणि वर्धन्ते प्रेत्य चेह च।
मूलम्
आद्यतीर्थं तु तीर्थानां वैष्णवो भाग उच्यते।
यत्रोपस्पृश्य वर्णानां चतुर्णां वर्धते कुलम्॥
पितृदैवतकार्याणि वर्धन्ते प्रेत्य चेह च।
अनुवाद (हिन्दी)
हाथमें जो वैष्णवतीर्थका भाग है, उसे सब तीर्थोंमें प्रधान कहा जाता है। जहाँ जल रखकर आचमन करनेसे चारों वर्णोंके कुलकी वृद्धि होती है, तथा देवता और पितरोंके कार्यकी इहलोक और परलोकमें वृद्धि होती है॥
मूलम् (वचनम्)
मार्कण्डेय उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
धर्मेष्वधिकृतानां तु नराणां मुह्यते मनः।
कथं न विघ्नं भवति एतदिच्छामि वेदितुम्॥
मूलम्
धर्मेष्वधिकृतानां तु नराणां मुह्यते मनः।
कथं न विघ्नं भवति एतदिच्छामि वेदितुम्॥
अनुवाद (हिन्दी)
मार्कण्डेयजीने पूछा— जो धर्मके अधिकारी हैं, ऐसे मनुष्योंका मन कभी-कभी धर्मके विषयमें संशयापन्न हो जाता है। क्या करनेसे उनके धर्माचरणमें विघ्न न पड़े? यह मैं जानना चाहता हूँ॥
मूलम् (वचनम्)
नारद उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
अर्थाश्च नार्यश्च समानमेत-
च्छ्रेयांसि पुंसामिह मोहयन्ति ।
रतिप्रमोदात् प्रमदा हरन्ति
भोगैर्धनं चाप्युपहन्ति धर्मान् ॥
मूलम्
अर्थाश्च नार्यश्च समानमेत-
च्छ्रेयांसि पुंसामिह मोहयन्ति ।
रतिप्रमोदात् प्रमदा हरन्ति
भोगैर्धनं चाप्युपहन्ति धर्मान् ॥
अनुवाद (हिन्दी)
नारदजीने कहा— धन और नारी दोनोंकी अवस्था एक-सी है। दोनों ही मनुष्योंको कल्याणके पथपर जानेमें बाधा देते हैं—उन्हें मोहित कर लेते हैं। रतिजनित आमोद-प्रमोदसे स्त्रियाँ मनको हर लेती हैं और धन भोगोंके द्वारा धर्मको चौपट कर देता है॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
हव्यं कव्यं च धर्मात्मा सर्वं तच्छ्रोत्रियोऽर्हति।
दत्तं हि श्रोत्रिये साधौ ज्वलिताग्नाविवाहुतिः॥
मूलम्
हव्यं कव्यं च धर्मात्मा सर्वं तच्छ्रोत्रियोऽर्हति।
दत्तं हि श्रोत्रिये साधौ ज्वलिताग्नाविवाहुतिः॥
अनुवाद (हिन्दी)
धर्मात्मा श्रोत्रिय ब्राह्मण समस्त हव्य और कव्यको पानेका अधिकारी है। श्रेष्ठ श्रोत्रियको दिया हुआ हव्य-कव्य प्रज्वलित अग्निमें डाली हुई आहुतिके समान सफल होता है॥
मूलम् (वचनम्)
भीष्म उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
इति सम्भाष्य ऋषिभिर्मार्कण्डेयो महातपाः।
नारदं चापि सत्कृत्य तेन चैवाभिसत्कृतः॥
मूलम्
इति सम्भाष्य ऋषिभिर्मार्कण्डेयो महातपाः।
नारदं चापि सत्कृत्य तेन चैवाभिसत्कृतः॥
अनुवाद (हिन्दी)
भीष्मजी कहते हैं— इस प्रकार ऋषियोंके साथ बात-चीत करके महातपस्वी मार्कण्डेयने नारदजीका सत्कार किया और स्वयं भी वे उनके द्वारा सम्मानित हुए॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
आमन्त्रयित्वा ऋषिभिः प्रययावाश्रमं मुनिः।
ऋषयश्चापि तीर्थानां परिचर्यां प्रचक्रमुः॥)
मूलम्
आमन्त्रयित्वा ऋषिभिः प्रययावाश्रमं मुनिः।
ऋषयश्चापि तीर्थानां परिचर्यां प्रचक्रमुः॥)
अनुवाद (हिन्दी)
तत्पश्चात् ऋषियोंसे विदा लेकर मार्कण्डेय मुनि अपने आश्रमको चले गये तथा वे ऋषि भी तीर्थोंमें भ्रमण करने लगे॥
सूचना (हिन्दी)
[दाक्षिणात्य अध्याय समाप्त]
मूलम् (वचनम्)
युधिष्ठिर उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
किमाहुर्भरतश्रेष्ठ पात्रं विप्राः सनातनाः।
ब्राह्मणं लिङ्गिनं चैव ब्राह्मणं वाप्यलिङ्गिनम् ॥ १ ॥
मूलम्
किमाहुर्भरतश्रेष्ठ पात्रं विप्राः सनातनाः।
ब्राह्मणं लिङ्गिनं चैव ब्राह्मणं वाप्यलिङ्गिनम् ॥ १ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
