३३३ शुकोत्पतनसमाप्तिः

भागसूचना

त्रयस्त्रिंशदधिकत्रिशततमोऽध्यायः

सूचना (हिन्दी)

शुकदेवजीकी परमपद-प्राप्ति तथा पुत्र-शोकसे व्याकुल व्यासजीको महादेवजीका आश्वासन देना

मूलम् (वचनम्)

भीष्म उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

इत्येवमुक्त्वा वचनं ब्रह्मर्षिः सुमहातपाः।
प्रातिष्ठत शुकः सिद्धिं हित्वा दोषांश्चतुर्विधान् ॥ १ ॥
तमो ह्यष्टविधं हित्वा जहौ पञ्चविधं रजः।
ततः सत्त्वं जहौ धीमांस्तदद्भुतमिवाभवत् ॥ २ ॥

मूलम्

इत्येवमुक्त्वा वचनं ब्रह्मर्षिः सुमहातपाः।
प्रातिष्ठत शुकः सिद्धिं हित्वा दोषांश्चतुर्विधान् ॥ १ ॥
तमो ह्यष्टविधं हित्वा जहौ पञ्चविधं रजः।
ततः सत्त्वं जहौ धीमांस्तदद्भुतमिवाभवत् ॥ २ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

भीष्मजी कहते हैं— युधिष्ठिर! यह वचन कहकर महातपस्वी शुकदेवजी सिद्धि पानेके उद्देश्यसे आगे बढ़ गये। बुद्धिमान् शुकने चार प्रकारके दोषोंका, आठ प्रकारके तमोगुणका तथा पाँच प्रकारके रजोगुणका परित्याग करके सत्त्वगुणको भी त्याग दिया1; यह एक अद्‌भुत-सी बात हुई॥१-२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

ततस्तस्मिन् पदे नित्ये निर्गुणे लिङ्गवर्जिते।
ब्रह्मणि प्रत्यतिष्ठत् स विधूमोऽग्निरिव ज्वलन् ॥ ३ ॥

मूलम्

ततस्तस्मिन् पदे नित्ये निर्गुणे लिङ्गवर्जिते।
ब्रह्मणि प्रत्यतिष्ठत् स विधूमोऽग्निरिव ज्वलन् ॥ ३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

तत्पश्चात् वे नित्य निर्गुण एवं लिंगरहित ब्रह्मपदमें स्थित हो गये। उस समय उनका तेज धूमहीन अग्निकी भाँति देदीप्यमान हो रहा था॥३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

उल्कापाता दिशां दाहो भूमिकम्पस्तथैव च।
प्रादुर्भूतः क्षणे तस्मिंस्तदद्भुतमिवाभवत् ॥ ४ ॥

मूलम्

उल्कापाता दिशां दाहो भूमिकम्पस्तथैव च।
प्रादुर्भूतः क्षणे तस्मिंस्तदद्भुतमिवाभवत् ॥ ४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

उसी क्षण उल्काएँ टूटकर गिरने लगीं। दिशाओंमें दाह होने लगा और धरती डोलने लगी। यह सब आश्चर्यकी-सी घटना घटित हुई॥४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

द्रुमाः शाखाश्च मुमुचुः शिखराणि च पर्वताः।
निर्घातशब्दैश्च गिरिर्हिमवान् दीर्यतीव ह ॥ ५ ॥

मूलम्

द्रुमाः शाखाश्च मुमुचुः शिखराणि च पर्वताः।
निर्घातशब्दैश्च गिरिर्हिमवान् दीर्यतीव ह ॥ ५ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

वृक्षोंने अपनी शाखाएँ अपने-आप तोड़कर गिरा दीं। पर्वतोंने अपने शिखर भंग कर दिये। वज्रपातके शब्दोंसे गिरिराज हिमालय विदीर्ण-सा होता जान पड़ता था॥५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

न बभासे सहस्रांशुर्न जज्वाल च पावकः।
ह्रदाश्च सरितश्चैव चुक्षुभुः सागरास्तथा ॥ ६ ॥

