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॥ ॐ श्रीपरमात्मने नमः ॥
सूचना (हिन्दी)
श्रीमहाभारतम्
भागसूचना
अनुशासनपर्व
दानधर्मपर्व
प्रथमोऽध्यायः
सूचना (हिन्दी)
युधिष्ठिरको सान्त्वना देनेके लिये भीष्मजीके द्वारा गौतमी ब्राह्मणी, व्याध, सर्प, मृत्यु और कालके संवादका वर्णन
विश्वास-प्रस्तुतिः
नारायणं नमस्कृत्य नरं चैव नरोत्तमम्।
देवीं सरस्वतीं व्यासं ततो जयमुदीरयेत्॥
मूलम्
नारायणं नमस्कृत्य नरं चैव नरोत्तमम्।
देवीं सरस्वतीं व्यासं ततो जयमुदीरयेत्॥
अनुवाद (हिन्दी)
अन्तर्यामी नारायणस्वरूप भगवान् श्रीकृष्ण, (उनके नित्य सखा) नरस्वरूप नरश्रेष्ठ अर्जुन, (उनकी लीला प्रकट करनेवाली) भगवती सरस्वती और (उन लीलाओंका संकलन करनेवाले) महर्षि वेदव्यासको नमस्कार करके जय (महाभारत) का पाठ करना चाहिये॥
मूलम् (वचनम्)
युधिष्ठिर उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
शमो बहुविधाकारः सूक्ष्म उक्तः पितामह।
न च मे हृदये शान्तिरस्ति श्रुत्वेदमीदृशम् ॥ १ ॥
मूलम्
शमो बहुविधाकारः सूक्ष्म उक्तः पितामह।
न च मे हृदये शान्तिरस्ति श्रुत्वेदमीदृशम् ॥ १ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
युधिष्ठिरने कहा— पितामह! आपने नाना प्रकारसे शान्तिके सूक्ष्म स्वरूपका (शोकसे मुक्त होनेके विविध उपायोंका) वर्णन किया; परंतु आपका यह ऐसा उपदेश सुनकर भी मेरे हृदयमें शान्ति नहीं है॥१॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अस्मिन्नर्थे बहुविधा शान्तिरुक्ता पितामह।
स्वकृते का नु शान्तिः स्याच्छमाद् बहुविधादपि ॥ २ ॥
मूलम्
अस्मिन्नर्थे बहुविधा शान्तिरुक्ता पितामह।
स्वकृते का नु शान्तिः स्याच्छमाद् बहुविधादपि ॥ २ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
दादाजी! आपने इस विषयमें शान्तिके बहुत-से उपाय बताये, परंतु इन नाना प्रकारके शान्तिदायक उपायोंको सुनकर भी स्वयं ही किये गये अपराधसे मनको शान्ति कैसे प्राप्त हो सकती है॥२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
शराचितशरीरं हि तीव्रव्रणमुदीक्ष्य च।
शर्म नोपलभे वीर दुष्कृतान्येव चिन्तयन् ॥ ३ ॥
मूलम्
शराचितशरीरं हि तीव्रव्रणमुदीक्ष्य च।
शर्म नोपलभे वीर दुष्कृतान्येव चिन्तयन् ॥ ३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
वीरवर! बाणोंसे भरे हुए आपके शरीर और इसके गहरे घावको देखकर मैं बार-बार अपने पापोंका ही चिन्तन करता हूँ; अतः मुझे तनिक भी चैन नहीं मिलता है॥३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
रुधिरेणावसिक्ताङ्गं प्रस्रवन्तं यथाचलम् ।
त्वां दृष्ट्वा पुरुषव्याघ्र सीदे वर्षास्विवाम्बुजम् ॥ ४ ॥
मूलम्
रुधिरेणावसिक्ताङ्गं प्रस्रवन्तं यथाचलम् ।
त्वां दृष्ट्वा पुरुषव्याघ्र सीदे वर्षास्विवाम्बुजम् ॥ ४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
पुरुषसिंह! पर्वतसे गिरनेवाले झरनेकी तरह आपके शरीरसे रक्तकी धारा बह रही है—आपके सारे अङ्ग खूनसे लथपथ हो रहे हैं। इस अवस्थामें आपको देखकर मैं वर्षाकालके कमलकी तरह गला (दुःखित होता) जाता हूँ॥४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अतः कष्टतरं किं नु मत्कृते यत् पितामहः।
इमामवस्थां गमितः प्रत्यमित्रै रणाजिरे ॥ ५ ॥
मूलम्
अतः कष्टतरं किं नु मत्कृते यत् पितामहः।
इमामवस्थां गमितः प्रत्यमित्रै रणाजिरे ॥ ५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
मेरे ही कारण समराङ्गणमें शत्रुओंने जो पितामहको इस अवस्थामें पहुँचा दिया, इससे बढ़कर कष्टकी बात और क्या हो सकती है?॥५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तथा चान्ये नृपतयः सहपुत्राः सबान्धवाः।
मत्कृते निधनं प्राप्ताः किं नु कष्टतरं ततः ॥ ६ ॥
मूलम्
तथा चान्ये नृपतयः सहपुत्राः सबान्धवाः।
मत्कृते निधनं प्राप्ताः किं नु कष्टतरं ततः ॥ ६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
आपके सिवा और भी बहुत-से नरेश मेरे ही कारण अपने पुत्रों और बान्धवोंसहित युद्धमें मारे गये हैं। इससे बढ़कर दुःखकी बात और क्या होगी?॥६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
वयं हि धार्तराष्ट्राश्च कालमन्युवशंगताः।
कृत्वेदं निन्दितं कर्म प्राप्स्यामः कां गतिं नृप ॥ ७ ॥
मूलम्
वयं हि धार्तराष्ट्राश्च कालमन्युवशंगताः।
कृत्वेदं निन्दितं कर्म प्राप्स्यामः कां गतिं नृप ॥ ७ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
नरेश्वर! हम पाण्डव और धृतराष्ट्रके सभी पुत्र काल और क्रोधके वशीभूत हो यह निन्दित कर्म करके न जाने किस दुर्गतिको प्राप्त होंगे!॥७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
इदं तु धार्तराष्ट्रस्य श्रेयो मन्ये जनाधिप।
इमामवस्थां सम्प्राप्तं यदसौ त्वां न पश्यति ॥ ८ ॥
मूलम्
इदं तु धार्तराष्ट्रस्य श्रेयो मन्ये जनाधिप।
इमामवस्थां सम्प्राप्तं यदसौ त्वां न पश्यति ॥ ८ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
नरेश्वर! मैं राजा दुर्योधनके लिये उसकी मृत्युको श्रेष्ठ समझता हूँ, जिससे कि वह आपको इस अवस्थामें पड़ा हुआ नहीं देखता है॥८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
सोऽहं तव ह्यन्तकरः सुहृद्वधकरस्तथा।
न शान्तिमधिगच्छामि पश्यंस्त्वां दुःखितं क्षितौ ॥ ९ ॥
मूलम्
सोऽहं तव ह्यन्तकरः सुहृद्वधकरस्तथा।
न शान्तिमधिगच्छामि पश्यंस्त्वां दुःखितं क्षितौ ॥ ९ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
मैं ही आपके जीवनका अन्त करनेवाला हूँ और मैं ही दूसरे-दूसरे सुहृदोंका भी वध करनेवाला हूँ। आपको इस दुःखमयी दुरवस्थामें भूमिपर पड़ा देख मुझे शान्ति नहीं मिलती है॥९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
दुर्योधनो हि समरे सहसैन्यः सहानुजः।
निहतः क्षत्रधर्मेऽस्मिन् दुरात्मा कुलपांसनः ॥ १० ॥
मूलम्
दुर्योधनो हि समरे सहसैन्यः सहानुजः।
निहतः क्षत्रधर्मेऽस्मिन् दुरात्मा कुलपांसनः ॥ १० ॥