युधिष्ठिरने पूछा— भरतश्रेष्ठ! प्राचीन ब्राह्मण किसको दानका श्रेष्ठ पात्र बताते हैं? दण्ड-कमण्डलु आदि चिह्न धारण करनेवाले ब्रह्मचारी ब्राह्मणको अथवा चिह्नरहित गृहस्थ ब्राह्मणको?॥१॥
मूलम् (वचनम्)
भीष्म उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
स्ववृत्तिमभिपन्नाय लिङ्गिने चेतराय च।
देयमाहुर्महाराज उभावेतौ तपस्विनौ ॥ २ ॥
मूलम्
स्ववृत्तिमभिपन्नाय लिङ्गिने चेतराय च।
देयमाहुर्महाराज उभावेतौ तपस्विनौ ॥ २ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
भीष्मजीने कहा— महाराज! जीवन-रक्षाके लिये अपनी वर्णाश्रमोचित वृत्तिका आश्रय लेनेवाले चिह्नधारी या चिह्नरहित किसी भी ब्राह्मणको दान दिया जाना उचित बताया गया है; क्योंकि स्वधर्मका आश्रय लेनेवाले ये दोनों ही तपस्वी एवं दानपात्र हैं॥२॥
मूलम् (वचनम्)
युधिष्ठिर उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
श्रद्धया परया पूतो यः प्रयच्छेद् द्विजातये।
हव्यं कव्यं तथा दानं को दोषः स्यात् पितामह॥३॥
मूलम्
श्रद्धया परया पूतो यः प्रयच्छेद् द्विजातये।
हव्यं कव्यं तथा दानं को दोषः स्यात् पितामह॥३॥
अनुवाद (हिन्दी)
युधिष्ठिरने पूछा— पितामह! जो केवल उत्कृष्ट श्रद्धासे ही पवित्र होकर ब्राह्मणको हव्य-कव्य तथा अन्य वस्तुका दान देता है, उसे अन्य प्रकारकी पवित्रता न होनेके कारण किस दोषकी प्राप्ति होती है?॥३॥
मूलम् (वचनम्)
भीष्म उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
श्रद्धापूतो नरस्तात दुर्दान्तोऽपि न संशयः।
पूतो भवति सर्वत्र किमुत त्वं महाद्युते ॥ ४ ॥
मूलम्
श्रद्धापूतो नरस्तात दुर्दान्तोऽपि न संशयः।
पूतो भवति सर्वत्र किमुत त्वं महाद्युते ॥ ४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
भीष्मजीने कहा— तात! मनुष्य जितेन्द्रिय न होनेपर भी केवल श्रद्धामात्रसे पवित्र हो जाता है—इसमें संशय नहीं है। महातेजस्वी नरेश! श्रद्धापूत मनुष्य सर्वत्र पवित्र होता है, फिर तुम-जैसे धर्मात्माके पवित्र होनेमें तो संदेह ही क्या है?॥४॥
मूलम् (वचनम्)
युधिष्ठिर उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
न ब्राह्मणं परीक्षेत दैवेषु सततं नरः।
कव्यप्रदाने तु बुधाः परीक्ष्यं ब्राह्मणं विदुः ॥ ५ ॥
मूलम्
न ब्राह्मणं परीक्षेत दैवेषु सततं नरः।
कव्यप्रदाने तु बुधाः परीक्ष्यं ब्राह्मणं विदुः ॥ ५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
युधिष्ठिरने पूछा— पितामह! विद्वानोंका कहना है कि देवकार्यमें कभी ब्राह्मणकी परीक्षा न करे, किंतु श्राद्धमें अवश्य उसकी परीक्षा करे; इसका क्या कारण है?॥५॥
मूलम् (वचनम्)
भीष्म उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
न ब्राह्मणः साधयते हव्यं दैवात् प्रसिद्ध्यति।
देवप्रसादादिज्यन्ते यजमानैर्न संशयः ॥ ६ ॥
मूलम्
न ब्राह्मणः साधयते हव्यं दैवात् प्रसिद्ध्यति।
देवप्रसादादिज्यन्ते यजमानैर्न संशयः ॥ ६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
भीष्मजीने कहा— बेटा! यज्ञ-होम आदि देवकार्यकी सिद्धि ब्राह्मणके अधीन नहीं है, वह दैवसे सिद्ध होता है। देवताओंकी कृपासे ही यजमान यज्ञ करते हैं। इसमें संशय नहीं है॥६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ब्राह्मणान् भरतश्रेष्ठ सततं ब्रह्मवादिनः।
मार्कण्डेयः पुरा प्राह इति लोकेषु बुद्धिमान् ॥ ७ ॥
मूलम्
ब्राह्मणान् भरतश्रेष्ठ सततं ब्रह्मवादिनः।
मार्कण्डेयः पुरा प्राह इति लोकेषु बुद्धिमान् ॥ ७ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
