३५९ उञ्छवृत्त्युपाख्याने

भागसूचना

एकोनषष्ट्यधिकत्रिशततमोऽध्यायः

सूचना (हिन्दी)

नागराजका घर लौटना, पत्नीके साथ उनकी धर्मविषयक बातचीत तथा पत्नीका उनसे ब्राह्मणको दर्शन देनेके लिये अनुरोध

मूलम् (वचनम्)

भीष्म उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

अथ काले बहुतिथे पूर्णे प्राप्तो भुजङ्गमः।
दत्ताभ्यनुज्ञः स्वं वेश्म कृतकर्मा विवस्वता ॥ १ ॥

मूलम्

अथ काले बहुतिथे पूर्णे प्राप्तो भुजङ्गमः।
दत्ताभ्यनुज्ञः स्वं वेश्म कृतकर्मा विवस्वता ॥ १ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

भीष्मजी कहते हैं— युधिष्ठिर! तदनन्तर कई दिनोंका समय पूरा होनेपर जब नागराजका काम पूरा हो गया, तब सूर्यदेवकी आज्ञा पाकर वे अपने घरको लौटे॥१॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तं भार्याप्युपचक्राम पादशौचादिभिर्गुणैः ।
उपपन्नां च तां साध्वीं पन्नगः पर्यपृच्छत ॥ २ ॥

मूलम्

तं भार्याप्युपचक्राम पादशौचादिभिर्गुणैः ।
उपपन्नां च तां साध्वीं पन्नगः पर्यपृच्छत ॥ २ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

वहाँ नागराजकी पत्नी पैर धोनेके लिये जल—पाद्य आदि उत्तम सामग्रियोंके साथ पतिकी सेवामें उपस्थित हुई। अपनी साध्वी पत्नीको समीप आयी देख नागराजने पूछा—॥२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अथ त्वमसि कल्याणि देवतातिथिपूजने।
पूर्वमुक्तेन विधिना युक्ता युक्तेन मत्समम् ॥ ३ ॥

मूलम्

अथ त्वमसि कल्याणि देवतातिथिपूजने।
पूर्वमुक्तेन विधिना युक्ता युक्तेन मत्समम् ॥ ३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘कल्याणि! मेरे द्वारा बतायी हुई उपयुक्त विधिसे युक्त हो तुम मेरे ही समान देवताओं और अतिथियोंके पूजनमें तत्पर तो रही हो न?॥३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

न खल्वस्यकृतार्थेन स्त्रीबुद्ध्या मार्दवीकृता।
मद्वियोगेन सुश्रोणि विमुक्ता धर्मसेतुना ॥ ४ ॥

मूलम्

न खल्वस्यकृतार्थेन स्त्रीबुद्ध्या मार्दवीकृता।
मद्वियोगेन सुश्रोणि विमुक्ता धर्मसेतुना ॥ ४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘सुन्दरि! मेरे वियोगने तुम्हें शिथिल तो नहीं कर दिया था? तुम्हारी स्त्री-बुद्धिके कारण कहीं धर्मकी मर्यादा असफल या अरक्षित तो नहीं रह गयी और उसके कारण तुम धर्म-पालनसे विमुख या दूर तो नहीं हो गयी?॥४॥

मूलम् (वचनम्)

नागभार्योवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

शिष्याणां गुरुशुश्रूषा विप्राणां वेदधारणम्।
भृत्यानां स्वामिवचनं राज्ञो लोकानुपालनम् ॥ ५ ॥

मूलम्

शिष्याणां गुरुशुश्रूषा विप्राणां वेदधारणम्।
भृत्यानां स्वामिवचनं राज्ञो लोकानुपालनम् ॥ ५ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

नागपत्नीने कहा— शिष्योंका धर्म है गुरुकी सेवा करना, ब्राह्मणोंका धर्म है वेदोंको धारण करना, सेवकोंका धर्म है स्वामीकी आज्ञाका पालन तथा राजाका धर्म है प्रजावर्गका सतत संरक्षण॥५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

