भागसूचना
एकोनविंशोऽध्यायः
सूचना (हिन्दी)
अष्टावक्र मुनिका वदान्य ऋषिके कहनेसे उत्तर दिशाकी ओर प्रस्थान, मार्गमें कुबेरके द्वारा उनका स्वागत तथा स्त्रीरूपधारिणी उत्तरदिशाके साथ उनका संवाद
मूलम् (वचनम्)
युधिष्ठिर उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
यदिदं सहधर्मेति प्रोच्यते भरतर्षभ।
पाणिग्रहणकाले तु स्त्रीणामेतत् कथं स्मृतम् ॥ १ ॥
मूलम्
यदिदं सहधर्मेति प्रोच्यते भरतर्षभ।
पाणिग्रहणकाले तु स्त्रीणामेतत् कथं स्मृतम् ॥ १ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
युधिष्ठिरने पूछा— भरतश्रेष्ठ! जो यह स्त्रियोंके लिये विवाहकालमें सहधर्मकी बात कही जाती है, वह किस प्रकार बतायी गयी है?॥१॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
आर्ष एष भवेद् धर्मः प्राजापत्योऽथवाऽऽसुरः।
यदेतत् सहधर्मेति पूर्वमुक्तं महर्षिभिः ॥ २ ॥
मूलम्
आर्ष एष भवेद् धर्मः प्राजापत्योऽथवाऽऽसुरः।
यदेतत् सहधर्मेति पूर्वमुक्तं महर्षिभिः ॥ २ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
महर्षियोंने पूर्वकालमें जो यह स्त्री-पुरुषोंके सहधर्मकी बात कही है, यह आर्ष धर्म है या प्राजापत्य धर्म; अथवा आसुर धर्म है?॥२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
संदेहः सुमहानेष विरुद्ध इति मे मतिः।
इह यः सहधर्मो वै प्रेत्यायं विहितः क्व नु॥३॥
मूलम्
संदेहः सुमहानेष विरुद्ध इति मे मतिः।
इह यः सहधर्मो वै प्रेत्यायं विहितः क्व नु॥३॥
अनुवाद (हिन्दी)
मेरे मनमें यह महान् संदेह पैदा हो गया है। मैं तो ऐसा समझता हूँ कि यह सहधर्मका कथन विरुद्ध है। यहाँ जो सहधर्म है, वह मृत्युके पश्चात् कहाँ रहता है?॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
स्वर्गो मृतानां भवति सहधर्मः पितामह।
पूर्वमेकस्तु म्रियते क्व चैकस्तिष्ठते वद ॥ ४ ॥
मूलम्
स्वर्गो मृतानां भवति सहधर्मः पितामह।
पूर्वमेकस्तु म्रियते क्व चैकस्तिष्ठते वद ॥ ४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
पितामह! जबकि मरे हुए मनुष्योंका स्वर्गवास हो जाता है एवं पति और पत्नीमेंसे एककी पहले मृत्यु हो जाती है, तब एक व्यक्तिमें सहधर्म कहाँ रहता है? यह बताइये॥४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
नानाधर्मफलोपेता नानाकर्मनिवासिताः ।
नानानिरयनिष्ठान्ता मानुषा बहवो यदा ॥ ५ ॥
मूलम्
नानाधर्मफलोपेता नानाकर्मनिवासिताः ।
नानानिरयनिष्ठान्ता मानुषा बहवो यदा ॥ ५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
जब बहुत-से मनुष्य नाना प्रकारके धर्मफलसे संयुक्त होते हैं, नाना प्रकारके कर्मवश विभिन्न स्थानोंमें निवास करते हैं और शुभाशुभ कर्मोंके फल-स्वरूप स्वर्ग-नरक आदि नाना अवस्थाओंमें पड़ते हैं, तब वे सहधर्मका निर्वाह किस प्रकार कर सकते हैं?॥५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अनृताः स्त्रिय इत्येवं सूत्रकारो व्यवस्यति।
यदानृताः स्त्रियस्तात सहधर्मः कुतः स्मृतः ॥ ६ ॥
मूलम्
अनृताः स्त्रिय इत्येवं सूत्रकारो व्यवस्यति।
यदानृताः स्त्रियस्तात सहधर्मः कुतः स्मृतः ॥ ६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
धर्मसूत्रकार यह निश्चितरूपसे कहते हैं कि स्त्रियाँ असत्यपरायण होती हैं। तात! जब स्त्रियाँ असत्यवादिनी ही हैं तब उन्हें साथ रखकर सहधर्मका अनुष्ठान कैसे किया जा सकता है?॥६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अनृताः स्त्रिय इत्येवं वेदेष्वपि हि पठ्यते।
धर्मोऽयं पूर्विका संज्ञा उपचारः क्रियाविधिः ॥ ७ ॥
मूलम्
अनृताः स्त्रिय इत्येवं वेदेष्वपि हि पठ्यते।
धर्मोऽयं पूर्विका संज्ञा उपचारः क्रियाविधिः ॥ ७ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
वेदोंमें भी यह बात पढ़ी गयी है कि स्त्रियाँ असत्यभाषिणी होती हैं, ऐसी दशामें उनका वह असत्य भी सहधर्मके अन्तर्गत आ सकता है, किंतु असत्य कभी धर्म नहीं हो सकता; अतः दाम्पत्यधर्मको जो सहधर्म कहा गया है, यह उसकी गौण संज्ञा है। वे पति-पत्नी साथ रहकर जो भी कार्य करते हैं, उसीको उपचारतः धर्म नाम दे दिया गया है॥७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
गह्वरं प्रतिभात्येतन्मम चिन्तयतोऽनिशम् ।
निःसंदेहमिदं सर्वं पितामह यथाश्रुति ॥ ८ ॥
मूलम्
गह्वरं प्रतिभात्येतन्मम चिन्तयतोऽनिशम् ।
निःसंदेहमिदं सर्वं पितामह यथाश्रुति ॥ ८ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
पितामह! मैं ज्यों-ज्यों इस विषयपर विचार करता हूँ, त्यों-त्यों यह बात मुझे अत्यन्त दुर्बोध प्रतीत होती है। अतः आपने इस विषयमें जो कुछ श्रुतिका विधान हो, उसके अनुसार यह सब समझाइये जिससे मेरा संदेह दूर हो जाय॥८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
यदैतद् यादृशं चैतद् यथा चैतत् प्रवर्तितम्।
निखिलेन महाप्राज्ञ भवानेतद् ब्रवीतु मे ॥ ९ ॥
मूलम्
यदैतद् यादृशं चैतद् यथा चैतत् प्रवर्तितम्।
निखिलेन महाप्राज्ञ भवानेतद् ब्रवीतु मे ॥ ९ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
महामते! यह सहधर्म जबसे प्रचलित हुआ, जिस रूपमें सामने आया और जिस प्रकार इसकी प्रवृत्ति हुई, ये सारी बातें आप मुझे बताइये॥९॥
मूलम् (वचनम्)
भीष्म उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
अत्राप्युदाहरन्तीममितिहासं पुरातनम् ।
अष्टावक्रस्य संवादं दिशया सह भारत ॥ १० ॥
मूलम्
अत्राप्युदाहरन्तीममितिहासं पुरातनम् ।
अष्टावक्रस्य संवादं दिशया सह भारत ॥ १० ॥
अनुवाद (हिन्दी)
भीष्मजीने कहा— भरतनन्दन! इस विषयमें अष्टावक्र मुनिका उत्तर दिशाकी अधिष्ठात्रीदेवीके साथ जो संवाद हुआ था, उसी प्राचीन इतिहासका उदाहरण दिया जाता है॥१०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
निर्वेष्टुकामस्तु पुरा अष्टावक्रो महातपाः।
ऋषेरथ वदान्यस्य वव्रे कन्यां महात्मनः ॥ ११ ॥
मूलम्
निर्वेष्टुकामस्तु पुरा अष्टावक्रो महातपाः।
ऋषेरथ वदान्यस्य वव्रे कन्यां महात्मनः ॥ ११ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
पूर्वकालकी बात है, महातपस्वी अष्टावक्र विवाह करना चाहते थे, उन्होंने इसके लिये महात्मा वदान्य ऋषिसे उनकी कन्या माँगी॥११॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
सुप्रभां नाम वै नाम्ना रूपेणाप्रतिमां भुवि।
गुणप्रभावशीलेन चारित्रेण च शोभनाम् ॥ १२ ॥
मूलम्
सुप्रभां नाम वै नाम्ना रूपेणाप्रतिमां भुवि।
गुणप्रभावशीलेन चारित्रेण च शोभनाम् ॥ १२ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
