०२१ अष्टावक्रदिक्संवादे

भागसूचना

एकविंशोऽध्यायः

सूचना (हिन्दी)

अष्टावक्र और उत्तरदिशाका संवाद, अष्टावक्रका अपने घर लौटकर वदान्य ऋषिकी कन्याके साथ विवाह करना

मूलम् (वचनम्)

युधिष्ठिर उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

न बिभेति कथं सा स्त्री शापाच्च परमद्युतेः।
कथं निवृत्तो भगवांस्तद् भवान् प्रब्रवीतु मे ॥ १ ॥

मूलम्

न बिभेति कथं सा स्त्री शापाच्च परमद्युतेः।
कथं निवृत्तो भगवांस्तद् भवान् प्रब्रवीतु मे ॥ १ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

युधिष्ठिरने पूछा— पितामह! वह स्त्री उन महातेजस्वी ऋषिके शापसे डरती कैसे नहीं थी; और वे भगवान् अष्टावक्र किस तरह वहाँसे लौटे थे? यह सब मुझे बताइये॥१॥

मूलम् (वचनम्)

भीष्म उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

अष्टावक्रोऽन्वपृच्छत् तां रूपं विकुरुषे कथम्।
न चानृतं ते वक्तव्यं ब्रूहि ब्राह्मणकाम्यया ॥ २ ॥

मूलम्

अष्टावक्रोऽन्वपृच्छत् तां रूपं विकुरुषे कथम्।
न चानृतं ते वक्तव्यं ब्रूहि ब्राह्मणकाम्यया ॥ २ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

भीष्मजीने कहा— राजन्! सुनो, अष्टावक्रने उस स्त्रीसे पूछा, ‘तुम अपना रूप बदलती क्यों रहती हो? बताओ, यदि मुझ-जैसे ब्राह्मणसे सम्मान पानेकी इच्छा हो तो झूठ न बोलना’॥२॥

मूलम् (वचनम्)

स्त्र्युवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

द्यावापृथिव्योर्यत्रैषा काम्या ब्राह्मणसत्तम ।
शृणुष्वावहितः सर्वं यदिदं सत्यविक्रम ॥ ३ ॥

मूलम्

द्यावापृथिव्योर्यत्रैषा काम्या ब्राह्मणसत्तम ।
शृणुष्वावहितः सर्वं यदिदं सत्यविक्रम ॥ ३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

स्त्री बोली— ब्राह्मणशिरोमणे! स्वर्गलोक हो या मर्त्यलोक, जिस किसी भी स्थानमें स्त्री और पुरुष निवास करते हैं, वहाँ उनमें परस्पर संयोगकी यह कामना सदा बनी रहती है। सत्यपराक्रमी विप्र! यह सब जो रूपपरिवर्तनकी लीला की गयी है, उसका कारण बताती हूँ, सावधान होकर सुनिये॥३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

जिज्ञासेयं प्रयुक्ता मे स्थिरीकर्तुं तवानघ।
अव्युत्थानेन ते लोका जिताः सत्यपराक्रम ॥ ४ ॥

मूलम्

जिज्ञासेयं प्रयुक्ता मे स्थिरीकर्तुं तवानघ।
अव्युत्थानेन ते लोका जिताः सत्यपराक्रम ॥ ४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

निर्दोष ब्राह्मण! आपको दृढ़ करनेके लिये आपकी परीक्षा लेनेके उद्देश्यसे ही मैंने यह कार्य किया है। सत्यपराक्रमी द्विज! आपने अपने धर्मसे विचलित न होकर समस्त पुण्यलोकोंको जीत लिया है॥४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

उत्तरां मां दिशं विद्धि दृष्टं स्त्रीचापलं च ते।
स्थविराणामपि स्त्रीणां बाधते मैथुनज्वरः ॥ ५ ॥

मूलम्

उत्तरां मां दिशं विद्धि दृष्टं स्त्रीचापलं च ते।
स्थविराणामपि स्त्रीणां बाधते मैथुनज्वरः ॥ ५ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

आप मुझे उत्तरदिशा समझें। स्त्रीमें कितनी चपलता होती है—यह आपने प्रत्यक्ष देखा है। बूढ़ी स्त्रियोंको भी मैथुनके लिये होनेवाला कामजनित संताप कष्ट देता रहता है॥५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

(अविश्वासान्न व्यसनी नातिसक्तोऽप्रवासकः ।
विद्वान् सुशीलः पुरुषः सदारः सुखमश्नुते॥)

मूलम्

(अविश्वासान्न व्यसनी नातिसक्तोऽप्रवासकः ।
विद्वान् सुशीलः पुरुषः सदारः सुखमश्नुते॥)

अनुवाद (हिन्दी)

