भागसूचना
एकषष्ट्यधिकत्रिशततमोऽध्यायः
सूचना (हिन्दी)
नागराज और ब्राह्मणका परस्पर मिलन तथा बातचीत
मूलम् (वचनम्)
भीष्म उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
स पन्नगपतिस्तत्र प्रययौ ब्राह्मणं प्रति।
तमेव मनसा ध्यायन् कार्यवत्तां विचारयन् ॥ १ ॥
मूलम्
स पन्नगपतिस्तत्र प्रययौ ब्राह्मणं प्रति।
तमेव मनसा ध्यायन् कार्यवत्तां विचारयन् ॥ १ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
भीष्मजी कहते हैं— युधिष्ठिर! यह कहकर नागराज मन-ही-मन उस ब्राह्मणके कार्यका विचार करते हुए उसके पास गये॥१॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तमतिक्रम्य नागेन्द्रो मतिमान् स नरेश्वर।
प्रोवाच मधुरं वाक्यं प्रकृत्या धर्मवत्सलः ॥ २ ॥
मूलम्
तमतिक्रम्य नागेन्द्रो मतिमान् स नरेश्वर।
प्रोवाच मधुरं वाक्यं प्रकृत्या धर्मवत्सलः ॥ २ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
नरेश्वर! उसके निकट पहुँचकर बुद्धिमान् नागेन्द्र, जो स्वभावसे ही धर्मानुरागी थे, मधुर वाणीमें बोले—॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
भो भोः क्षाम्याभिभाषे त्वां न रोषं कर्तुमर्हसि।
इह त्वमभिसम्प्राप्तः कस्यार्थे किं प्रयोजनम् ॥ ३ ॥
मूलम्
भो भोः क्षाम्याभिभाषे त्वां न रोषं कर्तुमर्हसि।
इह त्वमभिसम्प्राप्तः कस्यार्थे किं प्रयोजनम् ॥ ३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘हे ब्राह्मणदेव! आप मेरे अपराधोंको क्षमा करें। मुझपर रोष न करें। मैं आपसे पूछता हूँ कि आप यहाँ किसके लिये आये हैं? आपका क्या प्रयोजन है?॥३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
आभिमुख्यादभिक्रम्य स्नेहात् पृच्छामि ते द्विज।
विविक्ते गोमतीतीरे कं वा त्वं पर्युपाससे ॥ ४ ॥
मूलम्
आभिमुख्यादभिक्रम्य स्नेहात् पृच्छामि ते द्विज।
विविक्ते गोमतीतीरे कं वा त्वं पर्युपाससे ॥ ४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘ब्रह्मन्! मैं आपके सामने आकर प्रेमपूर्वक पूछता हूँ कि गोमतीके इस एकान्त तटपर आप किसकी उपासना करते हैं?’॥४॥
मूलम् (वचनम्)
ब्राह्मण उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
धर्मारण्यं हि मां विद्धि नागं द्रष्टुमिहागतम्।
पद्मनाभं द्विजश्रेष्ठ तत्र मे कार्यमाहितम् ॥ ५ ॥
मूलम्
धर्मारण्यं हि मां विद्धि नागं द्रष्टुमिहागतम्।
पद्मनाभं द्विजश्रेष्ठ तत्र मे कार्यमाहितम् ॥ ५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
ब्राह्मणने कहा— द्विजश्रेष्ठ! आपको विदित हो कि मेरा नाम धर्मारण्य है। मैं नागराज पद्मनाभका दर्शन करनेके लिये यहाँ आया हूँ। उन्हींसे मुझे कुछ काम है॥५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तस्य चाहमसांनिध्ये श्रुतवानस्मि तं गतम्।
स्वजनात् तं प्रतीक्षामि पर्जन्यमिव कर्षकः ॥ ६ ॥
मूलम्
तस्य चाहमसांनिध्ये श्रुतवानस्मि तं गतम्।