उस कन्याका नाम था सुप्रभा। इस पृथ्वीपर उसके रूपकी कहीं तुलना नहीं थी। गुण, प्रभाव, शील और चरित्र सभी दृष्टियोंसे वह परम सुन्दर थी॥१२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
सा तस्य दृष्ट्वैव मनो जहार शुभलोचना।
वनराजी यथा चित्रा वसन्ते कुसुमाचिता ॥ १३ ॥
मूलम्
सा तस्य दृष्ट्वैव मनो जहार शुभलोचना।
वनराजी यथा चित्रा वसन्ते कुसुमाचिता ॥ १३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
जैसे वसंतऋतुमें सुन्दर फूलोंसे सजी हुई विचित्र वनश्रेणी मनुष्यके मनको लुभा लेती है, उसी प्रकार उस शुभलोचना मुनिकुमारीने दर्शनमात्रसे अष्टावक्रका मन चुरा लिया था॥१३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ऋषिस्तमाह देया मे सुता तुभ्यं हि तच्छृणु।
(अनन्यस्त्रीजनः प्राज्ञो ह्यप्रवासी प्रियंवदः।
सुरूपः सम्मतो वीरः शीलवान् भोगभुक्छविः॥
दारानुमतयज्ञश्च सुनक्षत्रामथोद्वहेत् ।
स्वभर्त्रा स्वजनोपेत इह प्रेत्य च मोदते॥)
गच्छ तावद् दिशं पुण्यामुत्तरां द्रक्ष्यसे ततः ॥ १४ ॥
मूलम्
ऋषिस्तमाह देया मे सुता तुभ्यं हि तच्छृणु।
(अनन्यस्त्रीजनः प्राज्ञो ह्यप्रवासी प्रियंवदः।
सुरूपः सम्मतो वीरः शीलवान् भोगभुक्छविः॥
दारानुमतयज्ञश्च सुनक्षत्रामथोद्वहेत् ।
स्वभर्त्रा स्वजनोपेत इह प्रेत्य च मोदते॥)
गच्छ तावद् दिशं पुण्यामुत्तरां द्रक्ष्यसे ततः ॥ १४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
वदान्य ऋषिने अष्टावक्रके माँगनेपर इस प्रकार उत्तर दिया—‘विप्रवर! जिसके दूसरी कोई स्त्री न हो, जो परदेशमें न रहता हो, विद्वान्, प्रिय वचन बोलनेवाला, लोकसम्मानित, वीर, सुशील, भोग भोगनेमें समर्थ, कान्तिमान् और सुन्दर पुरुष हो, उसीके साथ मुझे अपनी पुत्रीका विवाह करना है। जो स्त्रीकी अनुमतिसे यज्ञ करता और उत्तम नक्षत्रवाली कन्याको व्याहता है, वह पुरुष अपनी पत्नीके साथ तथा पत्नी अपने पतिके साथ रहकर दोनों ही इहलोक और परलोकमें आनन्द भोगते हैं। मैं तुम्हें अपनी कन्या अवश्य दे दूँगा, परंतु पहले एक बात सुनो, यहाँसे परम पवित्र उत्तर दिशाकी ओर चले जाओ। वहाँ तुम्हें उसका दर्शन होगा’॥१४॥
मूलम् (वचनम्)
अष्टावक्र उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
किं द्रष्टव्यं मया तत्र वक्तुमर्हति मे भवान्।
तथेदानीं मया कार्यं यथा वक्ष्यति मां भवान् ॥ १५ ॥
मूलम्
किं द्रष्टव्यं मया तत्र वक्तुमर्हति मे भवान्।
तथेदानीं मया कार्यं यथा वक्ष्यति मां भवान् ॥ १५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
अष्टावक्रने पूछा— महर्षे! उत्तर दिशामें जाकर मुझे किसका दर्शन करना होगा? आप यह बतानेकी कृपा करें तथा उस समय मुझे क्या और किस प्रकार करना चाहिये, यह भी आप ही बतायेंगे॥१५॥
मूलम् (वचनम्)
वदान्य उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
धनदं समतिक्रम्य हिमवन्तं च पर्वतम्।
रुद्रस्यायतनं दृष्ट्वा सिद्धचारणसेवितम् ॥ १६ ॥
मूलम्
धनदं समतिक्रम्य हिमवन्तं च पर्वतम्।
रुद्रस्यायतनं दृष्ट्वा सिद्धचारणसेवितम् ॥ १६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
वदान्यने कहा— वत्स! तुम कुबेरकी अलकापुरीको लाँघकर जब हिमालय पर्वतको भी लाँघ जाओगे तब तुम्हें सिद्धों और चारणोंसे सेवित रुद्रके निवासस्थान कैलास पर्वतका दर्शन होगा॥१६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
संहृष्टैः पार्षदैर्जुष्टं नृत्यद्भिर्विविधाननैः ।
दिव्याङ्गरागैः पैशाचैरन्यैर्नानाविधैः प्रभोः ॥ १७ ॥
मूलम्
संहृष्टैः पार्षदैर्जुष्टं नृत्यद्भिर्विविधाननैः ।
दिव्याङ्गरागैः पैशाचैरन्यैर्नानाविधैः प्रभोः ॥ १७ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
वहाँ नाना प्रकारके मुखवाले भाँति-भाँतिके दिव्य अंगराग लगाये अनेकानेक पिशाच तथा अन्य भूत-वैताल आदि भगवान् शिवके पार्षदगण हर्ष और उल्लासमें भरकर नाच रहे होंगे॥१७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
पाणितालसुतालैश्च शम्पातालैः समैस्तथा ।
सम्प्रहृष्टैः प्रनृत्यद्भिः शर्वस्तत्र निषेव्यते ॥ १८ ॥
मूलम्
पाणितालसुतालैश्च शम्पातालैः समैस्तथा ।
सम्प्रहृष्टैः प्रनृत्यद्भिः शर्वस्तत्र निषेव्यते ॥ १८ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
वे करताल और सुन्दर ताल बजाकर शम्पा ताल देते हुए समभावसे हर्षविभोर हो जोर-जोरसे नृत्य करते हुए वहाँ भगवान् शंकरकी सेवा करते हैं॥१८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
इष्टं किल गिरौ स्थानं तद्दिव्यमिति शुश्रुम।
नित्यं संनिहितो देवस्तथा ते पार्षदाः स्मृताः ॥ १९ ॥
मूलम्
इष्टं किल गिरौ स्थानं तद्दिव्यमिति शुश्रुम।
नित्यं संनिहितो देवस्तथा ते पार्षदाः स्मृताः ॥ १९ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
उस पर्वतका वह दिव्य स्थान भगवान् शंकरको बहुत प्रिय है। यह बात हमारे सुननेमें आयी है। वहाँ महादेवजी तथा उनके पार्षद नित्य निवास करते हैं॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तत्र देव्या तपस्तप्तं शङ्करार्थं सुदुश्चरम्।
अतस्तदिष्टं देवस्य तथोमाया इति श्रुतिः ॥ २० ॥
मूलम्
तत्र देव्या तपस्तप्तं शङ्करार्थं सुदुश्चरम्।
अतस्तदिष्टं देवस्य तथोमाया इति श्रुतिः ॥ २० ॥
अनुवाद (हिन्दी)
वहाँ देवी पार्वतीने भगवान् शंकरकी प्राप्तिके लिये अत्यन्त दुष्कर तपस्या की थी, इसीलिये वह स्थान भगवान् शिव और पार्वतीको अधिक प्रिय है, ऐसा सुना जाता है॥२०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
पूर्वे तत्र महापार्श्वे देवस्योत्तरतस्तथा।
ऋतवः कालरात्रिश्च ये दिव्या ये च मानुषाः ॥ २१ ॥
देवं चोपासते सर्वे रूपिणः किल तत्र ह।
तदतिक्रम्य भवनं त्वया यातव्यमेव हि ॥ २२ ॥
मूलम्
पूर्वे तत्र महापार्श्वे देवस्योत्तरतस्तथा।
ऋतवः कालरात्रिश्च ये दिव्या ये च मानुषाः ॥ २१ ॥
देवं चोपासते सर्वे रूपिणः किल तत्र ह।
तदतिक्रम्य भवनं त्वया यातव्यमेव हि ॥ २२ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
महादेवजीके पूर्व तथा उत्तर भागमें महापार्श्व नामक पर्वत है, जहाँ ऋतु, कालरात्रि तथा दिव्य और मानुषभाव सब-के-सब मूर्तिमान् होकर महादेवजीकी उपासना करते हैं। उस स्थानको लाँघकर तुम आगे बढ़ते ही चले जाना॥२१-२२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ततो नीलं वनोद्देशं द्रक्ष्यसे मेघसंनिभम्।
रमणीयं मनोग्राहि तत्र वै द्रक्ष्यसे स्त्रियम् ॥ २३ ॥
तपस्विनीं महाभागां वृद्धां दीक्षामनुष्ठिताम्।