जो कहीं भी विश्वास न करनेके कारण किसी व्यसनमें नहीं फँसता, कहीं भी अधिक आसक्त नहीं होता, परदेशमें नहीं रहता तथा जो विद्वान् और सुशील है, वही पुरुष स्त्रीके साथ रहकर सुख भोगता है॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तुष्टः पितामहस्तेऽद्य तथा देवाः सवासवाः।
स त्वं येन च कार्येण सम्प्राप्तो भगवानिह ॥ ६ ॥
प्रेषितस्तेन विप्रेण कन्यापित्रा द्विजर्षभ।
तवोपदेशं कर्तुं वै तच्च सर्वं कृतं मया ॥ ७ ॥

मूलम्

तुष्टः पितामहस्तेऽद्य तथा देवाः सवासवाः।
स त्वं येन च कार्येण सम्प्राप्तो भगवानिह ॥ ६ ॥
प्रेषितस्तेन विप्रेण कन्यापित्रा द्विजर्षभ।
तवोपदेशं कर्तुं वै तच्च सर्वं कृतं मया ॥ ७ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

आज आपके ऊपर ब्रह्माजी तथा इन्द्रसहित सम्पूर्ण देवता संतुष्ट हैं। भगवन् द्विजश्रेष्ठ! आप यहाँ जिस कार्यसे आये हैं, वह सफल हो गया। उस कन्याके पिता वदान्य ऋषिने मेरे पास आपको उपदेश देनेके लिये भेजा था। वह सब मैंने कर दिया॥६-७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

क्षेमैर्गमिष्यसि गृहं श्रमश्च न भविष्यति।
कन्यां प्राप्स्यसि तां विप्र पुत्रिणी च भविष्यति ॥ ८ ॥

मूलम्

क्षेमैर्गमिष्यसि गृहं श्रमश्च न भविष्यति।
कन्यां प्राप्स्यसि तां विप्र पुत्रिणी च भविष्यति ॥ ८ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

विप्रवर! अब आप कुशलपूर्वक अपने घरको जायँगे और मार्गमें आपको कोई श्रम अथवा कष्ट नहीं होगा। उस मनोनीत कन्याको आप प्राप्त कर लेंगे और आपके द्वारा वह पुत्रवती भी होगी ही॥८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

काम्यया पृष्टवांस्त्वं मां ततो व्याहृतमुत्तमम्।
अनतिक्रमणीया सा कृत्स्नौर्लोकैस्त्रिभिः सदा ॥ ९ ॥

मूलम्

काम्यया पृष्टवांस्त्वं मां ततो व्याहृतमुत्तमम्।
अनतिक्रमणीया सा कृत्स्नौर्लोकैस्त्रिभिः सदा ॥ ९ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

आपने जाननेकी इच्छासे मुझसे यह बात पूछी थी, इसलिये मैंने अच्छे ढंगसे सब कुछ बता दिया। तीनों लोकोंके सम्पूर्ण निवासियोंके लिये भी ब्राह्मणकी आज्ञा कदापि उल्लंघनीय नहीं होती॥९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

गच्छस्व सुकृतं कृत्वा किं चान्यच्छ्रोतुमिच्छसि।
यावद् ब्रवीमि विप्रर्षे अष्टावक्र यथातथम् ॥ १० ॥

मूलम्

गच्छस्व सुकृतं कृत्वा किं चान्यच्छ्रोतुमिच्छसि।
यावद् ब्रवीमि विप्रर्षे अष्टावक्र यथातथम् ॥ १० ॥

अनुवाद (हिन्दी)

ब्रह्मर्षि अष्टावक्र! आप पुण्यका उपार्जन करके जाइये। और क्या सुनना चाहते हैं? कहिये, मैं वह सब कुछ यथार्थरूपसे बताऊँगी॥१०॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

ऋषिणा प्रसादिता चास्मि तव हेतोर्द्विजर्षभ।
तस्य सम्माननार्थं मे त्वयि वाक्यं प्रभाषितम् ॥ ११ ॥

मूलम्

ऋषिणा प्रसादिता चास्मि तव हेतोर्द्विजर्षभ।
तस्य सम्माननार्थं मे त्वयि वाक्यं प्रभाषितम् ॥ ११ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

द्विजश्रेष्ठ! वदान्य मुनिने आपके लिये मुझे प्रसन्न किया था; अतः उनके सम्मानके लिये ही मैंने ये सारी बातें कही हैं॥११॥

मूलम् (वचनम्)

भीष्म उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

श्रुत्वा तु वचनं तस्याः स विप्रः प्राञ्जलिः स्थितः।
अनुज्ञातस्तया चापि स्वगृहं पुनराव्रजत् ॥ १२ ॥

मूलम्

श्रुत्वा तु वचनं तस्याः स विप्रः प्राञ्जलिः स्थितः।
अनुज्ञातस्तया चापि स्वगृहं पुनराव्रजत् ॥ १२ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

भीष्मजी कहते हैं— भारत! उस स्त्रीकी बात सुनकर विप्रवर अष्टावक्र उसके सामने हाथ जोड़कर खड़े हो गये। फिर उसकी आज्ञा ले पुनः अपने घरको लौट आये॥१२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

गृहमागत्य विश्रान्तः स्वजनं परिपृच्छ्‌य च।
अभ्यगच्छच्च तं विप्रं न्यायतः कुरुनन्दन ॥ १३ ॥