भरतश्रेष्ठ! बुद्धिमान् मार्कण्डेयजीने बहुत पहलेसे ही यह बता रखा है कि श्राद्धमें सदा वेदवेत्ता ब्राह्मणोंको ही निमन्त्रित करना चाहिये (क्योंकि उसकी सिद्धि सुपात्र ब्राह्मणके ही अधीन है)॥७॥
मूलम् (वचनम्)
युधिष्ठिर उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
अपूर्वोऽप्यथवा विद्वान् सम्बन्धी वा यथा भवेत्।
तपस्वी यज्ञशीलो वा कथं पात्रं भवेत् तु सः॥८॥
मूलम्
अपूर्वोऽप्यथवा विद्वान् सम्बन्धी वा यथा भवेत्।
तपस्वी यज्ञशीलो वा कथं पात्रं भवेत् तु सः॥८॥
अनुवाद (हिन्दी)
युधिष्ठिरने पूछा— जो अपरिचित, विद्वान्, सम्बन्धी, तपस्वी अथवा यज्ञशील हों, इनमेंसे कौन किस प्रकारके गुणोंसे सम्पन्न होनेपर श्राद्ध एवं दानका उत्तम पात्र हो सकता है?॥८॥
मूलम् (वचनम्)
भीष्म उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
कुलीनः कर्मकृद् वैद्यस्तथैवाप्यानृशंस्यवान् ।
ह्रीमानृजुः सत्यवादी पात्रं पूर्वे च ये त्रयः ॥ ९ ॥
मूलम्
कुलीनः कर्मकृद् वैद्यस्तथैवाप्यानृशंस्यवान् ।
ह्रीमानृजुः सत्यवादी पात्रं पूर्वे च ये त्रयः ॥ ९ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
भीष्मजीने कहा— कुलीन, कर्मठ, वेदोंके विद्वान्, दयालु, सलज्ज, सरल और सत्यवादी—इन सात प्रकारके गुणवाले जो पूर्वोक्त तीन (अपरिचित विद्वान्, सम्बन्धी और तपस्वी) ब्राह्मण हैं, वे उत्तम पात्र माने गये हैं॥९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तत्रेमं शृणु मे पार्थ चतुर्णां तेजसां मतम्।
पृथिव्याः काश्यपस्याग्नेर्मार्कण्डेयस्य चैव हि ॥ १० ॥
मूलम्
तत्रेमं शृणु मे पार्थ चतुर्णां तेजसां मतम्।
पृथिव्याः काश्यपस्याग्नेर्मार्कण्डेयस्य चैव हि ॥ १० ॥
अनुवाद (हिन्दी)
कुन्तीनन्दन! इस विषयमें तुम मुझसे पृथ्वी, काश्यप, अग्नि और मार्कण्डेय—इन चार तेजस्वी व्यक्तियोंका मत सुनो॥१०॥
मूलम् (वचनम्)
पृथिव्युवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
यथा महार्णवे क्षिप्तः क्षिप्रं लेष्टुर्विनश्यति।
तथा दुश्चरितं सर्वं त्रिवृत्यां च निमज्जति ॥ ११ ॥
मूलम्
यथा महार्णवे क्षिप्तः क्षिप्रं लेष्टुर्विनश्यति।
तथा दुश्चरितं सर्वं त्रिवृत्यां च निमज्जति ॥ ११ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
पृथ्वी कहती है— जिस प्रकार महासागरमें फेंका हुआ ढेला तुरंत गलकर नष्ट हो जाता है, उसी प्रकार याजन, अध्यापन और प्रतिग्रह—इन तीन वृत्तियोंसे जीविका चलानेवाले ब्राह्मणमें सारे दुष्कर्मोंका लय हो जाता है॥११॥
मूलम् (वचनम्)
काश्यप उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
सर्वे च वेदाः सह षड्भिरङ्गैः
सांख्यं पुराणं च कुले च जन्म।
नैतानि सर्वाणि गतिर्भवन्ति
शीलव्यपेतस्य नृप द्विजस्य ॥ १२ ॥
मूलम्
सर्वे च वेदाः सह षड्भिरङ्गैः
सांख्यं पुराणं च कुले च जन्म।
नैतानि सर्वाणि गतिर्भवन्ति
शीलव्यपेतस्य नृप द्विजस्य ॥ १२ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
काश्यप कहते हैं— नरेश्वर! जो ब्राह्मण शीलसे रहित हैं, उसे छहों अंगोंसहित वेद, सांख्य और पुराणका ज्ञान तथा उत्तम कुलमें जन्म—ये सब मिलकर भी उत्तम गति नहीं प्रदान कर सकते॥१२॥
मूलम् (वचनम्)
अग्निरुवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
अधीयानः पण्डितं मन्यमानो
यो विद्यया हन्ति यशः परेषाम्।
प्रभ्रश्यतेऽसौ चरते न सत्यं
लोकास्तस्य ह्यन्तवन्तो भवन्ति ॥ १३ ॥
मूलम्
अधीयानः पण्डितं मन्यमानो
यो विद्यया हन्ति यशः परेषाम्।
प्रभ्रश्यतेऽसौ चरते न सत्यं
लोकास्तस्य ह्यन्तवन्तो भवन्ति ॥ १३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
