००५ शुकवासवसंवादे

भागसूचना

पञ्चमोऽध्यायः

सूचना (हिन्दी)

स्वामिभक्त एवं दयालु पुरुषकी श्रेष्ठता बतानेके लिये इन्द्र और तोतेके संवादका उल्लेख

मूलम् (वचनम्)

युधिष्ठिर उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

आनृशंस्यस्य धर्मज्ञ गुणान् भक्तजनस्य च।
श्रोतुमिच्छामि धर्मज्ञ तन्मे ब्रूहि पितामह ॥ १ ॥

मूलम्

आनृशंस्यस्य धर्मज्ञ गुणान् भक्तजनस्य च।
श्रोतुमिच्छामि धर्मज्ञ तन्मे ब्रूहि पितामह ॥ १ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

युधिष्ठिरने कहा— धर्मज्ञ पितामह! अब मैं दयालु और भक्त पुरुषोंके गुण सुनना चाहता हूँ; अतः कृपा करके मुझे उनके गुण ही बताइये॥१॥

मूलम् (वचनम्)

भीष्म उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

अत्राप्युदाहरन्तीममितिहासं पुरातनम् ।
वासवस्य च संवादं शुकस्य च महात्मनः ॥ २ ॥

मूलम्

अत्राप्युदाहरन्तीममितिहासं पुरातनम् ।
वासवस्य च संवादं शुकस्य च महात्मनः ॥ २ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

भीष्मजीने कहा— युधिष्ठिर! इस विषयमें भी महामनस्वी तोते और इन्द्रका जो संवाद हुआ था, उस प्राचीन इतिहासका उदाहरण दिया जाता है॥२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

विषये काशिराजस्य ग्रामान्निष्क्रम्य लुब्धकः।
सविषं काण्डमादाय मृगयामास वै मृगम् ॥ ३ ॥

मूलम्

विषये काशिराजस्य ग्रामान्निष्क्रम्य लुब्धकः।
सविषं काण्डमादाय मृगयामास वै मृगम् ॥ ३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

काशिराजके राज्यकी बात है, एक व्याध विषमें बुझाया हुआ बाण लेकर गाँवसे निकला और शिकारके लिये किसी मृगको खोजने लगा॥३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तत्र चामिषलुब्धेन लुब्धकेन महावने।
अविदूरे मृगान् दृष्ट्वा बाणः प्रतिसमाहितः ॥ ४ ॥

मूलम्

तत्र चामिषलुब्धेन लुब्धकेन महावने।
अविदूरे मृगान् दृष्ट्वा बाणः प्रतिसमाहितः ॥ ४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

उस महान् वनमें थोड़ी ही दूर जानेपर मांसलोभी व्याधने कुछ मृगोंको देखा और उनपर बाण चला दिया॥४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तेन दुर्वारितास्त्रेण निमित्तचपलेषुणा ।
महान् वनतरुस्तत्र विद्धो मृगजिघांसया ॥ ५ ॥

मूलम्

तेन दुर्वारितास्त्रेण निमित्तचपलेषुणा ।
महान् वनतरुस्तत्र विद्धो मृगजिघांसया ॥ ५ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

व्याधका वह बाण अमोघ था; परंतु निशाना चूक जानेके कारण मृगको मारनेकी इच्छासे छोड़े गये उस बाणने एक विशाल वृक्षको वेध दिया॥५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

स तीक्ष्णविषदिग्धेन शरेणातिबलात् क्षतः।
उत्सृज्य फलपत्राणि पादपः शोषमागतः ॥ ६ ॥

मूलम्

स तीक्ष्णविषदिग्धेन शरेणातिबलात् क्षतः।
उत्सृज्य फलपत्राणि पादपः शोषमागतः ॥ ६ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

तीखे विषसे पुष्ट हुए उस बाणसे बड़े जोरका आघात लगनेके कारण उस वृक्षमें जहर फैल गया। उसके फल और पत्ते झड़ गये और धीरे-धीरे वह सूखने लगा॥६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तस्मिन् वृक्षे तथाभूते कोटरेषु चिरोषितः।
न जहाति शुको वासं तस्य भक्त्या वनस्पतेः ॥ ७ ॥

मूलम्

तस्मिन् वृक्षे तथाभूते कोटरेषु चिरोषितः।
न जहाति शुको वासं तस्य भक्त्या वनस्पतेः ॥ ७ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

