३६४ उञ्छवृत्त्युपाख्याने

भागसूचना

चतुःषष्ट्यधिकत्रिशततमोऽध्यायः

सूचना (हिन्दी)

ब्राह्मणका नागराजसे बातचीत करके और उञ्छव्रतके पालनका निश्चय करके अपने घरको जानेके लिये नागराजसे विदा माँगना

मूलम् (वचनम्)

ब्राह्मण उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

आश्चर्यं नात्र संदेहः सुप्रीतोऽस्मि भुजङ्गम।
अन्वर्थोपगतैर्वाक्यैः पन्थानं चास्मि दर्शितः ॥ १ ॥

मूलम्

आश्चर्यं नात्र संदेहः सुप्रीतोऽस्मि भुजङ्गम।
अन्वर्थोपगतैर्वाक्यैः पन्थानं चास्मि दर्शितः ॥ १ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

ब्राह्मणने कहा— नागराज! इसमें संदेह नहीं कि यह एक आश्चर्यजनक वृत्तान्त है। इसे सुनकर मुझे बड़ी प्रसन्नता हुई है। मेरे मनमें जो अभिलाषा थी, उसके अनुकूल वचन कहकर आपने मुझे रास्ता दिखा दिया॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

स्वस्ति तेऽस्तु गमिष्यामि साधो भुजगसत्तम।
स्मरणीयोऽस्मि भवता सम्प्रेषणनियोजनैः ॥ २ ॥

मूलम्

स्वस्ति तेऽस्तु गमिष्यामि साधो भुजगसत्तम।
स्मरणीयोऽस्मि भवता सम्प्रेषणनियोजनैः ॥ २ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

भुजंग शिरोमणे! आपका कल्याण हो। अब मैं यहाँसे चला जाऊँगा, यदि आपको मुझे कहीं भेजना हो या किसी काममें नियुक्त करना हो तो ऐसे अवसरोंपर मेरा अवश्य स्मरण करना चाहिये॥२॥

मूलम् (वचनम्)

नाग उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

अनुक्त्वा हृद्गतं कार्यं क्वेदानीं प्रस्थितो भवान्।
उच्यतां द्विज यत् कार्यं यदर्थं त्वमिहागतः ॥ ३ ॥

मूलम्

अनुक्त्वा हृद्गतं कार्यं क्वेदानीं प्रस्थितो भवान्।
उच्यतां द्विज यत् कार्यं यदर्थं त्वमिहागतः ॥ ३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

नागने कहा— विप्रवर! आपने अभी अपने मनकी बात तो बतायी ही नहीं, फिर इस समय आप कहाँ चले जा रहे हैं? आपका जो कार्य है, जिसके लिये आप यहाँ आये हैं, उसे बताइये तो सही॥३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

उक्तानुक्ते कृते कार्ये मामामन्त्र्य द्विजर्षभ।
मया प्रत्यभ्यनुज्ञातस्ततो यास्यसि सुव्रत ॥ ४ ॥

मूलम्

उक्तानुक्ते कृते कार्ये मामामन्त्र्य द्विजर्षभ।
मया प्रत्यभ्यनुज्ञातस्ततो यास्यसि सुव्रत ॥ ४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

उत्तम व्रतका पालन करनेवाले द्विजश्रेष्ठ! आप कहें या न कहें। मेरे द्वारा जब आपका कार्य सम्पन्न हो जाय, तब आप मुझसे पूछकर, मेरी अनुमति लेकर अपने घरको जाइयेगा॥४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

न हि मां केवलं दृष्ट्वा त्यक्त्वा प्रणयवानिह।
गन्तुमर्हसि विप्रर्षे वृक्षमूलगतो यथा ॥ ५ ॥

मूलम्

न हि मां केवलं दृष्ट्वा त्यक्त्वा प्रणयवानिह।
गन्तुमर्हसि विप्रर्षे वृक्षमूलगतो यथा ॥ ५ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

ब्रह्मर्षे! आपका मुझमें प्रेम है; इसलिये वृक्षके नीचे बैठे हुए बटोहीकी तरह केवल मुझे देखकर ही चल देना आपके लिये उचित नहीं है॥५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

