०२० अष्टावक्रदिक्संवादे

भागसूचना

विंशोऽध्यायः

सूचना (हिन्दी)

अष्टावक्र और उत्तर दिशाका संवाद

मूलम् (वचनम्)

भीष्म उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

अथ सा स्त्री तमुवाच बाढमेवं भवत्विति।
तैलं दिव्यमुपादाय स्नानशाटीमुपानयत् ॥ १ ॥

मूलम्

अथ सा स्त्री तमुवाच बाढमेवं भवत्विति।
तैलं दिव्यमुपादाय स्नानशाटीमुपानयत् ॥ १ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

भीष्मजी कहते हैं— राजन्! ऋषिकी बात सुनकर उस स्त्रीने कहा—‘बहुत अच्छा, ऐसा ही हो’ यों कहकर वह दिव्य तेल और स्नानोपयोगी वस्त्र ले आयी॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अनुज्ञाता च मुनिना सा स्त्री तेन महात्मना।
अथास्य तैलेनाङ्गानि सर्वाण्येवाभ्यमृक्षत ॥ २ ॥

मूलम्

अनुज्ञाता च मुनिना सा स्त्री तेन महात्मना।
अथास्य तैलेनाङ्गानि सर्वाण्येवाभ्यमृक्षत ॥ २ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

फिर उन महात्मा मुनिकी आज्ञा लेकर उस स्त्रीने उनके सारे अंगोंमें तेलकी मालिश की॥२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

शनैश्चोत्सादितस्तत्र स्नानशालामुपागमत् ।
भद्रासनं ततश्चित्रमृषिरन्वगमन्नवम् ॥ ३ ॥

मूलम्

शनैश्चोत्सादितस्तत्र स्नानशालामुपागमत् ।
भद्रासनं ततश्चित्रमृषिरन्वगमन्नवम् ॥ ३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

फिर उसके उठानेपर वे धीरेसे वहाँ स्नानगृहमें गये। वहाँ ऋषिको एक विचित्र एवं नूतन चौकी प्राप्त हुई॥३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अथोपविष्टश्च यदा तस्मिन् भद्रासने तदा।
स्नापयामास शनकैस्तमृषिं सुखहस्तवत् ॥ ४ ॥

मूलम्

अथोपविष्टश्च यदा तस्मिन् भद्रासने तदा।
स्नापयामास शनकैस्तमृषिं सुखहस्तवत् ॥ ४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

जब वे उस सुन्दर चौकीपर बैठ गये तब उस स्त्रीने धीरे-धीरे हाथोंके कोमल स्पर्शसे उन्हें नहलाया॥४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

दिव्यं च विधिवच्चक्रे सोपचारं मुनेस्तदा।
स तेन सुसुखोष्णेन तस्या हस्तसुखेन च ॥ ५ ॥
व्यतीतां रजनीं कृत्स्नां नाजानात् स महाव्रतः।

मूलम्

दिव्यं च विधिवच्चक्रे सोपचारं मुनेस्तदा।
स तेन सुसुखोष्णेन तस्या हस्तसुखेन च ॥ ५ ॥
व्यतीतां रजनीं कृत्स्नां नाजानात् स महाव्रतः।

अनुवाद (हिन्दी)

उसने मुनिके लिये विधिपूर्वक सम्पूर्ण दिव्य सामग्री प्रस्तुत की। वे महाव्रतधारी मुनि उसके दिये हुए कुछ-कुछ गरम होनेके कारण सुखदायक जलसे नहाकर उसके हाथोंके सुखद स्पर्शसे सेवित होकर इतने आनन्दविभोर हो गये कि कब सारी रात बीत गयी? इसका उन्हें ज्ञान ही नहीं हुआ॥५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तत उत्थाय स मुनिस्तदा परमविस्मितः ॥ ६ ॥
पूर्वस्यां दिशि सूर्यं च सोऽपश्यदुदितं दिवि।
तस्य बुद्धिरियं किं नु मोहस्तत्त्वमिदं भवेत् ॥ ७ ॥