द्रष्टव्या सा त्वया तत्र सम्पूज्या चैव यत्नतः ॥ २४ ॥
मूलम्
ततो नीलं वनोद्देशं द्रक्ष्यसे मेघसंनिभम्।
रमणीयं मनोग्राहि तत्र वै द्रक्ष्यसे स्त्रियम् ॥ २३ ॥
तपस्विनीं महाभागां वृद्धां दीक्षामनुष्ठिताम्।
द्रष्टव्या सा त्वया तत्र सम्पूज्या चैव यत्नतः ॥ २४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
तदनन्तर तुम्हें मेघोंकी घटाके समान नीला एक वन्य प्रदेश दिखायी देगा। वह बड़ा ही मनोरम और रमणीय है। उस वनमें तुम एक स्त्रीको देखोगे जो तपस्विनी, महान् सौभाग्यवती, वृद्धा और दीक्षापरायण है। तुम यत्नपूर्वक वहाँ उसका दर्शन और पूजन करना॥२३-२४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तां दृष्ट्वा विनिवृत्तस्त्वं ततः पाणिं ग्रहीष्यसि।
यद्येष समयः सर्वः साध्यतां तत्र गम्यताम् ॥ २५ ॥
मूलम्
तां दृष्ट्वा विनिवृत्तस्त्वं ततः पाणिं ग्रहीष्यसि।
यद्येष समयः सर्वः साध्यतां तत्र गम्यताम् ॥ २५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
उसे देखकर लौटनेपर ही तुम मेरी पुत्रीका पाणिग्रहण कर सकोगे। यदि यह सारी शर्त स्वीकार हो तो इसे पूरी करनेमें लग जाओ और अभी वहाँकी यात्रा आरम्भ कर दो॥२५॥
मूलम् (वचनम्)
अष्टावक्र उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
तथास्तु साधयिष्यामि तत्र यास्याम्यसंशयम्।
यत्र त्वं वदसे साधो भवान् भवतु सत्यवाक् ॥ २६ ॥
मूलम्
तथास्तु साधयिष्यामि तत्र यास्याम्यसंशयम्।
यत्र त्वं वदसे साधो भवान् भवतु सत्यवाक् ॥ २६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
अष्टावक्र बोले— ऐसा ही होगा, मैं यह शर्त पूरी करूँगा। श्रेष्ठ पुरुष! आप जहाँ कहते हैं वहाँ अवश्य जाऊँगा। आपकी वाणी सत्य हो॥२६॥
मूलम् (वचनम्)
भीष्म उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
ततोऽगच्छत् स भगवानुत्तरामुत्तरां दिशम्।
हिमवन्तं गिरिश्रेष्ठं सिद्धचारणसेवितम् ॥ २७ ॥
स गत्वा द्विजशार्दूलो हिमवन्तं महागिरिम्।
अभ्यगच्छन्नदीं पुण्यां बाहुदां धर्मशालिनीम् ॥ २८ ॥
मूलम्
ततोऽगच्छत् स भगवानुत्तरामुत्तरां दिशम्।
हिमवन्तं गिरिश्रेष्ठं सिद्धचारणसेवितम् ॥ २७ ॥
स गत्वा द्विजशार्दूलो हिमवन्तं महागिरिम्।
अभ्यगच्छन्नदीं पुण्यां बाहुदां धर्मशालिनीम् ॥ २८ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
भीष्मजी कहते हैं— राजन्! तदनन्तर भगवान् अष्टावक्र उत्तरोत्तर दिशाकी ओर चल दिये। सिद्धों और चारणोंसे सेवित गिरिश्रेष्ठ महापर्वत हिमालयपर पहुँचकर वे श्रेष्ठ द्विज धर्मसे शोभा पानेवाली पुण्यमयी बाहुदा नदीके तटपर गये॥२७-२८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अशोके विमले तीर्थे स्नात्वा वै तर्प्य देवताः।
तत्र वासाय शयने कौशे सुखमुवास ह ॥ २९ ॥
मूलम्
अशोके विमले तीर्थे स्नात्वा वै तर्प्य देवताः।
तत्र वासाय शयने कौशे सुखमुवास ह ॥ २९ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
वहाँ निर्मल अशोक तीर्थमें स्नान करके देवताओंका तर्पण करनेके पश्चात् उन्होंने कुशकी चटाईपर सुखपूर्वक निवास किया॥२९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ततो रात्र्यां व्यतीतायां प्रातरुत्थाय स द्विजः।
स्नात्वा प्रादुश्चकाराग्निं स्तुत्वा चैनं प्रधानतः ॥ ३० ॥
रुद्राणीं रुद्रमासाद्य ह्रदे तत्र समाश्वसत्।
विश्रान्तश्च समुत्थाय कैलासमभितो ययौ ॥ ३१ ॥
मूलम्
ततो रात्र्यां व्यतीतायां प्रातरुत्थाय स द्विजः।
स्नात्वा प्रादुश्चकाराग्निं स्तुत्वा चैनं प्रधानतः ॥ ३० ॥
रुद्राणीं रुद्रमासाद्य ह्रदे तत्र समाश्वसत्।
विश्रान्तश्च समुत्थाय कैलासमभितो ययौ ॥ ३१ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
तदनन्तर रात बीतनेपर वे द्विज प्रातःकाल उठे और उन्होंने स्नान करके अग्निदेवको प्रज्वलित किया। फिर मुख्य-मुख्य वैदिक मन्त्रोंसे अग्निदेवकी स्तुति करके ‘रुद्राणी रुद्र’ नामक तीर्थमें गये और वहाँ सरोवरके तटपर कुछ कालतक विश्राम करते रहे। विश्रामके पश्चात् उठकर वे कैलासकी ओर चल दिये॥३०-३१॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
सोऽपश्यत् काञ्चनद्वारं दीप्यमानमिव श्रिया।
मन्दाकिनीं च नलिनीं धनदस्य महात्मनः ॥ ३२ ॥
मूलम्
सोऽपश्यत् काञ्चनद्वारं दीप्यमानमिव श्रिया।
मन्दाकिनीं च नलिनीं धनदस्य महात्मनः ॥ ३२ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
कुछ दूर जानेपर उन्होंने कुबेरकी अलकापुरीका सुवर्णमय द्वार देखा, जो दिव्य दीप्तिसे देदीप्यमान हो रहा था। वहीं महात्मा कुबेरकी कमलपुष्पोंसे सुशोभित एक बावड़ी देखी, जो गंगाजीके जलसे परिपूर्ण होनेके कारण मन्दाकिनी नामसे विख्यात थी॥३२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अथ ते राक्षसाः सर्वे येऽभिरक्षन्ति पद्मिनीम्।
प्रत्युत्थिता भगवन्तं मणिभद्रपुरोगमाः ॥ ३३ ॥
मूलम्
अथ ते राक्षसाः सर्वे येऽभिरक्षन्ति पद्मिनीम्।
प्रत्युत्थिता भगवन्तं मणिभद्रपुरोगमाः ॥ ३३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
वहाँ जो उस पद्मपूर्ण पुष्करिणीकी रक्षा कर रहे थे, वे सब मणिभद्र आदि राक्षस भगवान् अष्टावक्रको देखकर उनके स्वागतके लिये उठकर खड़े हो गये॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
स तान् प्रत्यर्चयामास राक्षसान् भीमविक्रमान्।
निवेदयत मां क्षिप्रं धनदायेति चाब्रवीत् ॥ ३४ ॥
मूलम्
स तान् प्रत्यर्चयामास राक्षसान् भीमविक्रमान्।
निवेदयत मां क्षिप्रं धनदायेति चाब्रवीत् ॥ ३४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
मुनिने भी उन भयंकर पराक्रमी राक्षसोंके प्रति सम्मान प्रकट किया और कहा—‘आपलोग शीघ्र ही धनपति कुबेरको मेरे आगमनकी सूचना दे दें’॥३४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ते राक्षसास्तथा राजन् भगवन्तमथाब्रुवन्।
असौ वैश्रवणो राजा स्वयमायाति तेऽन्तिकम् ॥ ३५ ॥
मूलम्
ते राक्षसास्तथा राजन् भगवन्तमथाब्रुवन्।
असौ वैश्रवणो राजा स्वयमायाति तेऽन्तिकम् ॥ ३५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
राजन्! वे राक्षस वैसा करके भगवान् अष्टावक्रसे बोले—‘प्रभो! राजा कुबेर स्वयं ही आपके निकट पधार रहे हैं॥३५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
विदितो भगवानस्य कार्यमागमनस्य यत्।
पश्यैनं त्वं महाभागं ज्वलन्तमिव तेजसा ॥ ३६ ॥
मूलम्
विदितो भगवानस्य कार्यमागमनस्य यत्।