स्वजनात् तं प्रतीक्षामि पर्जन्यमिव कर्षकः ॥ ६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
उनके स्वजनोंसे मैंने सुना है कि वे यहाँसे दूर गये हुए हैं, अतः जैसे किसान वर्षाकी राह देखता है, उसी तरह मैं भी उनकी बाट जोहता हूँ॥६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तस्य चाक्लेशकरणं स्वस्तिकारसमाहितम् ।
आवर्तयामि तद् ब्रह्म योगयुक्तो निरामयः ॥ ७ ॥
मूलम्
तस्य चाक्लेशकरणं स्वस्तिकारसमाहितम् ।
आवर्तयामि तद् ब्रह्म योगयुक्तो निरामयः ॥ ७ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
उन्हें कोई क्लेश न हो। वे सकुशल घर लौटकर आ जायँ, इसके लिये नीरोग एवं योगयुक्त होकर मैं वेदोंका पारायण कर रहा हूँ॥७॥
मूलम् (वचनम्)
नाग उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
अहो कल्याणवृत्तस्त्वं साधुः सज्जनवत्सलः।
अवाच्यस्त्वं महाभाग परं स्नेहेन पश्यसि ॥ ८ ॥
मूलम्
अहो कल्याणवृत्तस्त्वं साधुः सज्जनवत्सलः।
अवाच्यस्त्वं महाभाग परं स्नेहेन पश्यसि ॥ ८ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
नागने कहा— महाभाग! आपका आचरण बड़ा ही कल्याणमय है। आप बड़े ही साधु हैं और सज्जनोंपर स्नेह रखते हैं। किसी भी दृष्टिसे आप निन्दनीय नहीं हैं; क्योंकि दूसरोंको स्नेहदृष्टिसे देखते हैं॥८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अहं स नागो विप्रर्षे यथा मां विन्दते भवान्।
आज्ञापय यथा स्वैरं किं करोमि प्रियं तव ॥ ९ ॥
मूलम्
अहं स नागो विप्रर्षे यथा मां विन्दते भवान्।
आज्ञापय यथा स्वैरं किं करोमि प्रियं तव ॥ ९ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
ब्रह्मर्षे! मैं ही वह नाग हूँ, जिससे आप मिलना चाहते हैं। आप मुझे जैसा जानते हैं, मैं वैसा ही हूँ। इच्छानुसार आज्ञा दीजिये, मैं आपका कौन-सा प्रिय कार्य करूँ?॥९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
भवन्तं स्वजनादस्मि सम्प्राप्तं श्रुतवानहम्।
अतस्त्वां स्वयमेवाहं द्रष्टुमभ्यागतो द्विज ॥ १० ॥
मूलम्
भवन्तं स्वजनादस्मि सम्प्राप्तं श्रुतवानहम्।
अतस्त्वां स्वयमेवाहं द्रष्टुमभ्यागतो द्विज ॥ १० ॥
अनुवाद (हिन्दी)
ब्रह्मन्! अपने स्वजन (पत्नी) से मैंने आपके आगमनका समाचार सुना है; इसलिये स्वयं ही आपका दर्शन करनेके लिये चला आया हूँ॥१०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
सम्प्राप्तश्च भवानद्य कृतार्थः प्रतियास्यति।
विस्रब्धो मां द्विजश्रेष्ठ विषये योक्तुमर्हसि ॥ ११ ॥
मूलम्
सम्प्राप्तश्च भवानद्य कृतार्थः प्रतियास्यति।
विस्रब्धो मां द्विजश्रेष्ठ विषये योक्तुमर्हसि ॥ ११ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
द्विजश्रेष्ठ! जब आप यहाँतक आ गये हैं, तब अब कृतार्थ होकर ही यहाँसे लौटेंगे; अतः बेखटके मुझे अपने अभीष्ट कार्यके साधनमें लगाइये॥११॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
वयं हि भवता सर्वे गुणक्रीता विशेषतः।