अनुवाद (हिन्दी)
दुरात्मा एवं कुलाङ्गार दुर्योधन सेना और बन्धुओं सहित क्षत्रियधर्मके अनुसार होनेवाले इस युद्धमें मारा गया॥१०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
न स पश्यति दुष्टात्मा त्वामद्य पतितं क्षितौ।
अतः श्रेयो मृतं मन्ये नेह जीवितमात्मनः ॥ ११ ॥
मूलम्
न स पश्यति दुष्टात्मा त्वामद्य पतितं क्षितौ।
अतः श्रेयो मृतं मन्ये नेह जीवितमात्मनः ॥ ११ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
वह दुष्टात्मा आज आपको इस तरह भूमिपर पड़ा हुआ नहीं देख रहा है, अतः उसकी मृत्युको ही मैं यहाँ श्रेष्ठ मानता हूँ; किन्तु अपने इस जीवनको नहीं॥११॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अहं हि समरे वीर गमितः शत्रुभिः क्षयम्।
अभविष्यं यदि पुरा सह भ्रातृभिरच्युत ॥ १२ ॥
न त्वामेवं सुदुःखार्तमद्राक्षं सायकार्दितम्।
मूलम्
अहं हि समरे वीर गमितः शत्रुभिः क्षयम्।
अभविष्यं यदि पुरा सह भ्रातृभिरच्युत ॥ १२ ॥
न त्वामेवं सुदुःखार्तमद्राक्षं सायकार्दितम्।
अनुवाद (हिन्दी)
अपनी मर्यादासे कभी नीचे न गिरनेवाले वीरवर! यदि भाइयोंसहित मैं शत्रुओंद्वारा पहले ही युद्धमें मार डाला गया होता तो आपको इस प्रकार सायकोंसे पीड़ित और अत्यन्त दुःखसे आतुर अवस्थामें नहीं देखता॥१२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
नूनं हि पापकर्माणो धात्रा सृष्टाः स्म हे नृप॥१३॥
अन्यस्मिन्नपि लोके वै यथा मुच्येम किल्बिषात्।
तथा प्रशाधि मां राजन् मम चेदिच्छसि प्रियम् ॥ १४ ॥
मूलम्
नूनं हि पापकर्माणो धात्रा सृष्टाः स्म हे नृप॥१३॥
अन्यस्मिन्नपि लोके वै यथा मुच्येम किल्बिषात्।
तथा प्रशाधि मां राजन् मम चेदिच्छसि प्रियम् ॥ १४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
नरेश्वर! निश्चय ही विधाताने हमें पापी ही रचा है। राजन्! यदि आप मेरा प्रिय करना चाहते हैं तो मुझे ऐसा उपदेश दीजिये, जिससे परलोकमें भी मुझे इस पापसे छुटकारा मिल सके॥१३-१४॥
मूलम् (वचनम्)
भीष्म उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
परतन्त्रं कथं हेतुमात्मानमनुपश्यसि ।
कर्मणां हि महाभाग सूक्ष्मं ह्येतदतीन्द्रियम् ॥ १५ ॥
मूलम्
परतन्त्रं कथं हेतुमात्मानमनुपश्यसि ।
कर्मणां हि महाभाग सूक्ष्मं ह्येतदतीन्द्रियम् ॥ १५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
भीष्मजी कहते हैं— महाभाग! तुम तो सदा परतन्त्र हो (काल, अदृष्ट और ईश्वरके अधीन हो), फिर अपनेको शुभाशुभ कर्मोंका कारण क्यों समझते हो? वास्तवमें कर्मोंका कारण क्या है, यह विषय अत्यन्त सूक्ष्म तथा इन्द्रियोंकी पहुँचसे बाहर है॥१५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अत्राप्युदाहरन्तीममितिहासं पुरातनम् ।
संवादं मृत्युगौतम्योः काललुब्धकपन्नगैः ॥ १६ ॥
मूलम्
अत्राप्युदाहरन्तीममितिहासं पुरातनम् ।
संवादं मृत्युगौतम्योः काललुब्धकपन्नगैः ॥ १६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
इस विषयमें विद्वान् पुरुष गौतमी ब्राह्मणी, व्याध, सर्प, मृत्यु और कालके संवादरूप इस प्राचीन इतिहासका उदाहरण दिया करते हैं॥१६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
गौतमी नाम कौन्तेय स्थविरा शमसंयुता।
सर्पेण दष्टं स्वं पुत्रमपश्यद्गतचेतनम् ॥ १७ ॥
मूलम्
गौतमी नाम कौन्तेय स्थविरा शमसंयुता।
सर्पेण दष्टं स्वं पुत्रमपश्यद्गतचेतनम् ॥ १७ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
कुन्तीनन्दन! पूर्वकालमें गौतमी नामवाली एक बूढ़ी ब्राह्मणी थी, जो शान्तिके साधनमें संलग्न रहती थी। एक दिन उसने देखा, उसके इकलौते बेटेको साँपने डँस लिया और उसकी चेतनाशक्ति लुप्त हो गयी॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अथ तं स्नायुपाशेन बद्ध्वा सर्पममर्षितः।
लुब्धकोऽर्जुनको नाम गौतम्याः समुपानयत् ॥ १८ ॥
मूलम्
अथ तं स्नायुपाशेन बद्ध्वा सर्पममर्षितः।
लुब्धकोऽर्जुनको नाम गौतम्याः समुपानयत् ॥ १८ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
इतनेहीमें अर्जुनक नामवाले एक व्याधने उस साँपको ताँतके फाँसमें बाँध लिया और अमर्षवश वह उसे गौतमीके पास ले आया॥१८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
स चाब्रवीदयं ते स पुत्रहा पन्नगाधमः।
ब्रूहि क्षिप्रं महाभागे वध्यतां केन हेतुना ॥ १९ ॥
मूलम्
स चाब्रवीदयं ते स पुत्रहा पन्नगाधमः।
ब्रूहि क्षिप्रं महाभागे वध्यतां केन हेतुना ॥ १९ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
लाकर उसने कहा—‘महाभागे! यही वह नीच सर्प है, जिसने तुम्हारे पुत्रको मार डाला है। जल्दी बताओ, मैं किस तरह इसका वध करूँ?॥१९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अग्नौ प्रक्षिप्यतामेष च्छिद्यतां खण्डशोऽपि वा।
न ह्ययं बालहा पापश्चिरं जीवितुमर्हति ॥ २० ॥
मूलम्
अग्नौ प्रक्षिप्यतामेष च्छिद्यतां खण्डशोऽपि वा।
न ह्ययं बालहा पापश्चिरं जीवितुमर्हति ॥ २० ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘मैं इसे आगमें झोंक दूँ या इसके टुकड़े-टुकड़े कर डालूँ? बालककी हत्या करनेवाला यह पापी सर्प अब अधिक समयतक जीवित रहने योग्य नहीं है’॥
मूलम् (वचनम्)
गौतम्युवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
विसृजैनमबुद्धिस्त्वमवध्योऽर्जुनक त्वया ।
को ह्यात्मानं गुरुं कुर्यात् प्राप्तव्यमविचिन्तयन् ॥ २१ ॥
मूलम्
विसृजैनमबुद्धिस्त्वमवध्योऽर्जुनक त्वया ।
को ह्यात्मानं गुरुं कुर्यात् प्राप्तव्यमविचिन्तयन् ॥ २१ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
गौतमी बोली— अर्जुनक! छोड़ दे इस सर्पको। तू अभी नादान है। तुझे इस सर्पको नहीं मारना चाहिये। होनहारको कोई टाल नहीं सकता—इस बातको जानते हुए भी इसकी उपेक्षा करके कौन अपने ऊपर पापका भारी बोझ लादेगा?॥२१॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
प्लवन्ते धर्मलघवो लोकेऽम्भसि यथा प्लवाः।