पश्यैनं त्वं महाभागं ज्वलन्तमिव तेजसा ॥ ३६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘आपका आगमन और इस आगमनका जो उद्देश्य है, वह सब कुछ कुबेरको पहलेसे ही ज्ञात है। देखिये, ये महाभाग धनाध्यक्ष अपने तेजसे प्रकाशित होते हुए आ रहे हैं’॥३६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ततो वैश्रवणोऽभ्येत्य अष्टावक्रमनिन्दितम् ।
विधिवत्कुशलं पृष्ट्वा ततो ब्रह्मर्षिमब्रवीत् ॥ ३७ ॥
मूलम्
ततो वैश्रवणोऽभ्येत्य अष्टावक्रमनिन्दितम् ।
विधिवत्कुशलं पृष्ट्वा ततो ब्रह्मर्षिमब्रवीत् ॥ ३७ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
तदनन्तर विश्रवाके पुत्र कुबेरने निकट आकर निन्दारहित ब्रह्मर्षि अष्टावक्रसे विधिपूर्वक कुशल-समाचार पूछते हुए कहा—॥३७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
सुखं प्राप्तो भवान् कच्चित् किं वा मत्तश्चिकीर्षति।
ब्रूहि सर्वं करिष्यामि यन्मां वक्ष्यसि वै द्विज ॥ ३८ ॥
मूलम्
सुखं प्राप्तो भवान् कच्चित् किं वा मत्तश्चिकीर्षति।
ब्रूहि सर्वं करिष्यामि यन्मां वक्ष्यसि वै द्विज ॥ ३८ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘ब्रह्मन्! आप सुखपूर्वक यहाँ आये हैं न? बताइये मुझसे किस कार्यकी सिद्धि चाहते हैं? आप मुझसे जो-जो कहेंगे, वह सब पूर्ण करूँगा॥३८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
भवनं प्रविश त्वं मे यथाकामं द्विजोत्तम।
सत्कृतः कृतकार्यश्च भवान् यास्यत्यविघ्नतः ॥ ३९ ॥
मूलम्
भवनं प्रविश त्वं मे यथाकामं द्विजोत्तम।
सत्कृतः कृतकार्यश्च भवान् यास्यत्यविघ्नतः ॥ ३९ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘द्विजश्रेष्ठ! आप इच्छानुसार मेरे भवनमें प्रवेश कीजिये और यहाँका सत्कार ग्रहण करके कृतकृत्य हो यहाँसे निर्विघ्न यात्रा कीजियेगा॥३९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
प्राविशद् भवनं स्वं वै गृहीत्वा तं द्विजोत्तमम्।
आसनं स्वं ददौ चैव पाद्यमर्घ्यं तथैव च ॥ ४० ॥
मूलम्
प्राविशद् भवनं स्वं वै गृहीत्वा तं द्विजोत्तमम्।
आसनं स्वं ददौ चैव पाद्यमर्घ्यं तथैव च ॥ ४० ॥
अनुवाद (हिन्दी)
ऐसा कहकर कुबेरने विप्रवर अष्टावक्रको साथ लेकर अपने भवनमें प्रवेश किया और उन्हें पाद्य, अर्घ्य तथा अपना आसन दिया॥४०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अथोपविष्टयोस्तत्र मणिभद्रपुरोगमाः ।
निषेदुस्तत्र कौबेरा यक्षगन्धर्वकिन्नराः ॥ ४१ ॥
मूलम्
अथोपविष्टयोस्तत्र मणिभद्रपुरोगमाः ।
निषेदुस्तत्र कौबेरा यक्षगन्धर्वकिन्नराः ॥ ४१ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
जब कुबेर और अष्टावक्र दोनों वहाँ आरामसे बैठ गये तब कुबेरके सेवक मणिभद्र आदि यक्ष, गन्धर्व और किन्नर भी नीचे बैठ गये॥४१॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ततस्तेषां निषण्णानां धनदो वाक्यमब्रवीत्।
भवच्छन्दं समाज्ञाय नृत्येरन्नप्सरोगणाः ॥ ४२ ॥
आतिथ्यं परमं कार्यं शुश्रूषा भवतस्तथा।
संवर्ततामित्युवाच मुनिर्मधुरया गिरा ॥ ४३ ॥
मूलम्
ततस्तेषां निषण्णानां धनदो वाक्यमब्रवीत्।
भवच्छन्दं समाज्ञाय नृत्येरन्नप्सरोगणाः ॥ ४२ ॥
आतिथ्यं परमं कार्यं शुश्रूषा भवतस्तथा।
संवर्ततामित्युवाच मुनिर्मधुरया गिरा ॥ ४३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
उन सबके बैठ जानेपर कुबेरने कहा—‘आपकी इच्छा हो तो उसे जानकर यहाँ अप्सराएँ नृत्य करें; क्योंकि आपका आतिथ्य सत्कार और सेवा करना हमलोगोंका परम कर्तव्य है।’ तब मुनिने मधुर वाणीमें कहा, ‘तथास्तु—ऐसा ही हो’॥४२-४३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अथोर्वरा मिश्रकेशी रम्भा चैवोर्वशी तथा।
अलम्बुषा घृताची च चित्रा चित्राङ्गदा रुचिः ॥ ४४ ॥
मनोहरा सुकेशी च सुमुखी हासिनी प्रभा।
विद्युता प्रशमी दान्ता विद्योता रतिरेव च ॥ ४५ ॥
एताश्चान्याश्च वै वह्व्यः प्रनृत्ताप्सरसः शुभाः।
अवादयंश्च गन्धर्वा वाद्यानि विविधानि च ॥ ४६ ॥
मूलम्
अथोर्वरा मिश्रकेशी रम्भा चैवोर्वशी तथा।
अलम्बुषा घृताची च चित्रा चित्राङ्गदा रुचिः ॥ ४४ ॥
मनोहरा सुकेशी च सुमुखी हासिनी प्रभा।
विद्युता प्रशमी दान्ता विद्योता रतिरेव च ॥ ४५ ॥
एताश्चान्याश्च वै वह्व्यः प्रनृत्ताप्सरसः शुभाः।
अवादयंश्च गन्धर्वा वाद्यानि विविधानि च ॥ ४६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
तदनन्तर उर्वरा, मिश्रकेशी, रम्भा, उर्वशी, अलम्बुषा, घृताची, चित्रा, चित्रांगदा, रुचि, मनोहरा, सुकेशी, सुमुखी, हासिनी, प्रभा, विद्युता, प्रशमी, दान्ता, विद्योता और रति—ये तथा और भी बहुत-सी शुभलक्षणा अप्सराएँ नृत्य करने लगीं और गन्धर्वगण नाना प्रकारके बाजे बजाने लगे॥४४—४६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अथ प्रवृत्ते गान्धर्वे दिव्ये ऋषिरुपाविशत्।
दिव्यं संवत्सरं तत्रारमतैष महातपाः ॥ ४७ ॥
मूलम्
अथ प्रवृत्ते गान्धर्वे दिव्ये ऋषिरुपाविशत्।
दिव्यं संवत्सरं तत्रारमतैष महातपाः ॥ ४७ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
वह दिव्य नृत्य-गीत आरम्भ होनेपर महातपस्वी ऋषि अष्टावक्र भी दर्शक-मण्डलीमें आ बैठे और वे देवताओंके वर्षसे एक वर्षतक इसी आमोद-प्रमोदमें रमते रहे॥४७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ततो वैश्रवणो राजा भगवन्तमुवाच ह।
साग्रः संवत्सरो जातो विप्रेह तव पश्यतः ॥ ४८ ॥
मूलम्
ततो वैश्रवणो राजा भगवन्तमुवाच ह।
साग्रः संवत्सरो जातो विप्रेह तव पश्यतः ॥ ४८ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
तब राजा वैश्रवण (कुबेर)-ने भगवान् अष्टावक्रसे कहा—‘विप्रवर! यहाँ नृत्य देखते हुए आपका एक वर्षसे कुछ अधिक समय व्यतीत हो गया है॥४८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
हार्योऽयं विषयो ब्रह्मन् गान्धर्वो नाम नामतः।
छन्दतो वर्ततां विप्र यथा वदति वा भवान् ॥ ४९ ॥
मूलम्
हार्योऽयं विषयो ब्रह्मन् गान्धर्वो नाम नामतः।
छन्दतो वर्ततां विप्र यथा वदति वा भवान् ॥ ४९ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘ब्रह्मन्! यह नृत्य-गीतका विषय जिसे ‘गान्धर्व’ नाम दिया गया है बड़ा मनोहारी है; अतः यदि आपकी इच्छा हो तो यह आयोजन कुछ दिन और इसी तरह चलता रहे अथवा विप्रवर! आप जैसी आज्ञा दें वैसा किया जाय॥४९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अतिथिः पूजनीयस्त्वमिदं च भवतो गृहम्।
सर्वमाज्ञाप्यतामाशु परवन्तो वयं त्वयि ॥ ५० ॥
मूलम्
अतिथिः पूजनीयस्त्वमिदं च भवतो गृहम्।
