भागसूचना
षोडशोऽध्यायः
सूचना (हिन्दी)
उपमन्यु-श्रीकृष्ण-संवाद—महात्मा तण्डिद्वारा की गयी महादेवजीकी स्तुति, प्रार्थना और उसका फल
मूलम् (वचनम्)
उपमन्युरुवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
ऋषिरासीत् कृते तात तण्डिरित्येव विश्रुतः।
दशवर्षसहस्राणि तेन देवः समाधिना ॥ १ ॥
आराधितोऽभूद् भक्तेन तस्योदर्कं निशामय।
स दृष्टवान् महादेवमस्तौषीच्च स्तवैर्विभुम् ॥ २ ॥
मूलम्
ऋषिरासीत् कृते तात तण्डिरित्येव विश्रुतः।
दशवर्षसहस्राणि तेन देवः समाधिना ॥ १ ॥
आराधितोऽभूद् भक्तेन तस्योदर्कं निशामय।
स दृष्टवान् महादेवमस्तौषीच्च स्तवैर्विभुम् ॥ २ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
उपमन्यु कहते हैं— तात! सत्ययुगमें तण्डि नामसे विख्यात एक ऋषि थे जिन्होंने भक्तिभावसे ध्यानके द्वारा दस हजार वर्षोंतक महादेवजीकी आराधना की थी। उन्हें जो फल प्राप्त हुआ था, उसे बता रहा हूँ, सुनिये। उन्होंने महादेवजीका दर्शन किया और स्तोत्रोंद्वारा उन प्रभुकी स्तुति की॥१-२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
इति तण्डिस्तपोयोगात् परमात्मानमव्ययम् ।
चिन्तयित्वा महात्मानमिदमाह सुविस्मितः ॥ ३ ॥
मूलम्
इति तण्डिस्तपोयोगात् परमात्मानमव्ययम् ।
चिन्तयित्वा महात्मानमिदमाह सुविस्मितः ॥ ३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
इस तरह तण्डिने तपस्यामें संलग्न होकर अविनाशी परमात्मा महामना शिवका चिन्तन करके अत्यन्त विस्मित हो इस प्रकार कहा था—॥३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
यं पठन्ति सदा सांख्याश्चिन्तयन्ति च योगिनः।
परं प्रधानं पुरुषमधिष्ठातारमीश्वरम् ॥ ४ ॥
उत्पत्तौ च विनाशे च कारणं यं विदुर्बुधाः।
देवासुरमुनीनां च परं यस्मान्न विद्यते ॥ ५ ॥
अजं तमहमीशानमनादिनिधनं प्रभुम् ।
अत्यन्तसुखिनं देवमनघं शरणं व्रजे ॥ ६ ॥
मूलम्
यं पठन्ति सदा सांख्याश्चिन्तयन्ति च योगिनः।
परं प्रधानं पुरुषमधिष्ठातारमीश्वरम् ॥ ४ ॥
उत्पत्तौ च विनाशे च कारणं यं विदुर्बुधाः।
देवासुरमुनीनां च परं यस्मान्न विद्यते ॥ ५ ॥
अजं तमहमीशानमनादिनिधनं प्रभुम् ।
अत्यन्तसुखिनं देवमनघं शरणं व्रजे ॥ ६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘सांख्यशास्त्रके विद्वान् पर, प्रधान, पुरुष, अधिष्ठाता और ईश्वर कहकर सदा जिनका गुणगान करते हैं, योगीजन जिनके चिन्तनमें लगे रहते हैं, विद्वान् पुरुष जिन्हें जगत्की उत्पत्ति और विनाशका कारण समझते हैं, देवताओं, असुरों और मुनियोंमें भी जिनसे श्रेष्ठ दूसरा कोई नहीं है, उन अजन्मा, अनादि, अनन्त, अनघ और अत्यन्त सुखी, प्रभावशाली ईश्वर महादेवजीकी मैं शरण लेता हूँ’॥४—६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
एवं ब्रुवन्नेव तदा ददर्श तपसां निधिम्।
तमव्ययमनौपम्यमचिन्त्यं शाश्वतं ध्रुवम् ॥ ७ ॥
निष्कलं सकलं ब्रह्म निर्गुणं गुणगोचरम्।
योगिनां परमानन्दमक्षरं मोक्षसंज्ञितम् ॥ ८ ॥
मूलम्
एवं ब्रुवन्नेव तदा ददर्श तपसां निधिम्।
तमव्ययमनौपम्यमचिन्त्यं शाश्वतं ध्रुवम् ॥ ७ ॥
निष्कलं सकलं ब्रह्म निर्गुणं गुणगोचरम्।
योगिनां परमानन्दमक्षरं मोक्षसंज्ञितम् ॥ ८ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
इतना कहते ही तण्डिने उन तपोनिधि, अविकारी, अनुपम, अचिन्त्य, शाश्वत, ध्रुव, निष्कल, सकल, निर्गुण एवं सगुण ब्रह्मका दर्शन प्राप्त किया, जो योगियोंके परमानन्द, अविनाशी एवं मोक्षस्वरूप हैं॥७-८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
मनोरिन्द्राग्निमरुतां विश्वस्य ब्रह्मणो गतिम्।
अग्राह्यमचलं शुद्धं बुद्धिग्राह्यं मनोमयम् ॥ ९ ॥
मूलम्
मनोरिन्द्राग्निमरुतां विश्वस्य ब्रह्मणो गतिम्।
अग्राह्यमचलं शुद्धं बुद्धिग्राह्यं मनोमयम् ॥ ९ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
वे ही मनु, इन्द्र, अग्नि, मरुद्गण, सम्पूर्ण विश्व तथा ब्रह्माजीकी भी गति हैं। मन और इन्द्रियोंके द्वारा उनका ग्रहण नहीं हो सकता। वे अग्राह्य, अचल, शुद्ध, बुद्धिके द्वारा अनुभव करने योग्य तथा मनोमय हैं॥९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
दुर्विज्ञेयमसंख्येयं दुष्प्रापमकृतात्मभिः ।
योनिं विश्वस्य जगतस्तमसः परतः परम् ॥ १० ॥
मूलम्
दुर्विज्ञेयमसंख्येयं दुष्प्रापमकृतात्मभिः ।
योनिं विश्वस्य जगतस्तमसः परतः परम् ॥ १० ॥
अनुवाद (हिन्दी)
उनका ज्ञान होना अत्यन्त कठिन है। वे अप्रमेय हैं। जिन्होंने अपने अन्तःकरणको पवित्र एवं वशीभूत नहीं किया है, उनके लिये वे सर्वथा दुर्लभ हैं। वे ही सम्पूर्ण जगत्के कारण हैं। अज्ञानमय अन्धकारसे अत्यन्त परे हैं॥१०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
यः प्राणवन्तमात्मानं ज्योतिर्जीवस्थितं मनः।