मूलम्

न बभासे सहस्रांशुर्न जज्वाल च पावकः।
ह्रदाश्च सरितश्चैव चुक्षुभुः सागरास्तथा ॥ ६ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

सूर्यकी प्रभा फीकी पड़ गयी। आग प्रज्वलित नहीं होती थी। सरोवर, सरिता और समुद्र सभी क्षुब्ध हो उठे॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

ववर्ष वासवस्तोयं रसवच्च सुगन्धि च।
ववौ समीरणश्चापि दिव्यगन्धवहः शुचिः ॥ ७ ॥

मूलम्

ववर्ष वासवस्तोयं रसवच्च सुगन्धि च।
ववौ समीरणश्चापि दिव्यगन्धवहः शुचिः ॥ ७ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

इन्द्रने सरस और सुगन्धित जलकी वर्षा की तथा दिव्य गन्ध फैलाती हुई परम पवित्र वायु चलने लगी॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

स शृङ्गे प्रथमे दिव्ये हिमवन्मेरुसम्भवे।
संश्लिष्टे श्वेतपीते द्वे रुक्मरूप्यमये शुभे ॥ ८ ॥
शतयोजनविस्तारे तिर्यगूर्ध्वं च भारत।
उदीचीं दिशमास्थाय रुचिरे संददर्श ह ॥ ९ ॥

मूलम्

स शृङ्गे प्रथमे दिव्ये हिमवन्मेरुसम्भवे।
संश्लिष्टे श्वेतपीते द्वे रुक्मरूप्यमये शुभे ॥ ८ ॥
शतयोजनविस्तारे तिर्यगूर्ध्वं च भारत।
उदीचीं दिशमास्थाय रुचिरे संददर्श ह ॥ ९ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

भरतनन्दन! आगे बढ़नेपर श्रीशुकदेवजीने पर्वतके दो दिव्य एवं सुन्दर शिखर देखे, जो एक-दूसरेसे सटे हुए थे। उनमेंसे एक हिमालयका शिखर था और दूसरा मेरुपर्वतका। हिमालयका शिखर रजतमय होनेके कारण श्वेत दिखायी देता था और सुमेरुका स्वर्णमय शृंग पीले रंगका था। इन दोनोंकी लंबाई-चौड़ाई और ऊँचाई सौ-सौ योजनकी थी। उत्तरदिशाकी ओर जाते समय ये दोनों सुरम्य शिखर शुकदेवजीकी दृष्टिमें पड़े॥८-९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

सोऽविशङ्केन मनसा तदैवाभ्यपतच्छुकः ।
ततः पर्वतशृङ्गे द्वे सहसैव द्विधाकृते ॥ १० ॥
अदृश्येतां महाराज तदद्‌भुतमिवाभवत् ।

मूलम्

सोऽविशङ्केन मनसा तदैवाभ्यपतच्छुकः ।
ततः पर्वतशृङ्गे द्वे सहसैव द्विधाकृते ॥ १० ॥
अदृश्येतां महाराज तदद्‌भुतमिवाभवत् ।

अनुवाद (हिन्दी)

उन्हें देखकर वे पूर्ववत् निःशंक मनसे उनके ऊपर चढ़ गये। फिर तो वे दोनों पर्वतशिखर सहसा दो भागोंमें बँट गये और बीचसे फटे हुए-से दिखायी देने लगे। महाराज! यह एक अद्‌भुत-सी बात हुई॥१०॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

ततः पर्वतशृङ्गाभ्यां सहसैव विनिःसृतः ॥ ११ ॥
न च प्रतिजघानास्य स गतिं पर्वतोत्तमः।

मूलम्

ततः पर्वतशृङ्गाभ्यां सहसैव विनिःसृतः ॥ ११ ॥
न च प्रतिजघानास्य स गतिं पर्वतोत्तमः।

अनुवाद (हिन्दी)

तत्पश्चात् उन पर्वतशिखरोंसे वे सहसा आगे निकल गये। वह श्रेष्ठ पर्वत उनकी गतिको रोक न सका॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

