भागसूचना
द्विपञ्चाशदधिकत्रिशततमोऽध्यायः
सूचना (हिन्दी)
नारदके द्वारा इन्द्रको उञ्छवृत्तिवाले ब्राह्मणकी कथा सुनानेका उपक्रम
मूलम् (वचनम्)
युधिष्ठिर उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
धर्माः पितामहेनोक्ता मोक्षधर्माश्रिताः शुभाः।
धर्ममाश्रमिणां श्रेष्ठं वक्तुमर्हति मे भवान् ॥ १ ॥
मूलम्
धर्माः पितामहेनोक्ता मोक्षधर्माश्रिताः शुभाः।
धर्ममाश्रमिणां श्रेष्ठं वक्तुमर्हति मे भवान् ॥ १ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
युधिष्ठिरने कहा— पितामह! आपके बतलाये हुए कल्याणमय मोक्षसम्बन्धी धर्मोंका मैंने श्रवण किया। अब आप आश्रमधर्मोंका पालन करनेवाले मनुष्योंके लिये जो सबसे उत्तम धर्म हो, उसका उपदेश करें॥१॥
मूलम् (वचनम्)
भीष्म उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
सर्वत्र विहितो धर्मः स्वर्गः सत्यफलं महत्।
बहुद्वारस्य धर्मस्य नेहास्ति विफला क्रिया ॥ २ ॥
मूलम्
सर्वत्र विहितो धर्मः स्वर्गः सत्यफलं महत्।
बहुद्वारस्य धर्मस्य नेहास्ति विफला क्रिया ॥ २ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
भीष्मजीने कहा— राजन्! सभी आश्रमोंमें स्वधर्मपालनका विधान है, सबमें स्वर्गका तथा महान् सत्यफल—मोक्षका भी साधन है। धर्मके यज्ञ, दान, तप आदि बहुत-से द्वार हैं; अतः इस जगत्में धर्मकी कोई भी क्रिया निष्फल नहीं होती॥२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
यस्मिन् यस्मिंश्च विषये यो यो याति विनिश्चयम्।
स तमेवाभिजानाति नान्यं भरतसत्तम ॥ ३ ॥
मूलम्
यस्मिन् यस्मिंश्च विषये यो यो याति विनिश्चयम्।
स तमेवाभिजानाति नान्यं भरतसत्तम ॥ ३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
भरतश्रेष्ठ! जो-जो मनुष्य जिस-जिस विषय-स्वर्ग या मोक्षके लिये साधन करके उसमें सुनिश्चित सफलताको प्राप्त कर लेता है, उसी साधन या धर्मको वह श्रेष्ठ समझता है, दूसरेको नहीं॥३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
इमां च त्वं नरव्याघ्र श्रोतुमर्हसि मे कथाम्।
पुरा शक्रस्य कथितां नारदेन महर्षिणा ॥ ४ ॥
मूलम्
इमां च त्वं नरव्याघ्र श्रोतुमर्हसि मे कथाम्।
पुरा शक्रस्य कथितां नारदेन महर्षिणा ॥ ४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
पुरुषसिंह! इस विषयमें मैं तुम्हें एक कथा सुना रहा हूँ, उसे सुनो। पूर्वकालमें महर्षि नारदने इन्द्रको यह कथा सुनायी थी॥४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
महर्षिर्नारदो राजन् सिद्धस्त्रैलोक्यसम्मतः ।
पर्येति क्रमशो लोकान् वायुरव्याहतो यथा ॥ ५ ॥
मूलम्
महर्षिर्नारदो राजन् सिद्धस्त्रैलोक्यसम्मतः ।
पर्येति क्रमशो लोकान् वायुरव्याहतो यथा ॥ ५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
राजन्! महर्षि नारद तीनों लोकोंद्वारा सम्मानित सिद्ध पुरुष हैं। वायुके समान उनकी सर्वत्र अबाधित गति है। वे क्रमशः सभी लोकोंमें घूमते रहते हैं॥५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
स कदाचिन्महेष्वास देवराजालयं गतः।
सत्कृतश्च महेन्द्रेण प्रत्यासन्नगतोऽभवत् ॥ ६ ॥
