भागसूचना
सप्तमोऽध्यायः
सूचना (हिन्दी)
कर्मोंके फलका वर्णन
मूलम् (वचनम्)
युधिष्ठिर उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
कर्मणां च समस्तानां शुभानां भरतर्षभ।
फलानि महतां श्रेष्ठ प्रब्रूहि परिपृच्छतः ॥ १ ॥
मूलम्
कर्मणां च समस्तानां शुभानां भरतर्षभ।
फलानि महतां श्रेष्ठ प्रब्रूहि परिपृच्छतः ॥ १ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
युधिष्ठिरने पूछा— महापुरुषोंमें प्रधान भरतश्रेष्ठ! अब मैं समस्त शुभ कर्मोंके फल क्या हैं? यह पूछ रहा हूँ, अतः यही बताइये॥१॥
मूलम् (वचनम्)
भीष्म उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
हन्त ते कथयिष्यामि यन्मां पृच्छसि भारत।
रहस्यं यदृषीणां तु तच्छ्रणुष्व युधिष्ठिर।
या गतिः प्राप्यते येन प्रेत्यभावे चिरेप्सिता ॥ २ ॥
मूलम्
हन्त ते कथयिष्यामि यन्मां पृच्छसि भारत।
रहस्यं यदृषीणां तु तच्छ्रणुष्व युधिष्ठिर।
या गतिः प्राप्यते येन प्रेत्यभावे चिरेप्सिता ॥ २ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
भीष्मजीने कहा— भरतनन्दन युधिष्ठिर! तुम मुझसे जो कुछ पूछ रहे हो, यह ऋषियोंके लिये भी रहस्यका विषय है; किंतु मैं तुम्हें बतला रहा हूँ। सुनो, मरनेके बाद जिस मनुष्यको जैसी चिर अभिलषित गति मिलती है, उसका भी वर्णन करता हूँ॥२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
येन येन शरीरेण यद् यत् कर्म करोति यः।
तेन तेन शरीरेण तत् तत् फलमुपाश्नुते ॥ ३ ॥
मूलम्
येन येन शरीरेण यद् यत् कर्म करोति यः।
तेन तेन शरीरेण तत् तत् फलमुपाश्नुते ॥ ३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
मनुष्य जिस-जिस (स्थूल या सूक्ष्म) शरीरसे जो-जो कर्म करता है उसी-उसी शरीरसे उस-उस कर्मका फल भोगता है॥३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
यस्यां यस्यामवस्थायां यत् करोति शुभाशुभम्।
तस्यां तस्यामवस्थायां भुङ्क्ते जन्मनि जन्मनि ॥ ४ ॥
मूलम्
यस्यां यस्यामवस्थायां यत् करोति शुभाशुभम्।
तस्यां तस्यामवस्थायां भुङ्क्ते जन्मनि जन्मनि ॥ ४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
जिस-जिस अवस्थामें वह जो-जो शुभ या अशुभ कर्म करता है, प्रत्येक जन्मकी उसी-उसी अवस्थामें वह उसका फल भोगता है॥४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
न नश्यति कृतं कर्म सदा पञ्चेन्द्रियैरिह।
ते ह्यस्य साक्षिणो नित्यं षष्ठ आत्मा तथैव च॥५॥
मूलम्
न नश्यति कृतं कर्म सदा पञ्चेन्द्रियैरिह।
ते ह्यस्य साक्षिणो नित्यं षष्ठ आत्मा तथैव च॥५॥
अनुवाद (हिन्दी)
पाँचों इन्द्रियोंद्वारा किया हुआ कर्म कभी नष्ट नहीं होता है। वे पाँचों इन्द्रियाँ और छठा मन—ये उस कर्मके साक्षी होते हैं॥५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
चक्षुर्दद्यान्मनो दद्याद् वाचं दद्याच्च सूनृताम्।
अनुव्रजेदुपासीत स यज्ञः पञ्चदक्षिणः ॥ ६ ॥
मूलम्
चक्षुर्दद्यान्मनो दद्याद् वाचं दद्याच्च सूनृताम्।
अनुव्रजेदुपासीत स यज्ञः पञ्चदक्षिणः ॥ ६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
अतः मनुष्यको उचित है कि यदि कोई अतिथि घरपर आ जाय तो उसको प्रसन्न दृष्टिसे देखे। उसकी सेवामें मन लगावे। मीठी बोली बोलकर उसे संतुष्ट करे। जब वह जाने लगे तो उसके पीछे-पीछे कुछ दूरतक जाय और जबतक वह रहे उसके स्वागत-सत्कारमें लगा रहे—ये पाँच काम करना गृहस्थके लिये पाँच प्रकारकी दक्षिणाओंसे युक्त यज्ञ कहलाता है॥६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
