००८

भागसूचना

अष्टमोऽध्यायः

सूचना (हिन्दी)

श्रेष्ठ ब्राह्मणोंकी महिमा

मूलम् (वचनम्)

युधिष्ठिर उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

के पूज्याः के नमस्कार्याः कान् नमस्यसि भारत।
एतन्मे सर्वमाचक्ष्व येभ्यः स्पृहयसे नृप ॥ १ ॥

मूलम्

के पूज्याः के नमस्कार्याः कान् नमस्यसि भारत।
एतन्मे सर्वमाचक्ष्व येभ्यः स्पृहयसे नृप ॥ १ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

युधिष्ठिरने पूछा— भरतनन्दन! इस जगत्‌में कौन-कौन पुरुष पूजन और नमस्कारके योग्य हैं? आप किनको प्रणाम करते हैं? तथा नरेश्वर! आप किनको चाहते हैं? यह सब मुझे बताइये॥१॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

उत्तमापद्‌गतस्यापि यत्र ते वर्तते मनः।
मनुष्यलोके सर्वस्मिन् यदमुत्रेह चाप्युत ॥ २ ॥

मूलम्

उत्तमापद्‌गतस्यापि यत्र ते वर्तते मनः।
मनुष्यलोके सर्वस्मिन् यदमुत्रेह चाप्युत ॥ २ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

बड़ी-से-बड़ी आपत्तिमें पड़नेपर भी आपका मन किनका स्मरण किये बिना नहीं रहता? तथा इस समस्त मानवलोक और परलोकमें हितकारक क्या है? ये सब बातें बतानेकी कृपा करें॥२॥

मूलम् (वचनम्)

भीष्म उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

स्पृहयामि द्विजातिभ्यो येषां ब्रह्म परं धनम्।
येषां स्वप्रत्ययः स्वर्गस्तपः स्वाध्यायसाधनम् ॥ ३ ॥

मूलम्

स्पृहयामि द्विजातिभ्यो येषां ब्रह्म परं धनम्।
येषां स्वप्रत्ययः स्वर्गस्तपः स्वाध्यायसाधनम् ॥ ३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

भीष्मजीने कहा— युधिष्ठिर! जिनका ब्रह्म (वेद) ही परम धन है, आत्मज्ञान ही स्वर्ग है तथा वेदोंका स्वाध्याय करना ही श्रेष्ठ तप है, उन ब्राह्मणोंको मैं चाहता हूँ॥३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

येषां बालाश्च वृद्धाश्च पितृपैतामहीं धुरम्।
उद्वहन्ति न सीदन्ति तेभ्यो वै स्पृहयाम्यहम् ॥ ४ ॥

मूलम्

येषां बालाश्च वृद्धाश्च पितृपैतामहीं धुरम्।
उद्वहन्ति न सीदन्ति तेभ्यो वै स्पृहयाम्यहम् ॥ ४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

जिनके कुलमें बच्चेसे लेकर बूढ़ेतक बाप-दादोंकी परम्परासे चले आनेवाले धार्मिक कार्यका भार सँभालते हैं; परंतु उसके लिये मनमें कभी खेदका अनुभव नहीं करते है; ऐसे ही लोगोंको मैं चाहता हूँ॥४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

विद्यास्वभिविनीतानां दान्तानां मृदुभाषिणाम् ।
श्रुतवृत्तोपपन्नानां सदाक्षरविदां सताम् ॥ ५ ॥
संसत्सु वदतां तात हंसानामिव संघशः।
मङ्गल्यरूपा रुचिरा दिव्यजीमूतनिःस्वनाः ॥ ६ ॥
सम्यगुच्चरिता वाचः श्रूयन्ते हि युधिष्ठिर।
शुश्रूषमाणे नृपतौ प्रेत्य चेह सुखावहाः ॥ ७ ॥

मूलम्

विद्यास्वभिविनीतानां दान्तानां मृदुभाषिणाम् ।
श्रुतवृत्तोपपन्नानां सदाक्षरविदां सताम् ॥ ५ ॥
संसत्सु वदतां तात हंसानामिव संघशः।
मङ्गल्यरूपा रुचिरा दिव्यजीमूतनिःस्वनाः ॥ ६ ॥
सम्यगुच्चरिता वाचः श्रूयन्ते हि युधिष्ठिर।
शुश्रूषमाणे नृपतौ प्रेत्य चेह सुखावहाः ॥ ७ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

