भागसूचना
षष्ठोऽध्यायः
सूचना (हिन्दी)
दैवकी अपेक्षा पुरुषार्थकी श्रेष्ठताका वर्णन
मूलम् (वचनम्)
युधिष्ठिर उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
पितामह महाप्राज्ञ सर्वशास्त्रविशारद ।
दैवे पुरुषकारे च किंस्वित् श्रेष्ठतरं भवेत् ॥ १ ॥
मूलम्
पितामह महाप्राज्ञ सर्वशास्त्रविशारद ।
दैवे पुरुषकारे च किंस्वित् श्रेष्ठतरं भवेत् ॥ १ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
युधिष्ठिरने पूछा— सम्पूर्ण शास्त्रोंके विशेषज्ञ महाप्राज्ञ पितामह! दैव और पुरुषार्थमें कौन श्रेष्ठ है?॥१॥
मूलम् (वचनम्)
भीष्म उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
अत्राप्युदाहरन्तीममितिहासं पुरातनम् ।
वसिष्ठस्य च संवादं ब्रह्मणश्च युधिष्ठिर ॥ २ ॥
मूलम्
अत्राप्युदाहरन्तीममितिहासं पुरातनम् ।
वसिष्ठस्य च संवादं ब्रह्मणश्च युधिष्ठिर ॥ २ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
भीष्मजीने कहा— युधिष्ठिर! इस विषयमें वसिष्ठ और ब्रह्माजीके संवादरूप एक प्राचीन इतिहासका उदाहण दिया जाता है॥२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
दैवमानुषयोः किंस्वित् कर्मणोः श्रेष्ठमित्युत।
पुरा वसिष्ठो भगवान् पितामहमपृच्छत ॥ ३ ॥
मूलम्
दैवमानुषयोः किंस्वित् कर्मणोः श्रेष्ठमित्युत।
पुरा वसिष्ठो भगवान् पितामहमपृच्छत ॥ ३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
प्राचीन कालकी बात है, भगवान् वसिष्ठने लोकपितामह ब्रह्माजीसे पूछा—‘प्रभो! दैव और पुरुषार्थमें कौन श्रेष्ठ है?’॥३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ततः पद्मोद्भवो राजन् देवदेवः पितामहः।
उवाच मधुरं वाक्यमर्थवद्धेतुभूषितम् ॥ ४ ॥
मूलम्
ततः पद्मोद्भवो राजन् देवदेवः पितामहः।
उवाच मधुरं वाक्यमर्थवद्धेतुभूषितम् ॥ ४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
राजन्! तब कमलजन्मा देवाधिदेव पितामहने मधुर स्वरमें युक्तियुक्त सार्थक वचन कहा—॥४॥
मूलम् (वचनम्)
ब्रह्मोवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
(बीजतो ह्यङ्कुरोत्पत्तिरङ्कुरात् पर्णसम्भवः ।
पर्णान्नालाः प्रसूयन्ते नालात् स्कन्धः प्रवर्तते॥
स्कन्धात् प्रवर्तते पुष्पं पुष्पान्निर्वर्तते फलम्।
फलान्निर्वर्त्यते बीजं बीजं नाफलमुच्यते॥)
मूलम्
(बीजतो ह्यङ्कुरोत्पत्तिरङ्कुरात् पर्णसम्भवः ।
पर्णान्नालाः प्रसूयन्ते नालात् स्कन्धः प्रवर्तते॥
स्कन्धात् प्रवर्तते पुष्पं पुष्पान्निर्वर्तते फलम्।
फलान्निर्वर्त्यते बीजं बीजं नाफलमुच्यते॥)
अनुवाद (हिन्दी)
ब्रह्माजीने कहा— मुने! बीजसे अंकुरकी उत्पत्ति होती है, अंकुरसे पत्ते होते हैं। पत्तोंसे नाल, नालसे तने और डालियाँ होती हैं। उनसे पुष्प प्रकट होता है। फूलसे फल लगता है और फलसे बीज उत्पन्न होता है और बीज कभी निष्फल नहीं बताया गया है॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
नाबीजं जायते किंचिन्न बीजेन बिना फलम्।
बीजाद् बीजं प्रभवति बीजादेव फलं स्मृतम् ॥ ५ ॥
मूलम्
नाबीजं जायते किंचिन्न बीजेन बिना फलम्।
बीजाद् बीजं प्रभवति बीजादेव फलं स्मृतम् ॥ ५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
बीजके बिना कुछ भी पैदा नहीं होता, बीजके बिना फल भी नहीं लगता। बीजसे बीज प्रकट होता है और बीजसे ही फलकी उत्पत्ति मानी जाती है॥५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
