३५८ उञ्छवृत्त्युपाख्याने

भागसूचना

अष्टपञ्चाशदधिकत्रिशततमोऽध्यायः

सूचना (हिन्दी)

नागराजके दर्शनके लिये ब्राह्मणकी तपस्या तथा नागराजके परिवारवालोंका भोजनके लिये ब्राह्मणसे आग्रह करना

मूलम् (वचनम्)

भीष्म उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

अथ तेन नरश्रेष्ठ ब्राह्मणेन तपस्विना।
निराहारेण वसता दुःखितास्ते भुजङ्गमाः ॥ १ ॥

मूलम्

अथ तेन नरश्रेष्ठ ब्राह्मणेन तपस्विना।
निराहारेण वसता दुःखितास्ते भुजङ्गमाः ॥ १ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

भीष्मजी कहते हैं— नरश्रेष्ठ! तदनन्तर गोमतीके तटपर रहता हुआ वह ब्राह्मण निराहार रहकर तपस्या करने लगा। उसके भोजन न करनेसे वहाँ रहनेवाले नागोंको बड़ा दुःख हुआ॥१॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

सर्वे सम्भूय सहिता ह्यस्य नागस्य बान्धवाः।
भ्रातरस्तनया भार्या ययुस्तं ब्राह्मणं प्रति ॥ २ ॥

मूलम्

सर्वे सम्भूय सहिता ह्यस्य नागस्य बान्धवाः।
भ्रातरस्तनया भार्या ययुस्तं ब्राह्मणं प्रति ॥ २ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

तब नागराजके भाई-बन्धु, स्त्री-पुत्र सब मिलकर उस ब्राह्मणके पास गये॥२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तेऽपश्यन् पुलिने तं वै विविक्ते नियतव्रतम्।
समासीनं निराहारं द्विजं जप्यपरायणम् ॥ ३ ॥

मूलम्

तेऽपश्यन् पुलिने तं वै विविक्ते नियतव्रतम्।
समासीनं निराहारं द्विजं जप्यपरायणम् ॥ ३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

उन्होंने देखा, ब्राह्मण गोमतीके तटपर एकान्त प्रदेशमें व्रत और नियमके पालनमें तत्पर हो निराहार बैठा हुआ है और मन्त्रका जप कर रहा है॥३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

ते सर्वे समतिक्रम्य विप्रमभ्यर्च्य चासकृत्।
ऊचुर्वाक्यमसंदिग्धमातिथेयस्य बान्धवाः ॥ ४ ॥

मूलम्

ते सर्वे समतिक्रम्य विप्रमभ्यर्च्य चासकृत्।
ऊचुर्वाक्यमसंदिग्धमातिथेयस्य बान्धवाः ॥ ४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

अतिथि-सत्कारके लिये प्रसिद्ध हुए नागराजके सब भाई-बन्धु ब्राह्मणके पास जा उसकी बारंबार पूजा करके संदेहरहित वाणीमें बोले—॥४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

षष्ठो हि दिवसस्तेऽद्य प्राप्तस्येह तपोधन।
न चाभिभाषसे किंचिदाहारं धर्मवत्सल ॥ ५ ॥

मूलम्

षष्ठो हि दिवसस्तेऽद्य प्राप्तस्येह तपोधन।
न चाभिभाषसे किंचिदाहारं धर्मवत्सल ॥ ५ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘धर्मवत्सल तपोधन! आपको यहाँ आये आज छः दिन हो गये; किंतु अभीतक आप कुछ भोजन लानेके लिये हमें आज्ञा नहीं दे रहे हैं॥५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अस्मानभिगतश्चासि वयं च त्वामुपस्थिताः।
कार्यं चातिथ्यमस्माभिर्वयं सर्वे कुटुम्बिनः ॥ ६ ॥

मूलम्

अस्मानभिगतश्चासि वयं च त्वामुपस्थिताः।
कार्यं चातिथ्यमस्माभिर्वयं सर्वे कुटुम्बिनः ॥ ६ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘आप हमारे घर अतिथिके रूपमें आये हैं और हम आपकी सेवामें उपस्थित हुए हैं। आपका आतिथ्य करना हमारा कर्तव्य है; क्योंकि हम सब लोग गृहस्थ हैं॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

मूलं फलं वा पर्णं वा पयो वा द्विजसत्तम।
आहारहेतोरन्नं वा भोक्तुमर्हसि ब्राह्मण ॥ ७ ॥

मूलम्

मूलं फलं वा पर्णं वा पयो वा द्विजसत्तम।
आहारहेतोरन्नं वा भोक्तुमर्हसि ब्राह्मण ॥ ७ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘द्विजश्रेष्ठ ब्राह्मणदेव! आप क्षुधाकी निवृत्तिके लिये हमारे लाये हुए फल-मूल, साग, दूध अथवा अन्नको अवश्य ग्रहण करनेकी कृपा करें॥७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