तं देवं दर्शनाकाङ्क्षी बहून् वर्षगणानृषिः ॥ ११ ॥
तपस्युग्रे स्थितो भूत्वा दृष्ट्वा तुष्टाव चेश्वरम्॥
मूलम्
यः प्राणवन्तमात्मानं ज्योतिर्जीवस्थितं मनः।
तं देवं दर्शनाकाङ्क्षी बहून् वर्षगणानृषिः ॥ ११ ॥
तपस्युग्रे स्थितो भूत्वा दृष्ट्वा तुष्टाव चेश्वरम्॥
अनुवाद (हिन्दी)
जो देवता अपनेको प्राणवान्—जीवस्वरूप बनाकर उसमें मनोमय ज्योति बनकर स्थित हुए थे, उन्हींके दर्शनकी अभिलाषासे तण्डि मुनि बहुत वर्षोंतक उग्र तपस्यामें लगे रहे। जब उनका दर्शन प्राप्त कर लिया तब उन मुनीश्वरने जगदीश्वर शिवकी इस प्रकार स्तुति की॥११॥
मूलम् (वचनम्)
तण्डिरुवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
पवित्राणां पवित्रस्त्वं गतिर्गतिमतां वर ॥ १२ ॥
अत्युग्रं तेजसां तेजस्तपसां परमं तपः।
मूलम्
पवित्राणां पवित्रस्त्वं गतिर्गतिमतां वर ॥ १२ ॥
अत्युग्रं तेजसां तेजस्तपसां परमं तपः।
अनुवाद (हिन्दी)
तण्डिने कहा— सर्वश्रेष्ठ परमेश्वर! आप पवित्रोंमें भी परम पवित्र तथा गतिशील प्राणियोंकी उत्तम गति हैं। तेजोंमें अत्यन्त उग्र तेज और तपस्याओंमें उत्कृष्ट तप हैं॥१२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
विश्वावसुहिरण्याक्षपुरुहूतनमस्कृत ॥ १३ ॥
भूरिकल्याणद विभो परं सत्यं नमोऽस्तु ते।
मूलम्
विश्वावसुहिरण्याक्षपुरुहूतनमस्कृत ॥ १३ ॥
भूरिकल्याणद विभो परं सत्यं नमोऽस्तु ते।
अनुवाद (हिन्दी)
गन्धर्वराज विश्वावसु, दैत्यराज हिरण्याक्ष और देवराज इन्द्र भी आपकी वन्दना करते हैं। सबको महान् कल्याण प्रदान करनेवाले प्रभो! आप परम सत्य हैं। आपको नमस्कार है॥१३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
जातीमरणभीरूणां यतीनां यततां विभो ॥ १४ ॥
निर्वाणद सहस्रांशो नमस्तेऽस्तु सुखाश्रय।
मूलम्
जातीमरणभीरूणां यतीनां यततां विभो ॥ १४ ॥
निर्वाणद सहस्रांशो नमस्तेऽस्तु सुखाश्रय।
अनुवाद (हिन्दी)
विभो! जो जन्म-मरणसे भयभीत हो संसार-बन्धनसे मुक्त होनेके लिये प्रयत्न करते हैं, उन यतियोंको निर्वाण (मोक्ष) प्रदान करनेवाले आप ही हैं। आप ही सहस्रों किरणोंवाले सूर्य होकर तप रहे हैं। सुखके आश्रयरूप महेश्वर! आपको नमस्कार है॥१४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ब्रह्मा शतक्रतुर्विष्णुर्विश्वेदेवा महर्षयः ॥ १५ ॥
न विदुस्त्वां तु तत्त्वेन कुतो वेत्स्यामहे वयम्।
त्वत्तः प्रवर्तते सर्वं त्वयि सर्वं प्रतिष्ठितम् ॥ १६ ॥
मूलम्
ब्रह्मा शतक्रतुर्विष्णुर्विश्वेदेवा महर्षयः ॥ १५ ॥
न विदुस्त्वां तु तत्त्वेन कुतो वेत्स्यामहे वयम्।
त्वत्तः प्रवर्तते सर्वं त्वयि सर्वं प्रतिष्ठितम् ॥ १६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
ब्रह्मा, विष्णु, इन्द्र, विश्वेदेव तथा महर्षि भी आपको यथार्थरूपसे नहीं जानते हैं। फिर हम कैसे जान सकते हैं। आपसे ही सबकी उत्पत्ति होती है तथा आपमें ही यह सारा जगत् प्रतिष्ठित है॥१५-१६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
कालाख्यः पुरुषाख्यश्च ब्रह्माख्यश्च त्वमेव हि।
तनवस्ते स्मृतास्तिस्रः पुराणज्ञैः सुरर्षिभिः ॥ १७ ॥
मूलम्
कालाख्यः पुरुषाख्यश्च ब्रह्माख्यश्च त्वमेव हि।
तनवस्ते स्मृतास्तिस्रः पुराणज्ञैः सुरर्षिभिः ॥ १७ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
काल, पुरुष और ब्रह्म—इन तीन नामोंद्वारा आप ही प्रतिपादित होते हैं। पुराणवेत्ता देवर्षियोंने आपके ये तीन रूप बताये हैं॥१७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अधिपौरुषमध्यात्ममधिभूताधिदैवतम् ।
अधिलोकाधिविज्ञानमधियज्ञस्त्वमेव हि ॥ १८ ॥
मूलम्
अधिपौरुषमध्यात्ममधिभूताधिदैवतम् ।
अधिलोकाधिविज्ञानमधियज्ञस्त्वमेव हि ॥ १८ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
अधिपौरुष, अध्यात्म, अधिभूत, अधिदैवत, अधिलोक, अधिविज्ञान और अधियज्ञ आप ही हैं॥१८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
त्वां विदित्वात्मदेहस्थं दुर्विदं दैवतैरपि।
विद्वांसो यान्ति निर्मुक्ताः परं भावमनामयम् ॥ १९ ॥
मूलम्
त्वां विदित्वात्मदेहस्थं दुर्विदं दैवतैरपि।
विद्वांसो यान्ति निर्मुक्ताः परं भावमनामयम् ॥ १९ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
आप देवताओंके लिये भी दुर्ज्ञेय हैं। विद्वान् पुरुष आपको अपने ही शरीरमें स्थित अन्तर्यामी आत्माके रूपमें जानकर संसार-बन्धनसे मुक्त हो रोग-शोकसे रहित परमभावको प्राप्त होते हैं॥१९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अनिच्छतस्तव विभो जन्ममृत्युरनेकतः ।
द्वारं तु स्वर्गमोक्षाणामाक्षेप्ता त्वं ददासि च ॥ २० ॥
मूलम्
अनिच्छतस्तव विभो जन्ममृत्युरनेकतः ।
द्वारं तु स्वर्गमोक्षाणामाक्षेप्ता त्वं ददासि च ॥ २० ॥
अनुवाद (हिन्दी)
प्रभो! यदि आप स्वयं ही कृपा करके जीवका उद्धार करना न चाहें तो उसके बारंबार जन्म और मृत्यु होते रहते हैं। आप ही स्वर्ग और मोक्षके द्वार हैं। आप ही उनकी प्राप्तिमें बाधा डालनेवाले हैं तथा आप ही ये दोनों वस्तुएँ प्रदान करते हैं॥२०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
त्वं वै स्वर्गश्च मोक्षश्च कामः क्रोधस्त्वमेव च।
सत्त्वं रजस्तमश्चैव अधश्चोर्ध्वं त्वमेव हि ॥ २१ ॥
मूलम्
त्वं वै स्वर्गश्च मोक्षश्च कामः क्रोधस्त्वमेव च।
सत्त्वं रजस्तमश्चैव अधश्चोर्ध्वं त्वमेव हि ॥ २१ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
आप ही स्वर्ग और मोक्ष हैं। आप ही काम और क्रोध हैं तथा आप ही सत्त्व, रज, तम, अधोलोक और ऊर्ध्वलोक हैं॥२१॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ब्रह्मा भवश्च विष्णुश्च स्कन्देन्द्रौ सविता यमः।
वरुणेन्दू मनुर्धाता विधाता त्वं धनेश्वरः ॥ २२ ॥
मूलम्
ब्रह्मा भवश्च विष्णुश्च स्कन्देन्द्रौ सविता यमः।
वरुणेन्दू मनुर्धाता विधाता त्वं धनेश्वरः ॥ २२ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
ब्रह्मा, विष्णु, शिव, स्कन्द, इन्द्र, सूर्य, यम, वरुण, चन्द्रमा, मनु, धाता, विधाता और धनाध्यक्ष कुबेर भी आप ही हैं॥२२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
भूर्वायुः सलिलाग्निश्च खं बाग्बुद्धिः स्थितिर्मतिः।
कर्म सत्यानृते चोभे त्वमेवास्ति च नास्ति च ॥ २३ ॥
मूलम्
भूर्वायुः सलिलाग्निश्च खं बाग्बुद्धिः स्थितिर्मतिः।
कर्म सत्यानृते चोभे त्वमेवास्ति च नास्ति च ॥ २३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
पृथ्वी, वायु, जल, अग्नि, आकाश, वाणी, बुद्धि, स्थिति, मति, कर्म, सत्य, असत्य तथा अस्ति और नास्ति भी आप ही हैं॥२३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
इन्द्रियाणीन्द्रियार्थाश्च प्रकृतिभ्यः परं ध्रुवम्।
विश्वाविश्वपरोभावश्चिन्त्याचिन्त्यस्त्वमेव हि ॥ २४ ॥
मूलम्
इन्द्रियाणीन्द्रियार्थाश्च प्रकृतिभ्यः परं ध्रुवम्।
विश्वाविश्वपरोभावश्चिन्त्याचिन्त्यस्त्वमेव हि ॥ २४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
आप ही इन्द्रियाँ और इन्द्रियोंके विषय हैं। आप ही प्रकृतिसे परे निश्चल एवं अविनाशी तत्त्व हैं। आप ही विश्व और अविश्व—दोनोंसे परे विलक्षण भाव हैं तथा आप ही चिन्त्य और अचिन्त्य हैं॥२४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
यच्चैतत् परमं ब्रह्म यच्च तत् परमं पदम्।
या गतिः सांख्ययोगानां स भवान् नात्र संशयः ॥ २५ ॥
मूलम्
यच्चैतत् परमं ब्रह्म यच्च तत् परमं पदम्।
या गतिः सांख्ययोगानां स भवान् नात्र संशयः ॥ २५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
जो यह परम ब्रह्म है, जो वह परमपद है तथा जो सांख्यवेत्ताओं और योगियोंकी गति है, वह आप ही हैं—इसमें संशय नहीं है॥२५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
नूनमद्य कृतार्थाः स्म नूनं प्राप्ताः सतां गतिम्।
यां गतिं प्रार्थयन्तीह ज्ञाननिर्मलबुद्धयः ॥ २६ ॥
मूलम्
नूनमद्य कृतार्थाः स्म नूनं प्राप्ताः सतां गतिम्।
यां गतिं प्रार्थयन्तीह ज्ञाननिर्मलबुद्धयः ॥ २६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
ज्ञानसे निर्मल बुद्धिवाले ज्ञानी पुरुष यहाँ जिस गतिको प्राप्त करना चाहते हैं, सत्पुरुषोंकी उसी गतिको निश्चित रूपसे हम प्राप्त हो गये हैं; अतः आज हम निश्चय ही कृतार्थ हो गये॥२६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अहो मूढाः स्म सुचिरमिमं कालमचेतसा।
यन्न विद्मः परं देवं शाश्वतं यं विदुर्बुधाः ॥ २७ ॥
मूलम्
अहो मूढाः स्म सुचिरमिमं कालमचेतसा।
यन्न विद्मः परं देवं शाश्वतं यं विदुर्बुधाः ॥ २७ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
अहो, हम अज्ञानवश इतने दीर्घकालतक मोहमें पड़े रहे हैं, क्योंकि जिन्हें विद्वान् पुरुष जानते हैं, उन्हीं सनातन परमदेवको हम अबतक नहीं जान सके थे॥२७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
सेयमासादिता साक्षात् त्वद्भक्तिर्जन्मभिर्मया ।
भक्तानुग्रहकृद् देवो यं ज्ञात्वामृतमश्नुते ॥ २८ ॥
मूलम्
सेयमासादिता साक्षात् त्वद्भक्तिर्जन्मभिर्मया ।
भक्तानुग्रहकृद् देवो यं ज्ञात्वामृतमश्नुते ॥ २८ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
अब अनेक जन्मोंके प्रयत्नसे मैंने यह साक्षात् आपकी भक्ति प्राप्त की है। आप ही भक्तोंपर अनुग्रह करनेवाले महान् देवता हैं, जिन्हें जानकर ज्ञानी पुरुष मोक्ष प्राप्त कर लेते हैं॥२८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
देवासुरमुनीनां तु यच्च गुह्यं सनातनम्।
गुहायां निहितं ब्रह्म दुर्विज्ञेयं मुनेरपि ॥ २९ ॥