मज्जन्ति पापगुरवः शस्त्रं स्कन्नमिवोदके ॥ २२ ॥
मूलम्
प्लवन्ते धर्मलघवो लोकेऽम्भसि यथा प्लवाः।
मज्जन्ति पापगुरवः शस्त्रं स्कन्नमिवोदके ॥ २२ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
संसारमें धर्माचरण करके जो अपनेको हलके रखते हैं (अपने ऊपर पापका भारी बोझ नहीं लादते हैं), वे पानीके ऊपर चलनेवाली नौकाके समान भवसागरसे पार हो जाते हैं; परंतु जो पापके बोझसे अपनेको बोझिल बना लेते हैं, वे जलमें फेंके हुए हथियारकी भाँति नरक-समुद्रमें डूब जाते हैं॥२२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
हत्वा चैनं नामृतः स्यादयं मे
जीवत्यस्मिन् कोऽत्ययःस्यादयं ते ।
अस्योत्सर्गे प्राणयुक्तस्य जन्तो-
र्मृत्योर्लोकं को नु गच्छेदनन्तम् ॥ २३ ॥
मूलम्
हत्वा चैनं नामृतः स्यादयं मे
जीवत्यस्मिन् कोऽत्ययःस्यादयं ते ।
अस्योत्सर्गे प्राणयुक्तस्य जन्तो-
र्मृत्योर्लोकं को नु गच्छेदनन्तम् ॥ २३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
इसको मार डालनेसे मेरा यह पुत्र जीवित नहीं हो सकता और इस सर्पके जीवित रहनेपर भी तुम्हारी क्या हानि हो सकती है? ऐसी दशामें इस जीवित प्राणीके प्राणोंका नाश करके कौन यमराजके अनन्त लोकमें जाय?॥२३॥
मूलम् (वचनम्)
लुब्धक उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
जानाम्यहं देवि गुणागुणज्ञे
सर्वार्तियुक्ता गुरवो भवन्ति ।
स्वस्थस्यैते तूपदेशा भवन्ति
तस्मात् क्षुद्रं सर्पमेनं हनिष्ये ॥ २४ ॥
मूलम्
जानाम्यहं देवि गुणागुणज्ञे
सर्वार्तियुक्ता गुरवो भवन्ति ।
स्वस्थस्यैते तूपदेशा भवन्ति
तस्मात् क्षुद्रं सर्पमेनं हनिष्ये ॥ २४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
व्याधने कहा— गुण और अवगुणको जाननेवाली देवि! मैं जानता हूँ कि बड़े-बूढ़े लोग किसी भी प्राणीको कष्टमें पड़ा देख इसी तरह दुःखी हो जाते हैं। परंतु ये उपदेश तो स्वस्थ पुरुषके लिये हैं (दुःखी मनुष्यके मनपर इनका कोई प्रभाव नहीं पड़ता)। अतः मैं इस नीच सर्पको अवश्य मार डालूँगा॥२४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
शमार्थिनः कालगतिं वदन्ति
सद्यः शुचं त्वर्थविदस्त्यजन्ति ।
श्रेयःक्षयं शोचति नित्यमोहात्
तस्माच्छुचं मुञ्च हते भुजङ्गे ॥ २५ ॥
मूलम्
शमार्थिनः कालगतिं वदन्ति
सद्यः शुचं त्वर्थविदस्त्यजन्ति ।
श्रेयःक्षयं शोचति नित्यमोहात्
तस्माच्छुचं मुञ्च हते भुजङ्गे ॥ २५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
शान्ति चाहनेवाले पुरुष कालकी गति बताते हैं (अर्थात् कालने ही इसका नाश कर दिया है, ऐसा कहते हुए शोकका त्याग करके संतोष धारण करते हैं)। परंतु जो अर्थवेत्ता हैं—बदला लेना जानते हैं, वे शत्रुका नाश करके तुरंत ही शोक छोड़ देते हैं। दूसरे लोग श्रेयका नाश होनेपर मोहवश सदा उसके लिये शोक करते रहते हैं; अतः इस शत्रुभूत सर्पके मारे जानेपर तुम भी तत्काल ही अपने पुत्र-शोकको त्याग देना॥२५॥
मूलम् (वचनम्)
गौतम्युवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
आर्तिर्नैवं विद्यतेऽस्मद्विधानां
धर्मात्मानः सर्वदा सज्जना हि।
नित्यायस्तो बालकोऽप्यस्य तस्मा-
दीशे नाहं पन्नगस्य प्रमाथे ॥ २६ ॥
मूलम्
आर्तिर्नैवं विद्यतेऽस्मद्विधानां
धर्मात्मानः सर्वदा सज्जना हि।
नित्यायस्तो बालकोऽप्यस्य तस्मा-
दीशे नाहं पन्नगस्य प्रमाथे ॥ २६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
गौतमी बोली— अर्जुनक! हम-जैसे लोगोंको कभी किसी तरहकी हानिसे भी पीड़ा नहीं होती। धर्मात्मा सज्जन पुरुष सदा धर्ममें ही लगे रहते हैं। मेरा यह बालक सर्वथा मरनेहीवाला था; इसलिये मैं इस सर्पको मारनेमें असमर्थ हूँ॥२६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
न ब्राह्मणानां कोपोऽस्ति कुतः कोपाच्च यातनाम्।
मार्दवात् क्षम्यतां साधो मुच्यतामेष पन्नगः ॥ २७ ॥
मूलम्
न ब्राह्मणानां कोपोऽस्ति कुतः कोपाच्च यातनाम्।
मार्दवात् क्षम्यतां साधो मुच्यतामेष पन्नगः ॥ २७ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
ब्राह्मणोंको क्रोध नहीं होता; फिर वे क्रोधवश दूसरोंको पीड़ा कैसे दे सकते हैं; अतः साधो! तू भी कोमलताका आश्रय लेकर इस सर्पके अपराधको क्षमा कर और इसे छोड़ दे॥२७॥
मूलम् (वचनम्)
लुब्धक उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
हत्वा लाभः श्रेय एवाव्ययः स्या-
ल्लभ्यो लाभ्यः स्याद् बलिभ्यः प्रशस्तः।
कालाल्लाभो यस्तु सत्यो भवेत
श्रेयोलाभः कुत्सितेऽस्मिन्न ते स्यात् ॥ २८ ॥
मूलम्
हत्वा लाभः श्रेय एवाव्ययः स्या-
ल्लभ्यो लाभ्यः स्याद् बलिभ्यः प्रशस्तः।
कालाल्लाभो यस्तु सत्यो भवेत
श्रेयोलाभः कुत्सितेऽस्मिन्न ते स्यात् ॥ २८ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
व्याधने कहा— देवि! इस सर्पको मार डालनेसे जो बहुतोंका भला होगा, यही अक्षय लाभ है। बलवानोंसे बलपूर्वक लाभ उठाना ही उत्तम लाभ है। कालसे जो लाभ होता है वही सच्चा लाभ है। इस नीच सर्पके जीवित रहनेसे तुम्हें कोई श्रेय नहीं मिल सकता॥२८॥
मूलम् (वचनम्)
गौतम्युवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
का नु प्राप्तिर्गृह्य शत्रुं निहत्य
का कामाप्तिः प्राप्य शत्रुं न मुक्त्वा।
कस्मात् सौम्याहं न क्षमे नो भुजङ्गे
मोक्षार्थं वा कस्य हेतोर्न कुर्याम् ॥ २९ ॥
मूलम्
का नु प्राप्तिर्गृह्य शत्रुं निहत्य
का कामाप्तिः प्राप्य शत्रुं न मुक्त्वा।
कस्मात् सौम्याहं न क्षमे नो भुजङ्गे
मोक्षार्थं वा कस्य हेतोर्न कुर्याम् ॥ २९ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
गौतमी बोली— अर्जुनक! शत्रुको कैद करके उसे मार डालनेसे क्या लाभ होता है; तथा शत्रुको अपने हाथमें पाकर उसे न छोड़नेसे किस अभीष्ट मनोरथकी प्राप्ति हो जाती है? सौम्य! क्या कारण है कि मैं इस सर्पके अपराधको क्षमा न करूँ? तथा किसलिये इसको छुटकारा दिलानेका प्रयत्न न करूँ?॥२९॥
मूलम् (वचनम्)
लुब्धक उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