यादृशं वपते बीजं क्षेत्रमासाद्य कर्षकः।
सुकृते दुष्कृते वापि तादृशं लभते फलम् ॥ ६ ॥
मूलम्
यादृशं वपते बीजं क्षेत्रमासाद्य कर्षकः।
सुकृते दुष्कृते वापि तादृशं लभते फलम् ॥ ६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
किसान खेतमें जाकर जैसा बीज बोता है उसीके अनुसार उसको फल मिलता है। इसी प्रकार पुण्य या पाप—जैसा कर्म किया जाता है वैसा ही फल मिलता है॥६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
यथा बीजं विना क्षेत्रमुप्तं भवति निष्फलम्।
तथा पुरुषकारेण विना दैवं न सिध्यति ॥ ७ ॥
मूलम्
यथा बीजं विना क्षेत्रमुप्तं भवति निष्फलम्।
तथा पुरुषकारेण विना दैवं न सिध्यति ॥ ७ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
जैसे बीज खेतमें बोये बिना फल नहीं दे सकता, उसी प्रकार दैव (प्रारब्ध) भी पुरुषार्थके बिना नहीं सिद्ध होता॥७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
क्षेत्रं पुरुषकारस्तु दैवं बीजमुदाहृतम्।
क्षेत्रबीजसमायोगात् ततः सस्यं समृद्ध्यते ॥ ८ ॥
मूलम्
क्षेत्रं पुरुषकारस्तु दैवं बीजमुदाहृतम्।
क्षेत्रबीजसमायोगात् ततः सस्यं समृद्ध्यते ॥ ८ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
पुरुषार्थ खेत है और दैवको बीज बताया गया है। खेत और बीजके संयोगसे ही अनाज पैदा होता है॥८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
कर्मणः फलनिर्वृत्तिं स्वयमश्नाति कारकः।
प्रत्यक्षं दृश्यते लोके कृतस्यापकृतस्य च ॥ ९ ॥
मूलम्
कर्मणः फलनिर्वृत्तिं स्वयमश्नाति कारकः।
प्रत्यक्षं दृश्यते लोके कृतस्यापकृतस्य च ॥ ९ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
कर्म करनेवाला मनुष्य अपने भले या बुरे कर्मका फल स्वयं ही भोगता है। यह बात संसारमें प्रत्यक्ष दिखायी देती है॥९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
शुभेन कर्मणा सौख्यं दुःखं पापेन कर्मणा।
कृतं फलति सर्वत्र नाकृतं भुज्यते क्वचित् ॥ १० ॥
मूलम्
शुभेन कर्मणा सौख्यं दुःखं पापेन कर्मणा।
कृतं फलति सर्वत्र नाकृतं भुज्यते क्वचित् ॥ १० ॥
अनुवाद (हिन्दी)
शुभ कर्म करनेसे सुख और पाप कर्म करनेसे दुःख मिलता है। अपना किया हुआ कर्म सर्वत्र ही फल देता है। बिना किये हुए कर्मका फल कहीं नहीं भोगा जाता॥१०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
कृती सर्वत्र लभते प्रतिष्ठां भाग्यसंयुताम्।
अकृती लभते भ्रष्टः क्षते क्षारावसेचनम् ॥ ११ ॥
मूलम्
कृती सर्वत्र लभते प्रतिष्ठां भाग्यसंयुताम्।
अकृती लभते भ्रष्टः क्षते क्षारावसेचनम् ॥ ११ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
पुरुषार्थी मनुष्य सर्वत्र भाग्यके अनुसार प्रतिष्ठा पाता है; परंतु जो अकर्मण्य है वह सम्मानसे भ्रष्ट होकर घावपर नमक छिड़कनेके समान असह्य दुःख भोगता है॥११॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तपसा रूपसौभाग्यं रत्नानि विविधानि च।
प्राप्यते कर्मणा सर्वं न दैवादकृतात्मना ॥ १२ ॥
मूलम्
तपसा रूपसौभाग्यं रत्नानि विविधानि च।
प्राप्यते कर्मणा सर्वं न दैवादकृतात्मना ॥ १२ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
मनुष्यको तपस्यासे रूप, सौभाग्य और नाना प्रकारके रत्न प्राप्त होते हैं। इस प्रकार कर्मसे सब कुछ मिल सकता है; परंतु भाग्यके भरोसे निकम्मे बैठे रहनेवालेको कुछ नहीं मिलता॥१२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तथा स्वर्गश्च भोगश्च निष्ठा या च मनीषिता।
