भागसूचना
त्रिषष्ट्यधिकत्रिशततमोऽध्यायः
सूचना (हिन्दी)
उञ्छ एवं शिलवृत्तिसे सिद्ध हुए पुरुषकी दिव्य गति
मूलम् (वचनम्)
सूर्य उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
नैष देवोऽनिलसखो नासुरो न च पन्नगः।
उञ्छवृत्तिव्रते सिद्धो मुनिरेष दिवं गतः ॥ १ ॥
मूलम्
नैष देवोऽनिलसखो नासुरो न च पन्नगः।
उञ्छवृत्तिव्रते सिद्धो मुनिरेष दिवं गतः ॥ १ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
सूर्यदेवने कहा— से न तो वायुके सखा अग्निदेव थे, न कोई असुर थे और न नाग ही थे। ये उञ्छवृत्तिसे जीवननिर्वाहके व्रतका पालन करनेसे सिद्धिको प्राप्त हुए एक मुनि थे, जो दिव्यधाममें आ पहुँचे हैं॥१॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
एष मूलफलाहारः शीर्णपर्णाशनस्तथा ।
अब्भक्षो वायुभक्षश्च आसीद् विप्रः समाहितः ॥ २ ॥
मूलम्
एष मूलफलाहारः शीर्णपर्णाशनस्तथा ।
अब्भक्षो वायुभक्षश्च आसीद् विप्रः समाहितः ॥ २ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
ये ब्राह्मणदेवता फल-मूलका आहार करते, सूखे पत्ते चबाते अथवा पानी या हवा पीकर रह जाते थे और सदा एकाग्रचित्त होकर ध्यानमग्न रहते थे॥२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
भवश्चानेन विप्रेण संहिताभिरभिष्टुतः ।
स्वर्गद्वारे कृतोद्योगो येनासौ त्रिदिवं गतः ॥ ३ ॥
मूलम्
भवश्चानेन विप्रेण संहिताभिरभिष्टुतः ।
स्वर्गद्वारे कृतोद्योगो येनासौ त्रिदिवं गतः ॥ ३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
इन श्रेष्ठ ब्राह्मणने संहिताके मन्त्रोंद्वारा भगवान् शंकरका स्तवन किया था। इन्होंने स्वर्गलोक पानेकी साधना की थी, इसलिये ये स्वर्गमें गये हैं॥३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
असङ्गतिरनाकाङ्क्षी नित्यमुञ्छशिलाशनः ।
सर्वभूतहिते युक्त एष विप्रो भुजङ्गम ॥ ४ ॥
मूलम्
असङ्गतिरनाकाङ्क्षी नित्यमुञ्छशिलाशनः ।
सर्वभूतहिते युक्त एष विप्रो भुजङ्गम ॥ ४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
नागराज! ये ब्राह्मण असंग रहकर लौकिक कामनाओंका त्याग कर चुके थे और सदा उञ्छ1 एवं शिलवृत्तिसे प्राप्त हुए अन्नको ही खाते थे। ये निरन्तर समस्त प्राणियोंके हितसाधनमें संलग्न रहते थे॥४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
न हि देवा न गन्धर्वा नासुरा न च पन्नगाः।
प्रभवन्तीह भूतानां प्राप्तानामुत्तमां गतिम् ॥ ५ ॥
मूलम्
न हि देवा न गन्धर्वा नासुरा न च पन्नगाः।
प्रभवन्तीह भूतानां प्राप्तानामुत्तमां गतिम् ॥ ५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
ऐसे लोगोंको जो उत्तम गति प्राप्त होती है, उसे न देवता, न गन्धर्व, न असुर और न नाग ही पा सकते हैं॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
एतदेवंविधं दृष्टमाश्चर्यं तत्र मे द्विज।
संसिद्धो मानुषः कार्म योऽसौ सिद्धगतिं गतः।
सूर्येण सहितो ब्रह्मन् पृथिवीं परिवर्तते ॥ ६ ॥
मूलम्
एतदेवंविधं दृष्टमाश्चर्यं तत्र मे द्विज।
संसिद्धो मानुषः कार्म योऽसौ सिद्धगतिं गतः।
सूर्येण सहितो ब्रह्मन् पृथिवीं परिवर्तते ॥ ६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
विप्रवर! सूर्यमण्डलमें मुझे यह ऐसा ही आश्चर्य दिखायी दिया था कि उञ्छवृत्तिसे सिद्ध हुआ वह मनुष्य इच्छानुसार सिद्ध-गतिको प्राप्त हुआ। ब्रह्मन्! अब वह सूर्यके साथ रहकर समूची पृथ्वीकी परिक्रमा करता है॥६॥
मूलम् (समाप्तिः)
इति श्रीमहाभारते शान्तिपर्वणि मोक्षधर्मपर्वणि उञ्छवृत्त्युपाख्याने त्रिषष्ट्यधिकत्रिशततमोऽध्यायः ॥ ३६३ ॥
मूलम् (वचनम्)
इस प्रकार श्रीमहाभारत शान्तिपर्वके अन्तर्गत मोक्षधर्मपर्वमें उञ्छवृत्तिका उपाख्यानविषयक तीन सौ तिरसठवाँ अध्याय पूरा हुआ॥३६३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
मूलम्
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‘उञ्छः कणश आदानं कणिशाद्यर्जनं शिलम्।’‘‘‘कटे हुए खेतसे वहाँ गिरे हुए अन्नके दाने बीनकर लाना अथवा बाजार उठ जानेपर वहाँ बिखरे हुए अनाजके एक-एक दानेको बीन लाना ‘उञ्छ’ कहलाता है। इसी तरह धान, गेहूँ और जौ आदिकी बाल बीनकर लाना ‘शिल’ कहा गया है।’’’ ↩︎