अग्नि कहते हैं— जो ब्राह्मण अध्ययन करके अपनेको बहुत बड़ा पण्डित मानता और अपनी विद्वत्तापर गर्व करने लगता है तथा जो अपनी विद्याके बलसे दूसरोंके यशका नाश करता है, वह धर्मसे भ्रष्ट होकर सत्यका पालन नहीं करता; अतः उसे नाशवान् लोकोंकी प्राप्ति होती है॥१३॥
मूलम् (वचनम्)
मार्कण्डेय उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
अश्वमेधसहस्रं च सत्यं च तुलया धृतम्।
नाभिजानामि यद्यस्य सत्यस्यार्धमवाप्नुयात् ॥ १४ ॥
मूलम्
अश्वमेधसहस्रं च सत्यं च तुलया धृतम्।
नाभिजानामि यद्यस्य सत्यस्यार्धमवाप्नुयात् ॥ १४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
मार्कण्डेयजी कहते हैं— यदि तराजूके एक पलड़ेमें एक हजार अश्वमेध-यज्ञको और दूसरेमें सत्यको रखकर तौला जाय तो भी न जाने वे सारे अश्वमेध-यज्ञ इस सत्यके आधेके बराबर भी होंगे या नहीं?॥१४॥
मूलम् (वचनम्)
भीष्म उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
इत्युक्त्वा ते जग्मुराशु चत्वारोऽमिततेजसः।
पृथिवी काश्यपोऽग्निश्च प्रकृष्टायुश्च भार्गवः ॥ १५ ॥
मूलम्
इत्युक्त्वा ते जग्मुराशु चत्वारोऽमिततेजसः।
पृथिवी काश्यपोऽग्निश्च प्रकृष्टायुश्च भार्गवः ॥ १५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
भीष्मजी कहते हैं— युधिष्ठिर! इस प्रकार अपना मत प्रकट करके वे चारों अमिततेजस्वी व्यक्ति—पृथ्वी, काश्यप, अग्नि और मार्कण्डेय शीघ्र ही चले गये॥१५॥
मूलम् (वचनम्)
युधिष्ठिर उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
यदि ते ब्राह्मणा लोके व्रतिनो भुञ्जते हविः।
दत्तं ब्राह्मणकामाय कथं तत् सुकृतं भवेत् ॥ १६ ॥
मूलम्
यदि ते ब्राह्मणा लोके व्रतिनो भुञ्जते हविः।
दत्तं ब्राह्मणकामाय कथं तत् सुकृतं भवेत् ॥ १६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
युधिष्ठिरने पूछा— पितामह! यदि ब्रह्मचर्यव्रतका पालन करनेवाले ब्राह्मण श्राद्धमें हविष्यान्नका भोजन करते हैं तो श्रेष्ठ ब्राह्मणकी कामनासे उन्हें दिया हुआ दान कैसे सफल हो सकता है?॥१६॥
मूलम् (वचनम्)
भीष्म उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
आदिष्टिनो ये राजेन्द्र ब्राह्मणा वेदपारगाः।
भुञ्जते ब्रह्मकामाय व्रतलुप्ता भवन्ति ते ॥ १७ ॥
मूलम्
आदिष्टिनो ये राजेन्द्र ब्राह्मणा वेदपारगाः।
भुञ्जते ब्रह्मकामाय व्रतलुप्ता भवन्ति ते ॥ १७ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
भीष्मजीने कहा— राजेन्द्र! (जिन्हें गुरुने नियत वर्षोंतक ब्रह्मचर्य-व्रत पालन करनेका आदेश दे रखा है वे आदिष्टी कहलाते हैं।) ऐसे वेदके पारङ्गत आदिष्टी ब्राह्मण यदि यजमानकी ब्राह्मणको दान देनेकी इच्छापूर्तिके लिये श्राद्धमें भोजन करते हैं तो उनका अपना ही व्रत नष्ट हो जाता है (इससे दाताका दान दूषित नहीं होता है)1॥१७॥
मूलम् (वचनम्)
युधिष्ठिर उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
अनेकान्तं बहुद्वारं धर्ममाहुर्मनीषिणः ।
किंनिमित्तं भवेदत्र तन्मे ब्रूहि पितामह ॥ १८ ॥
मूलम्
अनेकान्तं बहुद्वारं धर्ममाहुर्मनीषिणः ।
किंनिमित्तं भवेदत्र तन्मे ब्रूहि पितामह ॥ १८ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
युधिष्ठिरने पूछा— पितामह! विद्वानोंका कहना है कि धर्मके साधन और फल अनेक प्रकारके हैं। पात्रके कौन-से गुण उसकी दानपात्रतामें कारण होते हैं? यह मुझे बताइये॥१८॥
मूलम् (वचनम्)
भीष्म उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
अहिंसा सत्यमक्रोध आनृशंस्यं दमस्तथा।
आर्जवं चैव राजेन्द्र निश्चितं धर्मलक्षणम् ॥ १९ ॥