उस वृक्षके खोंखलेमें बहुत दिनोंसे एक तोता निवास करता था। उसका उस वृक्षके प्रति बड़ा प्रेम हो गया था, इसलिये वह उसके सूखनेपर भी वहाँका निवास छोड़ नहीं रहा था॥७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

निष्प्रचारो निराहारो ग्लानः शिथिलवागपि।
कृतज्ञः सह वृक्षेण धर्मात्मा सोऽप्यशुष्यत ॥ ८ ॥

मूलम्

निष्प्रचारो निराहारो ग्लानः शिथिलवागपि।
कृतज्ञः सह वृक्षेण धर्मात्मा सोऽप्यशुष्यत ॥ ८ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

वह धर्मात्मा एवं कृतज्ञ तोता कहीं आता-जाता नहीं था। चारा चुगना भी छोड़ चुका था। वह इतना शिथिल हो गया था कि उससे बोलातक नहीं जाता था। इस प्रकार उस वृक्षके साथ वह स्वयं भी सूखता चला जा रहा था॥८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तमुदारं महासत्त्वमतिमानुषचेष्टितम् ।
समदुःखसुखं दृष्ट्वा विस्मितः पाकशासनः ॥ ९ ॥

मूलम्

तमुदारं महासत्त्वमतिमानुषचेष्टितम् ।
समदुःखसुखं दृष्ट्वा विस्मितः पाकशासनः ॥ ९ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

उसका धैर्य महान् था। उसकी चेष्टा अलौकिक दिखायी देती थी। दुःख और सुखमें समान भाव रखनेवाले उस उदार तोतेको देखकर पाकशासन इन्द्रको बड़ा विस्मय हुआ॥९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

ततश्चिन्तामुपगतः शक्रः कथमयं द्विजः।
तिर्यग्योनावसम्भाव्यमानृशंस्यमवस्थितः ॥ १० ॥

मूलम्

ततश्चिन्तामुपगतः शक्रः कथमयं द्विजः।
तिर्यग्योनावसम्भाव्यमानृशंस्यमवस्थितः ॥ १० ॥

अनुवाद (हिन्दी)

इन्द्र यह सोचने लगे कि यह पक्षी कैसे ऐसी अलौकिक दयाको अपनाये बैठा है, जो पक्षीकी योनिमें प्रायः असम्भव है॥१०॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अथवा नात्र चित्रं हि अभवद् वासवस्य तु।
प्राणिनामपि सर्वेषां सर्वं सर्वत्र दृश्यते ॥ ११ ॥

मूलम्

अथवा नात्र चित्रं हि अभवद् वासवस्य तु।
प्राणिनामपि सर्वेषां सर्वं सर्वत्र दृश्यते ॥ ११ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

अथवा इसमें कोई आश्चर्यकी बात नहीं है; क्योंकि सब जगह सब प्राणियोंमें सब तरहकी बातें देखनेमें आती हैं—ऐसी भावना मनमें लानेपर इन्द्रका मन शान्त हुआ॥११॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

ततो ब्राह्मणवेषेण मानुषं रूपमास्थितः।
अवतीर्य महीं शक्रस्तं पक्षिणमुवाच ह ॥ १२ ॥

मूलम्

ततो ब्राह्मणवेषेण मानुषं रूपमास्थितः।
अवतीर्य महीं शक्रस्तं पक्षिणमुवाच ह ॥ १२ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

तदनन्तर वे ब्राह्मणके वेशमें मनुष्यका रूप धारण करके पृथ्वीपर उतरे और उस शुक पक्षीसे बोले—॥१२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

शुक भो पक्षिणां श्रेष्ठ दाक्षेयी सुप्रजा त्वया।
पृच्छे त्वां शुकमेनं त्वं कस्मान्न त्यजसि द्रुमम् ॥ १३ ॥

मूलम्

शुक भो पक्षिणां श्रेष्ठ दाक्षेयी सुप्रजा त्वया।
पृच्छे त्वां शुकमेनं त्वं कस्मान्न त्यजसि द्रुमम् ॥ १३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘पक्षियोंमें श्रेष्ठ शुक! तुम्हें पाकर दक्षकी दौहित्री शुकी उत्तम संतानवाली हुई है। मैं तुमसे पूछता हूँ कि अब इस वृक्षको क्यों नहीं छोड़ देते हो?’॥१३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अथ पृष्टः शुकः प्राह मूर्ध्ना समभिवाद्य तम्।
स्वागतं देवराज त्वं विज्ञातस्तपसा मया ॥ १४ ॥

