भागसूचना
अष्टत्रिंशदधिकत्रिशततमोऽध्यायः
सूचना (हिन्दी)
नारदजीका दो सौ नामोंद्वारा भगवान्की स्तुति करना
मूलम् (वचनम्)
भीष्म उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
प्राप्य श्वेतं महाद्वीपं नारदो भगवानृषिः।
ददर्श तानेव नरान् श्वेतांश्चन्द्रसमप्रभान् ॥ १ ॥
पूजयामास शिरसा मनसा तैश्च पूजितः।
दिदृक्षुर्जप्यपरमः सर्वकृच्छ्रगतः स्थितः ॥ २ ॥
मूलम्
प्राप्य श्वेतं महाद्वीपं नारदो भगवानृषिः।
ददर्श तानेव नरान् श्वेतांश्चन्द्रसमप्रभान् ॥ १ ॥
पूजयामास शिरसा मनसा तैश्च पूजितः।
दिदृक्षुर्जप्यपरमः सर्वकृच्छ्रगतः स्थितः ॥ २ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
भीष्मजी कहते हैं— युधिष्ठिर! उस महान् श्वेतद्वीपमें पहुँचकर भगवान् देवर्षि नारदने जब वहाँके उन चन्द्रमाके समान कान्तिमान् पुरुषोंको देखा, तब मस्तक झुकाकर प्रणाम किया और मन-ही-मन उनकी पूजा की। तत्पश्चात् श्वेतद्वीपनिवासी पुरुषोंने भी नारदजीका सत्कार किया। फिर वे भगवान्के दर्शनकी इच्छासे उनके नामका जप करने लगे एवं कठोर नियमोंका पालन करते हुए वहाँ रहने लगे॥१-२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
भूत्वैकाग्रमना विप्र ऊर्ध्वबाहुः समाहितः।
स्तोत्रं जगौ स विश्वाय निर्गुणाय गुणात्मने ॥ ३ ॥
मूलम्
भूत्वैकाग्रमना विप्र ऊर्ध्वबाहुः समाहितः।
स्तोत्रं जगौ स विश्वाय निर्गुणाय गुणात्मने ॥ ३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
नारदजी वहाँ अपनी दोनों बाँहें ऊपर उठाकर एकाग्रचित्त हो निर्गुण-सगुणरूप विश्वात्मा भगवान् नारायणकी इस प्रकार (दौ सौ नामोंद्वारा) स्तुति करने लगे॥३॥
मूलम् (वचनम्)
नारद उवाच
अनुवाद (हिन्दी)
१ नमस्ते देवदेवेश २ निष्क्रिय ३ निर्गुण ४ लोकसाक्षिन् ५ क्षेत्रज्ञ ६ पुरुषोत्तम ७ अनन्त ८ पुरुष ९ महापुरुष १० पुरुषोत्तम ११ त्रिगुण १२ प्रधान १३ अमृत १४ अमृताख्य १५ अनन्ताख्य १६ व्योम १७ सनातन १८ सदसद्व्यक्ताव्यक्त १९ ऋतधामन् २० आदिदेव २१ वसुप्रद २२ प्रजापते २३ सुप्रजापते २४ वनस्पते २५ महाप्रजापते २६ ऊर्जस्पते २७ वाचस्पते २८ जगत्पते २९ मनस्पते ३० दिवस्पते ३१ मरुत्पते ३२ सलिलपते ३३ पृथिवीपते ३४ दिक्पते ३५ पूर्वनिवास ३६ गुह्य ३७ ब्रह्मपुरोहित ३८ ब्रह्मकायिक ३९ महाराजिक ४० चातुर्महाराजिक ४१ भासुर ४२ महाभासुर ४३ सप्त-महाभाग ४४ याम्य ४५ महायाम्य ४६ संज्ञासंज्ञ ४७ तुषित ४८ महातुषित ४९ प्रमर्दन ५० परिनिर्मित ५१ अपरिनिर्मित ५२ वशवर्तिन् ५३ अपरिनिन्दित ५४ अपरिमित ५५ वशवर्तिन् ५६ अवशवर्तिन् ५७ यज्ञ ५८ महायज्ञ ५९ यज्ञसम्भव ६० यज्ञयोने ६१ यज्ञगर्भ ६२ यज्ञहृदय ६३ यज्ञस्तुत ६४ यज्ञभागहर ६५ पञ्चयज्ञ ६६ पञ्चकाल-कर्तृपते ६७ पाञ्चरात्रिक ६८ वैकुण्ठ ६९ अपराजित ७० मानसिक ७१ नामनामिक ७२ परस्वामिन् ७३ सुस्नात ७४ हंस ७५ परमहंस ७६ महाहंस ७७ परमयाज्ञिक ७८ सांख्ययोग ७९ सांख्यमूर्ते ८० अमृतेशय ८१ हिरण्येशय ८२ देवेशय ८३ कुशेशय ८४ ब्रह्मेशय ८५ पद्मेशय ८६ विश्वेश्वर ८७ विष्वक्सेन ८८ त्वं जगदन्वयः ८९ त्वं जगत्प्रकृतिः ९० तवाग्निरास्यम् ९१ वडवामुखोऽग्निः ९२ त्वमाहुतिः ९३ सारथिः ९४ त्वं वषट्कारः ९५ त्वमोङ्कारः ९६ त्वं तपः ९७ त्वं मनः ९८ त्वं चन्द्रमाः ९९ त्वं चक्षुरादित्यं १०० त्वं सूर्यः १०१ त्वं दिशां गजः १०२ त्वं दिग्भानो १०३ विदिग्भानो १०४ हयशिरः १०५ प्रथमत्रिसौपर्णः १०६ वर्णधरः १०७ पञ्चाग्ने १०८ त्रिणाचिकेत १०९ षडङ्गनिधान ११० प्राग्ज्योतिष १११ ज्येष्ठसामग ११२ सामिकव्रतधर ११३ अथर्वशिराः ११४ पञ्चमहाकल्प ११५ फेनपाचार्य ११६ वालखिल्य ११७ वैखानस ११८ अभग्नयोग ११९ अभग्न-परिसंख्यान १२० युगादे १२१ युगमध्य १२२ युगनिधन १२३ आखण्डल १२४ प्राचीनगर्भ १२५ कौशिक १२६ पुरुष्टुत १२७ पुरुहूत १२८ विश्वकृत् १२१ विश्वरूप १३० अनन्तगते १३१ अनन्तभोग १३२ अनन्त १३३ अनादे १३४ अमध्य १३५ अव्यक्तमध्य १३६ अव्यक्तनिधन १३७ व्रतावास १३८ समुद्राधिवास १३९ यशोवास १४० तपोवास १४१ दमावास १४२ लक्ष्म्यावास १४३ विद्यावास १४४ कीर्त्यावास १४५ श्रीवास १४६ सर्वावास १४७ वासुदेव १४८ सर्वच्छन्दक १४९ हरिहय १५० हरिमेध १५१ महायज्ञभागहर १५२ वरप्रद १५३ सुखप्रद १५४ धनप्रद १५५ हरिमेध १५६ यम १५७ नियम १५८ महानियम १५९ कृच्छ्र १६० अतिकृच्छ्र १६१ महाकृच्छ्र १६२ सर्वकृच्छ्र १६३ नियमधर १६४ निवृत्तभ्रम १६५ प्रवचनगत १६६ पृश्निगर्भप्रवृत्त १६७ प्रवृत्तवेदक्रिय १६८ अज १६९ सर्वगते १७० सर्वदर्शिन् १७१ अग्राह्य १७२ अचल १७३ महाविभूते १७४ माहात्म्यशरीर १७५ पवित्र १७६ महापवित्र १७७ हिरण्यमय १७८ बृहत् १७९ अप्रतर्क्य १८० अविज्ञेय १८१ ब्रह्माग्र्य १८२ प्रजासर्गकर १८३ प्रजानिधनकर १८४ महामायाधर १८५ चित्रशिखण्डिन् १८६ वरप्रद १८७ पुरोडाशभागहर १८८ गताध्वर १८९ छिन्नतृष्ण १९० छिन्नसंशय १९१ सर्वतोवृत्त १९२ निवृत्तिरूप १९३ ब्राह्मणरूप १९४ ब्राह्मणप्रिय १९५ विश्वमूर्ते १९६ महामूर्ते १९७ बान्धव १९८ भक्तवत्सल १९९ ब्रह्मण्यदेव भक्तोऽहं त्वां दिदृक्षुरेकान्तदर्शनाय २०० नमो नमः॥
१-देवदेवेश! आपको नमस्कार है। २-आप निष्क्रिय, ३-निर्गुण और ४-समस्त जगतके साक्षी हैं। ५-क्षेत्रज्ञ, ६-पुरुषोत्तम (क्षर-अक्षर पुरुषसे उत्तम), ७-अनन्त, ८ पुरुष, ९-महापुरुष, १०-पुरुषोत्तम (परमात्मा), ११-त्रिगुण, १२-प्रधान, १३-अमृत, १४-अमृताख्य, १५-अनन्ताख्य (शेषनागरूप), १६-व्योम (महाकाशरूप), १७-सनातन, १८-सदसद्व्यक्ताव्यक्त, १९-ऋतधामा (सत्यधामस्वरूप), २०-आदिदेव, २१-वसुप्रद (कर्म-फलके दाता), २२-प्रजापते (दक्ष आदि), २३-सुप्रजापते (प्रजापतियोंमें श्रेष्ठ), २४-वनस्पते, २५-महाप्रजापते (ब्रह्मस्वरूप), २६-ऊर्जस्पते (महाशक्तिशाली), २७-वाचस्पते (बृहस्पति), २८-जगत्पते, २९-मनस्पते, ३०-दिवस्पते (सूर्य), ३१-मरुत्पते (वायुदेवताके स्वामी), ३२-सलिलपते (जलके स्वामी), ३३-पृथ्वीपते, ३४-दिक्पते, ३५-पूर्वनिवास (महाप्रलयके समय जगत्के आधाररूप), ३६-गुह्य (स्वरूप), ३७-ब्रह्मपुरोहित, ३८-ब्रह्मकायिक, ३९-महाराजिक, ४०-चातुर्महाराजिक, ४१-भासुर (प्रकाशमान), ४२-महाभासुर (महाप्रकाशमान), ४३-सप्तमहाभाग, ४४-याम्य, ४५-महायाम्य, ४६-संज्ञासंज्ञ, ४७-तुषित, ४८-महातुषित, ४९-प्रमर्दन (मृत्युरूप), ५०-परिनिर्मित, ५१-अपरिनिर्मित, ५२-वशवर्ती, ५३-अपरिनिन्दित (शमदम आदि गुणसम्पन्न), ५४-अपरिमित (अनन्त), ५५-वशवर्ती, ५६-अवशवर्ती, ५७-यज्ञ, ५८-महायज्ञ, ५९-यज्ञसम्भव, ६०-यज्ञयोनि (वेदस्वरूप), ६१-यज्ञगर्भ, ६२-यज्ञहृदय, ६३-यज्ञस्तुत, ६४-यज्ञभागहर, ६५-पञ्चयज्ञ, ६६-पञ्चकालकर्तृपति (अहोरात्र, मास, ऋतु, अयन और संवत्सररूप कालके स्वामी), ६७-पाञ्चरात्रिक, ६८-वैकुण्ठ (परमधाम), ६९-अपराजित, ७०-मानसिक, ७१-नानामिक (जिनमें सब नामोंका समावेश है), ७२-परस्वामी (परमेश्वर), ७३-सुस्नात, ७४-हंस, ७५-परमहंस, ७६-महाहंस, ७७-परमयाज्ञिक, ७८-सांख्ययोगरूप, ७९-सांख्यमूर्ति (ज्ञानमूर्ति), ८०-अमृतेशय (विष्णु), ८१-हिरण्येशय, ८२-देवेशय, ८३-कुशेशय, ८४-ब्रह्मेशय, ८५-पद्मेशय (विष्णु), ८६-विश्वेश्वर और ८७-विष्वक्सेन आदि आपहीके नाम हैं। ८८-आप ही जगदन्वय (जगत्में ओत-प्रोत) तथा ८९-आप ही जगत्के कारणस्वरूप हैं। ९०-अग्नि आपका मुख है। ९१-आप ही बड़वानल, ९२-आप ही आहुतिरूप, ९३-सारथि, ९४-वषट्कार, ९५-ओङ्कार, ९६-तपःस्वरूप, ९७-मनःस्वरूप, ९८-चन्द्रमास्वरूप, ९९-चक्षुके देवता सूर्य आप ही हैं। १००-सूर्य, १०१-दिग्गज, १०२-दिग्भानु (दिशाओंको प्रकाशित करनेवाले), १०३-विदिग्भानु (विदिशाओंको प्रकाशित करनेवाले) तथा १०४-हयग्रीवरूप हैं। १०५-आप प्रथम त्रिसौपर्ण मन्त्र, १०६-ब्राह्मणादि वर्णोंको धारण करनेवाले तथा १०७-पंचाग्निरूप है। १०८-नाचिकेत नामसे प्रसिद्ध त्रिविध अग्नि भी आप ही हैं। १०९-आप शिक्षा, कल्प, व्याकरण, छन्द, निरुक्त और ज्योतिष नामक छः अंगोंके भण्डार हैं। ११० प्राग्ज्योतिषस्वरूप, १११-ज्येष्ठ सामगस्वरूप आप ही हैं। ११२-सामिक व्रतधारी, ११३-अथर्वशिरा, ११४-पञ्चमहाकल्परूप (आप ही सौर, शाक्त, गाणपत्य, शैव और वैष्णव शास्त्रोंके उपास्यदेव) हैं। ११५-फेनपाचार्य, ११६-वालखिल्य मुनिरूप, ११७-वैखानस मुनिरूप आप ही हैं। ११८-अभग्नयोग (अखण्डयोग), ११९-अभग्नपरिसंख्यान (अखण्ड विचार), १२०-युगादि (युगके आदिरूप), १२१-युगमध्य (युगके मध्यरूप), १२२-युगान्त (युगके