सर्वं पुरुषकारेण कृतेनेहोपलभ्यते ॥ १३ ॥
मूलम्
तथा स्वर्गश्च भोगश्च निष्ठा या च मनीषिता।
सर्वं पुरुषकारेण कृतेनेहोपलभ्यते ॥ १३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
इस जगत्में पुरुषार्थ करनेसे स्वर्ग, भोग, धर्ममें निष्ठा और बुद्धिमत्ता—इन सबकी उपलब्धि होती है॥१३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ज्योतींषि त्रिदशा नागा यक्षाश्चन्द्रार्कमारुताः।
सर्वं पुरुषकारेण मानुष्याद् देवतां गताः ॥ १४ ॥
मूलम्
ज्योतींषि त्रिदशा नागा यक्षाश्चन्द्रार्कमारुताः।
सर्वं पुरुषकारेण मानुष्याद् देवतां गताः ॥ १४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
नक्षत्र, देवता, नाग, यक्ष, चन्द्रमा, सूर्य और वायु आदि सभी पुरुषार्थ करके ही मनुष्यलोकसे देवलोकको गये हैं॥१४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अर्थो वा मित्रवर्गो वा ऐश्वर्यं वा कुलान्वितम्।
श्रीश्चापि दुर्लभा भोक्तुं तथैवाकृतकर्मभिः ॥ १५ ॥
मूलम्
अर्थो वा मित्रवर्गो वा ऐश्वर्यं वा कुलान्वितम्।
श्रीश्चापि दुर्लभा भोक्तुं तथैवाकृतकर्मभिः ॥ १५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
जो पुरुषार्थ नहीं करते वे धन, मित्रवर्ग, ऐश्वर्य, उत्तम कुल तथा दुर्लभ लक्ष्मीका भी उपभोग नहीं कर सकते॥१५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
शौचेन लभते विप्रः क्षत्रियो विक्रमेण तु।
वैश्यः पुरुषकारेण शूद्रः शुश्रूषया श्रियम् ॥ १६ ॥
मूलम्
शौचेन लभते विप्रः क्षत्रियो विक्रमेण तु।
वैश्यः पुरुषकारेण शूद्रः शुश्रूषया श्रियम् ॥ १६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
ब्राह्मण शौचाचारसे, क्षत्रिय पराक्रमसे, वैश्य उद्योगसे तथा शूद्र तीनों वर्णोंकी सेवासे सम्पत्ति पाता है॥१६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
नादातांर भजन्त्यर्था न क्लीबं नापि निष्क्रियम्।
नाकर्मशीलं नाशूरं तथा नैवातपस्विनम् ॥ १७ ॥
मूलम्
नादातांर भजन्त्यर्था न क्लीबं नापि निष्क्रियम्।
नाकर्मशीलं नाशूरं तथा नैवातपस्विनम् ॥ १७ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
न तो दान न देनेवाले कंजूसको धन मिलता है, न नपुंसकको, न अकर्मण्यको, न कामसे जी चुरानेवालेको, न शौर्यहीनको और न तपस्या न करनेवालेको ही मिलता है॥१७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
येन लोकास्त्रयः सृष्टा दैत्याः सर्वाश्च देवताः।
स एष भगवान् विष्णुः समुद्रे तप्यते तपः ॥ १८ ॥
मूलम्
येन लोकास्त्रयः सृष्टा दैत्याः सर्वाश्च देवताः।
स एष भगवान् विष्णुः समुद्रे तप्यते तपः ॥ १८ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
जिन्होंने तीनों लोकों, दैत्यों तथा सम्पूर्ण देवताओंकी भी सृष्टि की है, वे ही ये भगवान् विष्णु समुद्रमें रहकर तपस्या करते हैं॥१८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
स्वं चेत् कर्मफलं न स्यात् सर्वमेवाफलं भवेत्।
लोको दैवं समालक्ष्य उदासीनो भवेन्ननु ॥ १९ ॥
मूलम्
स्वं चेत् कर्मफलं न स्यात् सर्वमेवाफलं भवेत्।
लोको दैवं समालक्ष्य उदासीनो भवेन्ननु ॥ १९ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