स एष भगवान् देवः सर्वकृत् सर्वतोमुखः।
सर्वात्मा सर्वदर्शी च सर्वगः सर्ववेदिता ॥ ३० ॥
मूलम्
देवासुरमुनीनां तु यच्च गुह्यं सनातनम्।
गुहायां निहितं ब्रह्म दुर्विज्ञेयं मुनेरपि ॥ २९ ॥
स एष भगवान् देवः सर्वकृत् सर्वतोमुखः।
सर्वात्मा सर्वदर्शी च सर्वगः सर्ववेदिता ॥ ३० ॥
अनुवाद (हिन्दी)
जो सनातन ब्रह्म देवताओं, असुरों और मुनियोंके लिये भी गुह्य है, जो हृदयगुहामें स्थित रहकर मननशील मुनिके लिये भी दुर्विज्ञेय बने हुए हैं, वही ये भगवान् हैं। ये ही सबकी सृष्टि करनेवाले देवता हैं। इनके सब ओर मुख हैं। ये सर्वात्मा, सर्वदर्शी, सर्वव्यापी और सर्वज्ञ हैं॥२९-३०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
देहकृद् देहभृद् देही देहभुग्देहिनां गतिः।
प्राणकृत् प्राणभृत् प्राणी प्राणदः प्राणिनां गतिः ॥ ३१ ॥
मूलम्
देहकृद् देहभृद् देही देहभुग्देहिनां गतिः।
प्राणकृत् प्राणभृत् प्राणी प्राणदः प्राणिनां गतिः ॥ ३१ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
आप शरीरके निर्माता और शरीरधारी हैं, इसीलिये देही कहलाते हैं। देहके भोक्ता और देहधारियोंकी परम गति हैं। आप ही प्राणोंके उत्पादक, प्राणधारी, प्राणी, प्राणदाता तथा प्राणियोंकी गति हैं॥३१॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अध्यात्मगतिरिष्टानां ध्यायिनामात्मवेदिनाम् ।
अपुनर्भवकामानां या गतिः सोऽयमीश्वरः ॥ ३२ ॥
मूलम्
अध्यात्मगतिरिष्टानां ध्यायिनामात्मवेदिनाम् ।
अपुनर्भवकामानां या गतिः सोऽयमीश्वरः ॥ ३२ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
ध्यान करनेवाले प्रियभक्तोंकी जो अध्यात्मगति हैं तथा पुनर्जन्मकी इच्छा न रखनेवाले आत्मज्ञानी पुरुषोंकी जो गति बतायी गयी है, वह ये ईश्वर ही हैं॥३२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अयं च सर्वभूतानां शुभाशुभगतिप्रदः।
अयं च जन्ममरणे विदध्यात् सर्वजन्तुषु ॥ ३३ ॥
मूलम्
अयं च सर्वभूतानां शुभाशुभगतिप्रदः।
अयं च जन्ममरणे विदध्यात् सर्वजन्तुषु ॥ ३३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
ये ही समस्त प्राणियोंको शुभ और अशुभ गति प्रदान करनेवाले हैं। ये ही समस्त प्राणियोंको जन्म और मृत्यु प्रदान करते हैं॥३३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अयं संसिद्धिकामानां या गतिः सोऽयमीश्वरः।
भूराद्यान् सर्वभुवनानुत्पाद्य सदिवौकसः ।
दधाति देवस्तनुभिरष्टाभिर्यो बिभर्ति च ॥ ३४ ॥
मूलम्
अयं संसिद्धिकामानां या गतिः सोऽयमीश्वरः।
भूराद्यान् सर्वभुवनानुत्पाद्य सदिवौकसः ।
दधाति देवस्तनुभिरष्टाभिर्यो बिभर्ति च ॥ ३४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
संसिद्धि (मुक्ति)-की इच्छा रखनेवाले पुरुषोंकी जो परम गति है, वह ये ईश्वर ही हैं। देवताओंसहित भू आदि समस्त लोकोंको उत्पन्न करके ये महादेव ही (पृथ्वी, जल, वायु, अग्नि, आकाश, सूर्य, चन्द्र, यजमान—इन) अपनी आठ मूर्तियोंद्वारा उनका धारण और पोषण करते हैं॥३४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अतः प्रवर्तते सर्वमस्मिन् सर्वं प्रतिष्ठितम्।
अस्मिंश्च प्रलयं याति अयमेकः सनातनः ॥ ३५ ॥
मूलम्
अतः प्रवर्तते सर्वमस्मिन् सर्वं प्रतिष्ठितम्।
अस्मिंश्च प्रलयं याति अयमेकः सनातनः ॥ ३५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
इन्हींसे सबकी उत्पत्ति होती है और इन्हींमें सारा जगत् प्रतिष्ठित है और इन्हींमें सबका लय होता है। ये ही एक सनातन पुरुष हैं॥३५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अयं स सत्यकामानां सत्यलोकः परं सताम्।
अपवर्गश्च मुक्तानां कैवल्यं चात्मवेदिनाम् ॥ ३६ ॥
मूलम्
अयं स सत्यकामानां सत्यलोकः परं सताम्।
अपवर्गश्च मुक्तानां कैवल्यं चात्मवेदिनाम् ॥ ३६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
ये ही सत्यकी इच्छा रखनेवाले सत्पुरुषोंके लिये सर्वोत्तम सत्यलोक हैं। ये ही मुक्त पुरुषोंके अपवर्ग (मोक्ष) और आत्मज्ञानियोंके कैवल्य हैं॥३६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अयं ब्रह्मादिभिः सिद्धैर्गुहायां गोपितः प्रभुः।
देवासुरमनुष्याणामप्रकाशो भवेदिति ॥ ३७ ॥
मूलम्
अयं ब्रह्मादिभिः सिद्धैर्गुहायां गोपितः प्रभुः।
देवासुरमनुष्याणामप्रकाशो भवेदिति ॥ ३७ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
देवता, असुर और मनुष्योंको इनका पता न लगने पाये, मानो इसीलिये ब्रह्मा आदि सिद्ध पुरुषोंने इन परमेश्वरको अपनी हृदयगुफामें छिपा रखा है॥३७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तं त्वां देवासुरनरास्तत्त्वेन न विदुर्भवम्।
मोहिताः खल्वनेनैव हृदिस्थेनाप्रकाशिना ॥ ३८ ॥
मूलम्
तं त्वां देवासुरनरास्तत्त्वेन न विदुर्भवम्।