अस्मादेकाद् बहवो रक्षितव्या
नैको बहुभ्यो गौतमि रक्षितव्यः।
कृतागसं धर्मविदस्त्यजन्ति
सरीसृपं पापमिमं जहि त्वम् ॥ ३० ॥
मूलम्
अस्मादेकाद् बहवो रक्षितव्या
नैको बहुभ्यो गौतमि रक्षितव्यः।
कृतागसं धर्मविदस्त्यजन्ति
सरीसृपं पापमिमं जहि त्वम् ॥ ३० ॥
अनुवाद (हिन्दी)
व्याधने कहा— गौतमी! इस एक सर्पसे बहुतेरे मनुष्योंके जीवनकी रक्षा करनी चाहिये। (क्योंकि यदि यह जीवित रहा तो बहुतोंको काटेगा।) अनेकोंकी जान लेकर एककी रक्षा करना कदापि उचित नहीं है। धर्मज्ञ पुरुष अपराधीको त्याग देते हैं; इसलिये तुम भी इस पापी सर्पको मार डालो॥३०॥
मूलम् (वचनम्)
गौतम्युवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
नास्मिन् हते पन्नगे पुत्रको मे
सम्प्राप्स्यते लुब्धक जीवितं वै।
गुणं चान्यं नास्य वधे प्रपश्ये
तस्मात् सर्पं लुब्धक मुञ्च जीवम् ॥ ३१ ॥
मूलम्
नास्मिन् हते पन्नगे पुत्रको मे
सम्प्राप्स्यते लुब्धक जीवितं वै।
गुणं चान्यं नास्य वधे प्रपश्ये
तस्मात् सर्पं लुब्धक मुञ्च जीवम् ॥ ३१ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
गौतमी बोली— व्याध! इस सर्पके मारे जानेपर मेरा पुत्र पुनः जीवन प्राप्त कर लेगा, ऐसी बात नहीं है। इसका वध करनेसे दूसरा कोई लाभ भी मुझे नहीं दिखायी देता है। इसलिये इस सर्पको तुम जीवित छोड़ दो॥३१॥
मूलम् (वचनम्)
लुब्धक उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
वृत्रं हत्वा देवराट् श्रेष्ठभाग् वै
यज्ञं हत्वा भागमवाप चैव।
शूली देवो देववृत्तं चर त्वं
क्षिप्रं सर्पं जहि मा भूत् ते विशङ्का ॥ ३२ ॥
मूलम्
वृत्रं हत्वा देवराट् श्रेष्ठभाग् वै
यज्ञं हत्वा भागमवाप चैव।
शूली देवो देववृत्तं चर त्वं
क्षिप्रं सर्पं जहि मा भूत् ते विशङ्का ॥ ३२ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
व्याधने कहा— देवि! वृत्रासुरका वध करके देवराज इन्द्र श्रेष्ठ पदके भागी हुए और त्रिशूलधारी रुद्रदेवने दक्षके यज्ञका विध्वंस करके उसमें अपने लिये भाग प्राप्त किया। तुम भी देवताओंद्वारा किये गये इस बर्तावका ही पालन करो। इस सर्पको शीघ्र ही मार डालो। इस कार्यमें तुम्हें शंका नहीं करनी चाहिये॥३२॥
मूलम् (वचनम्)
भीष्म उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
असकृत् प्रोच्यमानापि गौतमी भुजगं प्रति।
लुब्धकेन महाभागा पापे नैवाकरोन्मतिम् ॥ ३३ ॥
मूलम्
असकृत् प्रोच्यमानापि गौतमी भुजगं प्रति।
लुब्धकेन महाभागा पापे नैवाकरोन्मतिम् ॥ ३३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
भीष्मजी कहते हैं— राजन्! व्याधके बार-बार कहने और उकसानेपर भी महाभागा गौतमीने सर्पको मारनेका विचार नहीं किया॥३३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ईषदुच्छ्वसमानस्तु कृच्छ्रात् संस्तभ्य पन्नगः।
उत्ससर्ज गिरं मन्दां मानुषीं पाशपीडितः ॥ ३४ ॥
मूलम्
ईषदुच्छ्वसमानस्तु कृच्छ्रात् संस्तभ्य पन्नगः।
उत्ससर्ज गिरं मन्दां मानुषीं पाशपीडितः ॥ ३४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
उस समय बन्धनसे पीड़ित होकर धीरे-धीरे साँस लेता हुआ वह साँप बड़ी कठिनाईसे अपनेको सँभालकर मन्दस्वरसे मनुष्यकी वाणीमें बोला॥३४॥
मूलम् (वचनम्)
सर्प उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
को न्वर्जुनक दोषोऽत्र विद्यते मम बालिश।
अस्वतन्त्रं हि मां मृत्युर्विवशं यदचूचुदत् ॥ ३५ ॥
मूलम्
को न्वर्जुनक दोषोऽत्र विद्यते मम बालिश।
अस्वतन्त्रं हि मां मृत्युर्विवशं यदचूचुदत् ॥ ३५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
सर्पने कहा— ओ नादान अर्जुनक! इसमें मेरा क्या दोष है? मैं तो पराधीन हूँ। मृत्युने मुझे विवश करके इस कार्यके लिये प्रेरित किया था॥३५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तस्यायं वचनाद् दष्टो न कोपेन न काम्यया।
तस्य तत्किल्बिषं लुब्ध विद्यते यदि किल्बिषम् ॥ ३६ ॥
मूलम्
तस्यायं वचनाद् दष्टो न कोपेन न काम्यया।
तस्य तत्किल्बिषं लुब्ध विद्यते यदि किल्बिषम् ॥ ३६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
उसके कहनेसे ही मैंने इस बालकको डँसा है, क्रोधसे और कामनासे नहीं। व्याध! यदि इसमें कुछ अपराध है तो वह मेरा नहीं, मृत्युका है॥३६॥
मूलम् (वचनम्)
लुब्धक उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
यद्यन्यवशगेनेदं कृतं ते पन्नगाशुभम्।
कारणं वै त्वमप्यत्र तस्मात् त्वमपि किल्बिषी ॥ ३७ ॥
मूलम्
यद्यन्यवशगेनेदं कृतं ते पन्नगाशुभम्।
कारणं वै त्वमप्यत्र तस्मात् त्वमपि किल्बिषी ॥ ३७ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
व्याधने कहा— ओ सर्प! यद्यपि तूने दूसरेके अधीन होकर यह पाप किया है तथापि तू भी तो इसमें कारण है ही; इसलिये तू भी अपराधी है॥३७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
मृत्पात्रस्य क्रियायां हि दण्डचक्रादयो यथा।
कारणत्वे प्रकल्प्यन्ते तथा त्वमपि पन्नग ॥ ३८ ॥
मूलम्
मृत्पात्रस्य क्रियायां हि दण्डचक्रादयो यथा।
कारणत्वे प्रकल्प्यन्ते तथा त्वमपि पन्नग ॥ ३८ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
सर्प! जैसे मिट्टीका बर्तन बनाते समय दण्ड और चाक आदिको भी उसमें कारण माना जाता है, उसी प्रकार तू भी इस बालकके वधमें कारण है॥३८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
किल्बिषी चापि मे वध्यः किल्बिषी चासि पन्नग।
आत्मानं कारणं ह्यत्र त्वमाख्यासि भुजङ्गम ॥ ३९ ॥
मूलम्
किल्बिषी चापि मे वध्यः किल्बिषी चासि पन्नग।
आत्मानं कारणं ह्यत्र त्वमाख्यासि भुजङ्गम ॥ ३९ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
भुजंगम! जो भी अपराधी हो, वह मेरे लिये वध्य है; पन्नग! तू भी अपराधी है ही; क्योंकि तू स्वयं अपने आपको इसके वधमें कारण बताता है॥३९॥
मूलम् (वचनम्)
सर्प उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
सर्व एते ह्यस्ववशा दण्डचक्रादयो यथा।