यदि अपने कर्मोंका फल न प्राप्त हो तो सारा कर्म ही निष्फल हो जाय और सब लोग भाग्यको ही देखते हुए कर्म करनेसे उदासीन हो जायँ॥१९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अकृत्वा मानुषं कर्म यो दैवमनुवर्तते।
वृथा श्राम्यति सम्प्राप्य पतिं क्लीबमिवाङ्गना ॥ २० ॥
मूलम्
अकृत्वा मानुषं कर्म यो दैवमनुवर्तते।
वृथा श्राम्यति सम्प्राप्य पतिं क्लीबमिवाङ्गना ॥ २० ॥
अनुवाद (हिन्दी)
मनुष्यके योग्य कर्म न करके जो पुरुष केवल दैवका अनुसरण करता है वह दैवका आश्रय लेकर व्यर्थ ही कष्ट उठाता है। जैसे कोई स्त्री अपने नपुंसक पतिको पाकर भी कष्ट ही भोगती है॥२०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
न तथा मानुषे लोके भयमस्ति शुभाशुभे।
तथा त्रिदशलोके हि भयमल्पेन जायते ॥ २१ ॥
मूलम्
न तथा मानुषे लोके भयमस्ति शुभाशुभे।
तथा त्रिदशलोके हि भयमल्पेन जायते ॥ २१ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
इस मनुष्यलोकमें शुभाशुभ कर्मोंसे उतना भय नहीं प्राप्त होता, जितना कि देवलोकमें थोड़े ही पापसे भय होता है॥२१॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
कृतः पुरुषकारस्तु दैवमेवानुवर्तते ।
न दैवमकृते किंचित् कस्यचिद् दातुमर्हति ॥ २२ ॥
मूलम्
कृतः पुरुषकारस्तु दैवमेवानुवर्तते ।
न दैवमकृते किंचित् कस्यचिद् दातुमर्हति ॥ २२ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
किया हुआ पुरुषार्थ ही दैवका अनुसरण करता है; परंतु पुरुषार्थ न करनेपर दैव किसीको कुछ नहीं दे सकता॥२२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
यथा स्थानान्यनित्यानि दूश्यन्ते दैवतेष्वपि।
कथं कर्म विना दैवं स्थास्यति स्थापयिष्यति ॥ २३ ॥
मूलम्
यथा स्थानान्यनित्यानि दूश्यन्ते दैवतेष्वपि।
कथं कर्म विना दैवं स्थास्यति स्थापयिष्यति ॥ २३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
देवताओंमें भी जो इन्द्रादिके स्थान हैं वे अनित्य देखे जाते हैं। पुण्यकर्मके बिना दैव कैसे स्थिर रहेगा और कैसे वह दूसरोंको स्थिर रख सकेगा॥२३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
न दैवतानि लोकेऽस्मिन् व्यापारं यान्ति कस्यचित्।
व्यासङ्गं जनयन्त्युग्रमात्माभिभवशङ्कया ॥ २४ ॥
मूलम्
न दैवतानि लोकेऽस्मिन् व्यापारं यान्ति कस्यचित्।
व्यासङ्गं जनयन्त्युग्रमात्माभिभवशङ्कया ॥ २४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
देवता भी इस लोकमें किसीके पुण्यकर्मका अनुमोदन नहीं करते हैं, अपितु अपनी पराजयकी आशंकासे वे पुण्यात्मा पुरुषमें भयंकर आसक्ति पैदा कर देते हैं (जिससे उनके धर्ममें विघ्न उपस्थित हो जाय)॥२४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ऋषीणां देवतानां च सदा भवति विग्रहः।
कस्य वाचा ह्यदैवं स्याद् यतो दैवं प्रवर्तते ॥ २५ ॥
मूलम्
ऋषीणां देवतानां च सदा भवति विग्रहः।
कस्य वाचा ह्यदैवं स्याद् यतो दैवं प्रवर्तते ॥ २५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
ऋषियों और देवताओंमें सदा कलह होता रहता है (देवता ऋषियोंकी तपस्यामें विघ्न डालते हैं तथा ऋषि अपने तपोबलसे देवताओंको स्थानभ्रष्ट कर देते हैं।) फिर भी दैवके बिना केवल कथन मात्रसे किसको सुख या दुःख मिल सकता है? क्योंकि कर्मके मूलमें दैवका ही हाथ है॥२५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
कथं तस्य समुत्पत्तिर्यतो दैवं प्रवर्तते।