मूलम्
अहिंसा सत्यमक्रोध आनृशंस्यं दमस्तथा।
आर्जवं चैव राजेन्द्र निश्चितं धर्मलक्षणम् ॥ १९ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
भीष्मजीने कहा— राजेन्द्र! अहिंसा, सत्य, अक्रोध, कोमलता, इन्द्रियसंयम और सरलता—ये धर्मके निश्चित लक्षण हैं॥१९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ये तु धर्मं प्रशंसन्तश्चरन्ति पृथिवीमिमाम्।
अनाचरन्तस्तद् धर्मं संकरेऽभिरताः प्रभो ॥ २० ॥
मूलम्
ये तु धर्मं प्रशंसन्तश्चरन्ति पृथिवीमिमाम्।
अनाचरन्तस्तद् धर्मं संकरेऽभिरताः प्रभो ॥ २० ॥
अनुवाद (हिन्दी)
प्रभो! जो लोग इस पृथ्वीपर धर्मकी प्रशंसा करते हुए घूमते-फिरते हैं; परंतु स्वयं उस धर्मका आचरण नहीं करते, वे ढोंगी हैं और धर्मसंकरता फैलानेमें लगे हैं॥२०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तेभ्यो हिरण्यं रत्नं वा गामश्वं वा ददाति यः।
दश वर्षाणि विष्ठां स भुङ्क्ते निरयमास्थितः ॥ २१ ॥
मूलम्
तेभ्यो हिरण्यं रत्नं वा गामश्वं वा ददाति यः।
दश वर्षाणि विष्ठां स भुङ्क्ते निरयमास्थितः ॥ २१ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
ऐसे लोगोंको जो सुवर्ण, रत्न, गौ अथवा अश्व आदि वस्तुओंका दान करता है वह नरकमें पड़कर दस वर्षोंतक विष्ठा खाता है॥२१॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
मेदानां पुल्कसानां च तथैवान्तेवसायिनाम्।
कृतं कर्माकृतं वापि रागमोहेन जल्पताम् ॥ २२ ॥
मूलम्
मेदानां पुल्कसानां च तथैवान्तेवसायिनाम्।
कृतं कर्माकृतं वापि रागमोहेन जल्पताम् ॥ २२ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
जो उच्चवर्णके लोग राग और मोहके वशीभूत हो अपने किये अथवा बिना किये शुभ कर्मका जनसमुदायमें वर्णन करते हैं वे मेद, पुल्कस तथा अन्त्यजोंके तुल्य माने जाते हैं॥२२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
वैश्वदेवं च ये मूढा विप्राय ब्रह्मचारिणे।
ददते नेह राजेन्द्र ते लोकान् भुञ्जतेऽशुभान् ॥ २३ ॥
मूलम्
वैश्वदेवं च ये मूढा विप्राय ब्रह्मचारिणे।
ददते नेह राजेन्द्र ते लोकान् भुञ्जतेऽशुभान् ॥ २३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
राजेन्द्र! जो मूढ़ मानव ब्रह्मचारी ब्राह्मणको बलि-वैश्वदेवसम्बन्धी अन्न (अतिथियोंको देनेयोग्य हन्तकार) नहीं देते हैं, वे अशुभ लोकोंका उपभोग करते हैं॥२३॥
मूलम् (वचनम्)
युधिष्ठिर उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
किं परं ब्रह्मचर्यं च किं परं धर्मलक्षणम्।
किं च श्रेष्ठतमं शौचं तन्मे ब्रूहि पितामह ॥ २४ ॥
मूलम्
किं परं ब्रह्मचर्यं च किं परं धर्मलक्षणम्।
किं च श्रेष्ठतमं शौचं तन्मे ब्रूहि पितामह ॥ २४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
युधिष्ठिरने पूछा— पितामह! उत्तम ब्रह्मचर्य क्या है? धर्मका सबसे श्रेष्ठ लक्षण क्या है? तथा सर्वोत्तम पवित्रता किसे कहते हैं? यह मुझे बताइये॥२४॥
मूलम् (वचनम्)
भीष्म उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
ब्रह्मचर्यात् परं तात मधुमांसस्य वर्जनम्।
मर्यादायां स्थितो धर्मः शमश्चैवास्य लक्षणम् ॥ २५ ॥
मूलम्
ब्रह्मचर्यात् परं तात मधुमांसस्य वर्जनम्।
मर्यादायां स्थितो धर्मः शमश्चैवास्य लक्षणम् ॥ २५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
भीष्मजीने कहा— तात! मांस और मदिराका त्याग ब्रह्मचर्यसे भी श्रेष्ठ है—वही उत्तम ब्रह्मचर्य है। वेदोक्त मर्यादामें स्थित रहना सबसे श्रेष्ठ धर्म है तथा मन और इन्द्रियोंको संयममें रखना ही सर्वोत्तम पवित्रता है॥२५॥