यस्त्वमात्महितं त्यक्त्वा मामेवेहानुरुध्यसे ॥ १२ ॥
मूलम्
वयं हि भवता सर्वे गुणक्रीता विशेषतः।
यस्त्वमात्महितं त्यक्त्वा मामेवेहानुरुध्यसे ॥ १२ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
आपने हम सब लोगोंको विशेषरूपसे अपने गुणोंसे खरीद लिया है; क्योंकि आप अपने हितकी बातको अलग रखकर मेरे ही कल्याणका चिन्तन कर रहे हैं॥१२॥
मूलम् (वचनम्)
ब्राह्मण उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
आगतोऽहं महाभाग तव दर्शनलालसः।
कंचिदर्थमनर्थज्ञः प्रष्टुकामो भुजङ्गम ॥ १३ ॥
मूलम्
आगतोऽहं महाभाग तव दर्शनलालसः।
कंचिदर्थमनर्थज्ञः प्रष्टुकामो भुजङ्गम ॥ १३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
ब्राह्मणने कहा— महाभाग नागराज! मैं आपहीके दर्शनकी लालसासे यहाँ आया हूँ। आपसे एक बात पूछना चाहता हूँ, जिसे मैं स्वयं नहीं जानता हूँ॥१३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अहमात्मानमात्मस्थो मार्गमाणोऽऽत्मनो गतिम् ।
वासार्थिनं महाप्रज्ञं चलच्चित्तमुपास्मि ह ॥ १४ ॥
मूलम्
अहमात्मानमात्मस्थो मार्गमाणोऽऽत्मनो गतिम् ।
वासार्थिनं महाप्रज्ञं चलच्चित्तमुपास्मि ह ॥ १४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
मैं विषयोंसे निवृत्त हो अपने-आपमें ही स्थित रहकर जीवात्माओंकी परमगतिस्वरूप परब्रह्म परमात्माकी खोज कर रहा हूँ, तो भी महान् बुद्धियुक्त गृहमें आसक्त हुए इस चंचल चित्तकी उपासना करता हूँ (अतः मैं न तो आसक्त हूँ और न विरक्त ही हूँ)॥१४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
प्रकाशितस्त्वं स्वगुणैर्यशोगर्भगभस्तिभिः ।
शशाङ्ककरसंस्पर्शैर्हृद्यैरात्मप्रकाशितैः ॥ १५ ॥
मूलम्
प्रकाशितस्त्वं स्वगुणैर्यशोगर्भगभस्तिभिः ।
शशाङ्ककरसंस्पर्शैर्हृद्यैरात्मप्रकाशितैः ॥ १५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
आप चन्द्रमाकी किरणोंकी भाँति सुखद स्पर्शवाले और स्वतः प्रकाशित होनेवाले सुयशरूपी किरणोंसे युक्त अपने मनोरम गुणोंसे ही प्रकाशमान हैं॥१५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तस्य मे प्रश्नमुत्पन्नं छिन्धि त्वमनिलाशन।
पश्चात् कार्यं वदिष्यामि श्रोतुमर्हति तद् भवान् ॥ १६ ॥
मूलम्
तस्य मे प्रश्नमुत्पन्नं छिन्धि त्वमनिलाशन।
पश्चात् कार्यं वदिष्यामि श्रोतुमर्हति तद् भवान् ॥ १६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
पवनाशन! इस समय मेरे मनमें एक नया प्रश्न उठा है। पहले इसका समाधान कीजिये। उसके बाद मैं आपसे अपना कार्य निवेदन करूँगा और आप उसे ध्यानसे सुनियेगा॥१६॥
मूलम् (समाप्तिः)
इति श्रीमहाभारते शान्तिपर्वणि मोक्षधर्मपर्वणि उञ्छवृत्त्युपाख्याने एकषष्ट्यधिकत्रिशततमोऽध्यायः ॥ ३६१ ॥
मूलम् (वचनम्)
इस प्रकार श्रीमहाभारत शान्तिपर्वके अन्तर्गत मोक्षधर्मपर्वमें उञ्छवृत्तिका उपाख्यानविषयक तीन सौ इकसठवाँ अध्याय पूरा हुआ॥३६१॥