एवं त्रिदशलोकेऽपि प्राप्यन्ते बहवो गुणाः ॥ २६ ॥
मूलम्
कथं तस्य समुत्पत्तिर्यतो दैवं प्रवर्तते।
एवं त्रिदशलोकेऽपि प्राप्यन्ते बहवो गुणाः ॥ २६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
दैवके बिना पुरुषार्थकी उत्पत्ति कैसे हो सकती है? क्योंकि प्रवृत्तिका मूल कारण दैव ही है (जिन्होंने पूर्वजन्ममें पुण्यकर्म किये हैं, वे ही दूसरे जन्ममें भी पूर्वसंस्कारवश पुण्यमें प्रवृत्त होते हैं। यदि ऐसा न हो तो सभी पुण्यकर्मोंमें ही लग जायँ)। देवलोकमें भी दैववश ही बहुत-से गुण (सुखद साधन) उपलब्ध होते हैं॥२६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
आत्मैव ह्यात्मनो बन्धुरात्मैव रिपुरात्मनः।
आत्मैव ह्यात्मनः साक्षी कृतस्याप्यकृतस्य च ॥ २७ ॥
मूलम्
आत्मैव ह्यात्मनो बन्धुरात्मैव रिपुरात्मनः।
आत्मैव ह्यात्मनः साक्षी कृतस्याप्यकृतस्य च ॥ २७ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
आत्मा ही अपना बन्धु है, आत्मा ही अपना शत्रु है तथा आत्मा ही अपने कर्म और अकर्मका साक्षी है॥२७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
कृतं चाप्यकृतं किंचित् कृते कर्मणि सिद्ध्यति।
सुकृतं दुष्कृतं कर्म न यथार्थं प्रपद्यते ॥ २८ ॥
मूलम्
कृतं चाप्यकृतं किंचित् कृते कर्मणि सिद्ध्यति।
सुकृतं दुष्कृतं कर्म न यथार्थं प्रपद्यते ॥ २८ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
प्रबल पुरुषार्थ करनेसे पहलेका किया हुआ भी कोई कर्म बिना किया हुआ-सा हो जाता है और वह प्रबल कर्म ही सिद्ध होकर फल प्रदान करता है। इस तरह पुण्य या पापकर्म अपने यथार्थ फलको नहीं दे पाते हैं॥२८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
देवानां शरणं पुण्यं सर्वं पुण्यैरवाप्यते।
पुण्यशीलं नरं प्राप्य किं दैवं प्रकरिष्यति ॥ २९ ॥
मूलम्
देवानां शरणं पुण्यं सर्वं पुण्यैरवाप्यते।
पुण्यशीलं नरं प्राप्य किं दैवं प्रकरिष्यति ॥ २९ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
देवताओंका आश्रय पुण्य ही है। पुण्यसे ही सब कुछ प्राप्त होता है। पुण्यात्मा पुरुषको पाकर दैव क्या करेगा?॥२९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
पुरा ययातिर्विभ्रष्टश्च्यावितः पतितः क्षितौ।
पुनरारोपितः स्वर्गं दौहित्रैः पुण्यकर्मभिः ॥ ३० ॥
मूलम्
पुरा ययातिर्विभ्रष्टश्च्यावितः पतितः क्षितौ।
पुनरारोपितः स्वर्गं दौहित्रैः पुण्यकर्मभिः ॥ ३० ॥
अनुवाद (हिन्दी)
पूर्वकालमें राजा ययाति पुण्य क्षीण होनेपर स्वर्गसे च्युत होकर पृथ्वीपर गिर पड़े थे; परंतु उनके पुण्यकर्मा दौहित्रोंने उन्हें पुनः स्वर्गलोकमें पहुँचा दिया॥३०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
पुरूरवाश्च राजर्षिर्द्विजैरभिहितः पुरा ।
ऐल इत्यभिविख्यातः स्वर्गं प्राप्तो महीपतिः ॥ ३१ ॥
मूलम्
पुरूरवाश्च राजर्षिर्द्विजैरभिहितः पुरा ।
ऐल इत्यभिविख्यातः स्वर्गं प्राप्तो महीपतिः ॥ ३१ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
इसी तरह पूर्वकालमें ऐल नामसे विख्यात राजर्षि पुरूरवा ब्राह्मणोंके आशीर्वाद देनेपर स्वर्गलोकको प्राप्त हुए थे॥३१॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अश्वमेधादिभिर्यज्ञैः सत्कृतः कोसलाधिपः ।
महर्षिशापात् सौदासः पुरुषादत्वमागतः ॥ ३२ ॥
मूलम्
अश्वमेधादिभिर्यज्ञैः सत्कृतः कोसलाधिपः ।