तथाहमपि तस्मान्मे नैष दोषो मतस्तव ॥ ४० ॥
मूलम्
सर्व एते ह्यस्ववशा दण्डचक्रादयो यथा।
तथाहमपि तस्मान्मे नैष दोषो मतस्तव ॥ ४० ॥
अनुवाद (हिन्दी)
सर्पने कहा— व्याध! जैसे मिट्टीका बर्तन बनानेमें ये दण्ड-चक्र आदि सभी कारण पराधीन होते हैं, उसी प्रकार मैं भी मृत्युके अधीन हूँ। इसलिये तुमने जो मुझपर दोष लगाया है, वह ठीक नहीं है॥४०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अथवा मतमेतत्ते तेऽप्यन्योन्यप्रयोजकाः ।
कार्यकारणसंदेहो भवत्यन्योन्यचोदनात् ॥ ४१ ॥
मूलम्
अथवा मतमेतत्ते तेऽप्यन्योन्यप्रयोजकाः ।
कार्यकारणसंदेहो भवत्यन्योन्यचोदनात् ॥ ४१ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
अथवा यदि तुम्हारा यह मत हो कि ये दण्ड-चक्र आदि भी एक-दूसरेके प्रयोजक होते हैं; इसलिये कारण हैं ही। किंतु ऐसा माननेसे एक-दूसरेको प्रेरणा देनेवाला होनेके कारण कार्य-कारणभावके निर्णयमें संदेह हो जाता है॥४१॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
एवं सति न दोषो मे नास्मि वध्यो न किल्बिषी।
किल्विषं समवाये स्यान्मन्यसे यदि किल्बिषम् ॥ ४२ ॥
मूलम्
एवं सति न दोषो मे नास्मि वध्यो न किल्बिषी।
किल्विषं समवाये स्यान्मन्यसे यदि किल्बिषम् ॥ ४२ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
ऐसी दशामें न तो मेरा कोई दोष है और न मैं वध्य अथवा अपराधी ही हूँ। यदि तुम किसीका अपराध समझते हो तो वह सारे कारणोंके समूहपर ही लागू होता है॥४२॥
मूलम् (वचनम्)
लुब्धक उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
कारणं यदि न स्याद् वै न कर्ता स्यास्त्वमप्युत।
विनाशकारणं त्वं च तस्माद् वध्योऽसि मे मतः ॥ ४३ ॥
मूलम्
कारणं यदि न स्याद् वै न कर्ता स्यास्त्वमप्युत।
विनाशकारणं त्वं च तस्माद् वध्योऽसि मे मतः ॥ ४३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
व्याधने कहा— सर्प! यदि मान भी लें कि तू अपराधका न तो कारण है और न कर्ता ही है तो भी इस बालककी मृत्यु तो तेरे ही कारण हुई है, इसलिये मैं तुझे मारने योग्य समझता हूँ॥४३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
असत्यपि कृते कार्ये नेह पन्नग लिप्यते।
तस्मान्नात्रैव हेतुः स्याद् वध्यः किं बहु भाषसे ॥ ४४ ॥
मूलम्
असत्यपि कृते कार्ये नेह पन्नग लिप्यते।
तस्मान्नात्रैव हेतुः स्याद् वध्यः किं बहु भाषसे ॥ ४४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
सर्प! तेरे मतके अनुसार यदि दुष्टतापूर्ण कार्य करके भी कर्ता उस दोषसे लिप्त नहीं होता है, तब तो चोर या हत्यारे आदि जो अपने अपराधोंके कारण राजाओंके यहाँ वध्य होते हैं, उन्हें भी वास्तवमें अपराधी या दोषका भागी नहीं होना चाहिये। (फिर तो पाप और उसका दण्ड भी व्यर्थ ही होगा) अतः तू क्यों बहुत बकवाद कर रहा है॥
मूलम् (वचनम्)
सर्प उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
कार्याभावे क्रिया न स्यात् सत्यसत्यपि कारणे।
तस्मात् समेऽस्मिन् हेतौ मे वाच्यो हेतुर्विशेषतः ॥ ४५ ॥
यद्यहं कारणत्वेन मतो लुब्धक तत्त्वतः।
अन्यः प्रयोगे स्यादत्र किल्बिषी जन्तुनाशने ॥ ४६ ॥
मूलम्
कार्याभावे क्रिया न स्यात् सत्यसत्यपि कारणे।
तस्मात् समेऽस्मिन् हेतौ मे वाच्यो हेतुर्विशेषतः ॥ ४५ ॥
यद्यहं कारणत्वेन मतो लुब्धक तत्त्वतः।
अन्यः प्रयोगे स्यादत्र किल्बिषी जन्तुनाशने ॥ ४६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
सर्पने कहा— व्याध! प्रयोजक (प्रेरक) कर्ता रहे या न रहे, प्रयोज्य कर्ताके बिना क्रिया नहीं होती; इसलिये यहाँ यद्यपि हमलोग (मैं और मृत्यु) समानरूपसे हेतु हैं; तो भी प्रयोजक होनेके कारण मृत्युपर ही विशेषरूपसे यह अपराध लगाया जा सकता है। यदि तुम मुझे इस बालककी मृत्युका वस्तुतः कारण मानते हो तो यह तुम्हारी भूल है। वास्तवमें विचार करनेपर प्रेरणा करनेके कारण दूसरा ही (मृत्यु ही) अपराधी सिद्ध होगा; क्योंकि वही प्राणियोंके विनाशमें अपराधी है॥४५-४६॥
मूलम् (वचनम्)
लुब्धक उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
वध्यस्त्वं मम दुर्बुद्धे बालघाती नृशंसकृत्।
भाषसे किं बहु पुनर्वध्यः सन् पन्नगाधम ॥ ४७ ॥
मूलम्
वध्यस्त्वं मम दुर्बुद्धे बालघाती नृशंसकृत्।
भाषसे किं बहु पुनर्वध्यः सन् पन्नगाधम ॥ ४७ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
व्याधने कहा— खोटी बुद्धिवाले नीच सर्प! तू बालहत्यारा और क्रूरतापूर्ण कर्म करनेवाला है; अतः निश्चय ही मेरे हाथसे वधके योग्य है। तू वध्य होकर भी अपनेको निर्दोष सिद्ध करनेके लिये क्यों बहुत बातें बना रहा है?॥४७॥
मूलम् (वचनम्)
सर्प उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
यथा हवींषि जुह्वाना मखे वै लुब्धकर्त्विजः।
न फलं प्राप्नुवन्त्यत्र फलयोगे तथा ह्यहम् ॥ ४८ ॥
मूलम्
यथा हवींषि जुह्वाना मखे वै लुब्धकर्त्विजः।
न फलं प्राप्नुवन्त्यत्र फलयोगे तथा ह्यहम् ॥ ४८ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
सर्पने कहा— व्याध! जैसे यजमानके यहाँ यज्ञमें ऋत्विज् लोग अग्निमें आहुति डालते हैं; किंतु उसका फल उन्हें नहीं मिलता। इसी प्रकार इस अपराधके फल या दण्डको भोगनेमें मुझे नहीं सम्मिलित करना चाहिये (क्योंकि वास्तवमें मृत्यु ही अपराधी है)॥४८॥
मूलम् (वचनम्)
भीष्म उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
तथा ब्रुवति तस्मिंस्तु पन्नगे मृत्युचोदिते।
आजगाम ततो मृत्युः पन्नगं चाब्रवीदिदम् ॥ ४९ ॥
मूलम्
तथा ब्रुवति तस्मिंस्तु पन्नगे मृत्युचोदिते।
आजगाम ततो मृत्युः पन्नगं चाब्रवीदिदम् ॥ ४९ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
भीष्मजी कहते हैं— राजन्! मृत्युकी प्रेरणासे बालकको डँसनेवाला सर्प जब बारंबार अपनेको निर्दोष और मृत्युको दोषी बताने लगा तब मृत्यु देवता भी वहाँ आ पहुँचा और सर्पसे इस प्रकार बोला॥४९॥
मूलम् (वचनम्)
मृत्युरुवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