यो दद्यादपरिक्लिष्टमन्नमध्वनि वर्तते ।
श्रान्तायादृष्टपूर्वाय तस्य पुण्यफलं महत् ॥ ७ ॥
मूलम्
यो दद्यादपरिक्लिष्टमन्नमध्वनि वर्तते ।
श्रान्तायादृष्टपूर्वाय तस्य पुण्यफलं महत् ॥ ७ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
जो थके-माँदे अपरिचित पथिकको प्रसन्नतापूर्वक अन्न दान करता है, उसे महान् पुण्यफलकी प्राप्ति होती है॥७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
स्थण्डिलेषु शयानानां गृहाणि शयनानि च।
चीरवल्कलसंवीते वासांस्याभरणानि च ॥ ८ ॥
मूलम्
स्थण्डिलेषु शयानानां गृहाणि शयनानि च।
चीरवल्कलसंवीते वासांस्याभरणानि च ॥ ८ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
जो वानप्रस्थी वेदीपर शयन करते हैं उन्हें जन्मान्तरमें उत्तम गृह और शय्याकी प्राप्ति होती है। जो चीर और वल्कल वस्त्र पहनते हैं उन्हें दूसरे जन्ममें उत्तम वस्त्र और उत्तम आभूषणोंकी प्राप्ति होती है॥८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
वाहनानि च यानानि योगात्मनि तपोधने।
अग्नीनुपशयानस्य राज्ञः पौरुषमेव च ॥ ९ ॥
मूलम्
वाहनानि च यानानि योगात्मनि तपोधने।
अग्नीनुपशयानस्य राज्ञः पौरुषमेव च ॥ ९ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
जिसका चित्त योगयुक्त होता है उस तपोधन पुरुषको दूसरे जन्ममें अच्छे-अच्छे वाहन और यान उपलब्ध होते हैं तथा अग्निकी उपासना करनेवाले राजाको जन्मान्तरमें पौरुषकी प्राप्ति होती है॥९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
रसानां प्रतिसंहारे सौभाग्यमनुगच्छति ।
आमिषप्रतिसंहारे पशून् पुत्रांश्च विन्दति ॥ १० ॥
मूलम्
रसानां प्रतिसंहारे सौभाग्यमनुगच्छति ।
आमिषप्रतिसंहारे पशून् पुत्रांश्च विन्दति ॥ १० ॥
अनुवाद (हिन्दी)
रसोंका परित्याग करनेसे सौभाग्यकी और मांसका त्याग करनेसे पशुओं तथा पुत्रोंकी प्राप्ति होती है॥१०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अवाक्शिरास्तु यो लम्बेदुदवासं च यो वसेत्।
सततं चैकशायी यः स लभेतेप्सितां गतिम् ॥ ११ ॥
मूलम्
अवाक्शिरास्तु यो लम्बेदुदवासं च यो वसेत्।
सततं चैकशायी यः स लभेतेप्सितां गतिम् ॥ ११ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
जो तपस्वी नीचे सिर करके लटकता है अथवा जलमें निवास करता है; तथा जो सदा ही अकेला सोता (ब्रह्मचर्यका पालन करता) है, वह मनोवांछित गतिको प्राप्त होता है॥११॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
पाद्यमासनमेवाथ दीपमन्नं प्रतिश्रयम् ।
दद्यादतिथिपूजार्थं स यज्ञः पञ्चदक्षिणः ॥ १२ ॥
मूलम्
पाद्यमासनमेवाथ दीपमन्नं प्रतिश्रयम् ।
दद्यादतिथिपूजार्थं स यज्ञः पञ्चदक्षिणः ॥ १२ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
जो अतिथिको पैर धोनेके लिये जल, बैठनेके लिये आसन, प्रकाशके लिये दीपक, खानेके लिये अन्न और ठहरनेके लिये घर देता है, इस प्रकार अतिथिका सत्कार करनेके लिये इन पाँच वस्तुओंका दान ‘पंचदक्षिण यज्ञ’ कहलाता है॥१२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
वीरासनं वीरशय्यां वीरस्थानमुपागतः ।
अक्षयास्तस्य वै लोकाः सर्वकामगमास्तथा ॥ १३ ॥
