भागसूचना
द्विषष्ट्यधिकत्रिशततमोऽध्यायः
सूचना (हिन्दी)
नागराजका ब्राह्मणके पूछनेपर सूर्यमण्डलकी आश्चर्यजनक घटनाओंको सुनाना
मूलम् (वचनम्)
ब्राह्मण उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
विवस्वतो गच्छति पर्ययेण
वोढुं भवांस्तं रथमेकचक्रम् ।
आश्चर्यभूतं यदि तत्र किंचिद्
दृष्टं त्वया शंसितुमर्हसि त्वम् ॥ १ ॥
मूलम्
विवस्वतो गच्छति पर्ययेण
वोढुं भवांस्तं रथमेकचक्रम् ।
आश्चर्यभूतं यदि तत्र किंचिद्
दृष्टं त्वया शंसितुमर्हसि त्वम् ॥ १ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
ब्राह्मणने कहा— नागराज! आप सूर्यके एक पहियेके रथको खींचनेके लिये बारी-बारीसे जाया करते हैं। यदि वहाँ कोई आश्चर्यजनक बात आपने देखी हो तो उसे बतानेकी कृपा करें॥१॥
मूलम् (वचनम्)
नाग उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
आश्चर्याणामनेकानां प्रतिष्ठा भगवान् रविः।
यतो भूताः प्रवर्तन्ते सर्वे त्रैलोक्यसम्मताः ॥ २ ॥
मूलम्
आश्चर्याणामनेकानां प्रतिष्ठा भगवान् रविः।
यतो भूताः प्रवर्तन्ते सर्वे त्रैलोक्यसम्मताः ॥ २ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
नागने कहा— ब्रह्मन्! भगवान् सूर्य तो अनेकानेक आश्चर्योंके स्थान हैं; क्योंकि तीनों लोकोंमें जितने भी प्राणी हैं, वे सब उन्हींसे प्रेरित होकर अपने-अपने कार्योंमें प्रवृत्त होते हैं॥२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
यस्य रश्मिसहस्रेषु शाखास्विव विहंगमाः।
वसन्त्याश्रित्य मुनयः संसिद्धा दैवतैः सह ॥ ३ ॥
मूलम्
यस्य रश्मिसहस्रेषु शाखास्विव विहंगमाः।
वसन्त्याश्रित्य मुनयः संसिद्धा दैवतैः सह ॥ ३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
जैसे वृक्षकी शाखाओंपर बहुत-से पक्षी बसेरा लेते हैं, उसी प्रकार सूर्यदेवकी सहस्रों किरणोंका आश्रय ले देवताओंसहित सिद्ध और मुनि निवास करते हैं॥३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
यतो वायुर्विनिःसृत्य सूर्यरश्म्याश्रितो महान्।
विजृम्भत्यम्बरे तत्र किमाश्चर्यमतः परम् ॥ ४ ॥
मूलम्
यतो वायुर्विनिःसृत्य सूर्यरश्म्याश्रितो महान्।
विजृम्भत्यम्बरे तत्र किमाश्चर्यमतः परम् ॥ ४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
महान् वायुदेव सूर्यमण्डलसे निकलकर सूर्यकी किरणोंका आश्रय ले समूचे आकाशमें फैल जाते हैं। इससे बढ़कर आश्चर्य और क्या होगा?॥४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
विभज्य तं तु विप्रर्षे प्रजानां हितकाम्यया।
तोयं सृजति वर्षासु किमाश्चर्यमतः परम् ॥ ५ ॥
मूलम्
विभज्य तं तु विप्रर्षे प्रजानां हितकाम्यया।
तोयं सृजति वर्षासु किमाश्चर्यमतः परम् ॥ ५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
ब्रह्मर्षे! प्रजाके हितकी कामनासे भगवान् सूर्य उस वायुको अनेक भागोंमें विभक्त करके वर्षा-ऋतुमें जो जलकी वृष्टि करते हैं, उससे बढ़कर आश्चर्य और क्या होगा?॥५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
यस्य मण्डलमध्यस्थो महात्मा परमत्विषा।
दीप्तः समीक्षते लोकान् किमाश्चर्यमतः परम् ॥ ६ ॥
मूलम्
यस्य मण्डलमध्यस्थो महात्मा परमत्विषा।
दीप्तः समीक्षते लोकान् किमाश्चर्यमतः परम् ॥ ६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
