भागसूचना
पञ्चदशोऽध्यायः
सूचना (हिन्दी)
शिव और पार्वतीका श्रीकृष्णको वरदान और उपमन्युके द्वारा महादेवजीकी महिमा
मूलम् (वचनम्)
श्रीकृष्ण उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
मूर्ध्ना निपत्य नियतस्तेजःसंनिचये ततः।
परमं हर्षमागत्य भगवन्तमथाब्रुवम् ॥ १ ॥
मूलम्
मूर्ध्ना निपत्य नियतस्तेजःसंनिचये ततः।
परमं हर्षमागत्य भगवन्तमथाब्रुवम् ॥ १ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
श्रीकृष्ण कहते हैं— भारत! तदनन्तर मनको वशमें करके तेजोराशिमें स्थित महादेवजीको मस्तक झुकाकर प्रणाम करनेके अनन्तर बड़े हर्षमें भरकर मैंने उन भगवान् शिवसे कहा—॥१॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
धर्मे दृढत्वं, युधि शत्रुघातं
यशस् तथाग्र्यं, परमं बलं च।
योग-प्रियत्वं, तव संनिकर्षं
वृणे सुतानां च शतं शतानि ॥ २ ॥
मूलम्
धर्मे दृढत्वं युधि शत्रुघातं
यशस्तथाग्र्यं परमं बलं च।
योगप्रियत्वं तव संनिकर्षं
वृणे सुतानां च शतं शतानि ॥ २ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘धर्ममें दृढ़तापूर्वक स्थिति, युद्धमें शत्रुओंका संहार करनेकी क्षमता, श्रेष्ठ यश, उत्तम बल, योगबल, सबका प्रिय होना, आपका सांनिध्य तथा दस हजार पुत्र—ये ही आठ वर मैं माँग रहा हूँ’॥२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
“एवम् अस्त्व्” इति तद् वाक्यं
मयोक्तः प्राह शङ्करः।
ततो मां जगतो माता
धारिणी सर्वपावनी ॥ ३ ॥
उवाचोमा प्रणिहिता
शर्वाणी तपसां निधिः।
दत्तो भगवता पुत्रः
साम्बो नाम तवानघ ॥ ४ ॥
मूलम्
एवमस्त्विति तद्वाक्यं मयोक्तः प्राह शङ्करः।
ततो मां जगतो माता धारिणी सर्वपावनी ॥ ३ ॥
उवाचोमा प्रणिहिता शर्वाणी तपसां निधिः।
दत्तो भगवता पुत्रः साम्बो नाम तवानघ ॥ ४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
मेरे इस प्रकार कहनेपर भगवान् शंकरने कहा, ‘एवमस्तु—ऐसा ही हो।’ तब सबका धारण-पोषण करनेवाली सर्वपावनी तपोनिधि रुद्रपत्नी जगदम्बा उमादेवी एकाग्रचित्त होकर बोलीं—‘निष्पाप श्यामसुन्दर! भगवान्ने तुम्हें साम्ब नामक पुत्र दिया है॥३-४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
मत्तोऽप्यष्टौ वरान् इष्टान्
गृहाण त्वं ददामि ते।
प्रणम्य शिरसा सा च
मयोक्ता पाण्डुनन्दन ॥ ५ ॥
मूलम्
मत्तोऽप्यष्टौ वरानिष्टान् गृहाण त्वं ददामि ते।
प्रणम्य शिरसा सा च मयोक्ता पाण्डुनन्दन ॥ ५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘अब मुझसे भी अभीष्ट आठ वर माँग लो। मैं तुम्हें वे वर प्रदान करती हूँ।’ पाण्डुनन्दन! तब मैंने जगदम्बाके चरणोंमें सिरसे प्रणाम करके उनसे कहा—॥५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
द्विजेष्वकोपं, पितृतः प्रसादं,
शतं सुतानां, परमं च भोगम्।
कुले प्रीतिं, मातृतश् च प्रसादं
शम-प्राप्तिं प्रवृणे चापि दाक्ष्यम् ॥ ६ ॥
मूलम्
द्विजेष्वकोपं पितृतः प्रसादं
शतं सुतानां परमं च भोगम्।
कुले प्रीतिं मातृतश्च प्रसादं
शमप्राप्तिं प्रवृणे चापि दाक्ष्यम् ॥ ६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘ब्राह्मणोंपर कभी मेरे मनमें क्रोध न हो। मेरे पिता मुझपर प्रसन्न रहें। मुझे सैकड़ों पुत्र प्राप्त हों। उत्तम भोग सदा उपलब्ध रहें। हमारे कुलमें प्रसन्नता बनी रहे। मेरी माता भी प्रसन्न रहें। मुझे शान्ति मिले और प्रत्येक कार्यमें कुशलता प्राप्त हो—ये आठ वर और माँगता हूँ’॥६॥
मूलम् (वचनम्)
उमोवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
एवं भविष्यत्य् अ-मर-प्रभाव
नाहं मृषा जातु वदे कदाचित्।
भार्या-सहस्राणि च षोडशैव
तासु प्रियत्वं च तथाक्षयं च ॥ ७ ॥
प्रीतिं चाग्र्यां बान्धवानां सकाशाद्
ददामि तेऽहं वपुषः काम्यतां च।
भोक्ष्यन्ते वै सप्ततिं वै शतानि