मोहिताः खल्वनेनैव हृदिस्थेनाप्रकाशिना ॥ ३८ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
हृदयमन्दिरमें गूढ़भावसे रहकर प्रकाशित न होनेवाले इन परमात्मदेवने सबको अपनी मायासे मोहित कर रखा है। इसीलिये देवता, असुर और मनुष्य आप महादेवको यथार्थ रूपसे नहीं जान पाते हैं॥३८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ये चैनं प्रतिपद्यन्ते भक्तियोगेन भाविताः।
तेषामेवात्मनाऽऽत्मानं दर्शयत्येष हृच्छयः ॥ ३९ ॥
मूलम्
ये चैनं प्रतिपद्यन्ते भक्तियोगेन भाविताः।
तेषामेवात्मनाऽऽत्मानं दर्शयत्येष हृच्छयः ॥ ३९ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
जो लोग भक्तियोगसे भावित होकर उन परमेश्वरकी शरण लेते हैं, उन्हींको यह हृदय-मन्दिरमें शयन करनेवाले भगवान् स्वयं अपना दर्शन देते हैं॥३९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
यं ज्ञात्वा न पुनर्जन्म मरणं चापि विद्यते।
यं विदित्वा परं वेद्यं वेदितव्यं न विद्यते ॥ ४० ॥
यं लब्ध्वा परमं लाभं नाधिकं मन्यते बुधः।
यां सूक्ष्मां परमां प्राप्तिं गच्छन्नव्ययमक्षयम् ॥ ४१ ॥
यं सांख्या गुणतत्त्वज्ञाः सांख्यशास्त्रविशारदाः।
सूक्ष्मज्ञानतराः सूक्ष्मं ज्ञात्वा मुच्यन्ति बन्धनैः ॥ ४२ ॥
यं च वेदविदो वेद्यं वेदान्ते च प्रतिष्ठितम्।
प्राणायामपरा नित्यं यं विशन्ति जपन्ति च ॥ ४३ ॥
ओंकाररथमारुह्य ते विशन्ति महेश्वरम्।
अयं स देवयानानामादित्यो द्वारमुच्यते ॥ ४४ ॥
मूलम्
यं ज्ञात्वा न पुनर्जन्म मरणं चापि विद्यते।
यं विदित्वा परं वेद्यं वेदितव्यं न विद्यते ॥ ४० ॥
यं लब्ध्वा परमं लाभं नाधिकं मन्यते बुधः।
यां सूक्ष्मां परमां प्राप्तिं गच्छन्नव्ययमक्षयम् ॥ ४१ ॥
यं सांख्या गुणतत्त्वज्ञाः सांख्यशास्त्रविशारदाः।
सूक्ष्मज्ञानतराः सूक्ष्मं ज्ञात्वा मुच्यन्ति बन्धनैः ॥ ४२ ॥
यं च वेदविदो वेद्यं वेदान्ते च प्रतिष्ठितम्।
प्राणायामपरा नित्यं यं विशन्ति जपन्ति च ॥ ४३ ॥
ओंकाररथमारुह्य ते विशन्ति महेश्वरम्।
अयं स देवयानानामादित्यो द्वारमुच्यते ॥ ४४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
जिन्हें जान लेनेपर फिर जन्म और मरणका बन्धन नहीं रह जाता तथा जिनका ज्ञान प्राप्त हो जानेपर फिर दूसरे किसी उत्कृष्ट ज्ञेय तत्त्वका जानना शेष नहीं रहता है, जिन्हें प्राप्त कर लेनेपर विद्वान् पुरुष बड़े-से-बड़े लाभको भी उनसे अधिक नहीं मानता है, जिस सूक्ष्म परम पदार्थको पाकर ज्ञानी मनुष्य ह्रास और नाशसे रहित परमपदको प्राप्त कर लेता है, सत्त्व आदि तीन गुणों तथा चौबीस तत्त्वोंको जाननेवाले सांख्यज्ञान-विशारद सांख्ययोगी विद्वान् जिस सूक्ष्म तत्त्वको जानकर उस सूक्ष्मज्ञानरूपी नौकाके द्वारा संसारसमुद्रसे पार होते और सब प्रकारके बन्धनोंसे मुक्त हो जाते हैं, प्राणायाम-परायण पुरुष वेदवेत्ताओंके जानने योग्य तथा वेदान्तमें प्रतिष्ठित जिस नित्य तत्त्वका ध्यान और जप करते हैं और उसीमें प्रवेश कर जाते हैं; वही ये महेश्वर हैं। ॐकाररूपी रथपर आरूढ़ होकर वे सिद्ध पुरुष इन्हींमें प्रवेश करते हैं। ये ही देवयानके द्वाररूप सूर्य कहलाते हैं॥४०—४४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अयं च पितृयानानां चन्द्रमा द्वारमुच्यते।
एष काष्ठा दिशश्चैव संवत्सरयुगादि च ॥ ४५ ॥
दिव्यादिव्यः परो लाभ अयने दक्षिणोत्तरे।
मूलम्
अयं च पितृयानानां चन्द्रमा द्वारमुच्यते।
एष काष्ठा दिशश्चैव संवत्सरयुगादि च ॥ ४५ ॥
दिव्यादिव्यः परो लाभ अयने दक्षिणोत्तरे।
अनुवाद (हिन्दी)
ये ही पितृयान-मार्गके द्वार चन्द्रमा कहलाते हैं। काष्ठा, दिशा, संवत्सर और युग आदि भी ये ही हैं। दिव्य लाभ (देवलोकका सुख), अदिव्य लाभ (इस लोकका सुख), परम लाभ (मोक्ष), उत्तरायण और दक्षिणायन भी ये ही हैं॥४५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
एनं प्रजापतिः पूर्वमाराध्य बहुभिः स्तवैः ॥ ४६ ॥
प्रजार्थं वरयामास नीललोहितसंज्ञितम् ।
मूलम्
एनं प्रजापतिः पूर्वमाराध्य बहुभिः स्तवैः ॥ ४६ ॥
प्रजार्थं वरयामास नीललोहितसंज्ञितम् ।
अनुवाद (हिन्दी)
पूर्वकालमें प्रजापतिने नाना प्रकारके स्तोत्रोंद्वारा इन्हीं नीललोहित नामवाले भगवान्की आराधना करके प्रजाकी सृष्टिके लिये वर प्राप्त किया था॥४६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ऋग्भिर्यमनुशासन्ति तत्त्वे कर्मणि बह्वृचाः ॥ ४७ ॥
यजुर्भिर्यत्त्रिधा वेद्यं जुह्वत्यध्वर्यवोऽध्वरे ।
सामभिर्यं च गायन्ति सामगाः शुद्धबुद्धयः ॥ ४८ ॥
ऋतं सत्यं परं ब्रह्म स्तुवन्त्याथर्वणा द्विजाः।
यज्ञस्य परमा योनिः पतिश्चायं परः स्मृतः ॥ ४९ ॥
मूलम्
ऋग्भिर्यमनुशासन्ति तत्त्वे कर्मणि बह्वृचाः ॥ ४७ ॥
यजुर्भिर्यत्त्रिधा वेद्यं जुह्वत्यध्वर्यवोऽध्वरे ।
सामभिर्यं च गायन्ति सामगाः शुद्धबुद्धयः ॥ ४८ ॥