महर्षिशापात् सौदासः पुरुषादत्वमागतः ॥ ३२ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
(अब इसके विपरीत दृष्टान्त देते हैं—) अश्वमेध आदि यज्ञोंद्वारा सम्मानित होनेपर भी कोशलनरेश सौदासको महर्षि वसिष्ठके शापसे नरभक्षी राक्षस होना पड़ा॥३२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अश्वत्थामा च रामश्च मुनिपुत्रौ धनुर्धरौ।
न गच्छतः स्वर्गलोकं सुकृतेनेह कर्मणा ॥ ३३ ॥
मूलम्
अश्वत्थामा च रामश्च मुनिपुत्रौ धनुर्धरौ।
न गच्छतः स्वर्गलोकं सुकृतेनेह कर्मणा ॥ ३३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
इसी प्रकार अश्वत्थामा और परशुराम—ये दोनों ही ऋषिपुत्र और धनुर्धर वीर हैं। इन दोनोंने पुण्यकर्म भी किये हैं तथापि उस कर्मके प्रभावसे स्वर्गमें नहीं गये॥३३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
वसुर्यज्ञशतैरिष्ट्वा द्वितीय इव वासवः।
मिथ्याभिधानेनैकेन रसातलतलं गतः ॥ ३४ ॥
मूलम्
वसुर्यज्ञशतैरिष्ट्वा द्वितीय इव वासवः।
मिथ्याभिधानेनैकेन रसातलतलं गतः ॥ ३४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
द्वितीय इन्द्रके समान सौ यज्ञोंका अनुष्ठान करके भी राजा वसु एक ही मिथ्या भाषणके दोषसे रसातलको चले गये॥३४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
बलिर्वैरोचनिर्बद्धो धर्मपाशेन दैवतैः ।
विष्णोः पुरुषकारेण पातालसदनः कृतः ॥ ३५ ॥
मूलम्
बलिर्वैरोचनिर्बद्धो धर्मपाशेन दैवतैः ।
विष्णोः पुरुषकारेण पातालसदनः कृतः ॥ ३५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
विरोचनकुमार बलिको देवताओंने धर्मपाशसे बाँध लिया और भगवान् विष्णुके पुरुषार्थसे वे पातालवासी बना दिये गये॥३५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
शक्रस्योद्गम्य चरणं प्रस्थितो जनमेजयः।
द्विजस्त्रीणां वधं कृत्वा किं दैवेन न वारितः ॥ ३६ ॥
मूलम्
शक्रस्योद्गम्य चरणं प्रस्थितो जनमेजयः।
द्विजस्त्रीणां वधं कृत्वा किं दैवेन न वारितः ॥ ३६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
राजा जनमेजय द्विज स्त्रियोंका वध करके इन्द्रके चरणका आश्रय ले जब स्वर्गलोकको प्रस्थित हुए, उस समय दैवने उसे आकर क्यों नहीं रोका॥३६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अज्ञानाद् ब्राह्मणं हत्वा स्पृष्टो बालवधेन च।
वैशम्पायनविप्रर्षिः किं दैवेन न वारितः ॥ ३७ ॥
मूलम्
अज्ञानाद् ब्राह्मणं हत्वा स्पृष्टो बालवधेन च।
वैशम्पायनविप्रर्षिः किं दैवेन न वारितः ॥ ३७ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
ब्रह्मर्षि वैशम्पायन अज्ञानवश ब्राह्मणकी हत्या करके बाल-वधके पापसे भी लिप्त हो गये थे तो भी दैवने उन्हें स्वर्ग जानेसे क्यों नहीं रोका॥३७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
गोप्रदानेन मिथ्या च ब्राह्मणेभ्यो महामखे।
पुरा नृगश्च राजर्षिः कृकलासत्वमागतः ॥ ३८ ॥
मूलम्
गोप्रदानेन मिथ्या च ब्राह्मणेभ्यो महामखे।
पुरा नृगश्च राजर्षिः कृकलासत्वमागतः ॥ ३८ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
पूर्वकालमें राजर्षि नृग बड़े दानी थे। एक बार किसी महायज्ञमें ब्राह्मणोंको गोदान करते समय उनसे भूल हो गयी; अर्थात् एक गऊको दुबारा दानमें दे दिया, जिसके कारण उन्हें गिरगिटकी योनिमें जाना पड़ा॥३८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