सूर्यमण्डलके मध्यमें उसके अन्तर्यामी महात्मा सूर्यदेव अपनी उत्तम प्रभासे प्रकाशित होते हुए समस्त लोकोंका निरीक्षण करते हैं, उससे बढ़कर आश्चर्य और क्या होगा?॥६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
शुक्रो नामासितः पादो यश्च वारिधरोऽम्बरे।
तोयं सृजति वर्षासु किमाश्चर्यमतः परम् ॥ ७ ॥
मूलम्
शुक्रो नामासितः पादो यश्च वारिधरोऽम्बरे।
तोयं सृजति वर्षासु किमाश्चर्यमतः परम् ॥ ७ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
शुक्र नामक काला मेघ, जो आकाशमें वर्षाके समय जल उत्पन्न करता है, वह इस सूर्यका ही स्वरूप है। इससे बढ़कर और क्या आश्चर्य होगा?॥७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
योऽष्टमासांस्तु शुचिना किरणेनोक्षितं पयः।
प्रत्यादत्ते पुनः काले किमाश्चर्यमतः परम् ॥ ८ ॥
मूलम्
योऽष्टमासांस्तु शुचिना किरणेनोक्षितं पयः।
प्रत्यादत्ते पुनः काले किमाश्चर्यमतः परम् ॥ ८ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
सूर्यदेव बरसातमें पृथ्वीपर जो पानी बरसाते हैं, उसे अपनी विशुद्ध किरणोंद्वारा आठ महीनेमें पुनः खींच लेते हैं। इससे बढ़कर आश्चर्यकी बात और क्या होगी?॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
यस्य तेजोविशेषेषु स्वयमात्मा प्रतिष्ठितः।
यतो बीजं मही चेयं धार्यते सचराचरा ॥ ९ ॥
यत्र देवो महाबाहुः शाश्वतः पुरुषोत्तमः।
अनादिनिधनो विप्र किमाश्चर्यमतः परम् ॥ १० ॥
मूलम्
यस्य तेजोविशेषेषु स्वयमात्मा प्रतिष्ठितः।
यतो बीजं मही चेयं धार्यते सचराचरा ॥ ९ ॥
यत्र देवो महाबाहुः शाश्वतः पुरुषोत्तमः।
अनादिनिधनो विप्र किमाश्चर्यमतः परम् ॥ १० ॥
अनुवाद (हिन्दी)
विप्रवर! जिन सूर्यदेवके विशिष्ट तेजमें साक्षात् परमात्माका निवास है, जिनसे नाना प्रकारके बीज उत्पन्न होते हैं, जिनके ही सहारे चराचर प्राणियोंसहित यह समस्त पृथ्वी टिकी हुई है तथा जिनके मण्डलमें आदि-अन्तरहित महाबाहु सनातन पुरुषोत्तम भगवान् नारायण विराजमान हैं, उनसे बढ़कर आश्चर्यकी वस्तु और क्या हो सकती है?॥९-१०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
आश्चर्याणामिवाश्चर्यमिदमेकं तु मे शृणु।
विमले यन्मया दृष्टमम्बरे सूर्यसंश्रयात् ॥ ११ ॥
मूलम्
आश्चर्याणामिवाश्चर्यमिदमेकं तु मे शृणु।
विमले यन्मया दृष्टमम्बरे सूर्यसंश्रयात् ॥ ११ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
किंतु इन सब आश्चर्योंमें भी एक परम आश्चर्यकी यह बात जो मैंने सूर्यके सहारे निर्मल आकाशमें अपनी आँखों देखी है, उसे बता रहा हूँ—सुनिये॥११॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
पुरा मध्याह्नसमये लोकांस्तपति भास्करे।
प्रत्यादित्यप्रतीकाशः सर्वतः समदृश्यत ॥ १२ ॥
मूलम्
पुरा मध्याह्नसमये लोकांस्तपति भास्करे।
प्रत्यादित्यप्रतीकाशः सर्वतः समदृश्यत ॥ १२ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
पहलेकी बात है, एक दिन मध्याह्नकालमें भगवान् भास्कर सम्पूर्ण लोकोंको तपा रहे थे। उसी समय दूसरे सूर्यके समान एक तेजस्वी पुरुष दिखायी दिया, जो सब ओरसे प्रकाशित हो रहा था॥१२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