मूलम्

अथ पृष्टः शुकः प्राह मूर्ध्ना समभिवाद्य तम्।
स्वागतं देवराज त्वं विज्ञातस्तपसा मया ॥ १४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

उनके इस प्रकार पूछनेपर शुकने मस्तक नवाकर उन्हें प्रणाम किया और कहा—‘देवराज! आपका स्वागत है। मैंने तपस्याके बलसे आपको पहचान लिया है’॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

ततो दशशताक्षेण साधु साध्विति भाषितम्।
अहो विज्ञानमित्येवं मनसा पूजितस्ततः ॥ १५ ॥

मूलम्

ततो दशशताक्षेण साधु साध्विति भाषितम्।
अहो विज्ञानमित्येवं मनसा पूजितस्ततः ॥ १५ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

यह सुनकर सहस्रनेत्रधारी इन्द्रने मन-ही-मन कहा—‘वाह! वाह! क्या अद्‌भुत विज्ञान है!’ ऐसा कहकर उन्होंने मनसे ही उसका आदर किया॥१५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तमेवं शुभकर्माणं शुकं परमधार्मिकम्।
विजानन्नपि तां प्रीतिं पप्रच्छ बलसूदनः ॥ १६ ॥

मूलम्

तमेवं शुभकर्माणं शुकं परमधार्मिकम्।
विजानन्नपि तां प्रीतिं पप्रच्छ बलसूदनः ॥ १६ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘वृक्षके प्रति इस तोतेका कितना प्रेम है’ इस बातको जानते हुए भी बलसूदन इन्द्रने शुभकर्म करनेवाले उस परम धर्मात्मा शुकसे पूछा—॥१६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

निष्पत्रमफलं शुष्कमशरण्यं पतत्रिणाम् ।
किमर्थं सेवसे वृक्षं यदा महदिदं वनम् ॥ १७ ॥

मूलम्

निष्पत्रमफलं शुष्कमशरण्यं पतत्रिणाम् ।
किमर्थं सेवसे वृक्षं यदा महदिदं वनम् ॥ १७ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘शुक! इस वृक्षके पत्ते झड़ गये, फल भी नहीं रहे। यह सूख जानेके कारण पक्षियोंके बसेरे लेने योग्य नहीं रह गया है। जब यह विशाल वन पड़ा हुआ है तब तुम इस ठूँठ वृक्षका सेवन किसलिये करते हो?॥१७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अन्येऽपि बहवो वृक्षाः पत्रसंच्छन्नकोटराः।
शुभाः पर्याप्तसंचारा विद्यन्तेऽस्मिन् महावने ॥ १८ ॥

मूलम्

अन्येऽपि बहवो वृक्षाः पत्रसंच्छन्नकोटराः।
शुभाः पर्याप्तसंचारा विद्यन्तेऽस्मिन् महावने ॥ १८ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘इस विशाल वनमें और भी बहुत-से वृक्ष हैं जिनके खोखले हरे-हरे पत्तोंसे आच्छादित हैं, जो सुन्दर हैं तथा जिनपर पक्षियोंके संचारके लिये योग्य पर्याप्त स्थान हैं॥१८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

गतायुषमसामर्थ्यं क्षीणसारं हतश्रियम् ।
विमृश्य प्रज्ञया धीर जहीमं स्थविरं द्रुमम् ॥ १९ ॥

मूलम्

गतायुषमसामर्थ्यं क्षीणसारं हतश्रियम् ।
विमृश्य प्रज्ञया धीर जहीमं स्थविरं द्रुमम् ॥ १९ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘धीर शुक! इस वृक्षकी आयु समाप्त हो गयी, शक्ति नष्ट हो गयी। इसका सार क्षीण हो गया और इसकी शोभा भी छिन गयी। अपनी बुद्धिके द्वारा इन सब बातोंपर विचार करके अब इस बूढ़े वृक्षको त्याग दो’॥१९॥

मूलम् (वचनम्)

भीष्म उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

तदुपश्रुत्य धर्मात्मा शुकः शक्रेण भाषितम्।
सुदीर्घमतिनिःश्वस्य दीनो वाक्यमुवाच ह ॥ २० ॥

मूलम्

तदुपश्रुत्य धर्मात्मा शुकः शक्रेण भाषितम्।
सुदीर्घमतिनिःश्वस्य दीनो वाक्यमुवाच ह ॥ २० ॥

अनुवाद (हिन्दी)