मूलम् (वचनम्)
युधिष्ठिर उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
कस्मिन् काले चरेद् धर्मं कस्मिन् कालेऽर्थमाचरेत्।
कस्मिन् काले सुखी च स्यात् तन्मे ब्रूहि पितामह॥२६॥
मूलम्
कस्मिन् काले चरेद् धर्मं कस्मिन् कालेऽर्थमाचरेत्।
कस्मिन् काले सुखी च स्यात् तन्मे ब्रूहि पितामह॥२६॥
अनुवाद (हिन्दी)
युधिष्ठिरने पूछा— पितामह! मनुष्य किस समय धर्मका आचरण करे? कब अर्थोपार्जनमें लगे तथा किस समय सुखभोगमें प्रवृत्त हो? यह मुझे बताइये॥
मूलम् (वचनम्)
भीष्म उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
कल्यमर्थं निषेवेत ततो धर्ममनन्तरम्।
पश्चात् कामं निषेवेत न च गच्छेत् प्रसङ्गिताम् ॥ २७ ॥
मूलम्
कल्यमर्थं निषेवेत ततो धर्ममनन्तरम्।
पश्चात् कामं निषेवेत न च गच्छेत् प्रसङ्गिताम् ॥ २७ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
भीष्मजीने कहा— राजन्! पूर्वाह्णमें धनका उपार्जन करे, तदनन्तर धर्मका और उसके बाद कामका सेवन करे; परंतु काममें आसक्त न हो॥२७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ब्राह्मणांश्चैव मन्येत गुरूंश्चाप्यभिपूजयेत् ।
सर्वभूतानुलोमश्च मृदुशीलः प्रियंवदः ॥ २८ ॥
मूलम्
ब्राह्मणांश्चैव मन्येत गुरूंश्चाप्यभिपूजयेत् ।
सर्वभूतानुलोमश्च मृदुशीलः प्रियंवदः ॥ २८ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
ब्राह्मणोंका सम्मान करे। गुरुजनोंकी सेवा-पूजामें संलग्न रहे। सब प्राणियोंके अनुकूल रहे। नम्रताका बर्ताव करे और सबसे मीठे वचन बोले॥२८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अधिकारे यदनृतं यच्च राजसु पैशुनम्।
गुरोश्चालीककरणं तुल्यं तद् ब्रह्महत्यया ॥ २९ ॥
मूलम्
अधिकारे यदनृतं यच्च राजसु पैशुनम्।
गुरोश्चालीककरणं तुल्यं तद् ब्रह्महत्यया ॥ २९ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
न्यायका अधिकार पाकर झूठा फैसला देना अथवा न्यायालयमें जाकर झूठ बोलना, राजाओंके पास किसीकी चुगली करना और गुरुके साथ कपटपूर्ण बर्ताव करना—ये तीन ब्रह्महत्याके समान पाप हैं॥२९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
प्रहरेन्न नरेन्द्रेषु न हन्याद् गां तथैव च।
भ्रूणहत्यासमं चैव उभयं यो निषेवते ॥ ३० ॥
मूलम्
प्रहरेन्न नरेन्द्रेषु न हन्याद् गां तथैव च।
भ्रूणहत्यासमं चैव उभयं यो निषेवते ॥ ३० ॥
अनुवाद (हिन्दी)
राजाओंपर प्रहार न करे और गायको न मारे। जो राजा और गौपर प्रहाररूप द्विविध दुष्कर्मका सेवन करता है, उसे भ्रूणहत्याके समान पाप लगता है॥३०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
नाग्निं परित्यजेज्जातु न च वेदान् परित्यजेत्।
न च ब्राह्मणमाक्रोशेत् समं तद् ब्रह्महत्यया ॥ ३१ ॥
मूलम्
नाग्निं परित्यजेज्जातु न च वेदान् परित्यजेत्।
न च ब्राह्मणमाक्रोशेत् समं तद् ब्रह्महत्यया ॥ ३१ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
अग्निहोत्रका कभी त्याग न करे। वेदोंका स्वाध्याय न छोड़े तथा ब्राह्मणकी निन्दा न करे; क्योंकि ये तीनों दोष ब्रह्महत्याके समान हैं॥३१॥
मूलम् (वचनम्)
युधिष्ठिर उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
कीदृशाः साधवो विप्राः केभ्यो दत्तं महाफलम्।
कीदृशानां च भोक्तव्यं तन्मे ब्रूहि पितामह ॥ ३२ ॥
मूलम्
कीदृशाः साधवो विप्राः केभ्यो दत्तं महाफलम्।
कीदृशानां च भोक्तव्यं तन्मे ब्रूहि पितामह ॥ ३२ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