ऋतं सत्यं परं ब्रह्म स्तुवन्त्याथर्वणा द्विजाः।
यज्ञस्य परमा योनिः पतिश्चायं परः स्मृतः ॥ ४९ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
ऋग्वेदके विद्वान् तात्त्विक यज्ञकर्ममें ऋग्वेदके मन्त्रोंद्वारा जिनकी महिमाका गान करते हैं, यजुर्वेदके ज्ञाता द्विज यज्ञमें यजुर्मन्त्रोंद्वारा दक्षिणाग्नि, गार्हपत्य और आहवनीय—इन त्रिविध रूपोंसे जाननेयोग्य जिन महादेवजीके उद्देश्यसे आहुति देते हैं तथा शुद्ध बुद्धिसे युक्त सामवेदके गानेवाले विद्वान् साममन्त्रोंद्वारा जिनकी स्तुति गाते हैं, अथर्ववेदी ब्राह्मण ऋत, सत्य एवं परब्रह्मनामसे जिनकी स्तुति करते हैं, जो यज्ञके परम कारण हैं, वे ही ये परमेश्वर समस्त यज्ञोंके परमपति माने गये हैं॥४७—४९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
रात्र्यहःश्रोत्रनयनः पक्षमासशिरोभुजः ।
ऋतुवीर्यस्तपोधैर्यो ह्यब्दगुह्योरुपादवान् ॥ ५० ॥
मूलम्
रात्र्यहःश्रोत्रनयनः पक्षमासशिरोभुजः ।
ऋतुवीर्यस्तपोधैर्यो ह्यब्दगुह्योरुपादवान् ॥ ५० ॥
अनुवाद (हिन्दी)
रात और दिन इनके कान और नेत्र हैं, पक्ष और मास इनके मस्तक और भुजाएँ हैं, ऋतु वीर्य है, तपस्या धैर्य है तथा वर्ष गुह्य-इन्द्रिय, ऊरु और पैर हैं॥५०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
मृत्युर्यमो हुताशश्च कालः संहारवेगवान्।
कालस्य परमा योनिः कालश्चायं सनातनः ॥ ५१ ॥
मूलम्
मृत्युर्यमो हुताशश्च कालः संहारवेगवान्।
कालस्य परमा योनिः कालश्चायं सनातनः ॥ ५१ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
मृत्यु, यम, अग्नि, संहारके लिये वेगशाली काल, कालके परम कारण तथा सनातन काल भी—ये महादेव ही हैं॥५१॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
चन्द्रादित्यौ सनक्षत्रौ ग्रहाश्च सह वायुना।
ध्रुवः सप्तर्षयश्चैव भुवनाः सप्त एव च ॥ ५२ ॥
प्रधानं महदव्यक्तं विशेषान्तं सवैकृतम्।
ब्रह्मादिस्तम्बपर्यन्तं भूतादि सदसच्च यत् ॥ ५३ ॥
अष्टौ प्रकृतयश्चैव प्रकृतिभ्यश्च यः परः।
मूलम्
चन्द्रादित्यौ सनक्षत्रौ ग्रहाश्च सह वायुना।
ध्रुवः सप्तर्षयश्चैव भुवनाः सप्त एव च ॥ ५२ ॥
प्रधानं महदव्यक्तं विशेषान्तं सवैकृतम्।
ब्रह्मादिस्तम्बपर्यन्तं भूतादि सदसच्च यत् ॥ ५३ ॥
अष्टौ प्रकृतयश्चैव प्रकृतिभ्यश्च यः परः।
अनुवाद (हिन्दी)
चन्द्रमा, सूर्य, नक्षत्र, ग्रह, वायु, ध्रुव, सप्तर्षि, सात भुवन, मूल प्रकृति, महत्तत्त्व, विकारोंके सहित विशेषपर्यन्त समस्त तत्त्व, ब्रह्माजीसे लेकर कीटपर्यन्त सम्पूर्ण जगत्, भूतादि, सत् और असत् आठ प्रकृतियाँ तथा प्रकृतिसे परे जो पुरुष है, इन सबके रूपमें ये महादेवजी ही विराजमान हैं॥५२-५३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अस्य देवस्य यद् भागं कृत्स्नं सम्परिवर्तते ॥ ५४ ॥
एतत् परममानन्दं यत् तच्छाश्वतमेव च।
एषा गतिर्विरक्तानामेष भावः परः सताम् ॥ ५५ ॥
मूलम्
अस्य देवस्य यद् भागं कृत्स्नं सम्परिवर्तते ॥ ५४ ॥
एतत् परममानन्दं यत् तच्छाश्वतमेव च।
एषा गतिर्विरक्तानामेष भावः परः सताम् ॥ ५५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
इन महादेवजीका अंशभूत जो सम्पूर्ण जगत् चक्रकी भाँति निरन्तर चलता रहता है, वह भी ये ही हैं। ये परमानन्दस्वरूप हैं। जो शाश्वत ब्रह्म है, वह भी ये ही हैं। ये ही विरक्तोंकी गति हैं और ये ही सत्पुरुषोंके परमभाव हैं॥५४-५५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
एतत् पदमनुद्विग्नमेतद् ब्रह्म सनातनम्।
शास्त्रवेदाङ्गविदुषामेतद् ध्यानं परं पदम् ॥ ५६ ॥
मूलम्
एतत् पदमनुद्विग्नमेतद् ब्रह्म सनातनम्।
शास्त्रवेदाङ्गविदुषामेतद् ध्यानं परं पदम् ॥ ५६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
ये ही उद्वेगरहित परमपद हैं। ये ही सनातन ब्रह्म हैं। शास्त्रों और वेदाङ्गोंके ज्ञाता पुरुषोंके लिये ये ही ध्यान करनेके योग्य परमपद हैं॥५६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
इयं सा परमा काष्ठा इयं सा परमा कला।
इयं सा परमा सिद्धिरियं सा परमा गतिः ॥ ५७ ॥
इयं सा परमा शान्तिरियं सा निर्वृतिः परा।
यं प्राप्य कृतकृत्याः स्म इत्यमन्यन्त योगिनः ॥ ५८ ॥
मूलम्
इयं सा परमा काष्ठा इयं सा परमा कला।
इयं सा परमा सिद्धिरियं सा परमा गतिः ॥ ५७ ॥
इयं सा परमा शान्तिरियं सा निर्वृतिः परा।
यं प्राप्य कृतकृत्याः स्म इत्यमन्यन्त योगिनः ॥ ५८ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
यही वह पराकाष्ठा, यही वह परम कला, यही वह परम सिद्धि और यही वह परम गति हैं एवं यही वह परम शान्ति और वह परम आनन्द भी हैं, जिसको पाकर योगीजन अपनेको कृतकृत्य मानते हैं॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