सर्वमाज्ञाप्यतामाशु परवन्तो वयं त्वयि ॥ ५० ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘आप मेरे पूजनीय अतिथि हैं। यह घर आपका ही है। आप निस्संकोच भावसे शीघ्र ही सभी कार्योंके लिये हमें आज्ञा दें। हम आपके वशवर्ती किंकर हैं’॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अथ वैश्रवणं प्रीतो भगवान् प्रत्यभाषत।
अर्चितोऽस्मि यथान्यायं गमिष्यामि धनेश्वर ॥ ५१ ॥
मूलम्
अथ वैश्रवणं प्रीतो भगवान् प्रत्यभाषत।
अर्चितोऽस्मि यथान्यायं गमिष्यामि धनेश्वर ॥ ५१ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
तब अत्यन्त प्रसन्न हुए भगवान् अष्टावक्रने कुबेरसे कहा—‘धनेश्वर! आपने यथोचित रूपसे मेरा सत्कार किया है। अब आज्ञा दें, मैं यहाँसे जाऊँगा॥५१॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
प्रीतोऽस्मि सदृशं चैव तव सर्वं धनाधिप।
तव प्रसादाद् भगवन् महर्षेश्च महात्मनः ॥ ५२ ॥
नियोगादद्य यास्यामि वृद्धिमानृद्धिमान् भव।
अथ निष्क्रम्य भगवान् प्रययावुत्तरामुखः ॥ ५३ ॥
मूलम्
प्रीतोऽस्मि सदृशं चैव तव सर्वं धनाधिप।
तव प्रसादाद् भगवन् महर्षेश्च महात्मनः ॥ ५२ ॥
नियोगादद्य यास्यामि वृद्धिमानृद्धिमान् भव।
अथ निष्क्रम्य भगवान् प्रययावुत्तरामुखः ॥ ५३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘धनाधिप! मैं बहुत प्रसन्न हूँ। आपकी सारी बातें आपके अनुरूप ही हैं। भगवन्! अब मैं आपकी कृपासे उन महात्मा महर्षि वदान्यकी आज्ञाके अनुसार आगे जाऊँगा। आप अभ्युदयशील एवं समृद्धिशाली हों।’ इतना कहकर भगवान् अष्टावक्र उत्तर दिशाकी ओर मुँह करके चल दिये॥५२-५३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
कैलासं मन्दरं हैमं सर्वाननुचचार ह।
मूलम्
कैलासं मन्दरं हैमं सर्वाननुचचार ह।
अनुवाद (हिन्दी)
एवं समूचे कैलास, मन्दराचल और हिमालयपर विचरण करने लगे॥५३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तानतीत्य महाशैलान् कैरातं स्थानमुत्तमम् ॥ ५४ ॥
प्रदक्षिणं तथा चक्रे प्रयतः शिरसा नतः।
धरणीमवतीर्याथ पूतात्मासौ तदाभवत् ॥ ५५ ॥
मूलम्
तानतीत्य महाशैलान् कैरातं स्थानमुत्तमम् ॥ ५४ ॥
प्रदक्षिणं तथा चक्रे प्रयतः शिरसा नतः।
धरणीमवतीर्याथ पूतात्मासौ तदाभवत् ॥ ५५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
उन बड़े-बड़े पर्वतोंको लाँघकर यतचित्त हो उन्होंने किरातवेषधारी महादेवजीके उत्तम स्थानकी परिक्रमा की और उसे मस्तक झुकाकर प्रणाम किया। फिर नीचे पृथ्वीपर उतरकर वे उस स्थानके माहात्म्यसे तत्काल पवित्रात्मा हो गये॥५४-५५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
स तं प्रदक्षिणं कृत्वा त्रिः शैलं चोत्तरामुखः।
समेन भूमिभागेन ययौ प्रीतिपुरस्कृतः ॥ ५६ ॥
मूलम्
स तं प्रदक्षिणं कृत्वा त्रिः शैलं चोत्तरामुखः।
समेन भूमिभागेन ययौ प्रीतिपुरस्कृतः ॥ ५६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
तीन बार उस पर्वतकी परिक्रमा करके वे उत्तराभिमुख हो समतल भूमिसे प्रसन्नतापूर्वक आगे बढ़े॥५६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ततोऽपरं वनोद्देशं रमणीयमपश्यत ।
सर्वर्तुभिर्मूलफलैः पक्षिभिश्च समन्वितैः ॥ ५७ ॥
रमणीयैर्वनोद्देशैस्तत्र तत्र विभूषितम् ।
मूलम्
ततोऽपरं वनोद्देशं रमणीयमपश्यत ।
सर्वर्तुभिर्मूलफलैः पक्षिभिश्च समन्वितैः ॥ ५७ ॥
रमणीयैर्वनोद्देशैस्तत्र तत्र विभूषितम् ।
अनुवाद (हिन्दी)
आगे जानेपर उन्हें एक दूसरी रमणीय वनस्थली दिखायी दी, जो सभी ऋतुओंके फल-मूलों, पक्षिसमूहों और मनोरम वनप्रान्तोंसे जहाँ-तहाँ शोभासम्पन्न हो रही थी॥५७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तत्राश्रमपदं दिव्यं ददर्श भगवानथ ॥ ५८ ॥
शैलांश्च विविधाकारान् काञ्चनान् रत्नभूषितान्।
मणिभूमौ निविष्टाश्च पुष्करिण्यस्तथैव च ॥ ५९ ॥
मूलम्
तत्राश्रमपदं दिव्यं ददर्श भगवानथ ॥ ५८ ॥
शैलांश्च विविधाकारान् काञ्चनान् रत्नभूषितान्।
मणिभूमौ निविष्टाश्च पुष्करिण्यस्तथैव च ॥ ५९ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
वहाँ भगवान् अष्टावक्रने एक दिव्य आश्रम देखा। उस आश्रमके चारों ओर नाना प्रकारके सुवर्णमय एवं रत्नभूषित पर्वत शोभा पा रहे थे। वहाँकी मणिमयी भूमिपर कई सुन्दर बावड़ियाँ बनी थीं॥५८-५९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अन्यान्यपि सुरम्याणि पश्यतः सुबहून्यथ।
भृशं तस्य मनो रेमे महर्षेर्भावितात्मनः ॥ ६० ॥
मूलम्
अन्यान्यपि सुरम्याणि पश्यतः सुबहून्यथ।
भृशं तस्य मनो रेमे महर्षेर्भावितात्मनः ॥ ६० ॥
अनुवाद (हिन्दी)
इनके सिवा और भी बहुत-से सुरम्य दृश्य वहाँ दिखायी देते थे। उन सबको देखते हुए उन भावितात्मा महर्षिका मन वहाँ विशेष आनन्दका अनुभव करने लगा॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
स तत्र काञ्चनं दिव्यं सर्वरत्नमयं गृहम्।
ददर्शाद्भुतसंकाशं धनदस्य गृहाद् वरम् ॥ ६१ ॥
मूलम्
स तत्र काञ्चनं दिव्यं सर्वरत्नमयं गृहम्।
ददर्शाद्भुतसंकाशं धनदस्य गृहाद् वरम् ॥ ६१ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
महर्षिने उस प्रदेशमें एक दिव्य सुवर्णमय भवन देखा, जिसमें सब प्रकारके रत्न जड़े गये थे। वह मनोहर गृह कुबेरके राजभवनसे भी सुन्दर, श्रेष्ठ एवं अद्भुत था॥६१॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
महान्तो यत्र विविधा मणिकाञ्चनपर्वताः।
विमानानि च रम्याणि रत्नानि विविधानि च ॥ ६२ ॥
मूलम्
महान्तो यत्र विविधा मणिकाञ्चनपर्वताः।
विमानानि च रम्याणि रत्नानि विविधानि च ॥ ६२ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
वहाँ भाँति-भाँतिके मणिमय और सुवर्णमय विशाल पर्वत शोभा पाते थे। अनेकानेक सुरम्य विमान तथा नाना प्रकारके रत्न दृष्टिगोचर होते थे॥६२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
मन्दारपुष्पैः संकीर्णां तथा मन्दाकिनीं नदीम्।
स्वयंप्रभाश्च मणयो वज्रैर्भूमिश्च भूषिता ॥ ६३ ॥
मूलम्
मन्दारपुष्पैः संकीर्णां तथा मन्दाकिनीं नदीम्।
स्वयंप्रभाश्च मणयो वज्रैर्भूमिश्च भूषिता ॥ ६३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
उस प्रदेशमें मन्दाकिनी नदी प्रवाहित होती थी, जिसके स्रोतमें मन्दारके पुष्प बह रहे थे। वहाँ स्वयं प्रकाशित होनेवाली मणियाँ अपनी अद्भुत छटा बिखेर रही थीं। वहाँकी भूमि हीरोंसे जड़ी गयी थी॥६३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
नानाविधैश्च भवनैर्विचित्रमणितोरणैः ।
मुक्ताजालविनिक्षिप्तैर्मणिरत्नविभूषितैः ॥ ६४ ॥
मनोदृष्टिहरै रम्यैः सर्वतः संवृतं शुभैः।
ऋषिभिश्चावृतं तत्र आश्रमं तं मनोहरम् ॥ ६५ ॥
मूलम्
नानाविधैश्च भवनैर्विचित्रमणितोरणैः ।