युधिष्ठिरने पूछा— पितामह! कैसे ब्राह्मणोंको श्रेष्ठ समझना चाहिये? किनको दिया हुआ दान महान् फल देनेवाला होता है? तथा कैसे ब्राह्मणोंको भोजन कराना चाहिये? यह मुझे बताइये॥३२॥
मूलम् (वचनम्)
भीष्म उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
अक्रोधना धर्मपराः सत्यनित्या दमे रताः।
तादृशाः साधवो विप्रास्तेभ्यो दत्तं महाफलम् ॥ ३३ ॥
मूलम्
अक्रोधना धर्मपराः सत्यनित्या दमे रताः।
तादृशाः साधवो विप्रास्तेभ्यो दत्तं महाफलम् ॥ ३३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
भीष्मजीने कहा— राजन्! जो क्रोधरहित, धर्मपरायण, सत्यनिष्ठ और इन्द्रियसंयममें तत्पर हैं, ऐसे ब्राह्मणोंको श्रेष्ठ समझना चाहिये और उन्हींको दान देनेसे महान् फलकी प्राप्ति होती है (अतः उन्हींको श्राद्धमें भोजन कराना चाहिये)॥३३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अमानिनः सर्वसहा दृढार्था विजितेन्द्रियाः।
सर्वभूतहिता मैत्रास्तेभ्यो दत्तं महाफलम् ॥ ३४ ॥
मूलम्
अमानिनः सर्वसहा दृढार्था विजितेन्द्रियाः।
सर्वभूतहिता मैत्रास्तेभ्यो दत्तं महाफलम् ॥ ३४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
जिनमें अभिमानका नाम नहीं है, जो सब कुछ सह लेते हैं, जिनका विचार दृढ़ है, जो जितेन्द्रिय, सम्पूर्ण प्राणियोंके हितकारी तथा सबके प्रति मैत्रीभाव रखनेवाले हैं, उनको दिया हुआ दान महान् फल देनेवाला है॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अलुब्धाः शुचयो वैद्या ह्रीमन्तः सत्यवादिनः।
स्वकर्मनिरता ये च तेभ्यो दत्तं महाफलम् ॥ ३५ ॥
मूलम्
अलुब्धाः शुचयो वैद्या ह्रीमन्तः सत्यवादिनः।
स्वकर्मनिरता ये च तेभ्यो दत्तं महाफलम् ॥ ३५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
जो निर्लोभ, पवित्र, विद्वान्, संकोची, सत्यवादी और अपने कर्तव्यका पालन करनेवाले हैं, उनको दिया हुआ दान भी महान् फलदायक होता है॥३५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
साङ्गांश्च चतुरो वेदानधीते यो द्विजर्षभः।
षड्भ्यः प्रवृत्तः कर्मभ्यस्तं पात्रमृषयो विदुः ॥ ३६ ॥
मूलम्
साङ्गांश्च चतुरो वेदानधीते यो द्विजर्षभः।
षड्भ्यः प्रवृत्तः कर्मभ्यस्तं पात्रमृषयो विदुः ॥ ३६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
जो श्रेष्ठ ब्राह्मण अंगोंसहित चारों वेदोंका अध्ययन करता और ब्राह्मणोचित छः कर्मों (अध्ययन-अध्यापन, यजन-याजन और दान-प्रतिग्रह) में प्रवृत्त रहता है, उसे ऋषिलोग दानका उत्तम पात्र समझते हैं॥३६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ये त्वेवंगुणजातीयास्तेभ्यो दत्तं महाफलम्।
सहस्रगुणमाप्नोति गुणार्हाय प्रदायकः ॥ ३७ ॥
मूलम्
ये त्वेवंगुणजातीयास्तेभ्यो दत्तं महाफलम्।
सहस्रगुणमाप्नोति गुणार्हाय प्रदायकः ॥ ३७ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
जो ब्राह्मण ऊपर बताये हुए गुणोंसे युक्त होते हैं, उन्हें दिया हुआ दान महान् फल देनेवाला है। गुणवान् एवं सुयोग्य पात्रको दान देनेवाला दाता सहस्रगुना फल पाता है॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
प्रज्ञाश्रुताभ्यां वृत्तेन शीलेन च समन्वितः।
तारयेत कुलं सर्वमेकोऽपीह द्विजर्षभः ॥ ३८ ॥
मूलम्
प्रज्ञाश्रुताभ्यां वृत्तेन शीलेन च समन्वितः।
तारयेत कुलं सर्वमेकोऽपीह द्विजर्षभः ॥ ३८ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
यदि उत्तम बुद्धि, शास्त्रकी विद्वत्ता, सदाचार और सुशीलता आदि उत्तम गुणोंसे सम्पन्न एक श्रेष्ठ ब्राह्मण भी दान स्वीकार कर ले तो वह दाताके सम्पूर्ण कुलका उद्धार कर देता है॥३८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