इयं तुष्टिरियं सिद्धिरियं श्रुतिरियं स्मृतिः।
अध्यात्मगतिरिष्टानां विदुषां प्राप्तिरव्यया ॥ ५९ ॥
मूलम्
इयं तुष्टिरियं सिद्धिरियं श्रुतिरियं स्मृतिः।
अध्यात्मगतिरिष्टानां विदुषां प्राप्तिरव्यया ॥ ५९ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
यह तुष्टि, यह सिद्धि, यह श्रुति, यह स्मृति, भक्तोंकी यह अध्यात्मगति तथा ज्ञानी पुरुषोंकी यह अक्षय प्राप्ति (पुनरावृत्तिरहित मोक्षलाभ) आप ही हैं॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
यजतां कामयानानां मखैर्विपुलदक्षिणैः ।
या गतिर्यज्ञशीलानां सा गतिस्त्वं न संशयः ॥ ६० ॥
मूलम्
यजतां कामयानानां मखैर्विपुलदक्षिणैः ।
या गतिर्यज्ञशीलानां सा गतिस्त्वं न संशयः ॥ ६० ॥
अनुवाद (हिन्दी)
प्रचुर दक्षिणावाले यज्ञोंद्वारा सकाम भावसे यजन करनेवाले यजमानोंकी जो गति होती है, वह गति आप ही हैं। इसमें संशय नहीं है॥६०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
सम्यग् योगजपैः शान्तिर्नियमैर्देहतापनैः ।
तप्यतां या गतिर्देव परमा सा गतिर्भवान् ॥ ६१ ॥
मूलम्
सम्यग् योगजपैः शान्तिर्नियमैर्देहतापनैः ।
तप्यतां या गतिर्देव परमा सा गतिर्भवान् ॥ ६१ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
देव! उत्तम योग-जप तथा शरीरको सुखा देनेवाले नियमोंद्वारा जो शान्ति मिलती है और तपस्या करनेवाले पुरुषोंको जो दिव्य गति प्राप्त होती है, वह परम गति आप ही हैं॥६१॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
कर्मन्यासकृतानां च विरक्तानां ततस्ततः।
या गतिर्ब्रह्मसदने सा गतिस्त्वं सनातन ॥ ६२ ॥
मूलम्
कर्मन्यासकृतानां च विरक्तानां ततस्ततः।
या गतिर्ब्रह्मसदने सा गतिस्त्वं सनातन ॥ ६२ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
सनातन देव! कर्म-संन्यासियोंको और विरक्तोंको ब्रह्मलोकमें जो उत्तम गति प्राप्त होती है, वह आप ही हैं॥६२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अपुनर्भवकामानां वैराग्ये वर्ततां च या।
प्रकृतीनां लयानां च सा गतिस्त्वं सनातन ॥ ६३ ॥
मूलम्
अपुनर्भवकामानां वैराग्ये वर्ततां च या।
प्रकृतीनां लयानां च सा गतिस्त्वं सनातन ॥ ६३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
सनातन परमेश्वर! जो मोक्षकी इच्छा रखकर वैराग्यके मार्गपर चलते हैं उन्हें, और जो प्रकृतिमें लयको प्राप्त होते हैं उन्हें, जो गति उपलब्ध होती है, वह आप ही हैं॥६३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ज्ञानविज्ञानयुक्तानां निरुपाख्या निरञ्जना ।
कैवल्या या गतिर्देव परमा सा गतिर्भवान् ॥ ६४ ॥
मूलम्
ज्ञानविज्ञानयुक्तानां निरुपाख्या निरञ्जना ।
कैवल्या या गतिर्देव परमा सा गतिर्भवान् ॥ ६४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
देव! ज्ञान और विज्ञानसे युक्त पुरुषोंको जो सारूप्य आदि नामसे रहित, निरञ्जन एवं कैवल्यरूप परमगति प्राप्त होती है, वह आप ही हैं॥६४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
वेदशास्त्रपुराणोक्ताः पञ्चैता गतयः स्मृताः।
त्वत्प्रसादाद्धि लभ्यन्ते न लभ्यन्तेऽन्यथा विभो ॥ ६५ ॥
मूलम्
वेदशास्त्रपुराणोक्ताः पञ्चैता गतयः स्मृताः।
त्वत्प्रसादाद्धि लभ्यन्ते न लभ्यन्तेऽन्यथा विभो ॥ ६५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
प्रभो! वेद-शास्त्र और पुराणोंमें जो ये पाँच गतियाँ बतायी गयी हैं, ये आपकी कृपासे ही प्राप्त होती हैं, अन्यथा नहीं॥६५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
इति तण्डिस्तपोराशिस्तुष्टावेशानमात्मना ।
जगौ च परमं ब्रह्म यत् पुरा लोककृज्जगौ ॥ ६६ ॥
मूलम्
इति तण्डिस्तपोराशिस्तुष्टावेशानमात्मना ।
जगौ च परमं ब्रह्म यत् पुरा लोककृज्जगौ ॥ ६६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
इस प्रकार तपस्याकी निधिरूप तण्डिने अपने मनसे महादेवजीकी स्तुति की और पूर्वकालमें ब्रह्माजीने जिस परम ब्रह्मस्वरूप स्तोत्रका गान किया था, उसीका स्वयं भी गान किया॥६६॥
मूलम् (वचनम्)
उपमन्युरुवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
एवं स्तुतो महादेवस्तण्डिना ब्रह्मवादिना।
उवाच भगवान् देव उमया सहितः प्रभुः ॥ ६७ ॥
मूलम्
एवं स्तुतो महादेवस्तण्डिना ब्रह्मवादिना।
उवाच भगवान् देव उमया सहितः प्रभुः ॥ ६७ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
उपमन्यु कहते हैं— ब्रह्मवादी तण्डिके इस प्रकार स्तुति करनेपर पार्वतीसहित प्रभावशाली भगवान् महादेव उनसे बोले—॥६७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ब्रह्मा शतक्रतुर्विष्णुर्विश्वेदेवा महर्षयः ।
न विदुस्त्वामिति ततस्तुष्टः प्रोवाच तं शिवः ॥ ६८ ॥
मूलम्
ब्रह्मा शतक्रतुर्विष्णुर्विश्वेदेवा महर्षयः ।