ततो महानभूच्छब्दो दिवि सर्वदिवौकसाम् ॥ १२ ॥
गन्धर्वाणामृषीणां च ये च शैलनिवासिनः।

मूलम्

ततो महानभूच्छब्दो दिवि सर्वदिवौकसाम् ॥ १२ ॥
गन्धर्वाणामृषीणां च ये च शैलनिवासिनः।

अनुवाद (हिन्दी)

यह देख सम्पूर्ण देवताओं, गन्धर्वों, ऋषियों तथा जो उस पर्वतपर रहनेवाले दूसरे लोग थे, उन सबने बड़े जोरसे हर्षनाद किया। उनकी हर्षध्वनि आकाशमें चारों ओर गूँज उठी॥१२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

दृष्ट्वा शुकमतिक्रान्तं पर्वतं च द्विधाकृतम् ॥ १३ ॥
साधु साध्विति तत्रासीन्नादः सर्वत्र भारत।

मूलम्

दृष्ट्वा शुकमतिक्रान्तं पर्वतं च द्विधाकृतम् ॥ १३ ॥
साधु साध्विति तत्रासीन्नादः सर्वत्र भारत।

अनुवाद (हिन्दी)

भारत! शुकदेवजीको पर्वत लाँघकर आगे बढ़ते और उस पर्वतको दो टुकड़ोंमें विदीर्ण होते देख वहाँ सब ओर ‘साधु-साधु’ शब्द सुनायी पड़ने लगे॥१३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

स पूज्यमानो देवैश्च गन्धर्वैर्ऋषिभिस्तथा ॥ १४ ॥
यक्षराक्षससंघैश्च विद्याधरगणैस्तथा ।
दिव्यैः पुष्पैः समाकीर्णमन्तरिक्षं समन्ततः ॥ १५ ॥
आसीत् किल महाराज शुकाभिपतने तदा।

मूलम्

स पूज्यमानो देवैश्च गन्धर्वैर्ऋषिभिस्तथा ॥ १४ ॥
यक्षराक्षससंघैश्च विद्याधरगणैस्तथा ।
दिव्यैः पुष्पैः समाकीर्णमन्तरिक्षं समन्ततः ॥ १५ ॥
आसीत् किल महाराज शुकाभिपतने तदा।

अनुवाद (हिन्दी)

महाराज! देवता, गन्धर्व, ऋषि, यक्ष, राक्षस और विद्याधरोंने उनका पूजन किया। वहाँसे शुकदेवजीके ऊपर उठते समय उनके चढ़ाये हुए दिव्य पुष्पोंकी वर्षासे वहाँ सब ओरका सारा आकाश छा गया॥१४-१५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

ततो मन्दाकिनीं रम्यामुपरिष्टादभिव्रजन् ॥ १६ ॥
शुको ददर्श धर्मात्मा पुष्पितद्रुमकाननाम्।

मूलम्

ततो मन्दाकिनीं रम्यामुपरिष्टादभिव्रजन् ॥ १६ ॥
शुको ददर्श धर्मात्मा पुष्पितद्रुमकाननाम्।

अनुवाद (हिन्दी)

राजन्! धर्मात्मा शुकने ऊर्ध्वलोकमें जाते समय खिले हुए वृक्षों और वनोंसे सुशोभित रमणीय मन्दाकिनी (आकाशगंगा) का दर्शन किया॥१६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तस्यां क्रीडन्त्यभिरतास्ते चैवाप्सरसां गणाः ॥ १७ ॥
शून्याकारं निराकाराः शुकं दृष्ट्वा विवाससः।

मूलम्

तस्यां क्रीडन्त्यभिरतास्ते चैवाप्सरसां गणाः ॥ १७ ॥
शून्याकारं निराकाराः शुकं दृष्ट्वा विवाससः।

अनुवाद (हिन्दी)