भीष्मजी कहते हैं— राजन्! इन्द्रकी यह बात सुनकर धर्मात्मा शुकने लंबी साँस खींचकर दीनभावसे यह बात कही—॥२०॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अनतिक्रमणीयानि दैवतानि शचीपते ।
यत्राभवत् तव प्रश्नस्तन्निबोध सुराधिप ॥ २१ ॥

मूलम्

अनतिक्रमणीयानि दैवतानि शचीपते ।
यत्राभवत् तव प्रश्नस्तन्निबोध सुराधिप ॥ २१ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘शचीवल्लभ! दैवका उल्लंघन नहीं किया जा सकता। देवराज! जिसके विषयमें आपने प्रश्न किया है, उसकी बात सुनिये॥२१॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अस्मिन्नहं द्रुमे जातः साधुभिश्च गुणैर्युतः।
बालभावेन संगुप्तः शत्रुभिश्च न धर्षितः ॥ २२ ॥

मूलम्

अस्मिन्नहं द्रुमे जातः साधुभिश्च गुणैर्युतः।
बालभावेन संगुप्तः शत्रुभिश्च न धर्षितः ॥ २२ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘मैंने इसी वृक्षपर जन्म लिया और यहीं रहकर अच्छे-अच्छे गुण सीखे हैं। इस वृक्षने अपने बालककी भाँति मुझे सुरक्षित रखा और मेरे ऊपर शत्रुओंका आक्रमण नहीं होने दिया।’॥२२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

किमनुक्रोश्य वैफल्यमुत्पादयसि मेऽनघ ।
आनृशंस्याभियुक्तस्य भक्तस्यानन्यगस्य च ॥ २३ ॥

मूलम्

किमनुक्रोश्य वैफल्यमुत्पादयसि मेऽनघ ।
आनृशंस्याभियुक्तस्य भक्तस्यानन्यगस्य च ॥ २३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘निष्पाप देवेन्द्र! इन्हीं सब कारणोंसे मेरी इस वृक्षके प्रति भक्ति है। मैं दयारूपी धर्मके पालनमें लगा हूँ और यहाँसे अन्यत्र नहीं जाना चाहता। ऐसी दशामें आप कृपा करके मेरी सद्‌भावनाको व्यर्थ बनानेकी चेष्टा क्यों करते हैं?’॥२३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अनुक्रोशो हि साधूनां महद्धर्मस्य लक्षणम्।
अनुक्रोशश्च साधूनां सदा प्रीतिं प्रयच्छति ॥ २४ ॥

मूलम्

अनुक्रोशो हि साधूनां महद्धर्मस्य लक्षणम्।
अनुक्रोशश्च साधूनां सदा प्रीतिं प्रयच्छति ॥ २४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘श्रेष्ठ पुरुषोंके लिये दूसरोंपर दया करना ही महान् धर्मका सूचक है। दयाभाव श्रेष्ठ पुरुषोंको सदा ही आनन्द प्रदान करता है॥२४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

त्वमेव दैवतैः सर्वैः पृच्छ्यसे धर्मसंशयात्।
अतस्त्वं देवदेवानामाधिपत्ये प्रतिष्ठितः ॥ २५ ॥

मूलम्

त्वमेव दैवतैः सर्वैः पृच्छ्यसे धर्मसंशयात्।
अतस्त्वं देवदेवानामाधिपत्ये प्रतिष्ठितः ॥ २५ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘धर्मके विषयमें संशय होनेपर सब देवता आपसे ही अपना संदेह पूछते हैं। इसीलिये आप देवाधिदेवोंके अधिपति पदपर प्रतिष्ठित हैं॥२५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

नार्हसे मां सहस्राक्ष द्रुमं त्याजयितुं चिरात्।
समर्थमुपजीव्येमं त्यजेयं कथमद्य वै ॥ २६ ॥

मूलम्

नार्हसे मां सहस्राक्ष द्रुमं त्याजयितुं चिरात्।
समर्थमुपजीव्येमं त्यजेयं कथमद्य वै ॥ २६ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘सहस्राक्ष! आप इस वृक्षको मुझसे छुड़ानेके लिये प्रयत्न न कीजिये। जब यह समर्थ था तब मैंने दीर्घकालसे इसीके आश्रयमें रहकर जीवन धारण किया है और आज जब यह शक्तिहीन हो गया तब इसे छोड़कर चल दूँ—यह कैसे हो सकता है?’॥२६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तस्य वाक्येन सौम्येन हर्षितः पाकशासनः।
शुकं प्रोवाच धर्मात्मा आनृशंस्येन तोषितः ॥ २७ ॥