मूलम्
स कदाचिन्महेष्वास देवराजालयं गतः।
सत्कृतश्च महेन्द्रेण प्रत्यासन्नगतोऽभवत् ॥ ६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
महाधनुर्धर नरेश! एक समय वे नारदजी देवराज इन्द्रके यहाँ पधारे। इन्द्रने उन्हें अपने समीप ही बिठाकर उनका बड़ा आदर-सत्कार किया॥६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तं कृतक्षणमासीनं पर्यपृच्छच्छचीपतिः ।
महर्षे किंचिदाश्चर्यमस्ति दृष्टं त्वयानघ ॥ ७ ॥
मूलम्
तं कृतक्षणमासीनं पर्यपृच्छच्छचीपतिः ।
महर्षे किंचिदाश्चर्यमस्ति दृष्टं त्वयानघ ॥ ७ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
जब नारदजी थोड़ी देर बैठकर विश्राम ले चुके, तब शचीपति इन्द्रने पूछा-‘निष्पाप महर्षे! इधर आपने कोई आश्चर्यजनक घटना देखी है क्या?॥७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
यदा त्वमपि विप्रर्षे त्रैलोक्यं सचराचरम्।
जातकौतूहलो नित्यं सिद्धश्चरसि साक्षिवत् ॥ ८ ॥
मूलम्
यदा त्वमपि विप्रर्षे त्रैलोक्यं सचराचरम्।
जातकौतूहलो नित्यं सिद्धश्चरसि साक्षिवत् ॥ ८ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘ब्रह्मर्षे! आप सिद्ध पुरुष हैं और कौतूहलवश चराचर प्राणियोंसे युक्त तीनों लोकोंमें सदा साक्षीकी भाँति विचरते रहते हैं॥८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
न ह्यस्त्यविदितं लोके देवर्षे तव किंचन।
श्रुतं वाप्यनुभूतं वा दृष्टं वा कथयस्व मे ॥ ९ ॥
मूलम्
न ह्यस्त्यविदितं लोके देवर्षे तव किंचन।
श्रुतं वाप्यनुभूतं वा दृष्टं वा कथयस्व मे ॥ ९ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘देवर्षे! जगत्में कोई भी ऐसी बात नहीं है, जो आपको ज्ञात न हो। यदि आपने कोई अद्भुत बात देखी हो, सुनी हो अथवा अनुभव की हो तो वह मुझे बताइये’॥९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तस्मै राजन् सुरेन्द्राय नारदो वदतां वरः।
आसीनायोपपन्नाय प्रोक्तवान् विपुलां कथाम् ॥ १० ॥
मूलम्
तस्मै राजन् सुरेन्द्राय नारदो वदतां वरः।
आसीनायोपपन्नाय प्रोक्तवान् विपुलां कथाम् ॥ १० ॥
अनुवाद (हिन्दी)
राजन्! उनके इस प्रकार पूछनेपर वक्ताओंमें श्रेष्ठ नारदजीने अपने पास ही बैठे हुए सुरेन्द्रको एक विस्तृत कथा सुनायी॥१०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
यथा येन च कल्पेन स तस्मै द्विजसत्तमः।
कथां कथितवान् पृष्टस्तथा त्वमपि मे शृणु ॥ ११ ॥
मूलम्
यथा येन च कल्पेन स तस्मै द्विजसत्तमः।
कथां कथितवान् पृष्टस्तथा त्वमपि मे शृणु ॥ ११ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
इन्द्रके पूछनेपर द्विजश्रेष्ठ नारदने उन्हें जैसे और जिस ढंगसे वह कथा कही थी, वैसे ही मैं भी कहूँगा। तुम भी मेरी कही हुई उस कथाको ध्यान देकर सुनो॥
मूलम् (समाप्तिः)
इति श्रीमहाभारते शान्तिपर्वणि मोक्षधर्मपर्वणि उञ्छवृत्त्युपाख्याने द्विपञ्चाशदधिकत्रिशततमोऽध्यायः ॥ ३५२ ॥
मूलम् (वचनम्)
इस प्रकार श्रीमहाभारत शान्तिपर्वके अन्तर्गत मोक्षधर्मपर्वमें उञ्छवृत्तिका उपाख्यानविषयक तीन सौ बावनवाँ अध्याय पूरा हूआ॥३५२॥