मूलम्

गृहमागत्य विश्रान्तः स्वजनं परिपृच्छ्‌य च।
अभ्यगच्छच्च तं विप्रं न्यायतः कुरुनन्दन ॥ १३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

कुरुनन्दन! घर आकर उन्होंने विश्राम किया और स्वजनोंसे पूछकर वे न्यायानुसार फिर ब्राह्मण वदान्यके घर गये॥१३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

पृष्टश्च तेन विप्रेण दृष्टं त्वेतन्निदर्शनम्।
प्राह विप्रं तदा विप्रः सुप्रीतेनान्तरात्मना ॥ १४ ॥

मूलम्

पृष्टश्च तेन विप्रेण दृष्टं त्वेतन्निदर्शनम्।
प्राह विप्रं तदा विप्रः सुप्रीतेनान्तरात्मना ॥ १४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

ब्राह्मणने उनकी यात्राके विषयमें पूछा, तब उन्होंने प्रसन्नचित्तसे जो कुछ वहाँ देखा था, सब बताना आरम्भ किया—॥१४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

भवता समनुज्ञातः प्रास्थितो गन्धमादनम्।
तस्य चोत्तरतो देशे दृष्टं मे दैवतं महत् ॥ १५ ॥
तया चाहमनुज्ञातो भवांश्चापि प्रकीर्तितः।
श्रावितश्चापि तद्वाक्यं गृहं चाभ्यागतः प्रभोः ॥ १६ ॥

मूलम्

भवता समनुज्ञातः प्रास्थितो गन्धमादनम्।
तस्य चोत्तरतो देशे दृष्टं मे दैवतं महत् ॥ १५ ॥
तया चाहमनुज्ञातो भवांश्चापि प्रकीर्तितः।
श्रावितश्चापि तद्वाक्यं गृहं चाभ्यागतः प्रभोः ॥ १६ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘महर्षे! आपकी आज्ञा पाकर मैं उत्तर दिशामें गन्ध-मादनपर्वतकी ओर चल दिया। उससे भी उत्तर जानेपर मुझे एक महती देवीका दर्शन हुआ। उसने मेरी परीक्षा ली और आपका भी परिचय दिया। प्रभो! फिर उसने अपनी बात सुनायी और उसकी आज्ञा लेकर मैं अपने घर आ गया’॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तमुवाच तदा विप्रः सुतां प्रतिगृहाण मे।
नक्षत्रविधियोगेन पात्रं हि परमं भवान् ॥ १७ ॥

मूलम्

तमुवाच तदा विप्रः सुतां प्रतिगृहाण मे।
नक्षत्रविधियोगेन पात्रं हि परमं भवान् ॥ १७ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

तब ब्राह्मण वदान्यने कहा—‘आप उत्तम नक्षत्रमें विधिपूर्वक मेरी पुत्रीका पाणिग्रहण कीजिये; क्योंकि आप अत्यन्त सुयोग्य पात्र हैं’॥१७॥

मूलम् (वचनम्)

भीष्म उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

अष्टावक्रस्तथेत्युक्त्वा प्रतिगृह्य च तां प्रभो।
कन्यां परमधर्मात्मा प्रीतिमांश्चाभवत् तदा ॥ १८ ॥

मूलम्

अष्टावक्रस्तथेत्युक्त्वा प्रतिगृह्य च तां प्रभो।
कन्यां परमधर्मात्मा प्रीतिमांश्चाभवत् तदा ॥ १८ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

भीष्मजी कहते हैं— प्रभो! तदनन्तर ‘तथास्तु’ कहकर परम धर्मात्मा अष्टावक्रने उस कन्याका पाणिग्रहण किया। इससे उन्हें बड़ी प्रसन्नता हुई॥१८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

कन्यां तां प्रतिगृह्यैव भार्यां परमशोभनाम्।
उवास मुदितस्तत्र स्वाश्रमे विगतज्वरः ॥ १९ ॥

मूलम्

कन्यां तां प्रतिगृह्यैव भार्यां परमशोभनाम्।
उवास मुदितस्तत्र स्वाश्रमे विगतज्वरः ॥ १९ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

उस परम सुन्दरी कन्याका पत्नीरूपमें दान पाकर अष्टावक्र मुनिकी सारी चिन्ता दूर हो गयी और वे अपने आश्रममें उसके साथ आनन्दपूर्वक रहने लगे॥१९॥

मूलम् (समाप्तिः)

इति श्रीमहाभारते अनुशासनपर्वणि दानधर्मपर्वणि अष्टावक्रदिक्संवादे एकविंशोऽध्यायः ॥ २१ ॥

मूलम् (वचनम्)

इस प्रकार श्रीमहाभारत अनुशासनपर्वके अन्तर्गत दानधर्मपर्वमें अष्टावक्र और उत्तरदिशाका संवादविषयक इक्कीसवाँ अध्याय पूरा हुआ॥२१॥

सूचना (हिन्दी)

(दाक्षिणात्य अधिक पाठका १ श्लोक मिलाकर कुल २० श्लोक हैं)