मूलम्

तत उत्थाय स मुनिस्तदा परमविस्मितः ॥ ६ ॥
पूर्वस्यां दिशि सूर्यं च सोऽपश्यदुदितं दिवि।
तस्य बुद्धिरियं किं नु मोहस्तत्त्वमिदं भवेत् ॥ ७ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

तदनन्तर वे मुनि अत्यन्त आश्चर्यचकित होकर उठ बैठे। उन्होंने देखा कि पूर्व-दिशाके आकाशमें सूर्यदेवका उदय हो गया है। वे सोचने लगे, क्या यह मेरा मोह है या वास्तवमें सूर्योदय हो गया है॥६-७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अथोपास्य सहस्रांशुं किं करोमीत्युवाच ताम्।
सा चामृतरसप्रख्यं ऋषेरन्नमुपाहरत् ॥ ८ ॥

मूलम्

अथोपास्य सहस्रांशुं किं करोमीत्युवाच ताम्।
सा चामृतरसप्रख्यं ऋषेरन्नमुपाहरत् ॥ ८ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

फिर तो तत्काल स्नान, संध्योपासना और सूर्योपस्थान करके उससे बोले, ‘अब क्या करूँ?’ तब उस स्त्रीने ऋषिके समक्ष अमृतरसके समान मधुर अन्न परोसकर रखा॥८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तस्य स्वादुतयान्नस्य न प्रभूतं चकार सः।
व्यगमच्चाप्यहःशेषं ततः संध्यागमत् पुनः ॥ ९ ॥

मूलम्

तस्य स्वादुतयान्नस्य न प्रभूतं चकार सः।
व्यगमच्चाप्यहःशेषं ततः संध्यागमत् पुनः ॥ ९ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

उस अन्नके स्वादसे वे इतने आकृष्ट हो गये कि उसे पर्याप्त न मान सके—‘बस अब पूरा हो गया’ यह बात न कह सके। इसीमें सारा दिन निकल गया और पुनः संध्याकाल आ पहुँचा॥९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अथ सा स्त्री भगवन्तं सुप्यतामित्यचोदयत्।
तत्र वै शयने दिव्ये तस्य तस्याश्च कल्पिते ॥ १० ॥

मूलम्

अथ सा स्त्री भगवन्तं सुप्यतामित्यचोदयत्।
तत्र वै शयने दिव्ये तस्य तस्याश्च कल्पिते ॥ १० ॥

अनुवाद (हिन्दी)

इसके बाद उस स्त्रीने भगवान् अष्टावक्रसे कहा—‘अब आप सो जाइये।’ फिर वहीं उनके और उस स्त्रीके लिये दो शय्याएँ बिछायी गयीं॥१०॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

पृथक् चैव तथा सुप्तौ सा स्त्री स च मुनिस्तदा।
तथार्धरात्रे सा स्त्री तु शयनं तदुपागमत् ॥ ११ ॥

मूलम्

पृथक् चैव तथा सुप्तौ सा स्त्री स च मुनिस्तदा।
तथार्धरात्रे सा स्त्री तु शयनं तदुपागमत् ॥ ११ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

उस समय वह स्त्री और मुनि दोनों अलग-अलग सो गये। जब आधी रात हुई तब वह स्त्री उठकर मुनिकी शय्यापर आ बैठी॥११॥

मूलम् (वचनम्)

अष्टावक्र उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

न भद्रे परदारेषु मनो मे सम्प्रसज्जति।
उत्तिष्ठ भद्रे भद्रं ते स्वयं वै विरमस्व च॥१२॥

मूलम्

न भद्रे परदारेषु मनो मे सम्प्रसज्जति।
उत्तिष्ठ भद्रे भद्रं ते स्वयं वै विरमस्व च॥१२॥

अनुवाद (हिन्दी)