मूलम्
वीरासनं वीरशय्यां वीरस्थानमुपागतः ।
अक्षयास्तस्य वै लोकाः सर्वकामगमास्तथा ॥ १३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
जो वीरासन रणभूमिमें जाकर वीरशय्या (मृत्यु)-को प्राप्त हो वीरस्थान (स्वर्गलोक) में जाता है, उसे अक्षय लोकोंकी प्राप्ति होती है। वे लोक सम्पूर्ण कामनाओंकी प्राप्ति करानेवाले होते हैं॥१३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
धनं लभेत दानेन मौनेनाज्ञां विशाम्पते।
उपभोगांश्च तपसा ब्रह्मचर्येण जीवितम् ॥ १४ ॥
मूलम्
धनं लभेत दानेन मौनेनाज्ञां विशाम्पते।
उपभोगांश्च तपसा ब्रह्मचर्येण जीवितम् ॥ १४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
प्रजानाथ! मनुष्य दानसे धन पाता है, मौन-व्रतके पालनसे दूसरोंद्वारा आज्ञापालन करानेकी शक्ति प्राप्त करता है, तपस्यासे भोग और ब्रह्मचर्य-पालनसे जीवन (आयु)-की उपलब्धि होती है॥१४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
रूपमैश्वर्यमारोग्यमहिंसाफलमश्नुते ।
फलमूलाशिनो राज्यं स्वर्गः पर्णाशिनां भवेत् ॥ १५ ॥
मूलम्
रूपमैश्वर्यमारोग्यमहिंसाफलमश्नुते ।
फलमूलाशिनो राज्यं स्वर्गः पर्णाशिनां भवेत् ॥ १५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
अहिंसा धर्मके आचरणसे रूप, ऐश्वर्य और आरोग्यरूपी फलकी प्राप्ति होती है। फल-मूल खानेवालेको राज्य और पत्ते चबाकर रहनेवालेको स्वर्गकी प्राप्ति होती है॥१५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
प्रायोपवेशिनो राजन् सर्वत्र सुखमुच्यते।
गवाढ्यः शाकदीक्षायां स्वर्गगामी तृणाशनः ॥ १६ ॥
मूलम्
प्रायोपवेशिनो राजन् सर्वत्र सुखमुच्यते।
गवाढ्यः शाकदीक्षायां स्वर्गगामी तृणाशनः ॥ १६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
राजन्! जो आमरण अनशनका व्रत लेकर बैठता है उसके लिये सर्वत्र सुख बताया गया है। शाकाहारकी दीक्षा लेनेपर गोधनकी प्राप्ति होती है और तृण खाकर रहनेवाला पुरुष स्वर्गलोकमें जाता है॥१६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
स्त्रियस्त्रिषवणं स्नात्वा वायुं पीत्वा क्रतुं लभेत्।
स्वर्गं सत्येन लभते दीक्षया कुलमुत्तमम् ॥ १७ ॥
मूलम्
स्त्रियस्त्रिषवणं स्नात्वा वायुं पीत्वा क्रतुं लभेत्।
स्वर्गं सत्येन लभते दीक्षया कुलमुत्तमम् ॥ १७ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
स्त्री-सम्बन्धी भोगोंका परित्याग करके त्रिकाल स्नान करते हुए वायु पीकर रहनेसे यज्ञका फल प्राप्त होता है। सत्यसे मनुष्य स्वर्गको और दीक्षासे उत्तम कुलको पाता है॥१७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
सलिलाशी भवेद् यस्तु सदाग्निः संस्कृतो द्विजः।
मनुं साधयतो राज्यं नाकपृष्ठमनाशके ॥ १८ ॥
मूलम्
सलिलाशी भवेद् यस्तु सदाग्निः संस्कृतो द्विजः।
मनुं साधयतो राज्यं नाकपृष्ठमनाशके ॥ १८ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
जो ब्राह्मण सदा जल पीकर रहता है, अग्निहोत्र करता है और मन्त्र-साधनामें संलग्न रहता है, उसे राज्य मिलता है और निराहारव्रत करनेसे मनुष्य स्वर्गलोकमें जाता है॥१८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
उपवासं च दीक्षायामभिषेकं च पार्थिव।
कृत्वा द्वादश वर्षाणि वीरस्थानाद् विशिष्यते ॥ १९ ॥
मूलम्