जो विनीत भावसे विद्याध्ययन करते हैं, इन्द्रियोंको संयममें रखते हैं और मीठे वचन बोलते हैं, जो शास्त्रज्ञान और सदाचार दोनोंसे सम्पन्न हैं, अविनाशी परमात्माको जाननेवाले सत्पुरुष हैं, तात युधिष्ठिर! सभाओंमें बोलते समय हंससमूहोंकी भाँति जिनके मुखसे मेघके समान गम्भीर स्वरसे मनोहर मंगलमयी एवं अच्छे ढंगसे कही गयी बातें सुनायी देती हैं, उन ब्राह्मणोंको ही मैं चाहता हूँ। यदि राजा उन महात्माओंकी बातें सुननेकी इच्छा रखे तो वे उसे इहलोक और परलोकमें भी सुख पहुँचानेवाली होती हैं॥५—७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

ये चापि तेषां श्रोतारः सदा सदसि सम्मताः।
विज्ञानगुणसम्पन्नास्तेभ्यश्च स्पृहयाम्यहम् ॥ ८ ॥

मूलम्

ये चापि तेषां श्रोतारः सदा सदसि सम्मताः।
विज्ञानगुणसम्पन्नास्तेभ्यश्च स्पृहयाम्यहम् ॥ ८ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

जो प्रतिदिन उन महात्माओंकी बातें सुनते हैं, वे श्रोता विज्ञानगुणसे सम्पन्न हो सभाओंमें सम्मानित होते हैं। मैं ऐसे श्रोताओंकी भी चाह रखता हूँ॥८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

सुसंस्कृतानि प्रयताः शुचीनि गुणवन्ति च।
ददत्यन्नानि तृप्त्यर्थं ब्राह्मणेभ्यो युधिष्ठिर ॥ ९ ॥
ये चापि सततं राजंस्तेभ्यश्च स्पृहयाम्यहम्।

मूलम्

सुसंस्कृतानि प्रयताः शुचीनि गुणवन्ति च।
ददत्यन्नानि तृप्त्यर्थं ब्राह्मणेभ्यो युधिष्ठिर ॥ ९ ॥
ये चापि सततं राजंस्तेभ्यश्च स्पृहयाम्यहम्।

अनुवाद (हिन्दी)

राजा युधिष्ठिर! जो पवित्र होकर ब्राह्मणोंको उनकी तृप्तिके लिये शुद्ध और अच्छे ढंगसे तैयार किये हुए पवित्र तथा गुणकारक अन्न परोसते हैं, उनको भी मैं सदा चाहता हूँ॥९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

शक्यं ह्येवाहवे योद्धुं न दातुमनसूयितम् ॥ १० ॥
शूरा वीराश्च शतशः सन्ति लोके युधिष्ठिर।
येषां संख्यायमानानां दानशूरो विशिष्यते ॥ ११ ॥

मूलम्

शक्यं ह्येवाहवे योद्धुं न दातुमनसूयितम् ॥ १० ॥
शूरा वीराश्च शतशः सन्ति लोके युधिष्ठिर।
येषां संख्यायमानानां दानशूरो विशिष्यते ॥ ११ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

युधिष्ठिर! संग्राममें युद्ध करना सहज है। परंतु दोषदृष्टिसे रहित होकर दान देना सहज नहीं है। संसारमें सैकड़ों शूरवीर हैं; परंतु उनकी गणना करते समय जो उनमें दानशूर हो, वही सबसे श्रेष्ठ माना जाता है॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

धन्यः स्यां यद्यहं भूयः सौम्य ब्राह्मणकोऽपि वा।
कुले जातो धर्मगतिस्तपोविद्यापरायणः ॥ १२ ॥

मूलम्

धन्यः स्यां यद्यहं भूयः सौम्य ब्राह्मणकोऽपि वा।
कुले जातो धर्मगतिस्तपोविद्यापरायणः ॥ १२ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

सौम्य! यदि मैं कुलीन, धर्मात्मा, तपस्वी और विद्वान् अथवा कैसा भी ब्राह्मण होता तो अपनेको धन्य समझता॥१२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

न मे त्वत्तः प्रियतरो लोकेऽस्मिन् पाण्डुनन्दन।
त्वत्तश्चापि प्रियतरा ब्राह्मणा भरतर्षभ ॥ १३ ॥

मूलम्

न मे त्वत्तः प्रियतरो लोकेऽस्मिन् पाण्डुनन्दन।
त्वत्तश्चापि प्रियतरा ब्राह्मणा भरतर्षभ ॥ १३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

पाण्डुनन्दन! इस संसारमें मुझे तुमसे अधिक प्रिय कोई नहीं है; परंतु भरतश्रेष्ठ! ब्राह्मणोंको मैं तुमसे भी अधिक प्रिय मानता हूँ॥१३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