गामश्वं वित्तमन्नं वा तद्विधे प्रतिपादयेत्।
द्रव्याणि चान्यानि तथा प्रेत्यभावे न शोचति ॥ ३९ ॥
मूलम्
गामश्वं वित्तमन्नं वा तद्विधे प्रतिपादयेत्।
द्रव्याणि चान्यानि तथा प्रेत्यभावे न शोचति ॥ ३९ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
अतः ऐसे गुणवान् पुरुषको ही गाय, घोड़ा, अन्न, धन तथा दूसरे पदार्थ देने चाहिये। ऐसा करनेसे दाताको मरनेके बाद पश्चात्ताप नहीं करना पड़ता॥३९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तारयेत कुलं सर्वमेकोऽपीह द्विजोत्तमः।
किमङ्ग पुनरेवैते तस्मात् पात्रं समाचरेत् ॥ ४० ॥
(तृप्ते तृप्ताः सर्व देवाः पितरो मुनयोऽपि च।)
मूलम्
तारयेत कुलं सर्वमेकोऽपीह द्विजोत्तमः।
किमङ्ग पुनरेवैते तस्मात् पात्रं समाचरेत् ॥ ४० ॥
(तृप्ते तृप्ताः सर्व देवाः पितरो मुनयोऽपि च।)
अनुवाद (हिन्दी)
एक भी उत्तम ब्राह्मण श्राद्धकर्ताके समस्त कुलको तार सकता है। यदि उपर्युक्त बहुत-से ब्राह्मण तार दें इसमें तो कहना ही क्या है। अतः सुपात्रकी खोज करनी चाहिये। उससे तृप्त होनेपर सम्पूर्ण देवता, पितर और ऋषि भी तृप्त हो जाते हैं॥४०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
निशम्य च गुणोपेतं ब्राह्मणं साधुसम्मतम्।
दूरादानाय्य सत्कृत्य सर्वतश्चापि पूजयेत् ॥ ४१ ॥
मूलम्
निशम्य च गुणोपेतं ब्राह्मणं साधुसम्मतम्।
दूरादानाय्य सत्कृत्य सर्वतश्चापि पूजयेत् ॥ ४१ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
सत्पुरुषोंद्वारा सम्मानित गुणवान् ब्राह्मण यदि कहीं दूर भी सुनायी पड़े तो उसको वहाँसे अपने यहाँ बुलाकर उसका हर प्रकारसे पूजन और सत्कार करना चाहिये॥
मूलम् (समाप्तिः)
इति श्रीमहाभारते अनुशासनपर्वणि दानधर्मपर्वणि बहुप्राश्निके द्वाविंशोऽध्यायः ॥ २२ ॥
मूलम् (वचनम्)
इस प्रकार श्रीमहाभारत अनुशासनपर्वके अन्तर्गत दानधर्मपर्वमें बहुत-से प्रश्नोंका निर्णयविषयक बाईसवाँ अध्याय पूरा हुआ॥२२॥
सूचना (हिन्दी)
(दाक्षिणात्य अधिक पाठके ४६ श्लोक मिलाकर कुल ८७ श्लोक हैं)
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श्राद्धमें भोजन करने योग्य ब्राह्मणोंके विषयमें स्मृतियोंमें इस प्रकार उल्लेख मिलता है—कर्मनिष्ठास्तपोनिष्ठाः पञ्चाग्निब्रह्मचारिणः। पितृमातृपराश्चैव ब्राह्मणाः श्राद्धसम्पदः॥ तथा—‘व्रतस्थमपि दौहित्रं श्राद्धे यत्नेन भोजयेत्।’ तात्पर्य यह है कि क्रियानिष्ठ, तपस्वी, पञ्चाग्निका सेवन करनेवाले, ब्रह्मचारी तथा पिता-माताके भक्त—ये पाँच प्रकारके ब्राह्मण श्राद्धकी सम्पत्ति हैं। इन्हें भोजन करानेसे श्राद्धकर्मका पूर्णतया सम्पादन होता है।’ तथा ‘अपनी कन्याका बेटा ब्रह्मचारी हो तो भी यत्नपूर्वक उसे श्राद्धमें भोजन कराना चाहिये।’ ऐसा करनेसे श्राद्धकर्ता पुण्यका भागी होता है। केवल श्राद्धमें ही ऐसी छूट दी गयी है। श्राद्धके अतिरिक्त और किसी कर्ममें ब्रह्मचारीको लोभ आदि दिखाकर जो उसके व्रतको भंग करता है, उसे दोषका भागी होना पड़ता है और अपने किये हुए दानका भी पूरा-पूरा फल नहीं मिलता। इसीलिये शास्त्रमें लिखा है कि ‘मनसा पात्रमुद्दिश्य जलमध्ये जलं क्षिपेत्। दाता तत्फलमाप्नोति प्रतिग्राही न दोषभाक्॥’ अर्थात् ‘यदि किसी सुपात्र (ब्रह्मचारी आदि)-को दान देना हो तो उसका मनमें ध्यान करे और उसे दान देनेके उद्देश्यसे हाथमें संकल्पका जल लेकर उसे जलहीमें छोड़ दे। इससे दाताको दानका फल मिल जाता है और दान लेनेवालेको दोषका भागी नहीं होना पड़ता।’ यह बात सत्पात्रका आदर करनेके लिये बतायी गयी है। (नीलकण्ठी) ↩︎