प्रचोदितोऽहं कालेन पन्नग त्वामचूचुदम्।
विनाशहेतुर्नास्य त्वमहं न प्राणिनः शिशोः ॥ ५० ॥
मूलम्
प्रचोदितोऽहं कालेन पन्नग त्वामचूचुदम्।
विनाशहेतुर्नास्य त्वमहं न प्राणिनः शिशोः ॥ ५० ॥
अनुवाद (हिन्दी)
मृत्युने कहा— सर्प! कालसे प्रेरित होकर ही मैंने तुझे इस बालकको डँसनेके लिये प्रेरणा दी थी; अतः इस शिशुप्राणीके विनाशमें न तो तू कारण है और न मैं ही कारण हूँ॥५०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
यथा वायुर्जलधरान् विकर्षति ततस्ततः।
तद्वज्जलदवत् सर्प कालस्याहं वशानुगः ॥ ५१ ॥
मूलम्
यथा वायुर्जलधरान् विकर्षति ततस्ततः।
तद्वज्जलदवत् सर्प कालस्याहं वशानुगः ॥ ५१ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
सर्प! जैसे हवा बादलोंको इधर-उधर उड़ा ले जाती है, उन बादलोंकी ही भाँति मैं भी कालके वशमें हूँ॥५१॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
सात्त्विका राजसाश्चैव तामसा ये च केचन।
भावाः कालात्मकाः सर्वे प्रवर्तन्ते ह जन्तुषु ॥ ५२ ॥
मूलम्
सात्त्विका राजसाश्चैव तामसा ये च केचन।
भावाः कालात्मकाः सर्वे प्रवर्तन्ते ह जन्तुषु ॥ ५२ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
सात्त्विक, राजस और तामस जितने भी भाव हैं, वे सब कालात्मक हैं और कालकी ही प्रेरणासे प्राणियोंको प्राप्त होते हैं॥५२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
जङ्गमाः स्थावराश्चैव दिवि वा यदि वा भुवि।
सर्वे कालात्मकाः सर्प कालात्मकमिदं जगत् ॥ ५३ ॥
मूलम्
जङ्गमाः स्थावराश्चैव दिवि वा यदि वा भुवि।
सर्वे कालात्मकाः सर्प कालात्मकमिदं जगत् ॥ ५३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
सर्प! पृथ्वी अथवा स्वर्गलोकमें जितने भी स्थावर-जङ्गम पदार्थ हैं, वे सभी कालके अधीन हैं। यह सारा जगत् ही कालस्वरूप है॥५३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
प्रवृत्तयश्च लोकेऽस्मिंस्तथैव च निवृत्तयः।
तासां विकृतयो याश्च सर्वं कालात्मकं स्मृतम् ॥ ५४ ॥
मूलम्
प्रवृत्तयश्च लोकेऽस्मिंस्तथैव च निवृत्तयः।
तासां विकृतयो याश्च सर्वं कालात्मकं स्मृतम् ॥ ५४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
इस लोकमें जितने प्रकारकी प्रवृत्ति-निवृत्ति तथा उनकी विकृतियाँ (फल) हैं, ये सब कालके ही स्वरूप हैं॥५४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
आदित्यश्चन्द्रमा विष्णुरापो वायुः शतक्रतुः।
अग्निःखं पृथिवी मित्रः पर्जन्यो वसवोऽदितिः ॥ ५५ ॥
सरितः सागराश्चैव भावाभावौ च पन्नग।
सर्वे कालेन सृज्यन्ते ह्रियन्ते च पुनः पुनः ॥ ५६ ॥
मूलम्
आदित्यश्चन्द्रमा विष्णुरापो वायुः शतक्रतुः।
अग्निःखं पृथिवी मित्रः पर्जन्यो वसवोऽदितिः ॥ ५५ ॥
सरितः सागराश्चैव भावाभावौ च पन्नग।
सर्वे कालेन सृज्यन्ते ह्रियन्ते च पुनः पुनः ॥ ५६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
पन्नग! सूर्य, चन्द्रमा, जल, वायु, इन्द्र, अग्नि, आकाश, पृथ्वी, मित्र, पर्जन्य, वसु, अदिति, नदी, समुद्र तथा भाव और अभाव—ये सभी कालके द्वारा ही रचे जाते हैं और काल ही इनका संहार कर देता है॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
एवं ज्ञात्वा कथं मां त्वं सदोषं सर्प मन्यसे।
अथ चैवंगते दोषे मयि त्वमपि दोषवान् ॥ ५७ ॥
मूलम्
एवं ज्ञात्वा कथं मां त्वं सदोषं सर्प मन्यसे।
अथ चैवंगते दोषे मयि त्वमपि दोषवान् ॥ ५७ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
सर्प! यह सब जानकर भी तुम मुझे कैसे दोषी मानते हो? और यदि ऐसी स्थितिमें भी मुझपर दोषारोपण हो सकता है, तब तो तू भी दोषी ही है॥
मूलम् (वचनम्)
सर्प उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
निर्दोषं दोषवन्तं वा न त्वां मृत्यो ब्रवीम्यहम्।
त्वयाहं चोदित इति ब्रवीम्येतावदेव तु ॥ ५८ ॥
मूलम्
निर्दोषं दोषवन्तं वा न त्वां मृत्यो ब्रवीम्यहम्।
त्वयाहं चोदित इति ब्रवीम्येतावदेव तु ॥ ५८ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
सर्पने कहा— मृत्यो! मैं तुम्हें न तो निर्दोष बताता हूँ और न दोषी ही। मैं तो इतना ही कह रहा हूँ कि इस बालकको डँसनेके लिये तूने ही मुझे प्रेरित किया था॥५८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
यदि काले तु दोषोऽस्ति यदि तत्रापि नेष्यते।
दोषो नैव परीक्ष्यो मे न ह्यत्राधिकृता वयम् ॥ ५९ ॥
मूलम्
यदि काले तु दोषोऽस्ति यदि तत्रापि नेष्यते।
दोषो नैव परीक्ष्यो मे न ह्यत्राधिकृता वयम् ॥ ५९ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
इस विषयमें यदि कालका दोष है अथवा यदि वह भी निर्दोष है तो हो, मुझे किसीके दोषकी जाँच नहीं करनी है और जाँच करनेका मुझे कोई अधिकार भी नहीं है॥५९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
निर्मोक्षस्त्वस्य दोषस्य मया कार्या यथा तथा।
मृत्योरपि न दोषः स्यादिति मेऽत्र प्रयोजनम् ॥ ६० ॥
मूलम्
निर्मोक्षस्त्वस्य दोषस्य मया कार्या यथा तथा।
मृत्योरपि न दोषः स्यादिति मेऽत्र प्रयोजनम् ॥ ६० ॥
अनुवाद (हिन्दी)
परंतु मेरे ऊपर जो दोष लगाया गया है, उसका निवारण तो मुझे जैसे-तैसे करना ही है। मेरे कहनेका यह प्रयोजन नहीं है कि मृत्युका भी दोष सिद्ध हो जाय॥६०॥
मूलम् (वचनम्)
भीष्म उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
सर्पोऽथार्जुनकं प्राह श्रुतं ते मृत्युभाषितम्।
नानागसं मां पाशेन संतापयितुमर्हसि ॥ ६१ ॥
मूलम्
सर्पोऽथार्जुनकं प्राह श्रुतं ते मृत्युभाषितम्।
नानागसं मां पाशेन संतापयितुमर्हसि ॥ ६१ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
भीष्मजी कहते हैं— युधिष्ठिर! तदनन्तर सर्पने अर्जुनकसे कहा—‘तुमने मृत्युकी बात तो सुन ली न? अब मुझ निरपराधको बन्धनमें बाँधकर कष्ट देना तुम्हारे लिये उचित नहीं है॥६१॥
मूलम् (वचनम्)
लुब्धक उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