यथा मम प्रियतमास्त्वत्तो विप्राः कुरूत्तम।
तेन सत्येन गच्छेयं लोकान् यत्र स शान्तनुः ॥ १४ ॥

मूलम्

यथा मम प्रियतमास्त्वत्तो विप्राः कुरूत्तम।
तेन सत्येन गच्छेयं लोकान् यत्र स शान्तनुः ॥ १४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

कुरुश्रेष्ठ! ‘ब्राह्मण मुझे तुम्हारी अपेक्षा भी बहुत अधिक प्रिय हैं’—इस सत्यके प्रभावसे मैं उन्हीं पुण्यलोकोंमें जाऊँगा जहाँ मेरे पिता महाराज शान्तनु गये हैं॥१४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

न मे पिता प्रियतरो ब्राह्मणेभ्यस्तथाभवत्।
न मे पितुः पिता वापि ये चान्येऽपि सुहृज्जनाः॥१५॥

मूलम्

न मे पिता प्रियतरो ब्राह्मणेभ्यस्तथाभवत्।
न मे पितुः पिता वापि ये चान्येऽपि सुहृज्जनाः॥१५॥

अनुवाद (हिन्दी)

मेरे पिता भी मुझे ब्राह्मणोंकी अपेक्षा अधिक प्रिय नहीं रहे हैं। पितामह और अन्य सुहृदोंको भी मैंने कभी ब्राह्मणोंसे अधिक प्रिय नहीं समझा है॥१५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

न हि मे वृजिनं किंचिद् विद्यते ब्राह्मणेष्विह।
अणु वा यदि वा स्थूलं विद्यते साधुकर्मसु ॥ १६ ॥

मूलम्

न हि मे वृजिनं किंचिद् विद्यते ब्राह्मणेष्विह।
अणु वा यदि वा स्थूलं विद्यते साधुकर्मसु ॥ १६ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

मेरे द्वारा ब्राह्मणोंके प्रति किन्हीं श्रेष्ठ कर्मोंमें कभी छोटा-मोटा किंचिन्मात्र भी अपराध नहीं हुआ है॥१६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

कर्मणा मनसा वापि वाचा वापि परंतप।
यन्मे कृतं ब्राह्मणेभ्यस्तेनाद्य न तपाम्यहम् ॥ १७ ॥

मूलम्

कर्मणा मनसा वापि वाचा वापि परंतप।
यन्मे कृतं ब्राह्मणेभ्यस्तेनाद्य न तपाम्यहम् ॥ १७ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

शत्रुओंको संताप देनेवाले नरेश! मैंने मन, वाणी और कर्मसे ब्राह्मणोंका जो थोड़ा-बहुत उपकार किया है, उसीके प्रभावसे आज इस अवस्थामें पड़ जानेपर भी मुझे पीड़ा नहीं होती है॥१७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

ब्रह्मण्य इति मामाहुस्तया वाचास्मि तोषितः।
एतदेव पवित्रेभ्यः सर्वेभ्यः परमं स्मृतम् ॥ १८ ॥

मूलम्

ब्रह्मण्य इति मामाहुस्तया वाचास्मि तोषितः।
एतदेव पवित्रेभ्यः सर्वेभ्यः परमं स्मृतम् ॥ १८ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

लोग मुझे ब्राह्मणभक्त कहते हैं। उनके इस कथनसे मुझे बड़ा संतोष होता है। ब्राह्मणोंकी सेवा ही सम्पूर्ण पवित्र कर्मोंसे बढ़कर परम पवित्र कार्य है॥१८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

पश्यामि लोकानमलान् शुचीन् ब्राह्मणयायिनः।
तेषु मे तात गन्तव्यमह्नाय च चिराय च ॥ १९ ॥

मूलम्

पश्यामि लोकानमलान् शुचीन् ब्राह्मणयायिनः।
तेषु मे तात गन्तव्यमह्नाय च चिराय च ॥ १९ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

तात! ब्राह्मणकी सेवामें रहनेवाले पुरुषको जिन पवित्र और निर्मल लोकोंकी प्राप्ति होती है, उन्हें मैं यहींसे देखता हूँ। अब शीघ्र मुझे चिरकालके लिये उन्हीं लोकोंमें जाना है॥१९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

यथा भर्त्राश्रयो धर्मः स्त्रीणां लोके युधिष्ठिर।
स देवः सा गतिर्नान्या क्षत्रियस्य तथा द्विजाः ॥ २० ॥

मूलम्

यथा भर्त्राश्रयो धर्मः स्त्रीणां लोके युधिष्ठिर।
स देवः सा गतिर्नान्या क्षत्रियस्य तथा द्विजाः ॥ २० ॥