मुक्ताजालविनिक्षिप्तैर्मणिरत्नविभूषितैः ॥ ६४ ॥
मनोदृष्टिहरै रम्यैः सर्वतः संवृतं शुभैः।
ऋषिभिश्चावृतं तत्र आश्रमं तं मनोहरम् ॥ ६५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
उस आश्रमके चारों ओर विचित्र मणिमय तोरणोंसे सुशोभित, मोतीकी झालरोंसे अलंकृत तथा मणि एवं रत्नोंसे विभूषित सुन्दर भवन शोभा पा रहे थे। वे मनको मोह लेनेवाले तथा दृष्टिको बरबस अपनी ओर आकृष्ट कर लेनेवाले थे। उन मंगलमय भवनोंसे घिरा और ऋषि-मुनियोंसे भरा हुआ वह आश्रम बड़ा मनोहर जान पड़ता था॥६४-६५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ततस्तस्याभवच्चिन्ता कुत्र वासो भवेदिति।
अथ द्वारं समभितो गत्वा स्थित्वा ततोऽब्रवीत् ॥ ६६ ॥
मूलम्
ततस्तस्याभवच्चिन्ता कुत्र वासो भवेदिति।
अथ द्वारं समभितो गत्वा स्थित्वा ततोऽब्रवीत् ॥ ६६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
वहाँ पहुँचकर अष्टावक्रके मनमें यह चिन्ता हुई कि अब कहाँ ठहरा जाय। यह विचार उठते ही वे प्रमुख द्वारके समीप गये और खड़े होकर बोले—॥६६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अतिथिं समनुप्राप्तमभिजानन्तु येऽत्र वै।
अथ कन्याः परिवृता गृहात् तस्माद् विनिर्गताः ॥ ६७ ॥
नानारूपाः सप्त विभो कन्याः सर्वा मनोहराः।
यां यामपश्यत् कन्यां वै सा सा तस्य मनोऽहरत्॥६८॥
मूलम्
अतिथिं समनुप्राप्तमभिजानन्तु येऽत्र वै।
अथ कन्याः परिवृता गृहात् तस्माद् विनिर्गताः ॥ ६७ ॥
नानारूपाः सप्त विभो कन्याः सर्वा मनोहराः।
यां यामपश्यत् कन्यां वै सा सा तस्य मनोऽहरत्॥६८॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘इस घरमें जो लोग रहते हों, उन्हें यह विदित होना चाहिये कि मैं एक अतिथि यहाँ आया हूँ।’ उनके इस प्रकार कहते ही उस घरसे एक साथ सात कन्याएँ निकलीं। वे सब-की-सब भिन्न-भिन्न रूपवाली तथा बड़ी मनोहर थीं। विभो! अष्टावक्र मुनि उनमेंसे जिस-जिस कन्याकी ओर देखते, वही-वही उनका मन हर लेती थी॥६७-६८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
न च शक्तो वारयितुं मनोऽस्याथावसीदति।
ततो धृतिः समुत्पन्ना तस्य विप्रस्य धीमतः ॥ ६९ ॥
मूलम्
न च शक्तो वारयितुं मनोऽस्याथावसीदति।
ततो धृतिः समुत्पन्ना तस्य विप्रस्य धीमतः ॥ ६९ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
वे अपने मनको रोक नहीं पाते थे। बलपूर्वक रोकनेपर उनका मन शिथिल होता जाता था। तदनन्तर उन बुद्धिमान् ब्राह्मणके हृदयमें किसी तरह धैर्य उत्पन्न हुआ॥६९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अथ तं प्रमदाः प्राहुर्भगवान् प्रविशत्विति।
स च तासां सुरूपाणां तस्यैव भवनस्य हि ॥ ७० ॥
कौतूहलं समाविष्टः प्रविवेश गृहं द्विजः।
मूलम्
अथ तं प्रमदाः प्राहुर्भगवान् प्रविशत्विति।
स च तासां सुरूपाणां तस्यैव भवनस्य हि ॥ ७० ॥
कौतूहलं समाविष्टः प्रविवेश गृहं द्विजः।
अनुवाद (हिन्दी)
तत्पश्चात् वे सातों तरुणी स्त्रियाँ बोलीं—‘भगवन्! आप घरके भीतर प्रवेश करें।’ ऋषिके मनमें उन सुन्दरियोंके तथा उस घरके विषयमें कौतूहल पैदा हो गया था; अतः उन्होंने उस घरमें प्रवेश किया॥७०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तत्रापश्यज्जरायुक्तामरजोऽम्बरधारिणीम् ॥ ७१ ॥
वृद्धां पर्यङ्कमासीनां सर्वाभरणभूषिताम् ।
मूलम्
तत्रापश्यज्जरायुक्तामरजोऽम्बरधारिणीम् ॥ ७१ ॥
वृद्धां पर्यङ्कमासीनां सर्वाभरणभूषिताम् ।
अनुवाद (हिन्दी)
वहाँ उन्होंने एक जराजीर्ण वृद्धा स्त्रीको देखा, जो निर्मल वस्त्र धारण किये समस्त आभूषणोंसे विभूषित हो पलँगपर बैठी हुई थी॥७१॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
स्वस्तीति तेन चैवोक्ता सा स्त्री प्रत्यवदत् तदा ॥ ७२ ॥
प्रत्युत्थाय च तं विप्रमास्यतामित्युवाच ह।
मूलम्
स्वस्तीति तेन चैवोक्ता सा स्त्री प्रत्यवदत् तदा ॥ ७२ ॥
प्रत्युत्थाय च तं विप्रमास्यतामित्युवाच ह।
अनुवाद (हिन्दी)
अष्टावक्रने ‘स्वस्ति’ कहकर उसे आशीर्वाद दिया। वह स्त्री उनके स्वागतके लिये पलँगसे उठकर खड़ी हो गयी और इस प्रकार बोली—‘विप्रवर! बैठिये’॥७२॥
मूलम् (वचनम्)
अष्टावक्र उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
सर्वाः स्वानालयान् यान्तु एका मामुपतिष्ठतु ॥ ७३ ॥
प्रज्ञाता या प्रशान्ता या शेषा गच्छन्तु च्छन्दतः।
मूलम्
सर्वाः स्वानालयान् यान्तु एका मामुपतिष्ठतु ॥ ७३ ॥
प्रज्ञाता या प्रशान्ता या शेषा गच्छन्तु च्छन्दतः।
अनुवाद (हिन्दी)
अष्टावक्रने कहा— ‘सारी स्त्रियाँ अपने-अपने घरको चली जायँ। केवल एक ही मेरे पास रह जाय। जो ज्ञानवती तथा मन और इन्द्रियोंको शान्त रखनेवाली हो, उसीको यहाँ रहना चाहिये। शेष स्त्रियाँ अपनी इच्छाके अनुसार जा सकती हैं’॥७३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ततः प्रदक्षिणीकृत्य कन्यास्तास्तमृषिं तदा ॥ ७४ ॥
निश्चक्रमुर्गृहात् तस्मात् सा वृद्धाथ व्यतिष्ठत।
मूलम्
ततः प्रदक्षिणीकृत्य कन्यास्तास्तमृषिं तदा ॥ ७४ ॥
निश्चक्रमुर्गृहात् तस्मात् सा वृद्धाथ व्यतिष्ठत।
अनुवाद (हिन्दी)
तदनन्तर वे सब कन्याएँ उस समय ऋषिकी परिक्रमा करके उस घरसे निकल गयीं। केवल वह वृद्धा ही वहाँ ठहरी रही॥७४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अथ तां संविशन् प्राह शयने भास्वरे तदा ॥ ७५ ॥
त्वयापि सुप्यतां भद्रे रजनी ह्यतिवर्तते।
मूलम्
अथ तां संविशन् प्राह शयने भास्वरे तदा ॥ ७५ ॥
त्वयापि सुप्यतां भद्रे रजनी ह्यतिवर्तते।
अनुवाद (हिन्दी)
तत्पश्चात् उज्ज्वल एवं प्रकाशमान शय्यापर सोते हुए ऋषिने उस वृद्धासे कहा—‘भद्रे! अब तुम भी सो जाओ। रात अधिक बीत चली है’॥७५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
संलापात् तेन विप्रेण तथा सा तत्र भाषिता ॥ ७६ ॥
द्वितीये शयने दिव्ये संविवेश महाप्रभे।
मूलम्
संलापात् तेन विप्रेण तथा सा तत्र भाषिता ॥ ७६ ॥
द्वितीये शयने दिव्ये संविवेश महाप्रभे।
अनुवाद (हिन्दी)
बातचीतके प्रसङ्गमें उस ब्राह्मणके ऐसा कहनेपर वह भी दूसरे अत्यन्त प्रकाशमान दिव्य पलँगपर सो रही॥७६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अथ सा वेपमानाङ्गी निमित्तं शीतजं तदा ॥ ७७ ॥
व्यपदिश्य महर्षेर्वै शयनं व्यवरोहत।
स्वागतेनागतां तां तु भगवानभ्यभाषत ॥ ७८ ॥
मूलम्
अथ सा वेपमानाङ्गी निमित्तं शीतजं तदा ॥ ७७ ॥
व्यपदिश्य महर्षेर्वै शयनं व्यवरोहत।
स्वागतेनागतां तां तु भगवानभ्यभाषत ॥ ७८ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