गृहे तुभ्यम् अतिथीनां च नित्यम् ॥ ८ ॥
मूलम्
एवं भविष्यत्यमरप्रभाव
नाहं मृषा जातु वदे कदाचित्।
भार्यासहस्राणि च षोडशैव
तासु प्रियत्वं च तथाक्षयं च ॥ ७ ॥
प्रीतिं चाग्र्यां बान्धवानां सकाशाद्
ददामि तेऽहं वपुषः काम्यतां च।
भोक्ष्यन्ते वै सप्ततिं वै शतानि
गृहे तुभ्यमतिथीनां च नित्यम् ॥ ८ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
भगवती उमाने कहा— अमरोंके समान प्रभावशाली श्रीकृष्ण! ऐसा ही होगा। मैं कभी झूठ नहीं बोलती हूँ। तुम्हें सोलह हजार रानियाँ होंगी। उनका तुम्हारे प्रति प्रेम रहेगा। तुम्हें अक्षय धनधान्यकी प्राप्ति होगी। बन्धु-बान्धवोंकी ओरसे तुम्हें प्रसन्नता प्राप्त होगी। मैं तुम्हारे इस शरीरके सदा कमनीय बने रहनेका वर देती हूँ और तुम्हारे घरमें प्रतिदिन सात हजार अतिथि भोजन करेंगे1॥७-८॥
मूलम् (वचनम्)
वासुदेव उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
एवं दत्त्वा वरान् देवो
मम देवी च भारत।
अन्तर्हितः क्षणे तस्मिन्
सगणो भीमपूर्वज ॥ ९ ॥
मूलम्
एवं दत्त्वा वरान् देवो मम देवी च भारत।
अन्तर्हितः क्षणे तस्मिन् सगणो भीमपूर्वज ॥ ९ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
भगवान् श्रीकृष्ण कहते हैं— भरतनन्दन! भीमसेनके बड़े भैया! इस प्रकार महादेवजी तथा देवी पार्वती मुझे वरदान देकर अपने गणोंके साथ उसी क्षण अन्तर्धान हो गये॥९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
एतदत्यद्भुतं पूर्वं ब्राह्मणायातितेजसे ।
उपमन्यवे मया कृत्स्नं व्याख्यातं पार्थिवोत्तम।
नमस्कृत्वा तु स प्राह देवदेवाय सुव्रत ॥ १० ॥
मूलम्
एतदत्यद्भुतं पूर्वं ब्राह्मणायातितेजसे ।
उपमन्यवे मया कृत्स्नं व्याख्यातं पार्थिवोत्तम।
नमस्कृत्वा तु स प्राह देवदेवाय सुव्रत ॥ १० ॥
अनुवाद (हिन्दी)
नृपश्रेष्ठ! यह अत्यन्त अद्भुत वृत्तान्त मैंने पहले महातेजस्वी ब्राह्मण उपमन्युको पूर्णरूपसे बताया था। उत्तम व्रतका पालन करनेवाले नरेश! उपमन्युने देवाधिदेव महादेवजीको नमस्कार करके इस प्रकार कहा॥१०॥
मूलम् (वचनम्)
उपमन्युरुवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
नास्ति शर्वसमो देवो नास्ति शर्वसमा गतिः।
नास्ति शर्वसमो दाने नास्ति शर्वसमो रणे ॥ ११ ॥
मूलम्
नास्ति शर्वसमो देवो नास्ति शर्वसमा गतिः।
नास्ति शर्वसमो दाने नास्ति शर्वसमो रणे ॥ ११ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
उपमन्यु बोले— महादेवजीके समान कोई देवता नहीं है। महादेवजीके समान कोई गति नहीं है। दानमें शिवजीकी समानता करनेवाला कोई नहीं है तथा युद्धमें भी भगवान् शंकरके समान दूसरा कोई वीर नहीं है॥
मूलम् (समाप्तिः)
इति श्रीमहाभारते अनुशासनपर्वणि दानधर्मपर्वणि मेघवाहनपर्वाख्याने पञ्चदशोऽध्यायः ॥ १५ ॥
मूलम् (वचनम्)
इस प्रकार श्रीमहाभारत अनुशासनपर्वके अन्तर्गत दानधर्मपर्वमें मेघवाहन (इन्द्ररूपधारी महादेव)-की महिमाके प्रतिपादक पर्वकी कथामें पंद्रहवाँ अध्याय पूरा हुआ॥१५॥
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यहाँ श्रीकृष्णके माँगे हुए आठ वरोंको एवं ‘भविष्यति’ इस वाक्यके द्वारा देनेके पश्चात् पार्वतीजी अपनी ओरसे आठ वर और देती हैं। इनमें ‘अमरप्रभाव’ इस सम्बोधनके द्वारा देवोपम प्रभावका दान ही पहला वरदान सूचित किया गया है। ‘मैं कभी झूठ नहीं बोलती’ इस कथनके द्वारा ‘तुम भी कभी झूठ नहीं बोलोगे’ यह दूसरा वर सूचित होता है। सोलह हजार रानियोंके प्राप्त होनेका वर तीसरा है। उनका प्रिय होना चौथा वर है। अक्षय धनधान्यकी प्राप्ति पाँचवाँ वर है। बान्धवोंकी प्रीति छठा, शरीरकी कमनीयता सातवाँ और सात हजार अतिथियोंका भोजन आठवाँ वर है। इससे पहले जो सोलह और आठ वरके प्राप्त होनेकी बात कही गयी थी, उसकी संगति लग जाती है। ↩︎