अष्टावक्र बोले— भद्रे! मेरा मन परायी स्त्रियोंमें आसक्त नहीं होता है। तुम्हारा भला हो, यहाँसे उठो और स्वयं ही इस पापकर्मसे विरत हो जाओ॥१२॥

मूलम् (वचनम्)

भीष्म उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

सा तदा तेन विप्रेण तथा तेन निवर्तिता।
स्वतन्त्रास्मीत्युवाचर्षिं न धर्मच्छलमस्ति ते ॥ १३ ॥

मूलम्

सा तदा तेन विप्रेण तथा तेन निवर्तिता।
स्वतन्त्रास्मीत्युवाचर्षिं न धर्मच्छलमस्ति ते ॥ १३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

भीष्मजी कहते हैं— राजन्! इस प्रकार उन ब्रह्मर्षिके लौटानेपर उसने कहा—‘मैं स्वतन्त्र हूँ; अतः मेरे साथ समागम करनेसे आपके धर्मकी छलना नहीं होगी’॥१३॥

मूलम् (वचनम्)

अष्टावक्र उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

नास्ति स्वतन्त्रता स्त्रीणामस्वतन्त्रा हि योषितः।
प्रजापतिमतं ह्येतन्न स्त्री स्वातन्त्र्यमर्हति ॥ १४ ॥

मूलम्

नास्ति स्वतन्त्रता स्त्रीणामस्वतन्त्रा हि योषितः।
प्रजापतिमतं ह्येतन्न स्त्री स्वातन्त्र्यमर्हति ॥ १४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

अष्टावक्र बोले— भद्रे! स्त्रियोंकी स्वतन्त्रता नहीं सिद्ध होती; क्योंकि वे परतन्त्र मानी गयी हैं। प्रजापतिका यह मत है कि स्त्री स्वतन्त्र रहनेयोग्य नहीं है॥१४॥

मूलम् (वचनम्)

स्त्र्युवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

बाधते मैथुनं विप्र मम भक्तिं च पश्य वै।
अधर्मं प्राप्स्यसे विप्र यन्मां त्वं नाभिनन्दसि ॥ १५ ॥

मूलम्

बाधते मैथुनं विप्र मम भक्तिं च पश्य वै।
अधर्मं प्राप्स्यसे विप्र यन्मां त्वं नाभिनन्दसि ॥ १५ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

स्त्री बोली— ब्रह्मन्! मुझे मैथुनकी भूख सता रही है। आपके प्रति जो मेरी भक्ति है, इसपर भी तो दृष्टिपात कीजिये। विप्रवर! यदि आप मुझे संतुष्ट नहीं करते हैं तो आपको पाप लगेगा॥१५॥

मूलम् (वचनम्)

अष्टावक्र उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

हरन्ति दोषजातानि नरं जातं यथेच्छकम्।
प्रभवामि सदा धृत्या भद्रे स्वशयनं व्रज ॥ १६ ॥

मूलम्

हरन्ति दोषजातानि नरं जातं यथेच्छकम्।
प्रभवामि सदा धृत्या भद्रे स्वशयनं व्रज ॥ १६ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

अष्टावक्रने कहा— भद्रे! स्वेच्छाचारी मनुष्यको ही सब प्रकारके पापसमूह अपनी ओर खींचते हैं। मैं धैर्यके द्वारा सदा अपने मनको काबूमें रखता हूँ; अतः तुम अपनी शय्यापर लौट जाओ॥१६॥

मूलम् (वचनम्)

स्त्र्युवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

शिरसा प्रणमे विप्र प्रसादं कर्तुमर्हसि।
भूमौ निपतमानायाः शरणं भव मेऽनघ ॥ १७ ॥

मूलम्

शिरसा प्रणमे विप्र प्रसादं कर्तुमर्हसि।
भूमौ निपतमानायाः शरणं भव मेऽनघ ॥ १७ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