थोड़ी ही देरमें वह सरदी लगनेका बहाना करके थरथर काँपती हुई आयी और महर्षिकी शय्यापर आरूढ़ हो गयी। पास आनेपर भगवान् अष्टावक्रने ‘आइये, स्वागत है’ ऐसा कहकर उसके प्रति सम्मान प्रदर्शित किया॥७७-७८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
सोपागूहद् भुजाभ्यां तु ऋषिं प्रीत्या नरर्षभ।
निर्विकारमृषिं चापि काष्ठकुड्योपमं तदा ॥ ७९ ॥
मूलम्
सोपागूहद् भुजाभ्यां तु ऋषिं प्रीत्या नरर्षभ।
निर्विकारमृषिं चापि काष्ठकुड्योपमं तदा ॥ ७९ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
नरश्रेष्ठ! उसने प्रेमपूर्वक दोनों भुजाओंसे ऋषिका आलिंगन कर लिया तो भी उसने देखा, ऋषि अष्टावक्र सूखे काठ और दीवारके समान विकारशून्य हैं॥७९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
दुःखिता प्रेक्ष्य संजल्पमकार्षीदृषिणा सह।
ब्रह्मन्नकामतोऽन्यास्ति स्त्रीणां पुरुषतो धृतिः ॥ ८० ॥
कामेन मोहिता चाहं त्वां भजन्तीं भजस्व माम्।
प्रहृष्टो भव विप्रर्षे समागच्छ मया सह ॥ ८१ ॥
मूलम्
दुःखिता प्रेक्ष्य संजल्पमकार्षीदृषिणा सह।
ब्रह्मन्नकामतोऽन्यास्ति स्त्रीणां पुरुषतो धृतिः ॥ ८० ॥
कामेन मोहिता चाहं त्वां भजन्तीं भजस्व माम्।
प्रहृष्टो भव विप्रर्षे समागच्छ मया सह ॥ ८१ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
उनकी ऐसी स्थिति देख वह बहुत दुखी हो गयी और मुनिसे इस प्रकार बोली—‘ब्रह्मन्! पुरुषको अपने समीप पाकर उसके काम-व्यवहारको छोड़कर और किसी बातसे स्त्रीको धैर्य नहीं रहता। मैं कामसे मोहित होकर आपकी सेवामें आयी हूँ। आप मुझे स्वीकार कीजिये। ब्रह्मर्षे! आप प्रसन्न हों और मेरे साथ समागम करें॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
उपगूह च मां विप्र कामार्ताहं भृशं त्वयि।
एतद्धि तव धर्मात्मंस्तपसः पूज्यते फलम् ॥ ८२ ॥
मूलम्
उपगूह च मां विप्र कामार्ताहं भृशं त्वयि।
एतद्धि तव धर्मात्मंस्तपसः पूज्यते फलम् ॥ ८२ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘विप्रवर! आप मेरा आलिंगन कीजिये। मैं आपके प्रति अत्यन्त कामातुर हूँ। धर्मात्मन्! यही आपकी तपस्याका प्रशस्त फल है॥८२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
प्रार्थितं दर्शनादेव भजमानां भजस्व माम्।
मम चेदं धनं सर्वं यच्चान्यदपि पश्यसि ॥ ८३ ॥
प्रभुस्त्वं भव सर्वत्र मयि चैव न संशयः।
सर्वान् कामान् विधास्यामि रमस्व सहितो मया ॥ ८४ ॥
मूलम्
प्रार्थितं दर्शनादेव भजमानां भजस्व माम्।
मम चेदं धनं सर्वं यच्चान्यदपि पश्यसि ॥ ८३ ॥
प्रभुस्त्वं भव सर्वत्र मयि चैव न संशयः।
सर्वान् कामान् विधास्यामि रमस्व सहितो मया ॥ ८४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘मैं आपको देखते ही आपके प्रति अनुरक्त हो गयी हूँ; अतः आप मुझ सेविकाको अपनाइये। मेरा यह सारा धन तथा और जो कुछ आप देख रहे हैं, उस सबके तथा मेरे भी आप ही स्वामी हैं—इसमें संशय नहीं है। आप मेरे साथ रमण कीजिये। मैं आपकी समस्त कामनाएँ पूर्ण करूँगी॥८३-८४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
रमणीये वने विप्र सर्वकामफलप्रदे।
त्वद्वशाहं भविष्यामि रंस्यसे च मया सह ॥ ८५ ॥
मूलम्
रमणीये वने विप्र सर्वकामफलप्रदे।
त्वद्वशाहं भविष्यामि रंस्यसे च मया सह ॥ ८५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘ब्रह्मन्! सम्पूर्ण मनोवाञ्छित फलको देनेवाले इस रमणीय वनमें मैं आपके अधीन होकर रहूँगी। आप मेरे साथ रमण कीजिये॥८५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
सर्वान् कामानुपाश्नीमो ये दिव्या ये च मानुषाः।
नातः परं हि नारीणां विद्यते च कदाचन ॥ ८६ ॥
यथा पुरुषसंसर्गः परमेतद्धि नः फलम्।
मूलम्
सर्वान् कामानुपाश्नीमो ये दिव्या ये च मानुषाः।
नातः परं हि नारीणां विद्यते च कदाचन ॥ ८६ ॥
यथा पुरुषसंसर्गः परमेतद्धि नः फलम्।
अनुवाद (हिन्दी)
‘हमलोग यहाँ दिव्य और मनुष्यलोक-सम्बन्धी सम्पूर्ण भोगोंका उपभोग करेंगे। स्त्रियोंके लिये पुरुषसंसर्ग जितना प्रिय है, उससे बढ़कर दूसरा कोई फल कदापि प्रिय नहीं होता। यही हमारे लिये सर्वोत्तम फल है॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
आत्मच्छन्देन वर्तन्ते नार्यो मन्मथचोदिताः ॥ ८७ ॥
न च दह्यन्ति गच्छन्त्यः सुतप्तैरपि पांसुभिः।
मूलम्
आत्मच्छन्देन वर्तन्ते नार्यो मन्मथचोदिताः ॥ ८७ ॥
न च दह्यन्ति गच्छन्त्यः सुतप्तैरपि पांसुभिः।
अनुवाद (हिन्दी)
‘कामसे प्रेरित हुई नारियाँ सदा अपनी इच्छाके अनुसार बर्ताव करती हैं। कामसे संतप्त होनेपर वे तपी हुई धूलमें भी चलती हैं; परंतु इससे उनके पैर नहीं जलते हैं’॥८७॥
मूलम् (वचनम्)
अष्टावक्र उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
परदारानहं भद्रे न गच्छेयं कथंचन ॥ ८८ ॥
दूषितं धर्मशास्त्रज्ञैः परदाराभिमर्शनम् ।
मूलम्
परदारानहं भद्रे न गच्छेयं कथंचन ॥ ८८ ॥
दूषितं धर्मशास्त्रज्ञैः परदाराभिमर्शनम् ।
अनुवाद (हिन्दी)
अष्टावक्र बोले— भद्रे! मैं परायी स्त्रीके साथ किसी तरह संसर्ग नहीं कर सकता; क्योंकि धर्मशास्त्रके विद्वानोंने परस्त्रीसमागमकी निन्दा की है॥८८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
भद्रे निर्वेष्टुकामं मां विद्धि सत्येन वै शपे ॥ ८९ ॥
विषयेष्वनभिज्ञोऽहं धर्मार्थं किल संततिः।
एवं लोकान् गमिष्यामि पुत्रैरिति न संशयः ॥ ९० ॥
भद्रे धर्मं विजानीहि ज्ञात्वा चोपरमस्व ह।
मूलम्
भद्रे निर्वेष्टुकामं मां विद्धि सत्येन वै शपे ॥ ८९ ॥
विषयेष्वनभिज्ञोऽहं धर्मार्थं किल संततिः।
एवं लोकान् गमिष्यामि पुत्रैरिति न संशयः ॥ ९० ॥
भद्रे धर्मं विजानीहि ज्ञात्वा चोपरमस्व ह।
अनुवाद (हिन्दी)
भद्रे! मैं सत्यकी सौगन्ध खाकर कहता हूँ कि एक मनोनीत मुनिकुमारीके साथ विवाह करना चाहता हूँ। तुम इसे ठीक समझो। मैं विषयोंसे अनभिज्ञ हूँ। केवल धर्मके लिये संतानकी प्राप्ति मुझे अभीष्ट है; अतः यही मेरे विवाहका उद्देश्य है। ऐसा होनेपर मैं पुत्रोंद्वारा अभीष्ट लोकोंमें जाऊँगा। इसमें संशय नहीं है। भद्रे! तुम धर्मको समझो और उसे समझकर इस स्वेच्छाचारसे निवृत्त हो जाओ॥८९-९०॥
मूलम् (वचनम्)
स्त्र्युवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
नानिलोऽग्निर्न वरुणो न चान्ये त्रिदशा द्विज ॥ ९१ ॥
प्रियाः स्त्रीणां यथा कामो रतिशीला हि योषितः।
सहस्रे किल नारीणां प्राप्येतैका कदाचन ॥ ९२ ॥
तथा शतसहस्रेषु यदि काचित् पतिव्रता।
मूलम्
नानिलोऽग्निर्न वरुणो न चान्ये त्रिदशा द्विज ॥ ९१ ॥
प्रियाः स्त्रीणां यथा कामो रतिशीला हि योषितः।
सहस्रे किल नारीणां प्राप्येतैका कदाचन ॥ ९२ ॥
