३५५ उञ्छवृत्त्युपाख्याने

भागसूचना

पञ्चपञ्चाशदधिकत्रिशततमोऽध्यायः

सूचना (हिन्दी)

अतिथिद्वारा नागराज पद्‌मनाभके सदाचार और सद्‌गुणोंका वर्णन तथा ब्राह्मणको उसके पास जानेके लिये प्रेरणा

मूलम् (वचनम्)

अतिथिरुवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

उपदेशं तु ते विप्र करिष्येऽहं यथाक्रमम्।
गुरुणा मे यथाख्यातमर्थतत्त्वं तु मे शृणु ॥ १ ॥

मूलम्

उपदेशं तु ते विप्र करिष्येऽहं यथाक्रमम्।
गुरुणा मे यथाख्यातमर्थतत्त्वं तु मे शृणु ॥ १ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

अतिथिने कहा— विप्रवर! मेरे गुरुने इस विषयमें जो तात्त्विक बात बतलायी है, उसीका मैं तुमको क्रमशः उपदेश करूँगा। तुम मेरे इस कथनको सुनो॥१॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

यत्र पूर्वाभिसर्गे वै धर्मचक्रं प्रवर्तितम्।
नैमिषे गोमतीतीरे तत्र नागाह्वयं पुरम् ॥ २ ॥
समग्रैस्त्रिदशैस्तत्र इष्टमासीद् द्विजर्षभ ।
यत्रेन्द्रातिक्रमं चक्रे मान्धाता राजसत्तमः ॥ ३ ॥

मूलम्

यत्र पूर्वाभिसर्गे वै धर्मचक्रं प्रवर्तितम्।
नैमिषे गोमतीतीरे तत्र नागाह्वयं पुरम् ॥ २ ॥
समग्रैस्त्रिदशैस्तत्र इष्टमासीद् द्विजर्षभ ।
यत्रेन्द्रातिक्रमं चक्रे मान्धाता राजसत्तमः ॥ ३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

द्विजश्रेष्ठ! पूर्वकल्पमें जहाँ प्रजापतिने धर्मचक्र प्रवर्तित किया था, सम्पूर्ण देवताओंने जहाँ यज्ञ किया था तथा जहाँ राजाओंमें श्रेष्ठ मान्धाता यज्ञ करनेमें इन्द्रसे भी आगे बढ़ गये थे, उस नैमिषारण्यमें गोमतीके तटपर नागपुर नामक एक नगर है॥२-३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

कृताधिवासो धर्मात्मा तत्र चक्षुःश्रवा महान्।
पद्मनाभो महानागः पद्म इत्येव विश्रुतः ॥ ४ ॥

मूलम्

कृताधिवासो धर्मात्मा तत्र चक्षुःश्रवा महान्।
पद्मनाभो महानागः पद्म इत्येव विश्रुतः ॥ ४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

वहाँ एक महान् धर्मात्मा सर्प निवास करता है। उस महानागका नाम तो है पद्मनाभ; परंतु पद्म नामसे ही उसकी प्रसिद्धि है॥४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

स वाचा कर्मणा चैव मनसा च द्विजर्षभ।
प्रसादयति भूतानि त्रिविधे वर्त्मनि स्थितः ॥ ५ ॥

मूलम्

स वाचा कर्मणा चैव मनसा च द्विजर्षभ।
प्रसादयति भूतानि त्रिविधे वर्त्मनि स्थितः ॥ ५ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

द्विजश्रेष्ठ! पद्म मन, वाणी और क्रियाद्वारा कर्म, उपासना और ज्ञान—इन तीनों मार्गोंका आश्रय लेकर रहता और सम्पूर्ण भूतोंको प्रसन्न रखता है॥५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

साम्ना भेदेन दानेन दण्डेनेति चतुर्विधम्।
विषमस्थं समस्थं च चक्षुर्ध्यानेन रक्षति ॥ ६ ॥

मूलम्

साम्ना भेदेन दानेन दण्डेनेति चतुर्विधम्।
विषमस्थं समस्थं च चक्षुर्ध्यानेन रक्षति ॥ ६ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