सर्वभूतपरित्राणं क्षत्रधर्म इहोच्यते ।
वैश्यानां यज्ञसंवृत्तिरातिथेयसमन्विता ॥ ६ ॥

मूलम्

सर्वभूतपरित्राणं क्षत्रधर्म इहोच्यते ।
वैश्यानां यज्ञसंवृत्तिरातिथेयसमन्विता ॥ ६ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

इस जगत्‌में समस्त प्राणियोंकी रक्षा करना क्षत्रिय-धर्म बताया जाता है। अतिथि-सत्कारके साथ-साथ यज्ञोंका अनुष्ठान करना वैश्योंका धर्म कहा गया है॥६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

विप्रक्षत्रियवैश्यानां शुश्रूषा शूद्रकर्म तत्।
गृहस्थधर्मो नागेन्द्र सर्वभूतहितैषिता ॥ ७ ॥

मूलम्

विप्रक्षत्रियवैश्यानां शुश्रूषा शूद्रकर्म तत्।
गृहस्थधर्मो नागेन्द्र सर्वभूतहितैषिता ॥ ७ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

नागराज! ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैश्य—तीनों वर्णोंकी सेवा करना शूद्रका कर्तव्य बताया गया है और समस्त प्राणियोंके हितकी इच्छा रखना गृहस्थका धर्म है॥७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

नियताहारता नित्यं व्रतचर्या यथाक्रमम्।
धर्मो हि धर्मसम्बन्धादिन्द्रियाणां विशेषतः ॥ ८ ॥

मूलम्

नियताहारता नित्यं व्रतचर्या यथाक्रमम्।
धर्मो हि धर्मसम्बन्धादिन्द्रियाणां विशेषतः ॥ ८ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

नियमित आहारका सेवन और विधिवत् व्रतका पालन सबका धर्म है। धर्म-पालनके सम्बन्धसे इन्द्रियोंकी विशेषरूपसे शुद्धि होती है॥८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अहं कस्य कुतो वापि कः को मे ह भवेदिति।
प्रयोजनमतिर्नित्यमेवं मोक्षाश्रमे वसेत् ॥ ९ ॥

मूलम्

अहं कस्य कुतो वापि कः को मे ह भवेदिति।
प्रयोजनमतिर्नित्यमेवं मोक्षाश्रमे वसेत् ॥ ९ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘मैं किसका हूँ? कहाँसे आया हूँ, मेरा कौन है? तथा इस जीवनका प्रयोजन क्या है?’ इत्यादि बातोंका सदा विचार करते हुए ही संन्यासीको संन्यास-आश्रममें रहना चाहिये॥९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

पतिव्रतात्वं भार्यायाः परमो धर्म उच्यते।
तवोपदेशान्नागेन्द्र तच्च तत्त्वेन वेद्मि वै ॥ १० ॥

मूलम्

पतिव्रतात्वं भार्यायाः परमो धर्म उच्यते।
तवोपदेशान्नागेन्द्र तच्च तत्त्वेन वेद्मि वै ॥ १० ॥

अनुवाद (हिन्दी)

नागराज! पत्नीके लिये पातिव्रत्य ही सबसे बड़ा धर्म कहा जाता है। आपके उपदेशसे अपने उस धर्मको मैं अच्छी तरह समझती हूँ॥१०॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

साहं धर्मं विजानन्ती धर्मनित्ये त्वयि स्थिते।
सत्पथं कथमुत्सृज्य यास्यामि विपथं पथः ॥ ११ ॥

मूलम्

साहं धर्मं विजानन्ती धर्मनित्ये त्वयि स्थिते।
सत्पथं कथमुत्सृज्य यास्यामि विपथं पथः ॥ ११ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

जब आप—मेरे पतिदेव सदा धर्मपर स्थित रहते हैं, तब धर्मको जानती हुई भी मैं कैसे सन्मार्गका त्याग करके कुमार्गपर पैर रखूँगी?॥११॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