अनुवाद (हिन्दी)

युधिष्ठिर! जैसे स्त्रियोंके लिये पतिकी सेवा ही संसारमें सबसे बड़ा धर्म है, पति ही उनका देवता और वही उनकी परम गति है, उनके लिये दूसरी कोई गति नहीं है; उसी प्रकार क्षत्रियके लिये ब्राह्मणकी सेवा ही परम धर्म है। ब्राह्मण ही उनका देवता और परम गति है, दूसरा नहीं॥२०॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

क्षत्रियः शतवर्षी च दशवर्षी द्विजोत्तमः।
पितापुत्रौ च विज्ञेयौ तयोर्हि ब्राह्मणो गुरुः ॥ २१ ॥

मूलम्

क्षत्रियः शतवर्षी च दशवर्षी द्विजोत्तमः।
पितापुत्रौ च विज्ञेयौ तयोर्हि ब्राह्मणो गुरुः ॥ २१ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

क्षत्रिय सौ वर्षका हो और श्रेष्ठ ब्राह्मण दस वर्षकी अवस्थाका हो तो भी उन दोनोंको परस्पर पुत्र और पिताके समान जानना चाहिये। उनमें ब्राह्मण पिता है और क्षत्रिय पुत्र॥२१॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

नारी तु पत्यभावे वै देवरं कुरुते पतिम्।
पृथिवी ब्राह्मणालाभे क्षत्रियं कुरुते पतिम् ॥ २२ ॥

मूलम्

नारी तु पत्यभावे वै देवरं कुरुते पतिम्।
पृथिवी ब्राह्मणालाभे क्षत्रियं कुरुते पतिम् ॥ २२ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

जैसे नारी पतिके अभावमें देवरको पति बनाती है, उसी प्रकार पृथ्वी ब्राह्मणके न मिलनेपर ही क्षत्रियको अपना अधिपति बनाती है॥२२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

(ब्राह्मणानुज्ञया ग्राह्यं राज्यं च सपुरोहितैः।
तद्रक्षणेन स्वर्गोऽस्य तत्कोपान्नरकोऽक्षयः ॥)

मूलम्

(ब्राह्मणानुज्ञया ग्राह्यं राज्यं च सपुरोहितैः।
तद्रक्षणेन स्वर्गोऽस्य तत्कोपान्नरकोऽक्षयः ॥)

अनुवाद (हिन्दी)

पुरोहितसहित राजाओंको ब्राह्मणकी आज्ञासे राज्य ग्रहण करना चाहिये। ब्राह्मणकी रक्षासे ही राजाको स्वर्ग मिलता है और उसको रुष्ट कर देनेसे वह अनन्तकालके लिये नरकमें गिर जाता है॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

पुत्रवच्च ततो रक्ष्या उपास्या गुरुवच्च ते।
अग्निवच्चोपचर्या वै ब्राह्मणाः कुरुसत्तम ॥ २३ ॥

मूलम्

पुत्रवच्च ततो रक्ष्या उपास्या गुरुवच्च ते।
अग्निवच्चोपचर्या वै ब्राह्मणाः कुरुसत्तम ॥ २३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

कुरुश्रेष्ठ! ब्राह्मणोंकी पुत्रके समान रक्षा, गुरुकी भाँति उपासना और अग्निकी भाँति उनकी सेवा-पूजा करनी चाहिये॥२३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

ऋजून् सतः सत्यशीलान् सर्वभूतहिते रतान्।
आशीविषानिव क्रुद्धान् द्विजान् परिचरेत् सदा ॥ २४ ॥
(दूरतो मातृवत् पूज्या विप्रदाराः सुरक्षया।)

मूलम्

ऋजून् सतः सत्यशीलान् सर्वभूतहिते रतान्।
आशीविषानिव क्रुद्धान् द्विजान् परिचरेत् सदा ॥ २४ ॥
(दूरतो मातृवत् पूज्या विप्रदाराः सुरक्षया।)

अनुवाद (हिन्दी)

सरल, साधु, स्वभावतः सत्यवादी तथा समस्त प्राणियोंके हितमें तत्पर रहनेवाले ब्राह्मणोंकी सदा ही सेवा करनी चाहिये और क्रोधमें भरे हुए विषधर सर्पके समान समझकर उनसे भयभीत रहना चाहिये। ब्राह्मणोंकी जो स्त्रियाँ हों उनकी भी सुरक्षाका ध्यान रखते हुए माताके समान उनका दूरसे ही पूजन करना चाहिये॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तेजसस्तपसश्चैव नित्यं बिभ्येद् युधिष्ठिर।
उभे चैते परित्याज्ये तेजश्चैव तपस्तथा ॥ २५ ॥