अन्तरूप आप ही हैं), १२३-आखण्डल (इन्द्र), १२४-आप ही प्राचीनगर्भ, १२५-कौशिकमुनि, १२६-पुरुष्टुत (सबके द्वारा प्रचुर स्तुति करने योग्य), १२७-पुरुहूत, १२८-विश्वकृत (विश्वके रचयिता), १२९-विश्वरूप, १३०-अनन्तगति, १३१-अनन्तभोग, १३२-आपका न तो अन्त है, १३३-न आदि, १३४-न मध्य, १३५-अव्यक्तमध्य, १३६-अव्यक्तनिधन, १३७-व्रतावास (व्रतके आश्रय), १३८-समुद्रवासी (क्षीरसागरशायी), १३९-यशोवास, (यशके निवासस्थान), १४०-तपोवास (तपके निवासस्थान), १४१-दमावास (संयमके आधार), १४२-लक्ष्मीनिवास, १४३-विद्याके आश्रय, १४४-कीर्तिके आधार, १४५-सम्पत्तिके आश्रय, १४६-सर्वावास (सबके निवासस्थान), १४७-वासुदेव, १४८-सर्वच्छन्दक (सबकी इच्छा पूर्ण करनेवाले), १४९-हरिहय, १५०-हरिमेध (अश्वमेधयज्ञरूप), १५१-महायज्ञभागहर, १५२-वरप्रद (भक्तोंको वरदान देनेवाले), १५३-सुखप्रद (सबको सुख प्रदान करनेवाले), १५४-धनप्रद (सबको धन देनेवाले), १५५-हरिमेध (भगवद्भक्त भी आप ही हैं), १५६-यम, १५७-नियम, १५८-महानियम आदि साधन भी आप ही हैं। १५९-कृच्छ्र, १६०-अतिकृच्छ्र, १६१-महाकृच्छ्र, १६२-सर्वकृच्छ्र आदि चान्द्रायणव्रत भी आप ही हैं। १६३-नियमधर (नियमोंको धारण करनेवाले), १६४-निवृत्तभ्रम (भ्रमरहित), १६५-प्रवचनगत (वेदवाक्यके विषय), १६६-पृश्निगर्भप्रवृत्त, १६७-प्रवृत्तवेदक्रिय (वैदिक कर्मोंकि प्रवर्तक), १६८-अज (जन्मरहित), १६९-सर्वगति (सर्वव्यापी), १७०-सर्वदर्शी, १७१-अग्राह्य, १७२-अचल, १७३-महाविभूति (सृष्टिरूप विभूतिवाले), १७४-माहात्म्यशरीर (अतुलित प्रभावशाली स्वरूपवाले), १७५-पवित्र, १७६-महापवित्र (पवित्रोंको भी पवित्र करनेवाले), १७७-हिरणमय, १७८-बृहद् (ब्रह्म), १७९-अप्रतर्क्य (तर्कसे जाननेमें न आनेवाले), १८०-अविज्ञेय, १८१-ब्रह्माग्र्य, १८२-प्रजाकी सृष्टि करनेवाले, १८३-प्रजाका अन्त करनेवाले, १८४-महामायाधर, १८५-चित्रशिखण्डी, १८६-वरप्रद, १८७-पुरोडाश भागको ग्रहण करनेवाले, १८८-गताध्वर (प्राप्तयज्ञ), १८९-छिन्नतृष्ण (तृष्णारहित), १९०-छिन्नसंशय (संशयरहित), १९१-सर्वतोवृत्त (सर्वव्यापक), १९२-निवृत्तिरूप, १९३-ब्राह्मणरूप, १९४-ब्राह्मणप्रिय, १९५-विश्वमूर्ति, १९६-महामूर्ति, १९७-बान्धव (जगत्के बन्धु), १९८-भक्तवत्सल तथा १९९-ब्रह्मण्यदेव आदि नामोंसे पुकारे जानेवाले परमेश्वर! आपको नमस्कार है। मैं आपका भक्त हूँ। आपके दर्शनकी इच्छासे यहाँ उपस्थित हुआ हूँ। २००-एकान्तमें दर्शन देनेवाले आप परमात्माको बारंबार नमस्कार है॥
मूलम् (समाप्तिः)
इति श्रीमहाभारते शान्तिपर्वणि मोक्षधर्मपर्वणि अष्टत्रिंशदधिकत्रिशततमोऽध्यायः ॥ ३३८ ॥
मूलम् (वचनम्)
इस प्रकार श्रीमहाभारत शान्तिपर्वके अन्तर्गत मोक्षधर्मपर्वमें तीन सौ अड़तीसवाँ अध्याय पूरा हुआ॥३३८॥