तथा शतसहस्रेषु यदि काचित् पतिव्रता।
अनुवाद (हिन्दी)
स्त्री बोली— ब्रह्मन्! वायु, अग्नि, वरुण तथा अन्य देवता भी स्त्रियोंको वैसे प्रिय नहीं हैं, जैसा उन्हें काम प्रिय लगता है; क्योंकि स्त्रियाँ स्वभावतः रतिकी इच्छुक होती हैं। सहस्रों नारियोंमें कभी कोई एक ऐसी स्त्री मिलती है जो रतिलोलुप न हो तथा लाखों स्त्रियोंमें शायद ही कोई एक पतिव्रता मिल सके॥९१-९२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
नैता जानन्ति पितरं न कुलं न च मातरम्॥९३॥
न भ्रातॄन् न च भर्तारं न च पुत्रान् न देवरान्।
लीलायन्त्यः कुलं घ्नन्ति कूलानीव सरिद्वराः।
दोषान् सर्वांश्च मत्वाऽऽशु प्रजापतिरभाषत ॥ ९४ ॥
मूलम्
नैता जानन्ति पितरं न कुलं न च मातरम्॥९३॥
न भ्रातॄन् न च भर्तारं न च पुत्रान् न देवरान्।
लीलायन्त्यः कुलं घ्नन्ति कूलानीव सरिद्वराः।
दोषान् सर्वांश्च मत्वाऽऽशु प्रजापतिरभाषत ॥ ९४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
ये स्त्रियाँ न पिताको जानती हैं न माताको, न कुलको समझती हैं न भाइयोंको। पति, पुत्र तथा देवरोंकी भी ये परवाह नहीं करती हैं। अपने लिये रतिकी इच्छा रखकर ये समस्त कुलकी मर्यादाका नाश कर डालती हैं, ठीक उसी तरह जैसे बड़ी-बड़ी नदियाँ अपने तटोंको ही तोड़-फोड़ देती हैं। इन सब दोषोंको समझकर ही प्रजापतिने स्त्रियोंके विषयमें उपर्युक्त बातें कही हैं॥
मूलम् (वचनम्)
भीष्म उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
ततः स ऋषिरेकाग्रस्तां स्त्रियं प्रत्यभाषत।
आस्यतां रुचितश्छन्दः किं च कार्यं ब्रवीहि मे ॥ ९५ ॥
मूलम्
ततः स ऋषिरेकाग्रस्तां स्त्रियं प्रत्यभाषत।
आस्यतां रुचितश्छन्दः किं च कार्यं ब्रवीहि मे ॥ ९५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
भीष्मजी कहते हैं— राजन्! तब ऋषिने एकाग्रचित्त होकर उस स्त्रीसे कहा—‘चुप रहो। मनमें भोगकी रुचि होनेपर स्वेच्छाचार होता है। मेरी रुचि नहीं है, अतः मुझसे यह काम नहीं हो सकता। इसके अतिरिक्त यदि मुझसे कोई काम हो तो बताओ’॥९५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
सा स्त्री प्रोवाच भगवन् द्रक्ष्यसे देशकालतः।
वस तावन्महाभाग कृतकृत्यो भविष्यसि ॥ ९६ ॥
मूलम्
सा स्त्री प्रोवाच भगवन् द्रक्ष्यसे देशकालतः।
वस तावन्महाभाग कृतकृत्यो भविष्यसि ॥ ९६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
उस स्त्रीने कहा—‘भगवन्! महाभाग! देश और कालके अनुसार आपको अनुभव हो जायगा। आप यहाँ रहिये, कृतकृत्य हो जाइयेगा’॥९६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ब्रह्मर्षिस्तामथोवाच स तथेति युधिष्ठिर।
वत्स्येऽहं यावदुत्साहो भवत्या नात्र संशयः ॥ ९७ ॥
मूलम्
ब्रह्मर्षिस्तामथोवाच स तथेति युधिष्ठिर।
वत्स्येऽहं यावदुत्साहो भवत्या नात्र संशयः ॥ ९७ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
युधिष्ठिर! तब ब्रह्मर्षिने उससे कहा—‘ठीक है, जबतक मेरे मनमें यहाँ रहनेका उत्साह होगा तबतक आपके साथ रहूँगा, इसमें संशय नहीं है’॥९७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अथर्षिरभिसम्प्रेक्ष्य स्त्रियं तां जरयार्दिताम्।
चिन्तां परमिकां भेजे संतप्त इव चाभवत् ॥ ९८ ॥
मूलम्
अथर्षिरभिसम्प्रेक्ष्य स्त्रियं तां जरयार्दिताम्।
चिन्तां परमिकां भेजे संतप्त इव चाभवत् ॥ ९८ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
इसके बाद ऋषि उस स्त्रीको जरावस्थासे पीड़ित देख बड़ी चिन्तामें पड़ गये और संतप्त-से हो उठे॥९८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
यद् यदङ्गं हि सोऽपश्यत् तस्या विप्रर्षभस्तदा।
नारमत् तत्र तत्रास्य दृष्टी रूपविरागिता ॥ ९९ ॥
मूलम्
यद् यदङ्गं हि सोऽपश्यत् तस्या विप्रर्षभस्तदा।
नारमत् तत्र तत्रास्य दृष्टी रूपविरागिता ॥ ९९ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
विप्रवर अष्टावक्र उसका जो-जो अंग देखते थे वहाँ-वहाँ उनकी दृष्टि रमती नहीं थी, अपितु उसके रूपसे विरक्त हो उठती थी॥९९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
देवतेयं गृहस्यास्य शापात् किं नु विरूपिता।
अस्याश्च कारणं वेत्तुं न युक्तं सहसा मया ॥ १०० ॥
मूलम्
देवतेयं गृहस्यास्य शापात् किं नु विरूपिता।
अस्याश्च कारणं वेत्तुं न युक्तं सहसा मया ॥ १०० ॥
अनुवाद (हिन्दी)
वे सोचने लगे ‘यह नारी तो इस घरकी अधिष्ठात्री देवी है। फिर इसे इतना कुरूप किसने बना दिया? इसकी कुरूपताका कारण क्या है? इसे किसीका शाप तो नहीं लग गया। इसकी कुरूपताका कारण जाननेके लिये सहसा चेष्टा करना मेरे लिये उचित नहीं है’॥१००॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
इति चिन्ताविविक्तस्य तमर्थं ज्ञातुमिच्छतः।
व्यगच्छत् तदहःशेषं मनसा व्याकुलेन तु ॥ १०१ ॥
मूलम्
इति चिन्ताविविक्तस्य तमर्थं ज्ञातुमिच्छतः।
व्यगच्छत् तदहःशेषं मनसा व्याकुलेन तु ॥ १०१ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
इस प्रकार व्याकुल चित्तसे एकान्तमें बैठकर चिन्ता करते और उसकी कुरूपताका कारण जाननेकी इच्छा रखते हुए महर्षिका वह सारा दिन बीत चला॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अथ सा स्त्री तथोवाच भगवन् पश्य वै रवेः।
रूपं संध्याभ्रसंरक्तं किमुपस्थाप्यतां तव ॥ १०२ ॥
मूलम्
अथ सा स्त्री तथोवाच भगवन् पश्य वै रवेः।
रूपं संध्याभ्रसंरक्तं किमुपस्थाप्यतां तव ॥ १०२ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
तब उस स्त्रीने कहा—‘भगवन्! देखिये, सूर्यका रूप संध्याकी लालीसे लाल हो गया है। इस समय आपके लिये कौन-सी वस्तु प्रस्तुत की जाय?’॥१०२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
स उवाच ततस्तां स्त्रीं स्नानोदकमिहानय।
उपासिष्ये ततः संध्यां वाग्यतो नियतेन्द्रियः ॥ १०३ ॥
मूलम्
स उवाच ततस्तां स्त्रीं स्नानोदकमिहानय।
उपासिष्ये ततः संध्यां वाग्यतो नियतेन्द्रियः ॥ १०३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
तब ऋषिने उस स्त्रीसे कहा—‘मेरे नहानेके लिये यहाँ जल ले आओ। स्नानके पश्चात् मैं मौन होकर इन्द्रियसंयमपूर्वक संध्योपासना करूँगा’॥१०३॥
मूलम् (समाप्तिः)
इति श्रीमहाभारते अनुशासनपर्वणि दानधर्मपर्वणि अष्टावक्रदिक्संवादे एकोनविंशोऽध्यायः ॥ १९ ॥
मूलम् (वचनम्)
इस प्रकार श्रीमहाभारत अनुशासनपर्वके अन्तर्गत दानधर्मपर्वमें अष्टावक्र और उत्तर दिशाका संवादविषयक उन्नीसवाँ अध्याय पूरा हुआ॥१९॥
सूचना (हिन्दी)
(दाक्षिणात्य अधिक पाठके २ श्लोक मिलाकर कुल १०५ श्लोक हैं)