स्त्री बोली— अनघ! विप्रवर! मैं सिर झुकाकर प्रणाम करती हूँ और आपके सामने पृथ्वीपर पड़ी हूँ। आप मुझपर कृपा करें और मुझे शरण दें॥१७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

यदि वा दोषजातं त्वं परदारेषु पश्यसि।
आत्मानं स्पर्शयाम्यद्य पाणिं गृह्णीष्व मे द्विज ॥ १८ ॥

मूलम्

यदि वा दोषजातं त्वं परदारेषु पश्यसि।
आत्मानं स्पर्शयाम्यद्य पाणिं गृह्णीष्व मे द्विज ॥ १८ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

ब्रह्मन्! यदि आप परायी स्त्रियोंके साथ समागममें दोष देखते हैं तो मैं स्वयं आपको अपना दान करती हूँ। आप मेरा पाणिग्रहण कीजिये॥१८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

न दोषो भविता चैव सत्येनैतद् ब्रवीम्यहम्।
स्वतन्त्रां मां विजानीहि योऽधर्मः सोऽस्तु वै मयि।
त्वय्यावेशितचित्ता च स्वतन्त्रास्मि भजस्व माम् ॥ १९ ॥

मूलम्

न दोषो भविता चैव सत्येनैतद् ब्रवीम्यहम्।
स्वतन्त्रां मां विजानीहि योऽधर्मः सोऽस्तु वै मयि।
त्वय्यावेशितचित्ता च स्वतन्त्रास्मि भजस्व माम् ॥ १९ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

मैं सच कहती हूँ, आपको कोई दोष नहीं लगेगा। आप मुझे स्वतन्त्र समझिये। इसमें जो पाप होता है, वह मुझे ही लगे। मेरा चित्त आपके ही चिन्तनमें लगा है। मैं स्वतन्त्र हूँ; अतः मुझे स्वीकार कीजिये॥१९॥

मूलम् (वचनम्)

अष्टावक्र उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

स्वतन्त्रा त्वं कथं भद्रे ब्रूहि कारणमत्र वै।
नास्ति त्रिलोके स्त्री काचिद् या वै स्वातन्त्र्यमर्हति ॥ २० ॥

मूलम्

स्वतन्त्रा त्वं कथं भद्रे ब्रूहि कारणमत्र वै।
नास्ति त्रिलोके स्त्री काचिद् या वै स्वातन्त्र्यमर्हति ॥ २० ॥

अनुवाद (हिन्दी)

अष्टावक्रने कहा— भद्रे! तुम स्वतन्त्र कैसे हो? इसमें जो कारण हो, वह बताओ! तीनों लोकोंमें कोई ऐसी स्त्री नहीं है जो स्वतन्त्र रहने योग्य हो॥२०॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

पिता रक्षति कौमारे भर्ता रक्षति यौवने।
पुत्राश्च स्थाविरे काले नास्ति स्त्रीणां स्वतन्त्रता ॥ २१ ॥

मूलम्

पिता रक्षति कौमारे भर्ता रक्षति यौवने।
पुत्राश्च स्थाविरे काले नास्ति स्त्रीणां स्वतन्त्रता ॥ २१ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

कुमारावस्थामें पिता इसकी रक्षा करते हैं, जवानीमें वह पतिके संरक्षणमें रहती है और बुढ़ापेमें पुत्र उसकी देखभाल करते हैं। इस प्रकार स्त्रियोंके लिये स्वतन्त्रता नहीं है॥२१॥

मूलम् (वचनम्)

स्त्र्युवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

कौमारं ब्रह्मचर्यं मे कन्यैवास्मि न संशयः।
पत्नीं कुरुष्व मां विप्र श्रद्धां विजहि मा मम॥२२॥

मूलम्

कौमारं ब्रह्मचर्यं मे कन्यैवास्मि न संशयः।
पत्नीं कुरुष्व मां विप्र श्रद्धां विजहि मा मम॥२२॥

अनुवाद (हिन्दी)