उसमें बहुत-सी अप्सराएँ स्नान एवं जलक्रीड़ा कर रही थीं। यद्यपि वे नंगी थीं, तो भी शुकदेवजीको शून्याकार (बाह्यज्ञानसे रहित एवं आत्मनिष्ठ) देख अपने शरीरको ढकने या छिपानेके लिये उद्यत नहीं हुईं॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तं प्रक्रामन्तमाज्ञाय पिता स्नेहसमन्वितः ॥ १८ ॥
उत्तमां गतिमास्थाय पृष्ठतोऽनुससार ह।

मूलम्

तं प्रक्रामन्तमाज्ञाय पिता स्नेहसमन्वितः ॥ १८ ॥
उत्तमां गतिमास्थाय पृष्ठतोऽनुससार ह।

अनुवाद (हिन्दी)

उन्हें इस प्रकार सिद्धिके लिये उत्क्रमण करते जान उनके पिता वेदव्यासजी भी स्नेहवश उत्तम गतिका आश्रय ले उनके पीछे-पीछे जाने लगे॥१८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

शुकस्तु मारुतादुर्ध्वं गतिं कृत्वान्तरिक्षगाम् ॥ १९ ॥
दर्शयित्वा प्रभावं स्वं ब्रह्मभूतोऽभवत् तदा।

मूलम्

शुकस्तु मारुतादुर्ध्वं गतिं कृत्वान्तरिक्षगाम् ॥ १९ ॥
दर्शयित्वा प्रभावं स्वं ब्रह्मभूतोऽभवत् तदा।

अनुवाद (हिन्दी)

उधर शुकदेव वायुसे आकाशगामिनी ऊर्ध्वगतिका आश्रय ले अपना प्रभाव दिखाकर तत्काल ब्रह्मीभूत हो गये॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

महायोगगतिं त्वन्यां व्यासोत्थाय महातपाः ॥ २० ॥
निमेषान्तरमात्रेण शुकाभिपतनं ययौ ।
स ददर्श द्विधा कृत्वा पर्वताग्रं शुकं गतम् ॥ २१ ॥

मूलम्

महायोगगतिं त्वन्यां व्यासोत्थाय महातपाः ॥ २० ॥
निमेषान्तरमात्रेण शुकाभिपतनं ययौ ।
स ददर्श द्विधा कृत्वा पर्वताग्रं शुकं गतम् ॥ २१ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

महातपस्वी व्यासजी दूसरी महायोगसम्बन्धिनी गतिका अवलम्बन करके ऊपरको उठे और पलक मारते-मारते उस स्थानपर जा पहुँचे, जहाँसे उन पर्वत-शिखरोंको दो भागोंमें विदीर्ण करके शुकदेवजी आगे बढ़े थे। वह स्थान शुकाभिपतनके नामसे प्रसिद्ध हो गया था। उन्होंने उस स्थानको देखा॥२०-२१॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

शशंसुर्ऋषयस्तत्र कर्म पुत्रस्य तत् तदा।
ततः शुकेति दीर्घेण शब्देनाक्रन्दितस्तदा ॥ २२ ॥

मूलम्

शशंसुर्ऋषयस्तत्र कर्म पुत्रस्य तत् तदा।
ततः शुकेति दीर्घेण शब्देनाक्रन्दितस्तदा ॥ २२ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

वहाँ रहनेवाले ऋषियोंने आकर व्यासजीसे उनके पुत्रका वह अलौकिक कर्म कह सुनाया। तब व्यासजीने शुकदेवका नाम लेकर बड़े जोरसे रोदन किया॥२२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

स्वयं पित्रा स्वरेणोच्चैस्त्रील्लोँकाननुनाद्य वै।
शुकः सर्वगतो भूत्वा सर्वात्मा सर्वतोमुखः ॥ २३ ॥
प्रत्यभाषत धर्मात्मा भो शब्देनानुनादयन्।

मूलम्

स्वयं पित्रा स्वरेणोच्चैस्त्रील्लोँकाननुनाद्य वै।
शुकः सर्वगतो भूत्वा सर्वात्मा सर्वतोमुखः ॥ २३ ॥
प्रत्यभाषत धर्मात्मा भो शब्देनानुनादयन्।

अनुवाद (हिन्दी)

