भागसूचना
त्रिपञ्चाशदधिकत्रिशततमोऽध्यायः
सूचना (हिन्दी)
महापद्मपुरमें एक श्रेष्ठ ब्राह्मणके सदाचारका वर्णन और उसके घरपर अतिथिका आगमन
मूलम् (वचनम्)
भीष्म उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
आसीत् किल नरश्रेष्ठ महापद्मे पुरोत्तमे।
गङ्गाया दक्षिणे तीरे कश्चिद् विप्रः समाहितः ॥ १ ॥
सौम्यः सोमान्वये वेदे गताध्वा छिन्नसंशयः।
धर्मनित्यो जितक्रोधो नित्यतृप्तो जितेन्द्रियः ॥ २ ॥
तपःस्वाध्यायनिरतः सत्यः सज्जनसम्मतः ।
न्यायप्राप्तेन वित्तेन स्वेन शीलेन चान्वितः ॥ ३ ॥
मूलम्
आसीत् किल नरश्रेष्ठ महापद्मे पुरोत्तमे।
गङ्गाया दक्षिणे तीरे कश्चिद् विप्रः समाहितः ॥ १ ॥
सौम्यः सोमान्वये वेदे गताध्वा छिन्नसंशयः।
धर्मनित्यो जितक्रोधो नित्यतृप्तो जितेन्द्रियः ॥ २ ॥
तपःस्वाध्यायनिरतः सत्यः सज्जनसम्मतः ।
न्यायप्राप्तेन वित्तेन स्वेन शीलेन चान्वितः ॥ ३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
भीष्मजी कहते हैं— नरश्रेष्ठ युधिष्ठिर! (नारदजीने जो कथा सुनायी, वह इस प्रकार है—) गंगाके दक्षिणतटपर महापद्म नामक कोई श्रेष्ठ नगर है। वहाँ एक ब्राह्मण रहता था। वह एकाग्रचित्त और सौम्य स्वभावका मनुष्य था। उसका जन्म चन्द्रमाके कुलमें—अत्रिगोत्रमें हुआ था। वेदमें उसकी अच्छी गति थी और उसके मनमें किसी प्रकारका संदेह नहीं था। वह सदा धर्मपरायण, क्रोधरहित, नित्य संतुष्ट, जितेन्द्रिय, तप और स्वाध्यायमें संलग्न, सत्यवादी और सत्पुरुषोंके सम्मानका पात्र था। न्यायोपार्जित धन और अपने ब्राह्मणोचित शीलसे सम्पन्न था॥१—३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ज्ञातिसम्बन्धिविपुले सत्त्वाद्याश्रयसम्मिते ।
कुले महति विख्याते विशिष्टां वृत्तिमास्थितः ॥ ४ ॥
मूलम्
ज्ञातिसम्बन्धिविपुले सत्त्वाद्याश्रयसम्मिते ।
कुले महति विख्याते विशिष्टां वृत्तिमास्थितः ॥ ४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
उसके कुलमें सगे-सम्बन्धियोंकी संख्या अधिक थी। सभी लोग सत्त्वप्रधान सद्गुणोंका सहारा लेकर श्रेष्ठ जीवन व्यतीत करते थे। उस महान् एवं विख्यात कुलमें रहकर वह उत्तम आजीविकाके सहारे जीवन-निर्वाह करता था॥४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
स पुत्रान् बहुलान् दृष्ट्वा विपुले कर्मणि स्थितः।
कुलधर्माश्रितो राजन् धर्मचर्यास्थितोऽभवत् ॥ ५ ॥
मूलम्
स पुत्रान् बहुलान् दृष्ट्वा विपुले कर्मणि स्थितः।
कुलधर्माश्रितो राजन् धर्मचर्यास्थितोऽभवत् ॥ ५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
राजन्! उसने देखा कि मेरे बहुत-से पुत्र हो गये, तब वह लौकिक कार्यसे विरक्त हो महान् कर्ममें संलग्न हो गया और अपने कुलधर्मका आश्रय ले धर्माचरणमें ही तत्पर रहने लगा॥५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ततः स धर्मं वेदोक्तं तथा शास्त्रोक्तमेव च।
शिष्टाचीर्णं च धर्मं च त्रिविधं चिन्त्य चेतसा ॥ ६ ॥
मूलम्
ततः स धर्मं वेदोक्तं तथा शास्त्रोक्तमेव च।
शिष्टाचीर्णं च धर्मं च त्रिविधं चिन्त्य चेतसा ॥ ६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
तदनन्तर उसने वेदोक्त धर्म, शास्त्रोक्त धर्म तथा शिष्ट पुरुषोंद्वारा आचरित धर्म—इन तीन प्रकारके धर्मोंपर मन-ही-मन विचार करना आरम्भ किया—॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
किन्नु मे स्याच्छुभं कृत्वा किं कृतं किं परायणम्।
इत्येवं खिद्यते नित्यं न च याति विनिश्चयम् ॥ ७ ॥
मूलम्
किन्नु मे स्याच्छुभं कृत्वा किं कृतं किं परायणम्।
इत्येवं खिद्यते नित्यं न च याति विनिश्चयम् ॥ ७ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘क्या करनेसे मेरा कल्याण होगा? मेरा क्या कर्तव्य है तथा कौन मेरे लिये परम आश्रय है?’ इस प्रकार वह सदा सोचते-सोचते खिन्न हो जाता था; परंतु किसी निर्णयपर नहीं पहुँच पाता था॥७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तस्यैवं खिद्यमानस्य धर्मं परममास्थितः।
कदाचिदतिथिः प्राप्तो ब्राह्मणः सुसमाहितः ॥ ८ ॥
मूलम्
तस्यैवं खिद्यमानस्य धर्मं परममास्थितः।
कदाचिदतिथिः प्राप्तो ब्राह्मणः सुसमाहितः ॥ ८ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
एक दिन जब वह इसी तरह सोच-विचारमें पड़ा हुआ कष्ट पा रहा था, उसके यहाँ एक परम धर्मात्मा तथा एकाग्रचित्त ब्राह्मण अतिथिके रूपमें आ पहुँचा॥८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
स तस्मै सत्क्रियां चक्रे क्रियायुक्तेन हेतुना।
विश्रान्तं सुसमासीनमिदं वचनमब्रवीत् ॥ ९ ॥
मूलम्
स तस्मै सत्क्रियां चक्रे क्रियायुक्तेन हेतुना।
विश्रान्तं सुसमासीनमिदं वचनमब्रवीत् ॥ ९ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
ब्राह्मणने उस अतिथिका क्रियायुक्त हेतु (शास्त्रोक्त विधि) से आदर-सत्कार किया और जब वह सुखपूर्वक बैठकर विश्राम करने लगा, तब उससे इस प्रकार कहा॥९॥
मूलम् (समाप्तिः)
इति श्रीमहाभारते शान्तिपर्वणि मोक्षधर्मपर्वणि उञ्छवृत्त्युपाख्याने त्रिपञ्चाशदधिकत्रिशततमोऽध्यायः ॥ ३५३ ॥
मूलम् (वचनम्)
इस प्रकार श्रीमहाभारत शान्तिपर्वके अन्तर्गत मोक्षधर्मपर्वमें उञ्छवृत्तिका उपाख्यानविषयक तीन सौ तिरपनवाँ अध्याय पूरा हुआ॥३५३॥