स्त्री बोली— विप्रवर! मैं कुमारावस्थासे ही ब्रह्मचारिणी हूँ; अतः कन्या ही हूँ—इसमें संशय नहीं है। अब आप मुझे पत्नी बनाइये। मेरी श्रद्धाका नाश न कीजिये॥

मूलम् (वचनम्)

अष्टावक्र उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

यथा मम तथा तुभ्यं यथा तुभ्यं तथा मम।
जिज्ञासेयमृषेस्तस्य विघ्नः सत्यं न किं भवेत् ॥ २३ ॥

मूलम्

यथा मम तथा तुभ्यं यथा तुभ्यं तथा मम।
जिज्ञासेयमृषेस्तस्य विघ्नः सत्यं न किं भवेत् ॥ २३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

अष्टावक्रने कहा— जैसी मेरी दशा है, वैसी तुम्हारी है और जैसी तुम्हारी दशा है, वैसी मेरी है। यह वास्तवमें वदान्य ऋषिके द्वारा परीक्षा ली जा रही है या सचमुच यह कोई विघ्न तो नहीं है?॥२३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

आश्चर्यं परमं हीदं किं नु श्रेयो हि मे भवेत्।
दिव्याभरणवस्त्रा हि कन्येयं मामुपस्थिता ॥ २४ ॥

मूलम्

आश्चर्यं परमं हीदं किं नु श्रेयो हि मे भवेत्।
दिव्याभरणवस्त्रा हि कन्येयं मामुपस्थिता ॥ २४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

(वे मन-ही-मन सोचने लगे—) यह पहले वृद्धा थी और अब दिव्य वस्त्राभूषणोंसे विभूषित कन्यारूप होकर मेरी सेवामें उपस्थित है। यह बड़े ही आश्चर्यकी बात है। क्या यह मेरे लिये कल्याणकारी होगा?॥२४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

किं त्वस्याः परमं रूपं जीर्णमासीत् कथं पुनः।
कन्यारूपमिहाद्यैवं किमिवात्रोत्तरं भवेत् ॥ २५ ॥

मूलम्

किं त्वस्याः परमं रूपं जीर्णमासीत् कथं पुनः।
कन्यारूपमिहाद्यैवं किमिवात्रोत्तरं भवेत् ॥ २५ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

परंतु इसका यह परम सुन्दर रूप पहले जराजीर्ण कैसे हो गया था और अब यहाँ यह कन्यारूप कैसे प्रकट हो गया? ऐसी दशामें यहाँ उसके लिये क्या उत्तर हो सकता है?॥२५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

यथा परं शक्तिधृतेर्न व्युत्थास्ये कथंचन।
न रोचते हि व्युत्थानं सत्येनासादयाम्यहम् ॥ २६ ॥

मूलम्

यथा परं शक्तिधृतेर्न व्युत्थास्ये कथंचन।
न रोचते हि व्युत्थानं सत्येनासादयाम्यहम् ॥ २६ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

मुझमें कामको दमन करनेकी शक्ति है और पूर्वप्राप्त मुनि-कन्याको किसी तरह भी प्राप्त करनेका धैर्य बना हुआ है। इस शक्ति और धृतिके ही सहारे मैं किसी तरह विचलित नहीं होऊँगा। मुझे धर्मका उल्लंघन अच्छा नहीं लगता। मैं सत्यके सहारेसे ही पत्नीको प्राप्त करूँगा॥२६॥

मूलम् (समाप्तिः)

इति श्रीमहाभारते अनुशासनपर्वणि दानधर्मपर्वणि अष्टावक्रदिक्संवादे विंशोऽध्यायः ॥ २० ॥

मूलम् (वचनम्)

इस प्रकार श्रीमहाभारत अनुशासनपर्वके अन्तर्गत दानधर्मपर्वमें अष्टावक्र और उत्तरदिशाका संवादविषयक बीसवाँ अध्याय पूरा हुआ॥२०॥