३६५ उञ्छवृत्त्युपाख्याने

भागसूचना

पञ्चषष्ट्यधिकत्रिशततमोऽध्यायः

सूचना (हिन्दी)

नागराजसे विदा ले ब्राह्मणका च्यवनमुनिसे उञ्छवृत्तिकी दीक्षा लेकर साधनपरायण होना और इस कथाकी परम्पराका वर्णन

मूलम् (वचनम्)

भीष्म उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

स चामन्त्र्योरगश्रेष्ठं ब्राह्मणः कृतनिश्चयः।
दीक्षाकाङ्क्षी तदा राजंश्च्यवनं भार्गवं श्रितः ॥ १ ॥

मूलम्

स चामन्त्र्योरगश्रेष्ठं ब्राह्मणः कृतनिश्चयः।
दीक्षाकाङ्क्षी तदा राजंश्च्यवनं भार्गवं श्रितः ॥ १ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

भीष्मजी कहते हैं— युधिष्ठिर! इस प्रकार नागराजकी अनुमति लेकर वह दृढ़ निश्चयवाला ब्राह्मण उञ्छव्रतकी दीक्षा लेनेके लिये भृगुवंशी च्यवन ऋषिके पास गया॥१॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

स तेन कृतसंस्कारो धर्ममेवाधितस्थिवान्।
तथैव च कथामेतां राजन् कथितवांस्तदा ॥ २ ॥

मूलम्

स तेन कृतसंस्कारो धर्ममेवाधितस्थिवान्।
तथैव च कथामेतां राजन् कथितवांस्तदा ॥ २ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

उन्होंने उसका दीक्षा-संस्कार सम्पन्न किया और वह धर्मका ही आश्रय लेकर रहने लगा। राजन्! उसने उञ्छवृत्तिकी महिमासे सम्बन्ध रखनेवाली इस कथाको च्यवन मुनिसे भी कहा॥२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

भार्गवेणापि राजेन्द्र जनकस्य निवेशने।
कथैषा कथिता पुण्या नारदाय महात्मने ॥ ३ ॥

मूलम्

भार्गवेणापि राजेन्द्र जनकस्य निवेशने।
कथैषा कथिता पुण्या नारदाय महात्मने ॥ ३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

राजेन्द्र! च्यवनने भी राजा जनकके दरबारमें महात्मा नारदजीसे यह पवित्र कथा कही॥३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

नारदेनापि राजेन्द्र देवेन्द्रस्य निवेशने।
कथिता भरतश्रेष्ठ पृष्टेनाक्लिष्टकर्मणा ॥ ४ ॥

मूलम्

नारदेनापि राजेन्द्र देवेन्द्रस्य निवेशने।
कथिता भरतश्रेष्ठ पृष्टेनाक्लिष्टकर्मणा ॥ ४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

नृपश्रेष्ठ! भरतभूषण! फिर अनायास ही उत्तम कर्म करनेवाले नारदजीने भी देवराज इन्द्रके भवनमें उनके पूछनेपर यह कथा सुनायी॥४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

देवराजेन च पुरा कथितैषा कथा शुभा।
समस्तेभ्यः प्रशस्तेभ्यो विप्रेभ्यो वसुधाधिप ॥ ५ ॥

मूलम्

देवराजेन च पुरा कथितैषा कथा शुभा।
समस्तेभ्यः प्रशस्तेभ्यो विप्रेभ्यो वसुधाधिप ॥ ५ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

पृथ्वीनाथ! तत्पश्चात् पूर्वकालमें देवराज इन्द्रने सभी श्रेष्ठ ब्राह्मणोंके समक्ष यह शुभ कथा कही॥५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

यदा च मम रामेण युद्धमासीत् सुदारुणम्।
वसुभिश्च तदा राजन् कथेयं कथिता मम ॥ ६ ॥

मूलम्

यदा च मम रामेण युद्धमासीत् सुदारुणम्।
वसुभिश्च तदा राजन् कथेयं कथिता मम ॥ ६ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

राजन्! जब परशुरामजीके साथ मेरा भयंकर युद्ध हुआ था, उस समय वसुओंने मुझे यह कथा सुनायी थी॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

पृच्छमानाय तत्त्वेन मया चैवोत्तमा तव।
कथेयं कथिता पुण्या धर्म्या धर्मभृतां वर ॥ ७ ॥

मूलम्

पृच्छमानाय तत्त्वेन मया चैवोत्तमा तव।
कथेयं कथिता पुण्या धर्म्या धर्मभृतां वर ॥ ७ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

धर्मात्माओंमें श्रेष्ठ युधिष्ठिर! इस समय जब तुमने परम धर्मके सम्बन्धमें मुझसे प्रश्न किया है, तब उसीके उत्तरमें मैंने यथार्थरूपसे यह पुण्यमयी धर्मसम्मत श्रेष्ठ कथा तुमसे कही है॥७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

यदयं परमो धर्मो यन्मां पृच्छसि भारत।
आसीद् धीरो ह्यनाकाङ्क्षी धर्मार्थकरणे नृप ॥ ८ ॥

मूलम्

यदयं परमो धर्मो यन्मां पृच्छसि भारत।
आसीद् धीरो ह्यनाकाङ्क्षी धर्मार्थकरणे नृप ॥ ८ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

भरतनन्दन नरेश्वर! तुमने जिसके विषयमें मुझसे पूछा था, वह श्रेष्ठ धर्म यही है। वह धीर ब्राह्मण निष्काम-भावसे धर्म और अर्थसम्बन्धी कार्यमें संलग्न रहता था॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