वह विषमतापूर्ण बर्ताव करनेवाले पुरुषको साम, दान, दण्ड और भेद-नीतिके द्वारा राहपर लाता है, समदर्शीकी रक्षा करता है और नेत्र आदि इन्द्रियोंको विचारके द्वारा कुमार्गमें जानेसे बचाता है॥६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तमतिक्रम्य विधिना प्रष्टुमर्हसि काङ्क्षितम्।
स ते परमकं धर्मं न मिथ्या दर्शयिष्यति ॥ ७ ॥

मूलम्

तमतिक्रम्य विधिना प्रष्टुमर्हसि काङ्क्षितम्।
स ते परमकं धर्मं न मिथ्या दर्शयिष्यति ॥ ७ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

तुम उसीके पास जाकर विधिपूर्वक अपना मनोवांछित प्रश्न पूछो। वह तुम्हें परम उत्तम धर्मका दर्शन करायेगा; मिथ्या धर्मका उपदेश नहीं करेगा॥७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

स हि सर्वातिथिर्नागो बुद्धिशास्त्रविशारदः।
गुणैरनुपमैर्युक्तः समस्तैराभिकामिकैः ॥ ८ ॥

मूलम्

स हि सर्वातिथिर्नागो बुद्धिशास्त्रविशारदः।
गुणैरनुपमैर्युक्तः समस्तैराभिकामिकैः ॥ ८ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

वह नाग बड़ा बुद्धिमान् और शास्त्रोंका पण्डित है। सबका अतिथि-सत्कार करता है। समस्त अनुपम तथा वाञ्छनीय सद्‌गुणोंसे सम्पन्न है॥८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

प्रकृत्या नित्यसलिलो नित्यमध्ययने रतः।
तपोदमाभ्यां संयुक्तो वृत्तेनानवरेण च ॥ ९ ॥

मूलम्

प्रकृत्या नित्यसलिलो नित्यमध्ययने रतः।
तपोदमाभ्यां संयुक्तो वृत्तेनानवरेण च ॥ ९ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

स्वभाव तो उसका पानीके समान है। वह सदा स्वाध्यायमें लगा रहता है। तप, इन्द्रिय-संयम तथा उत्तम आचार-विचारसे संयुक्त है॥९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

यज्वा दानपतिः क्षान्तो वृत्ते च परमे स्थितः।
सत्यवागनसूयुश्च शीलवान्नियतेन्द्रियः ॥ १० ॥

मूलम्

यज्वा दानपतिः क्षान्तो वृत्ते च परमे स्थितः।
सत्यवागनसूयुश्च शीलवान्नियतेन्द्रियः ॥ १० ॥

अनुवाद (हिन्दी)

वह यज्ञका अनुष्ठान करनेवाला, दानियोंका शिरोमणि, क्षमाशील, श्रेष्ठ सदाचारमें संलग्न, सत्यवादी, दोषदृष्टिसे रहित, शीलवान् और जितेन्द्रिय है॥१०॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

शेषान्नभोक्ता वचनानुकूलो
हितार्जवोत्कृष्टकृताकृतज्ञः ।
अवैरकृद् भूतहिते नियुक्तो
गङ्गाह्रदाम्भोऽभिजनोपपन्नः ॥ ११ ॥

मूलम्

शेषान्नभोक्ता वचनानुकूलो
हितार्जवोत्कृष्टकृताकृतज्ञः ।
अवैरकृद् भूतहिते नियुक्तो
गङ्गाह्रदाम्भोऽभिजनोपपन्नः ॥ ११ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

यज्ञशेष अन्नका वह भोजन करता है, अनुकूल वचन बोलता है, हित और सरलभावसे रहता है। उत्कृष्ट कर्तव्य और अकर्तव्यको जानता है, किसीसे भी वैर नहीं करता है। समस्त प्राणियोंके हितमें लगा रहता है तथा वह गंगाजीके समान पवित्र एवं निर्मल कुलमें उत्पन्न हुआ है॥११॥

मूलम् (समाप्तिः)

इति श्रीमहाभारते शान्तिपर्वणि मोक्षधर्मपर्वणि उञ्छवृत्त्युपाख्याने पञ्चपञ्चाशदधिकत्रिशततमोऽध्यायः ॥ ३५५ ॥

मूलम् (वचनम्)

इस प्रकार श्रीमहाभारत शान्तिपर्वके अन्तर्गत मोक्षधर्मपर्वमें उञ्छवृत्तिका उपाख्यानविषयक तीन सौ पचपनवाँ अध्याय पूरा हुआ॥३५५॥