देवतानां महाभाग धर्मचर्या न हीयते।
अतिथीनां च सत्कारे नित्ययुक्तास्म्यतन्द्रिता ॥ १२ ॥

मूलम्

देवतानां महाभाग धर्मचर्या न हीयते।
अतिथीनां च सत्कारे नित्ययुक्तास्म्यतन्द्रिता ॥ १२ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

महाभाग! देवताओंकी आराधनारूप धर्मचर्यामें कोई कमी नहीं आयी है, अतिथियोंके सत्कारमें भी मैं सदा आलस्य छोड़कर लगी रही हूँ॥१२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

सप्ताष्टदिवसास्त्वद्य विप्रस्येहागतस्य वै ।
तच्च कार्यं न मे ख्याति दर्शनं तव काङ्क्षति॥१३॥

मूलम्

सप्ताष्टदिवसास्त्वद्य विप्रस्येहागतस्य वै ।
तच्च कार्यं न मे ख्याति दर्शनं तव काङ्क्षति॥१३॥

अनुवाद (हिन्दी)

परंतु आज पंद्रह दिनसे एक ब्राह्मणदेवता यहाँ पधारे हुए हैं। वे मुझसे अपना कोई कार्य नहीं बता रहे हैं। केवल आपका दर्शन चाहते हैं॥१३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

गोमत्यास्त्वेष पुलिने त्वद्‌दर्शनसमुत्सुकः ।
आसीनो वर्तयन् ब्रह्म ब्राह्मणः संशितव्रतः ॥ १४ ॥

मूलम्

गोमत्यास्त्वेष पुलिने त्वद्‌दर्शनसमुत्सुकः ।
आसीनो वर्तयन् ब्रह्म ब्राह्मणः संशितव्रतः ॥ १४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

वे कठोर व्रतका पालन करनेवाले ब्राह्मण वेदोंका पारायण करते हुए आपके दर्शनके लिये उत्सुक हो गोमतीके किनारे बैठे हुए हैं॥१४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अहं त्वनेन नागेन्द्र सत्यपूर्वं समाहिता।
प्रस्थाप्यो मत्सकाशं स सम्प्राप्तो भुजगोत्तमः ॥ १५ ॥

मूलम्

अहं त्वनेन नागेन्द्र सत्यपूर्वं समाहिता।
प्रस्थाप्यो मत्सकाशं स सम्प्राप्तो भुजगोत्तमः ॥ १५ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

नागराज! उन्होंने मुझसे पहले सच्ची प्रतिज्ञा करा ली है कि नागराजके आते ही तुम उन्हें मेरे पास भेज देना॥१५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

एतच्छ्रुत्वा महाप्राज्ञ तत्र गन्तुं त्वमर्हसि।
दातुमर्हसि वा तस्य दर्शनं दर्शनश्रवः ॥ १६ ॥

मूलम्

एतच्छ्रुत्वा महाप्राज्ञ तत्र गन्तुं त्वमर्हसि।
दातुमर्हसि वा तस्य दर्शनं दर्शनश्रवः ॥ १६ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

महाप्राज्ञ नागराज! मेरी यह बात सुनकर अब आपको वहाँ जाना चाहिये और ब्राह्मणदेवताको दर्शन देना चाहिये॥१६॥

मूलम् (समाप्तिः)

इति श्रीमहाभारते शान्तिपर्वणि मोक्षधर्मपर्वणि उञ्छवृत्त्युपाख्याने एकोनषष्ट्यधिकत्रिशततमोऽध्यायः ॥ ३५९ ॥

मूलम् (वचनम्)

इस प्रकार श्रीमहाभारत शान्तिपर्वके अन्तर्गत मोक्षधर्मपर्वमें उञ्छवृत्तिका उपाख्यानविषयक तीन सौ उनसठवाँ अध्याय पूरा हुआ॥३५९॥