उपवासं च दीक्षायामभिषेकं च पार्थिव।
कृत्वा द्वादश वर्षाणि वीरस्थानाद् विशिष्यते ॥ १९ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
पृथ्वीनाथ! जो पुरुष बारह वर्षोंतकके लिये व्रतकी दीक्षा लेकर अन्नका त्याग करता और तीर्थोंमें स्नान करता रहता है, उसे रणभूमिमें प्राण त्यागनेवाले वीरसे भी बढ़कर उत्तम लोककी प्राप्ति होती है॥१९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अधीत्य सर्ववेदान् वै सद्यो दुःखाद् विमुच्यते।
मानसं हि चरन् धर्मं स्वर्गलोकमुपाश्नुते ॥ २० ॥
मूलम्
अधीत्य सर्ववेदान् वै सद्यो दुःखाद् विमुच्यते।
मानसं हि चरन् धर्मं स्वर्गलोकमुपाश्नुते ॥ २० ॥
अनुवाद (हिन्दी)
जो सम्पूर्ण वेदोंका अध्ययन कर लेता है, वह तत्काल दुःखसे मुक्त हो जाता है तथा जो मनसे धर्मका आचरण करता है, उसे स्वर्गलोककी प्राप्ति होती है॥२०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
या दुस्त्यजा दुर्मतिभिर्या न जीर्यति जीर्यतः।
योऽसौ प्राणान्तिको रोगस्तां तृष्णां त्यजतः सुखम् ॥ २१ ॥
मूलम्
या दुस्त्यजा दुर्मतिभिर्या न जीर्यति जीर्यतः।
योऽसौ प्राणान्तिको रोगस्तां तृष्णां त्यजतः सुखम् ॥ २१ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
खोटी बुद्धिवाले पुरुषोंके लिये जिसका त्याग करना कठिन है, जो मनुष्यके जीर्ण हो जानेपर भी स्वयं जीर्ण नहीं होती तथा जो प्राणनाशक रोगके समान सदा कष्ट देती रहती है, उस तृष्णाका त्याग कर देनेवाले पुरुषको ही सुख मिलता है॥२१॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
यथा धेनुसहस्रेषु वत्सो विन्दति मातरम्।
एवं पूर्वकृतं कर्म कर्तारमनुगच्छति ॥ २२ ॥
मूलम्
यथा धेनुसहस्रेषु वत्सो विन्दति मातरम्।
एवं पूर्वकृतं कर्म कर्तारमनुगच्छति ॥ २२ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
जैसे बछड़ा हजारों गौओंके बीचमें अपनी माताको ढूँढ़ लेता है, उसी प्रकार पहलेका किया हुआ कर्म भी कर्ताको पहचानकर उसका अनुसरण करता है॥२२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अचोद्यमानानि यथा पुष्पाणि च फलानि च।
स्वकालं नातिवर्तन्ते तथा कर्म पुरा कृतम् ॥ २३ ॥
मूलम्
अचोद्यमानानि यथा पुष्पाणि च फलानि च।
स्वकालं नातिवर्तन्ते तथा कर्म पुरा कृतम् ॥ २३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
जैसे फूल और फल किसीकी प्रेरणा न होनेपर भी अपने समयका उल्लंघन नहीं करते—ठीक समयपर फूलने-फलने लग जाते हैं, वैसे ही पहलेका किया हुआ कर्म भी समयपर फल देता ही है॥२३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
जीर्यन्ति जीर्यतः केशा दन्ता जीर्यन्ति जीर्यतः।
चक्षुःश्रोत्रे च जीर्येते तृष्णैका न तु जीर्यते ॥ २४ ॥
मूलम्
जीर्यन्ति जीर्यतः केशा दन्ता जीर्यन्ति जीर्यतः।
चक्षुःश्रोत्रे च जीर्येते तृष्णैका न तु जीर्यते ॥ २४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
मनुष्यके जीर्ण (जराग्रस्त) होनेपर उसके केश जीर्ण होकर झड़ जाते हैं, वृद्ध पुरुषके दाँत भी टूट जाते हैं, नेत्र और कान भी जीर्ण होकर अन्धे-बहरे हो जाते हैं। केवल तृष्णा ही जीर्ण नहीं होती है (वह सदा नयी-नवेली बनी रहती है)॥२४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
येन प्रीणाति पितरं तेन प्रीतः प्रजापतिः।