मूलम्

तेजसस्तपसश्चैव नित्यं बिभ्येद् युधिष्ठिर।
उभे चैते परित्याज्ये तेजश्चैव तपस्तथा ॥ २५ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

युधिष्ठिर! ब्राह्मणोंके तेज और तपसे सदा डरना चाहिये तथा उनके सामने अपने तप एवं तेजका अभिमान त्याग देना चाहिये॥२५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

व्यवसायस्तयोः शीघ्रमुभयोरेव विद्यते ।
हन्युः क्रुद्धा महाराज ब्राह्मणा ये तपस्विनः ॥ २६ ॥

मूलम्

व्यवसायस्तयोः शीघ्रमुभयोरेव विद्यते ।
हन्युः क्रुद्धा महाराज ब्राह्मणा ये तपस्विनः ॥ २६ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

महाराज! ब्राह्मणके तप और क्षत्रियके तेजका फल शीघ्र ही प्रकट होता है तथापि जो तपस्वी ब्राह्मण हैं वे कुपित होनेपर तेजस्वी क्षत्रियको अपने तपके प्रभावसे मार सकते हैं॥२६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

भूयः स्यादुभयं दत्तं ब्राह्मणाद् यदकोपनात्।
कुर्यादुभयतः शेषं दत्तशेषं न शेषयेत् ॥ २७ ॥

मूलम्

भूयः स्यादुभयं दत्तं ब्राह्मणाद् यदकोपनात्।
कुर्यादुभयतः शेषं दत्तशेषं न शेषयेत् ॥ २७ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

क्रोधरहित—क्षमाशील ब्राह्मणको पाकर क्षत्रियकी ओरसे अधिक मात्रामें प्रयुक्त किये गये तप और तेज आगपर रूईके ढेरके समान तत्काल नष्ट हो जाते हैं। यदि दोनों ओरसे एक-दूसरेपर तेज और तपका प्रयोग हो तो उनका सर्वथा नाश नहीं होता; परंतु क्षमाशील ब्राह्मणके द्वारा खण्डित होनेसे बचा हुआ क्षत्रियका तेज किसी तेजस्वी ब्राह्मणपर प्रयुक्त हो तो वह उससे प्रतिहत होकर सर्वथा नष्ट हो जाता है, थोड़ा-सा भी शेष नहीं रह जाता॥२७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

दण्डपाणिर्यथा गोषु पालो नित्यं हि रक्षयेत्।
ब्राह्मणान् ब्रह्म च तथा क्षत्रियः परिपालयेत् ॥ २८ ॥

मूलम्

दण्डपाणिर्यथा गोषु पालो नित्यं हि रक्षयेत्।
ब्राह्मणान् ब्रह्म च तथा क्षत्रियः परिपालयेत् ॥ २८ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

जैसे चरवाहा हाथमें डंडा लेकर सदा गौओंकी रखवाली करता है, उसी प्रकार क्षत्रियको उचित है कि वह ब्राह्मणों और वेदोंकी सदा रक्षा करे॥२८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

पितेव पुत्रान् रक्षेथा ब्राह्मणान् धर्मचेतसः।
गृहे चैषामवेक्षेथाः किंस्विदस्तीति जीवनम् ॥ २९ ॥

मूलम्

पितेव पुत्रान् रक्षेथा ब्राह्मणान् धर्मचेतसः।
गृहे चैषामवेक्षेथाः किंस्विदस्तीति जीवनम् ॥ २९ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

राजाको चाहिये कि वह धर्मात्मा ब्राह्मणोंकी उसी तरह रक्षा करे, जैसे पिता पुत्रोंकी करता है। वह सदा इस बातकी देख-भाल करता रहे कि उनके घरमें जीवन-निर्वाहके लिये क्या है और क्या नहीं है॥२९॥

मूलम् (समाप्तिः)

इति श्रीमहाभारते अनुशासनपर्वणि दानधर्मपर्वणि अष्टमोऽध्यायः ॥ ८ ॥

मूलम् (वचनम्)

इस प्रकार श्रीमहाभारत अनुशासनपर्वके अन्तर्गत दानधर्मपर्वमें श्रेष्ठ ब्राह्मणोंकी प्रशंसाविषयक आठवाँ अध्याय पूरा हुआ॥८॥

सूचना (हिन्दी)

(दाक्षिणात्य अधिक पाठके १ श्लोक मिलाकर कुल ३० श्लोक हैं)