मृत्योः श्रुतं मे वचनं तव चैव भुजङ्गम।
नैव तावददोषत्वं भवति त्वयि पन्नग ॥ ६२ ॥
मूलम्
मृत्योः श्रुतं मे वचनं तव चैव भुजङ्गम।
नैव तावददोषत्वं भवति त्वयि पन्नग ॥ ६२ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
व्याधने कहा— पन्नग! मैंने मृत्युकी और तेरी—दोनोंकी बातें सुन लीं; किंतु भुजंगम! इससे तेरी निर्दोषता नहीं सिद्ध हो रही है॥६२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
मृत्युस्त्वं चैव हेतुर्हि बालस्यास्य विनाशने।
उभयं कारणं मन्ये न कारणमकारणम् ॥ ६३ ॥
मूलम्
मृत्युस्त्वं चैव हेतुर्हि बालस्यास्य विनाशने।
उभयं कारणं मन्ये न कारणमकारणम् ॥ ६३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
इस बालकके विनाशमें तू और मृत्यु—दोनों ही कारण हो; अतः मैं दोनोंको ही कारण या अपराधी मानता हूँ, किसी एकको अपराधी या निरपराध नहीं मानता॥६३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
धिङ्मृत्युं च दुरात्मानं क्रूरं दुःखकरं सताम्।
त्वां चैवाहं वधिष्यामि पापं पापस्य कारणम् ॥ ६४ ॥
मूलम्
धिङ्मृत्युं च दुरात्मानं क्रूरं दुःखकरं सताम्।
त्वां चैवाहं वधिष्यामि पापं पापस्य कारणम् ॥ ६४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
श्रेष्ठ पुरुषोंको दुःख देनेवाले इस क्रूर एवं दुरात्मा मृत्युको धिक्कार है और तू तो इस पापका कारण है ही; इसलिये तुझ पापात्माका वध मैं अवश्य करूँगा॥६४॥
मूलम् (वचनम्)
मृत्युरुवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
विवशौ कालवशगावावां निर्दिष्टकारिणौ ।
नावां दोषेण गन्तव्यौ यदि सम्यक् प्रपश्यसि ॥ ६५ ॥
मूलम्
विवशौ कालवशगावावां निर्दिष्टकारिणौ ।
नावां दोषेण गन्तव्यौ यदि सम्यक् प्रपश्यसि ॥ ६५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
मृत्युने कहा— व्याध! हम दोनों कालके अधीन होनेके कारण विवश हैं। हम तो केवल उसके आदेशका पालनमात्र करते हैं। यदि तुम अच्छी तरह विचार करोगे तो हमलोगोंपर दोषारोपण नहीं करोगे॥
मूलम् (वचनम्)
लुब्धक उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
युवामुभौ कालवशौ यदि मे मृत्युपन्नगौ।
हर्षक्रोधौ यथा स्यातामेतदिच्छामि वेदितुम् ॥ ६६ ॥
मूलम्
युवामुभौ कालवशौ यदि मे मृत्युपन्नगौ।
हर्षक्रोधौ यथा स्यातामेतदिच्छामि वेदितुम् ॥ ६६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
व्याधने कहा— मृत्यु और सर्प! यदि तुम दोनों कालके अधीन हो तो मुझ तटस्थ व्यक्तिको परोपकारीके प्रति हर्ष और दूसरोंका अपकार करनेवाले तुम दोनोंपर क्रोध क्यों होता है, यह मैं जानना चाहता हूँ॥६६॥
मूलम् (वचनम्)
मृत्युरुवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
या काचिदेव चेष्टा स्यात् सर्वा कालप्रचोदिता।
पूर्वमेवैतदुक्तं हि मया लुब्धक कालतः ॥ ६७ ॥
मूलम्
या काचिदेव चेष्टा स्यात् सर्वा कालप्रचोदिता।
पूर्वमेवैतदुक्तं हि मया लुब्धक कालतः ॥ ६७ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
मृत्युने कहा— व्याध! जगत्में जो कोई भी चेष्टा हो रही है, वह सब कालकी प्रेरणासे ही होती है। यह बात मैंने तुमसे पहले ही बता दी है॥६७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तस्मादुभौ कालवशावावां निर्दिष्टकारिणौ ।
नावां दोषेण गन्तव्यौ त्वया लुब्धक कर्हिचित् ॥ ६८ ॥
मूलम्
तस्मादुभौ कालवशावावां निर्दिष्टकारिणौ ।
नावां दोषेण गन्तव्यौ त्वया लुब्धक कर्हिचित् ॥ ६८ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
अतः व्याध! हम दोनोंको कालके अधीन और कालके ही आदेशका पालक समझकर तुम्हें कभी हमारे ऊपर दोषारोपण नहीं करना चाहिये॥६८॥
मूलम् (वचनम्)
भीष्म उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
अथोपगम्य कालस्तु तस्मिन् धर्मार्थसंशये।
अब्रवीत् पन्नगं मृत्युं लुब्धं चार्जुनकं तथा ॥ ६९ ॥
मूलम्
अथोपगम्य कालस्तु तस्मिन् धर्मार्थसंशये।
अब्रवीत् पन्नगं मृत्युं लुब्धं चार्जुनकं तथा ॥ ६९ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
भीष्मजी कहते हैं— युधिष्ठिर! तदनन्तर धार्मिक विषयमें संदेह उपस्थित होनेपर काल भी वहाँ आ पहुँचा; तथा सर्प, मृत्यु एवं अर्जुनक व्याधसे इस प्रकार बोला॥६९॥
मूलम् (वचनम्)
काल उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
न ह्यहं नाप्ययं मृत्युर्नायं लुब्धक पन्नगः।
किल्बिषी जन्तुमरणे न वयं हि प्रयोजकाः ॥ ७० ॥
मूलम्
न ह्यहं नाप्ययं मृत्युर्नायं लुब्धक पन्नगः।
किल्बिषी जन्तुमरणे न वयं हि प्रयोजकाः ॥ ७० ॥
अनुवाद (हिन्दी)
कालने कहा— व्याध! न तो मैं, न यह मृत्यु और न यह सर्प ही इस जीवकी मृत्युमें अपराधी हैं। हमलोग किसीकी मृत्युमें प्रेरक या प्रयोजक भी नहीं हैं॥७०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अकरोद् यदयं कर्म तन्नोऽर्जुनक चोदकम्।
विनाशहेतुर्नान्योऽस्य वध्यतेऽयं स्वकर्मणा ॥ ७१ ॥
मूलम्
अकरोद् यदयं कर्म तन्नोऽर्जुनक चोदकम्।
विनाशहेतुर्नान्योऽस्य वध्यतेऽयं स्वकर्मणा ॥ ७१ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
अर्जुनक! इस बालकने जो कर्म किया है वही इसकी मृत्युमें प्रेरक हुआ है, दूसरा कोई इसके विनाशका कारण नहीं है। यह जीव अपने कर्मसे ही मरता है॥७१॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
यदनेन कृतं कर्म तेनायं निधनं गतः।
विनाशहेतुः कर्मास्य सर्वे कर्मवशा वयम् ॥ ७२ ॥
मूलम्
यदनेन कृतं कर्म तेनायं निधनं गतः।
विनाशहेतुः कर्मास्य सर्वे कर्मवशा वयम् ॥ ७२ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
इस बालकने जो कर्म किया है, उसीसे यह मृत्युको प्राप्त हुआ है। इसका कर्म ही इसके विनाशका कारण है। हम सब लोग कर्मके ही अधीन हैं॥७२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
कर्मदायादवाल्ँलोकः कर्मसम्बन्धलक्षणः ।
कर्माणि चोदयन्तीह यथान्योन्यं तथा वयम् ॥ ७३ ॥
मूलम्
कर्मदायादवाल्ँलोकः कर्मसम्बन्धलक्षणः ।