धुन्धुमारश्च राजर्षिः सत्रेष्वेव जरां गतः।
प्रीतिदायं परित्यज्य सुष्वाप स गिरिव्रजे ॥ ३९ ॥
मूलम्
धुन्धुमारश्च राजर्षिः सत्रेष्वेव जरां गतः।
प्रीतिदायं परित्यज्य सुष्वाप स गिरिव्रजे ॥ ३९ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
राजर्षि धुन्धुमार यज्ञ करते-करते बूढ़े हो गये तथापि देवताओंके प्रसन्नतापूर्वक दिये हुए वरदानको त्यागकर गिरिव्रजमें सो गये (यज्ञका फल नहीं पा सके)॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
पाण्डवानां हृतं राज्यं धार्तराष्ट्रैर्महाबलैः।
पुनः प्रत्याहृतं चैव न दैवाद् भुजसंश्रयात् ॥ ४० ॥
मूलम्
पाण्डवानां हृतं राज्यं धार्तराष्ट्रैर्महाबलैः।
पुनः प्रत्याहृतं चैव न दैवाद् भुजसंश्रयात् ॥ ४० ॥
अनुवाद (हिन्दी)
महाबली धृतराष्ट्र-पुत्रोंने पाण्डवोंका राज्य हड़प लिया था। उसे पाण्डवोंने पुनः बाहुबलसे ही वापस लिया। दैवके भरोसे नहीं॥४०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तपोनियमसंयुक्ता मुनयः संशितव्रताः ।
किं ते दैवबलात् शापमुत्सृजन्ते न कर्मणा ॥ ४१ ॥
मूलम्
तपोनियमसंयुक्ता मुनयः संशितव्रताः ।
किं ते दैवबलात् शापमुत्सृजन्ते न कर्मणा ॥ ४१ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
तप और नियममें संयुक्त रहकर कठोर व्रतका पालन करनेवाले मुनि क्या दैवबलसे ही किसीको शाप देते हैं, पुरुषार्थके बलसे नहीं?॥४१॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
पापमुत्सृजते लोके सर्वं प्राप्य सुदुर्लभम्।
लोभमोहसमापन्नं न दैवं त्रायते नरम् ॥ ४२ ॥
मूलम्
पापमुत्सृजते लोके सर्वं प्राप्य सुदुर्लभम्।
लोभमोहसमापन्नं न दैवं त्रायते नरम् ॥ ४२ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
संसारमें समस्त सुदुर्लभ सुख-भोग किसी पापीको प्राप्त हो जाय तो भी वह उसके पास टिकता नहीं, शीघ्र ही उसे छोड़कर चल देता है। जो मनुष्य लोभ और मोहमें डूबा हुआ है उसे दैव भी संकटसे नहीं बचा सकता॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
यथाग्निः पवनोद्धूतः सुसूक्ष्मोऽपि महान् भवेत्।
तथा कर्मसमायुक्तं दैवं साधु विवर्धते ॥ ४३ ॥
मूलम्
यथाग्निः पवनोद्धूतः सुसूक्ष्मोऽपि महान् भवेत्।
तथा कर्मसमायुक्तं दैवं साधु विवर्धते ॥ ४३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
जैसे थोड़ी-सी भी आग वायुका सहारा पाकर बहुत बड़ी हो जाती है, उसी प्रकार पुरुषार्थका सहारा पाकर दैवका बल विशेष बढ़ जाता है॥४३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
यथा तैलक्षयाद् दीपः प्रह्रासमुपगच्छति।
तथा कर्मक्षयाद् दैवं प्रह्रासमुपगच्छति ॥ ४४ ॥
मूलम्
यथा तैलक्षयाद् दीपः प्रह्रासमुपगच्छति।
तथा कर्मक्षयाद् दैवं प्रह्रासमुपगच्छति ॥ ४४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
जैसे तेल समाप्त हो जानेसे दीपक बुझ जाता है, उसी प्रकार कर्मके क्षीण हो जानेपर दैव भी नष्ट हो जाता है॥४४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
विपुलमपि धनौघं प्राप्य भोगान् स्त्रियो वा
पुरुष इह न शक्तः कर्महीनो हि भोक्तुम्।
सुनिहितमपि चार्थं दैवतै रक्ष्यमाणं
पुरुष इह महात्मा प्राप्नुते नित्ययुक्तः ॥ ४५ ॥
मूलम्
विपुलमपि धनौघं प्राप्य भोगान् स्त्रियो वा
पुरुष इह न शक्तः कर्महीनो हि भोक्तुम्।
सुनिहितमपि चार्थं दैवतै रक्ष्यमाणं