न विदुस्त्वामिति ततस्तुष्टः प्रोवाच तं शिवः ॥ ६८ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
तण्डिने स्तुति करते हुए यह बात कही थी कि ‘ब्रह्मा, विष्णु, इन्द्र, विश्वेदेव और महर्षि भी आपको यथार्थरूपसे नहीं जानते हैं’, इससे भगवान् शंकर बहुत संतुष्ट हुए और बोले—॥६८॥
मूलम् (वचनम्)
श्रीभगवानुवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
अक्षयश्चाव्ययश्चैव भविता दुःखवर्जितः ।
यशस्वी तेजसा युक्तो दिव्यज्ञानसमन्वितः ॥ ६९ ॥
मूलम्
अक्षयश्चाव्ययश्चैव भविता दुःखवर्जितः ।
यशस्वी तेजसा युक्तो दिव्यज्ञानसमन्वितः ॥ ६९ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
भगवान् श्रीशिवने कहा— ब्रह्मन्! तुम अक्षय, अविकारी, दुःखरहित, यशस्वी, तेजस्वी एवं दिव्यज्ञानसे सम्पन्न होओगे॥६९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ऋषीणामभिगम्यश्च सूत्रकर्ता सुतस्तव ।
मत्प्रसादाद् द्विजश्रेष्ठ भविष्यति न संशयः ॥ ७० ॥
कं वा कामं ददाम्यद्य ब्रूहि यद् वत्स काङ्क्षसे।
मूलम्
ऋषीणामभिगम्यश्च सूत्रकर्ता सुतस्तव ।
मत्प्रसादाद् द्विजश्रेष्ठ भविष्यति न संशयः ॥ ७० ॥
कं वा कामं ददाम्यद्य ब्रूहि यद् वत्स काङ्क्षसे।
अनुवाद (हिन्दी)
द्विजश्रेष्ठ! मेरी कृपासे तुम्हें एक विद्वान् पुत्र प्राप्त होगा, जिसके पास ऋषिलोग भी शिक्षा ग्रहण करनेके लिये जायँगे। वह कल्पसूत्रका निर्माण करेगा, इसमें संशय नहीं है। वत्स! बोलो, तुम क्या चाहते हो? अब मैं तुम्हें कौन-सा मनोवांछित वर प्रदान करूँ?॥७०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
प्राञ्जलिः स उवाचेदं त्वयि भक्तिर्दृढास्तु मे ॥ ७१ ॥
मूलम्
प्राञ्जलिः स उवाचेदं त्वयि भक्तिर्दृढास्तु मे ॥ ७१ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
तब तण्डिने हाथ जोड़कर कहा—‘प्रभो! आपके चरणारविन्दमें मेरी सुदृढ़ भक्ति हो’॥७१॥
मूलम् (वचनम्)
उपमन्युरुवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
एतान् दत्त्वा वरान् देवो वन्द्यमानः सुरर्षिभिः।
स्तूयमानश्च विबुधैस्तत्रैवान्तरधीयत ॥ ७२ ॥
मूलम्
एतान् दत्त्वा वरान् देवो वन्द्यमानः सुरर्षिभिः।
स्तूयमानश्च विबुधैस्तत्रैवान्तरधीयत ॥ ७२ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
उपमन्युने कहा— देवर्षियोंद्वारा वन्दित और देवताओंद्वारा प्रशंसित होते हुए महादेवजी इन वरोंको देकर वहीं अन्तर्धान हो गये॥७२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अन्तर्हिते भगवति सानुगे यादवेश्वर।
ऋषिराश्रममागम्य ममैतत् प्रोक्तवानिह ॥ ७३ ॥
मूलम्
अन्तर्हिते भगवति सानुगे यादवेश्वर।
ऋषिराश्रममागम्य ममैतत् प्रोक्तवानिह ॥ ७३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
यादवेश्वर! जब पार्षदोंसहित भगवान् अन्तर्धान हो गये, तब ऋषिने मेरे आश्रमपर आकर यहाँ मुझसे ये सब बातें बतायीं॥७३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
यानि च प्रथितान्यादौ तण्डिराख्यातवान् मम।
नामानि मानवश्रेष्ठ तानि त्वं शृणु सिद्धये ॥ ७४ ॥
मूलम्
यानि च प्रथितान्यादौ तण्डिराख्यातवान् मम।
नामानि मानवश्रेष्ठ तानि त्वं शृणु सिद्धये ॥ ७४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
मानवश्रेष्ठ! तण्डिमुनिने जिन आदिकालके प्रसिद्ध नामोंका मेरे सामने वर्णन किया, उन्हें आप भी सुनिये। वे सिद्धि प्रदान करनेवाले हैं॥७४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
दशनामसहस्राणि देवेष्वाह पितामहः ।
शर्वस्य शास्त्रेषु तथा दशनामशतानि च ॥ ७५ ॥
मूलम्
दशनामसहस्राणि देवेष्वाह पितामहः ।
शर्वस्य शास्त्रेषु तथा दशनामशतानि च ॥ ७५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
पितामह ब्रह्माने पूर्वकालमें देवताओंके निकट महादेवजीके दस हजार नाम बताये थे और शास्त्रोंमें भी उनके सहस्र नाम वर्णित हैं॥७५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
गुह्यानीमानि नामानि तण्डिर्भगवतोऽच्युत ।
देवप्रसादाद् देवेशः पुरा प्राह महात्मने ॥ ७६ ॥
मूलम्
गुह्यानीमानि नामानि तण्डिर्भगवतोऽच्युत ।
देवप्रसादाद् देवेशः पुरा प्राह महात्मने ॥ ७६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
अच्युत! पहले देवेश्वर ब्रह्माजीने महादेवजीकी कृपासे महात्मा तण्डिके निकट जिन नामोंका वर्णन किया था, महर्षि तण्डिने भगवान् महादेवके उन्हीं समस्त गोपनीय नामोंका मेरे समक्ष प्रतिपादन किया था॥७६॥
मूलम् (समाप्तिः)
इति श्रीमहाभारते अनुशासनपर्वणि दानधर्मपर्वणि मेघवाहनपर्वाख्याने षोडशोऽध्यायः ॥ १६ ॥
मूलम् (वचनम्)
इस प्रकार श्रीमहाभारत अनुशासनपर्वके अन्तर्गत दानधर्मपर्वमें मेघवाहनपर्वकी कथाविषयक सोलहवाँ अध्याय पूरा हुआ॥१६॥