कर्माणि चोदयन्तीह यथान्योन्यं तथा वयम् ॥ ७३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
संसारमें कर्म ही मनुष्योंका पुत्र-पौत्रके समान अनुगमन करनेवाला है। कर्म ही दुःख-सुखके सम्बन्धका सूचक है। इस जगत्में कर्म ही जैसे परस्पर एक-दूसरेको प्रेरित करते हैं, वैसे ही हम भी कर्मोंसे ही प्रेरित हुए हैं॥७३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
यथा मृत्पिण्डतः कर्ता कुरुते यद् यदिच्छति।
एवमात्मकृतं कर्म मानवः प्रतिपद्यते ॥ ७४ ॥
मूलम्
यथा मृत्पिण्डतः कर्ता कुरुते यद् यदिच्छति।
एवमात्मकृतं कर्म मानवः प्रतिपद्यते ॥ ७४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
जैसे कुम्हार मिट्टीके लोंदेसे जो-जो बर्तन चाहता है वही बना लेता है। उसी प्रकार मनुष्य अपने किये हुए कर्मके अनुसार ही सब कुछ पाता है॥७४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
यथा च्छायातपौ नित्यं सुसम्बद्धौ निरन्तरम्।
तथा कर्म च कर्ता च सम्बद्धावात्मकर्मभिः ॥ ७५ ॥
मूलम्
यथा च्छायातपौ नित्यं सुसम्बद्धौ निरन्तरम्।
तथा कर्म च कर्ता च सम्बद्धावात्मकर्मभिः ॥ ७५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
जैसे धूप और छाया दोनों नित्य-निरन्तर एक-दूसरेसे मिले रहते हैं, उसी प्रकार कर्म और कर्ता दोनों अपने कर्मानुसार एक-दूसरेसे सम्बद्ध होते हैं॥७५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
एवं नाहं न वै मृत्युने सर्पो न तथा भवान्।
न चेयं ब्राह्मणी वृद्धा शिशुरेवात्र कारणम् ॥ ७६ ॥
मूलम्
एवं नाहं न वै मृत्युने सर्पो न तथा भवान्।
न चेयं ब्राह्मणी वृद्धा शिशुरेवात्र कारणम् ॥ ७६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
इस प्रकार विचार करनेसे न मैं, न मृत्यु, न सर्प, न तुम (व्याध) और न यह बूढ़ी ब्राह्मणी ही इस बालककी मृत्युमें कारण है। यह शिशु स्वयं ही कर्मके अनुसार अपनी मृत्युमें कारण हुआ है॥७६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तस्मिंस्तथा ब्रुवाणे तु ब्राह्मणी गौतमी नृप।
स्वकर्मप्रत्ययाल्ँलोकान् मत्वार्जुनकमब्रवीत् ॥ ७७ ॥
मूलम्
तस्मिंस्तथा ब्रुवाणे तु ब्राह्मणी गौतमी नृप।
स्वकर्मप्रत्ययाल्ँलोकान् मत्वार्जुनकमब्रवीत् ॥ ७७ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
नरेश्वर! कालके इस प्रकार कहनेपर गौतमी ब्राह्मणीको यह निश्चय हो गया कि मनुष्यको अपने कर्मोंके अनुसार ही फल मिलता है। फिर वह अर्जुनकसे बोली॥
मूलम् (वचनम्)
गौतम्युवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
नैव कालो न भुजगो न मृत्युरिह कारणम्।
स्वकर्मभिरयं बालः कालेन निधनं गतः ॥ ७८ ॥
मूलम्
नैव कालो न भुजगो न मृत्युरिह कारणम्।
स्वकर्मभिरयं बालः कालेन निधनं गतः ॥ ७८ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
गौतमीने कहा— व्याध! न यह काल, न सर्प और न मृत्यु ही यहाँ कारण हैं। यह बालक अपने कर्मोंसे ही प्रेरित हो कालके द्वारा विनाशको प्राप्त हुआ है॥७८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
मया च तत् कृतं कर्म येनायं मे मृतः सुतः।
यातु कालस्तथा मृत्युर्मुञ्चार्जुनक पन्नगम् ॥ ७९ ॥
मूलम्
मया च तत् कृतं कर्म येनायं मे मृतः सुतः।
यातु कालस्तथा मृत्युर्मुञ्चार्जुनक पन्नगम् ॥ ७९ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
अर्जुनक! मैंने भी वैसा कर्म किया था जिससे मेरा पुत्र मर गया है। अतः काल और मृत्यु अपने-अपने स्थानको पधारें; और तू इस सर्पको छोड़ दे॥७९॥
मूलम् (वचनम्)
भीष्म उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
ततो यथागतं जग्मुर्मृत्युः कालोऽथ पन्नगः।
अभूद् विशोकोऽर्जुनको विशोका चैव गौतमी ॥ ८० ॥
मूलम्
ततो यथागतं जग्मुर्मृत्युः कालोऽथ पन्नगः।
अभूद् विशोकोऽर्जुनको विशोका चैव गौतमी ॥ ८० ॥
अनुवाद (हिन्दी)
भीष्मजी कहते हैं— राजन्! तदनन्तर काल, मृत्यु और सर्प जैसे आये थे वैसे ही चले गये; और अर्जुनक तथा गौतमी ब्राह्मणीका भी शोक दूर हो गया॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
एतत् श्रुत्वा शमं गच्छ मा भूः शोकपरो नृप।
स्वकर्मप्रत्ययाल्ँलोकान् सर्वे गच्छन्ति वै नृप ॥ ८१ ॥
मूलम्
एतत् श्रुत्वा शमं गच्छ मा भूः शोकपरो नृप।
स्वकर्मप्रत्ययाल्ँलोकान् सर्वे गच्छन्ति वै नृप ॥ ८१ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
नरेश्वर! इस उपाख्यानको सुनकर तुम शान्ति धारण करो, शोकमें न पड़ो। सब मनुष्य अपने-अपने कर्मोंके अनुसार प्राप्त होनेवाले लोकोंमें ही जाते हैं॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
नैव त्वया कृतं कर्म नापि दुर्योधनेन वै।
कालेनैतत् कृतं विद्धि निहता येन पार्थिवाः ॥ ८२ ॥
मूलम्
नैव त्वया कृतं कर्म नापि दुर्योधनेन वै।
कालेनैतत् कृतं विद्धि निहता येन पार्थिवाः ॥ ८२ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
तुमने या दुर्योधनने कुछ नहीं किया है। कालकी ही यह सारी करतूत समझो, जिससे समस्त भूपाल मारे गये हैं॥८२॥
मूलम् (वचनम्)
वैशम्पायन उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
इत्येतद् वचनं श्रुत्व बभूव विगतज्वरः।
युधिष्ठिरो महातेजाः पप्रच्छेदं च धर्मवित् ॥ ८३ ॥
मूलम्
इत्येतद् वचनं श्रुत्व बभूव विगतज्वरः।
युधिष्ठिरो महातेजाः पप्रच्छेदं च धर्मवित् ॥ ८३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
वैशम्पायनजी कहते हैं— जनमेजय! भीष्मकी यह बात सुनकर महातेजस्वी धर्मज्ञ राजा युधिष्ठिरकी चिन्ता दूर हो गयी; तथा उन्होंने पुनः इस प्रकार प्रश्न किया॥८३॥
मूलम् (समाप्तिः)
इति श्रीमहाभारते अनुशासनपर्वणि दानधर्मपर्वणि गौतमीलुब्धकव्यालमृत्युकालसंवादे प्रथमोऽध्यायः ॥ १ ॥
मूलम् (वचनम्)
इस प्रकार श्रीमहाभारत अनुशासनपर्वके अन्तर्गत दानधर्मपर्वमें गौतमी ब्राह्मणी, व्याध, सर्प, मृत्यु और कालका संवादविषयक पहला अध्याय पूरा हुआ॥१॥