स च किल कृतनिश्चयो द्विजो
भुजगपतिप्रतिदेशितात्मकृत्यः ।
यमनियमसहो वनान्तरं
परिगणितोञ्छशिलाशनः प्रविष्टः ॥ ९ ॥

मूलम्

स च किल कृतनिश्चयो द्विजो
भुजगपतिप्रतिदेशितात्मकृत्यः ।
यमनियमसहो वनान्तरं
परिगणितोञ्छशिलाशनः प्रविष्टः ॥ ९ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

नागराजके उपदेशके अनुसार अपने कर्तव्यको समझकर उस ब्राह्मणने उसके पालनका दृढ़ निश्चय कर लिया और दूसरे वनमें जाकर उञ्छशिलवृत्तिसे प्राप्त हुए परिमित अन्नका भोजन करता हुआ यम-नियमका पालन करने लगा॥९॥

मूलम् (समाप्तिः)

इति श्रीमहाभारते शतसाहस्र्यां संहितायां वैयासिक्यां शान्तिपर्वणि मोक्षधर्मपर्वणि उञ्छवृत्त्युपाख्याने पञ्चषष्ट्यधिकत्रिशततमोऽध्यायः॥३६५॥

मूलम् (वचनम्)

इस प्रकार श्रीमहाभारत शान्तिपर्वके अन्तर्गत मोक्षधर्मपर्वमें उञ्छवृत्तिका उपाख्यानविषयक तीन सौ पैंसठवाँ अध्याय पूरा हुआ॥३६५॥

सूचना (हिन्दी)

शान्तिपर्व सम्पूर्णम्

नमस्कारः

॥ ॐ श्रीपरमात्मने नमः ॥

Misc Detail

महाभारत-सार

विश्वास-प्रस्तुतिः

मातापितृसहस्राणि पुत्रदारशतानि च ।
संसारेष्वनुभूतानि यान्ति यास्यन्ति चापरे॥

मूलम्

मातापितृसहस्राणि पुत्रदारशतानि च ।
संसारेष्वनुभूतानि यान्ति यास्यन्ति चापरे॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘मनुष्य इस जगत्‌में हजारों माता-पिताओं तथा सैकड़ों स्त्री-पुत्रोंके संयोग-वियोगका अनुभव कर चुके हैं, करते हैं और करते रहेंगे।’

विश्वास-प्रस्तुतिः

हर्षस्थानसहस्राणि भयस्थानशतानि च ।
दिवसे दिवसे मूढमाविशन्ति न पण्डितम्॥

मूलम्

हर्षस्थानसहस्राणि भयस्थानशतानि च ।
दिवसे दिवसे मूढमाविशन्ति न पण्डितम्॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘अज्ञानी पुरुषको प्रतिदिन हर्षके हजारों और भयके सैकड़ों अवसर प्राप्त होते रहते हैं; किन्तु विद्वान् पुरुषके मनपर उनका कोई प्रभाव नहीं पड़ता है।’

विश्वास-प्रस्तुतिः

ऊर्ध्वबाहुर्विरौम्येष न च कश्चिच्छृणोति मे।
धर्मादर्थश्च कामश्च स किमर्थं न सेव्यते॥

मूलम्

ऊर्ध्वबाहुर्विरौम्येष न च कश्चिच्छृणोति मे।
धर्मादर्थश्च कामश्च स किमर्थं न सेव्यते॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘मैं दोनों हाथ ऊपर उठाकर पुकार-पुकारकर कह रहा हूँ, पर मेरी बात कोई नहीं सुनता। धर्मसे मोक्ष तो सिद्ध होता ही है; अर्थ और काम भी सिद्ध होते हैं तो भी लोग उसका सेवन क्यों नहीं करते!’

विश्वास-प्रस्तुतिः

न जातु कामान्न भयान्न लोभाद्
धर्मं त्यजेज्जीवितस्यापि हेतोः ।
नित्यो धर्मः सुखदुःखे त्वनित्ये
जीवो नित्यो हेतुरस्य त्वनित्यः॥

मूलम्

न जातु कामान्न भयान्न लोभाद्
धर्मं त्यजेज्जीवितस्यापि हेतोः ।
नित्यो धर्मः सुखदुःखे त्वनित्ये
जीवो नित्यो हेतुरस्य त्वनित्यः॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘कामनासे, भयसे, लोभसे अथवा प्राण बचानेके लिये भी धर्मका त्याग न करे। धर्म नित्य है और सुख-दुःख अनित्य। इसी प्रकार जीवात्मा नित्य है और उसके बन्धनका हेतु अनित्य।’

विश्वास-प्रस्तुतिः

इमां भारतसावित्रीं प्रातरुत्थाय यः पठेत्।
स भारतफलं प्राप्य परं ब्रह्माधिगच्छति॥

मूलम्

इमां भारतसावित्रीं प्रातरुत्थाय यः पठेत्।
स भारतफलं प्राप्य परं ब्रह्माधिगच्छति॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘यह महाभारतका सारभूत उपदेश ‘भारत-सावित्री’ के नामसे प्रसिद्ध है। जो प्रतिदिन सबेरे उठकर इसका पाठ करता है, वह सम्पूर्ण महाभारतके अध्ययनका फल पाकर परब्रह्म परमात्माको प्राप्त कर लेता है।’

Misc Detail

[[—महाभारत, स्वर्गारोहण० ५।६०—६४]]