पुरुष इह महात्मा प्राप्नुते नित्ययुक्तः ॥ ४५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
उद्योगहीन मनुष्य धनका बहुत बड़ा भण्डार, तरह-तरहके भोग और स्त्रियोंको पाकर भी उनका उपभोग नहीं कर सकता; किंतु सदा उद्योगमें लगा रहनेवाला महामनस्वी पुरुष देवताओंद्वारा सुरक्षित तथा गाड़कर रखे हुए धनको भी प्राप्त कर लेता है॥४५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
व्ययगुणमपि साधुं कर्मणा संश्रयन्ते
भवति मनुजलोकाद् देवलोको विशिष्टः।
बहुतरसुसमृद्ध्या मानुषाणां गृहाणि
पितृवनभवनाभं दृश्यते चामराणाम् ॥ ४६ ॥
मूलम्
व्ययगुणमपि साधुं कर्मणा संश्रयन्ते
भवति मनुजलोकाद् देवलोको विशिष्टः।
बहुतरसुसमृद्ध्या मानुषाणां गृहाणि
पितृवनभवनाभं दृश्यते चामराणाम् ॥ ४६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
जो दान करनेके कारण निर्धन हो गया है, ऐसे सत्पुरुषके पास उसके सत्कर्मके कारण देवता भी पहुँचते हैं और इस प्रकार उसका घर मनुष्यलोककी अपेक्षा श्रेष्ठ देवलोक-सा हो जाता है। परंतु जहाँ दान नहीं होता वह घर बड़ी भारी समृद्धिसे भरा हो तो भी देवताओंकी दृष्टिमें वह श्मशानके ही तुल्य जान पड़ता है॥४६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
न च फलति विकर्मा जीवलोके न दैवं
व्यपनयति विमार्गं नास्ति दैवे प्रभुत्वम्।
गुरुमिव कृतमग्र्यं कर्म संयाति दैवं
नयति पुरुषकारः संचितस्तत्र तत्र ॥ ४७ ॥
मूलम्
न च फलति विकर्मा जीवलोके न दैवं
व्यपनयति विमार्गं नास्ति दैवे प्रभुत्वम्।
गुरुमिव कृतमग्र्यं कर्म संयाति दैवं
नयति पुरुषकारः संचितस्तत्र तत्र ॥ ४७ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
इस जीव-जगत्में उद्योगहीन मनुष्य कभी फूलता-फलता नहीं दिखायी देता। दैवमें इतनी शक्ति नहीं है कि वह उसे कुमार्गसे हटाकर सन्मार्गमें लगा दे। जैसे शिष्य गुरुको आगे करके चलता है उसी तरह दैव पुरुषार्थको ही आगे करके स्वयं उसके पीछे चलता है। संचित किया हुआ पुरुषार्थ ही दैवको जहाँ चाहता है, वहाँ-वहाँ ले जाता है॥४७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
एतत् ते सर्वमाख्यातं मया वै मुनिसत्तम।
फलं पुरुषकारस्य सदा संदृश्य तत्त्वतः ॥ ४८ ॥
मूलम्
एतत् ते सर्वमाख्यातं मया वै मुनिसत्तम।
फलं पुरुषकारस्य सदा संदृश्य तत्त्वतः ॥ ४८ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
मुनिश्रेष्ठ! मैंने सदा पुरुषार्थके ही फलको प्रत्यक्ष देखकर यथार्थरूपसे ये सारी बातें तुम्हें बतायी हैं॥४८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अभ्युत्थानेन दैवस्य समारब्धेन कर्मणा।
विधिना कर्मणा चैव स्वर्गमार्गमवाप्नुयात् ॥ ४९ ॥
मूलम्
अभ्युत्थानेन दैवस्य समारब्धेन कर्मणा।
विधिना कर्मणा चैव स्वर्गमार्गमवाप्नुयात् ॥ ४९ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
मनुष्य दैवके उत्थानसे आरम्भ किये हुए पुरुषार्थसे उत्तम विधि और शास्त्रोक्त सत्कर्मसे ही स्वर्गलोकका मार्ग पा सकता है॥४९॥
मूलम् (समाप्तिः)
इति श्रीमहाभारते अनुशासनपर्वणि दानधर्मपर्वणि दैवपुरुषकारनिर्देशे षष्ठोऽध्यायः ॥ ६ ॥
मूलम् (वचनम्)
इस प्रकार श्रीमहाभारत अनुशासनपर्वके अन्तर्गत दानधर्मपर्वमें दैव और पुरुषार्थका निर्देशविषयक छठा अध्याय पूरा हुआ॥६॥
सूचना (हिन्दी)
(दाक्षिणात्य अधिक पाठके २ श्लोक मिलाकर कुल ५१ श्लोक हैं)