त्यक्ताहारेण भवता वने निवसता त्वया।
बालवृद्धमिदं सर्वं पीड्यते धर्मसंकटात् ॥ ८ ॥

मूलम्

त्यक्ताहारेण भवता वने निवसता त्वया।
बालवृद्धमिदं सर्वं पीड्यते धर्मसंकटात् ॥ ८ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘इस वनमें रहकर आपने भोजन छोड़ दिया है। इससे हमारे धर्ममें बाधा आती है। बालकसे लेकर वृद्धतक हम सब लोगोंको इस बातसे बड़ा कष्ट हो रहा है॥८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

न हि नो भ्रूणहा कश्चिज्जातापद्यनृतोऽपि वा।
पूर्वाशी वा कुले ह्यस्मिन् देवतातिथिबन्धुषु ॥ ९ ॥

मूलम्

न हि नो भ्रूणहा कश्चिज्जातापद्यनृतोऽपि वा।
पूर्वाशी वा कुले ह्यस्मिन् देवतातिथिबन्धुषु ॥ ९ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘हमारे इस कुलमें कोई भी ऐसा नहीं है, जिसने कभी भ्रूणहत्या की हो, जिसकी संतान पैदा होकर मर गयी हो, जिसने मिथ्या भाषण किया हो अथवा जो देवता, अतिथि एवं बन्धुओंकों अन्न देनेके पहले ही भोजन कर लेता हो’॥९॥

मूलम् (वचनम्)

ब्राह्मण उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

उपदेशेन युष्माकमाहारोऽयं कृतो मया।
द्विरूनं दशरात्रं वै नागस्यागमनं प्रति ॥ १० ॥

मूलम्

उपदेशेन युष्माकमाहारोऽयं कृतो मया।
द्विरूनं दशरात्रं वै नागस्यागमनं प्रति ॥ १० ॥

अनुवाद (हिन्दी)

ब्राह्मणने कहा— नागगण! आपलोगोंके इस उपदेशसे ही मैं तृप्त हो गया। आपलोग ऐसा समझें कि मैंने यह आहार ही प्राप्त कर लिया। नागराजके आनेमें केवल आठ रातें बाकी हैं॥१०॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

यद्यष्टरात्रेऽतिक्रान्ते नागमिष्यति पन्नगः ।
तदाहारं करिष्यामि तन्निमित्तमिदं व्रतम् ॥ ११ ॥

मूलम्

यद्यष्टरात्रेऽतिक्रान्ते नागमिष्यति पन्नगः ।
तदाहारं करिष्यामि तन्निमित्तमिदं व्रतम् ॥ ११ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

यदि आठ रात बीत जानेपर भी नागराज नहीं आयेंगे तो मैं भोजन कर लूँगा। उनके आगमनके लिये ही मैंने यह व्रत लिया है॥११॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

कर्तव्यो न च संतापो गम्यतां च यथागतम्।
तन्निमित्तमिदं सर्वं नैतद् भेत्तुमिहार्हथ ॥ १२ ॥

मूलम्

कर्तव्यो न च संतापो गम्यतां च यथागतम्।
तन्निमित्तमिदं सर्वं नैतद् भेत्तुमिहार्हथ ॥ १२ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

आपलोगोंको इसके लिये संताप नहीं करना चाहिये। आप जैसे आये हैं, वैसे ही घर लौट जाइये। नागराजके दर्शनके लिये ही मेरा यह सारा व्रत और नियम है। अतः आपलोग इसे भंग न करें॥१२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

ते तेन समनुज्ञाता ब्राह्मणेन भुजङ्गमाः।
स्वमेव भवनं जग्मुरकृतार्था नरर्षभ ॥ १३ ॥

मूलम्

ते तेन समनुज्ञाता ब्राह्मणेन भुजङ्गमाः।
स्वमेव भवनं जग्मुरकृतार्था नरर्षभ ॥ १३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

नरश्रेष्ठ! उस ब्राह्मणके इस प्रकार आदेश देनेपर वे नाग अपने प्रयत्नमें असफल हो घरको ही लौट गये॥१३॥

मूलम् (समाप्तिः)

इति श्रीमहाभारते शान्तिपर्वणि मोक्षधर्मपर्वणि उञ्छवृत्त्युपाख्याने अष्टपञ्चाशदधिकत्रिशततमोऽध्यायः ॥ ३५८ ॥

मूलम् (वचनम्)

इस प्रकार श्रीमहाभारत शान्तिपर्वके अन्तर्गत मोक्षधर्मपर्वमें उञ्छवृत्तिका उपाख्यानविषयक तीन सौ अट्‌ठावनवाँ अध्याय पूरा हुआ॥३५८॥