मूलम्

तस्य वाक्येन सौम्येन हर्षितः पाकशासनः।
शुकं प्रोवाच धर्मात्मा आनृशंस्येन तोषितः ॥ २७ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

तोतेकी इस कोमल वाणीसे पाकशासन इन्द्रको बड़ी प्रसन्नता हुई। धर्मात्मा देवेन्द्रने शुककी दयालुतासे संतुष्ट हो उससे कहा—॥२७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

वरं वृणीष्वेति तदा स च वव्रे वरं शुकः।
आनृशंस्यपरो नित्यं तस्य वृक्षस्य सम्भवम् ॥ २८ ॥

मूलम्

वरं वृणीष्वेति तदा स च वव्रे वरं शुकः।
आनृशंस्यपरो नित्यं तस्य वृक्षस्य सम्भवम् ॥ २८ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘शुक! तुम मुझसे कोई वर माँगो।’ तब दयापरायण शुकने यह वर माँगा कि ‘यह वृक्ष पहलेकी ही भाँति हरा-भरा हो जाय’॥२८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

विदित्वा च दृढां भक्तिं तां शुके शीलसम्पदम्।
प्रीतः क्षिप्रमथो वृक्षममृतेनावसिक्तवान् ॥ २९ ॥

मूलम्

विदित्वा च दृढां भक्तिं तां शुके शीलसम्पदम्।
प्रीतः क्षिप्रमथो वृक्षममृतेनावसिक्तवान् ॥ २९ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

तोतेकी इस सुदृढ़ भक्ति और शील-सम्पत्तिको जानकर इन्द्रको और भी प्रसन्नता हुई। उन्होंने तुरंत ही उस वृक्षको अमृतसे सींच दिया॥२९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

ततः फलानि पत्राणि शाखाश्चापि मनोहराः।
शुकस्य दृढभक्तित्वात् श्रीमत्तां प्राप स द्रुमः ॥ ३० ॥

मूलम्

ततः फलानि पत्राणि शाखाश्चापि मनोहराः।
शुकस्य दृढभक्तित्वात् श्रीमत्तां प्राप स द्रुमः ॥ ३० ॥

अनुवाद (हिन्दी)

फिर तो उसमें नये-नये पत्ते, फल और मनोहर शाखाएँ निकल आयीं। तोतेकी दृढ़भक्तिके कारण वह वृक्ष पूर्ववत् श्रीसम्पन्न हो गया॥३०॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

शुकश्च कर्मणा तेन आनृशंस्यकृतेन वै।
आयुषोऽन्ते महाराज प्राप शक्रसलोकताम् ॥ ३१ ॥

मूलम्

शुकश्च कर्मणा तेन आनृशंस्यकृतेन वै।
आयुषोऽन्ते महाराज प्राप शक्रसलोकताम् ॥ ३१ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

महाराज! वह शुक भी आयु समाप्त होनेपर अपने उस दयापूर्ण बर्तावके कारण इन्द्रलोकको प्राप्त हुआ॥३१॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

एवमेव मनुष्येन्द्र भक्तिमन्तं समाश्रितः।
सर्वार्थसिद्धिं लभते शुकं प्राप्य यथा द्रुमः ॥ ३२ ॥

मूलम्

एवमेव मनुष्येन्द्र भक्तिमन्तं समाश्रितः।
सर्वार्थसिद्धिं लभते शुकं प्राप्य यथा द्रुमः ॥ ३२ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

नरेन्द्र! जैसे भक्तिमान् शुकका सहवास पाकर उस वृक्षने सम्पूर्ण मनोरथोंकी सिद्धि प्राप्त कर ली, उसी प्रकार अपनेमें भक्ति रखनेवाले पुरुषका सहारा पाकर प्रत्येक मनुष्य अपनी सम्पूर्ण कामनाएँ सिद्ध कर लेता है॥३२॥

मूलम् (समाप्तिः)

इति श्रीमहाभारते अनुशासनपर्वणि दानधर्मपर्वणि शुकवासवसंवादे पञ्चमोऽध्यायः ॥ ५ ॥

मूलम् (वचनम्)

इस प्रकार श्रीमहाभारत अनुशासनपर्वके अन्तर्गत दानधर्मपर्वमें शुक और इन्द्रका संवादविषयक पाँचवाँ अध्याय पूरा हुआ॥५॥