त्वयि चाहं द्विजश्रेष्ठ भवान् मयि न संशयः।
लोकोऽयं भवतः सर्वः का चिन्ता मयि तेऽनघ ॥ ६ ॥

मूलम्

त्वयि चाहं द्विजश्रेष्ठ भवान् मयि न संशयः।
लोकोऽयं भवतः सर्वः का चिन्ता मयि तेऽनघ ॥ ६ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

विप्रवर! आपमें मैं हूँ और मुझमें आप हैं, इसमें संशय नहीं है। निष्पाप ब्राह्मण! यह समस्त लोक आपका ही है। मेरे रहते हुए आपको किस बातकी चिन्ता है?॥६॥

मूलम् (वचनम्)

ब्राह्मण उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

एवमेतन्महाप्राज्ञ विदितात्मन् भुजङ्गम ।
नातिक्रान्तास्त्वया देवाः सर्वथैव यथातथम् ॥ ७ ॥

मूलम्

एवमेतन्महाप्राज्ञ विदितात्मन् भुजङ्गम ।
नातिक्रान्तास्त्वया देवाः सर्वथैव यथातथम् ॥ ७ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

ब्राह्मणने कहा— महाप्राज्ञ आत्मज्ञानी नागराज! यह इसी प्रकार है। देवता भी आपसे बढ़कर नहीं हैं। यह बात सर्वथा यथार्थ है॥७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

स एव त्वं स एवाहं योऽहं स तु भवानपि।
अहं भवांश्च भूतानि सर्वे यत्र गताः सदा ॥ ८ ॥

मूलम्

स एव त्वं स एवाहं योऽहं स तु भवानपि।
अहं भवांश्च भूतानि सर्वे यत्र गताः सदा ॥ ८ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

(आपने सूर्यमण्डलमें जिन पुरुषोत्तम नारायणदेवकी स्थिति बतायी है) मैं, आप तथा समस्त प्राणी सदा जिसमें स्थित हैं वही आप हैं, वही मैं हूँ और जो मैं हूँ, वही आप भी हैं॥८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

आसीत् तु मे भोगपते संशयः पुण्यसंचये।
सोऽहमुञ्छव्रतं साधो चरिष्याम्यर्थसाधनम् ॥ ९ ॥

मूलम्

आसीत् तु मे भोगपते संशयः पुण्यसंचये।
सोऽहमुञ्छव्रतं साधो चरिष्याम्यर्थसाधनम् ॥ ९ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

नागराज! मुझे पुण्यसंग्रहके विषयमें संशय हो गया था। मैं यह निश्चय नहीं कर पाता था कि किस साधनको अपनाऊँ? किंतु अब वह संदेह दूर हो गया है। साधो! अब मैं अपने अभीष्ट अर्थकी सिद्धिके लिये उञ्छव्रतका ही आचरण करूँगा॥९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

एष मे निश्चयः साधो कृतं कारणमुत्तमम्।
आमन्त्रयामि भद्रं ते कृतार्थोऽस्मि भुजङ्गम ॥ १० ॥

मूलम्

एष मे निश्चयः साधो कृतं कारणमुत्तमम्।
आमन्त्रयामि भद्रं ते कृतार्थोऽस्मि भुजङ्गम ॥ १० ॥

अनुवाद (हिन्दी)

महात्मन्! यही मेरा निश्चय है। आपके द्वारा मेरा कार्य बड़े उत्तम ढंगसे सम्पन्न हो गया। भुजंगम! मैं कृतार्थ हो गया। आपका कल्याण हो। अब मैं जानेकी आज्ञा चाहता हूँ॥१०॥

मूलम् (समाप्तिः)

इति श्रीमहाभारते शान्तिपर्वणि मोक्षधर्मपर्वणि उञ्छवृत्त्युपाख्याने चतुःषष्ट्यधिकत्रिशततमोऽध्यायः ॥ ३६४ ॥

मूलम् (वचनम्)

इस प्रकार श्रीमहाभारत शान्तिपर्वके अन्तर्गत मोक्षधर्मपर्वमें उञ्छवृत्तिका उपाख्यानविषयक तीन सौ चौसठवाँ अध्याय पूरा हुआ॥३६४॥