स लोकांस्तेजसा सर्वान् स्वभासा निर्विभासयन्।
आदित्याभिमुखोऽभ्येति गगनं पाटयन्निव ॥ १३ ॥
मूलम्
स लोकांस्तेजसा सर्वान् स्वभासा निर्विभासयन्।
आदित्याभिमुखोऽभ्येति गगनं पाटयन्निव ॥ १३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
वह अपने तेजसे सम्पूर्ण लोकोंको प्रकाशित करता हुआ मानो आकाशको चीरकर सूर्यकी ओर बढ़ा आ रहा था॥१३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
हुताहुतिरिव ज्योतिर्व्याप्य तेजोमरीचिभिः ।
अनिर्देश्येन रूपेण द्वितीय इव भास्करः ॥ १४ ॥
मूलम्
हुताहुतिरिव ज्योतिर्व्याप्य तेजोमरीचिभिः ।
अनिर्देश्येन रूपेण द्वितीय इव भास्करः ॥ १४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
घीकी आहुति डालनेसे प्रज्वलित हुई अग्निके समान वह अपनी तेजोमयी किरणोंसे समस्त ज्योति-र्मण्डलको व्याप्त करके अनिर्वचनीयरूपसे द्वितीय सूर्यकी भाँति देदीप्यमान होता था॥१४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तस्याभिगमनप्राप्तौ हस्तौ दत्तौ विवस्वता।
तेनापि दक्षिणो हस्तो दत्तः प्रत्यर्चितार्थिना ॥ १५ ॥
मूलम्
तस्याभिगमनप्राप्तौ हस्तौ दत्तौ विवस्वता।
तेनापि दक्षिणो हस्तो दत्तः प्रत्यर्चितार्थिना ॥ १५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
जब वह निकट आया, तब भगवान् सूर्यने उसके स्वागतके लिये अपनी दोनों भुजाएँ उसकी ओर बढ़ा दीं। उसने भी उनके सम्मानके लिये अपना दाहिना हाथ उनकी ओर बढ़ा दिया॥१५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ततो भित्त्वैव गगनं प्रविष्टो रश्मिमण्डलम्।
एकीभूतं च तत् तेजः क्षणेनादित्यतां गतम् ॥ १६ ॥
मूलम्
ततो भित्त्वैव गगनं प्रविष्टो रश्मिमण्डलम्।
एकीभूतं च तत् तेजः क्षणेनादित्यतां गतम् ॥ १६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
तत्पश्चात् आकाशको भेदकर वह सूर्यकी किरणोंके समूहमें समा गया और एक ही क्षणमें तेजोराशिके साथ एकाकार होकर सूर्यस्वरूप हो गया॥१६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तत्र नः संशयो जातस्तयोस्तेजःसमागमे।
अनयोः को भवेत् सूर्यो रथस्थो योऽयमागतः ॥ १७ ॥
मूलम्
तत्र नः संशयो जातस्तयोस्तेजःसमागमे।
अनयोः को भवेत् सूर्यो रथस्थो योऽयमागतः ॥ १७ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
उस समय उन दोनों तेजोंके मिल जानेपर हमलोगोंके मनमें यह संदेह हुआ कि इन दोनोंमें असली सूर्य कौन थे? जो उस रथपर बैठे हुए थे वे, अथवा जो अभी पधारे थे वे?॥१७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ते वयं जातसंदेहाः पर्यपृच्छामहे रविम्।
क एष दिवमाक्रम्य गतः सूर्य इवापरः ॥ १८ ॥
मूलम्
ते वयं जातसंदेहाः पर्यपृच्छामहे रविम्।
क एष दिवमाक्रम्य गतः सूर्य इवापरः ॥ १८ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
ऐसी शंका होनेपर हमने सूर्यदेवसे पूछा—‘भगवन्! ये जो दूसरे सूर्यके समान आकाशको लाँघकर यहाँतक आये थे, कौन थे?’॥१८॥
मूलम् (समाप्तिः)
इति श्रीमहाभारते शान्तिपर्वणि मोक्षधर्मपर्वणि उञ्छवृत्त्युपाख्याने द्विषष्ट्यधिकत्रिशततमोऽध्यायः ॥ ३६२ ॥
मूलम् (वचनम्)
इस प्रकार श्रीमहाभारत शान्तिपर्वके अन्तर्गत मोक्षधर्मपर्वमें उञ्छवृत्तिका उपाख्यानविषयक तीन सौ बासठवाँ अध्याय पूरा हुआ॥३६२॥