प्रीणाति मातरं येन पृथिवी तेन पूजिता ॥ २५ ॥
येन प्रीणात्युपाध्यायं तेन स्याद् ब्रह्म पूजितम्।
मूलम्
येन प्रीणाति पितरं तेन प्रीतः प्रजापतिः।
प्रीणाति मातरं येन पृथिवी तेन पूजिता ॥ २५ ॥
येन प्रीणात्युपाध्यायं तेन स्याद् ब्रह्म पूजितम्।
अनुवाद (हिन्दी)
मनुष्य जिस व्यवहारसे पिताको प्रसन्न करता है, उससे भगवान् प्रजापति प्रसन्न होते हैं। जिस बर्तावसे वह माताको सन्तुष्ट करता है, उससे पृथ्वी देवीकी भी पूजा हो जाती है तथा जिससे वह उपाध्यायको तृप्त करता है, उसके द्वारा परब्रह्म परमात्माकी पूजा सम्पन्न हो जाती है॥२५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
सर्वे तस्यादृता धर्मा यस्यैते त्रय आदृताः।
अनादृतास्तु यस्यैते सर्वास्तस्याफलाः क्रियाः ॥ २६ ॥
मूलम्
सर्वे तस्यादृता धर्मा यस्यैते त्रय आदृताः।
अनादृतास्तु यस्यैते सर्वास्तस्याफलाः क्रियाः ॥ २६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
जिसने इन तीनोंका आदर किया, उसके द्वारा सभी धर्मोंका आदर हो गया और जिसने इन तीनोंका अनादर कर दिया, उसकी सम्पूर्ण यज्ञादिक क्रियाएँ निष्फल हो जाती हैं॥२६॥
मूलम् (वचनम्)
वैशम्पायन उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
भीष्मस्यैतद् वचःश्रुत्वा विस्मिताः कुरुपुङ्गवाः।
आसन् प्रहृष्टमनसः प्रीतिमन्तोऽभवंस्तदा ॥ २७ ॥
मूलम्
भीष्मस्यैतद् वचःश्रुत्वा विस्मिताः कुरुपुङ्गवाः।
आसन् प्रहृष्टमनसः प्रीतिमन्तोऽभवंस्तदा ॥ २७ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
वैशम्पायनजी कहते हैं— जनमेजय! भीष्मजीकी यह बात सुनकर समस्त श्रेष्ठ कुरुवंशी आश्चर्यचकित हो उठे। सबके मनमें हर्षजनित उल्लास भर गया। उस समय सभी बड़े प्रसन्न हुए॥२७॥
मूलम् (वचनम्)
भीष्म उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
यन्मन्त्रे भवति वृथोपयुज्यमाने
यत् सोमे भवति वृथाभिषूयमाणे।
यच्चाग्नौ भवति वृथाभिहूयमाने
तत् सर्वं भवति वृथाभिधीयमाने ॥ २८ ॥
मूलम्
यन्मन्त्रे भवति वृथोपयुज्यमाने
यत् सोमे भवति वृथाभिषूयमाणे।
यच्चाग्नौ भवति वृथाभिहूयमाने
तत् सर्वं भवति वृथाभिधीयमाने ॥ २८ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
भीष्मजी कहते हैं— युधिष्ठिर! वेदमन्त्रोंका व्यर्थ (अशुद्ध) उपयोग (उच्चारण) करनेपर जो पाप लगता है, सोमयागको दक्षिणा आदि न देनेके कारण व्यर्थ कर देनेपर जो दोष लगता है तथा विधि और मन्त्रके बिना अग्निमें निरर्थक आहुति देनेपर जो पाप होता है; वह सारा पाप मिथ्या भाषण करनेसे प्राप्त होता है॥२८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
इत्येतदृषिणा प्रोक्तमुक्तवानस्मि यद् विभो।
शुभाशुभफलप्राप्तौ किमतः श्रोतुमिच्छसि ॥ २९ ॥
मूलम्
इत्येतदृषिणा प्रोक्तमुक्तवानस्मि यद् विभो।
शुभाशुभफलप्राप्तौ किमतः श्रोतुमिच्छसि ॥ २९ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
राजन्! शुभ और अशुभ फलकी प्राप्तिके विषयमें महर्षि व्यासने ये सब बातें बतायी थीं, जिन्हें मैंने इस समय तुमसे कहा है। अब और क्या सुनना चाहते हो?॥
मूलम् (समाप्तिः)
इति श्रीमहाभारते अनुशासनपर्वणि दानधर्मपर्वणि कर्मफलिकोपाख्याने सप्तमोऽध्यायः ॥ ७ ॥
मूलम् (वचनम्)
इस प्रकार श्रीमहाभारत अनुशासनपर्वके अन्तर्गत दानधर्मपर्वमें कर्मफलका उपाख्यानविषयक सातवाँ अध्याय पूरा हुआ॥७॥