जब पिताने उच्च स्वरसे तीनों लोकोंको गुँजाते हुए पुकारा, तब सर्वव्यापी, सर्वात्मा एवं सर्वतोमुख होकर धर्मात्मा शुकने ‘भोः’ शब्दसे सम्पूर्ण जगत्‌को प्रतिध्वनित करते हुए पिताको उत्तर दिया॥२३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तत एकाक्षरं नादं भोरित्येव समीरयन् ॥ २४ ॥
प्रत्याहरज्जगत् सर्वमुच्चैः स्थावरजङ्गमम् ।

मूलम्

तत एकाक्षरं नादं भोरित्येव समीरयन् ॥ २४ ॥
प्रत्याहरज्जगत् सर्वमुच्चैः स्थावरजङ्गमम् ।

अनुवाद (हिन्दी)

उसीके साथ-साथ सम्पूर्ण चराचर जगत्‌ने उच्च स्वरसे ‘भोः’ इस एकाक्षर शब्दका उच्चारण करते हुए उत्तर दिया॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

ततः प्रभृति चाद्यापि शब्दानुच्चारितान् पृथक् ॥ २५ ॥
गिरिगह्वरपृष्ठेषु व्याहरन्ति शुकं प्रति।

मूलम्

ततः प्रभृति चाद्यापि शब्दानुच्चारितान् पृथक् ॥ २५ ॥
गिरिगह्वरपृष्ठेषु व्याहरन्ति शुकं प्रति।

अनुवाद (हिन्दी)

तभीसे आजतक पर्वतोंके शिखरपर अथवा गुफाओंके आस-पास जब-जब आवाज दी जाती है, तब-तब वहाँके चराचर निवासी प्रतिध्वनिके रूपमें उसका उत्तर देते हैं, जैसा कि उन्होंने शुकदेवजीके लिये किया था॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अन्तर्हितः प्रभावं तु दर्शयित्वा शुकस्तदा ॥ २६ ॥
गुणान् संत्यज्य शब्दादीन्‌ पदमभ्यगमत्‌ परम्।

मूलम्

अन्तर्हितः प्रभावं तु दर्शयित्वा शुकस्तदा ॥ २६ ॥
गुणान् संत्यज्य शब्दादीन्‌ पदमभ्यगमत्‌ परम्।

अनुवाद (हिन्दी)

इस प्रकार अपना प्रभाव दिखलाकर शुकदेवजी अन्तर्धान हो गये और शब्द आदि गुणोंका परित्याग करके परमपदको प्राप्त हुए॥२६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

महिमानं तु तं दृष्ट्वा पुत्रस्यामिततेजसः ॥ २७ ॥
निषसाद गिरिप्रस्थे पुत्रमेवानुचिन्तयन् ।

मूलम्

महिमानं तु तं दृष्ट्वा पुत्रस्यामिततेजसः ॥ २७ ॥
निषसाद गिरिप्रस्थे पुत्रमेवानुचिन्तयन् ।

अनुवाद (हिन्दी)

अपने अमिततेजस्वी पुत्रकी यह महिमा देखकर व्यासजी उसीका चिन्तन करते हुए उस पर्वतके शिखरपर बैठ गये॥२७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

ततो मन्दाकिनीतीरे क्रीडन्तोऽप्सरसां गणाः ॥ २८ ॥
आसाद्य तमृषिं सर्वाः सम्भ्रान्ता गतचेतसः।
जले निलिल्यिरे काश्चित्‌ काश्चिद् गुल्मान् प्रपेदिरे ॥ २९ ॥

मूलम्

ततो मन्दाकिनीतीरे क्रीडन्तोऽप्सरसां गणाः ॥ २८ ॥
आसाद्य तमृषिं सर्वाः सम्भ्रान्ता गतचेतसः।
जले निलिल्यिरे काश्चित्‌ काश्चिद् गुल्मान् प्रपेदिरे ॥ २९ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

उस समय मन्दाकिनीके तटपर क्रीड़ा करती हुई समस्त अप्सराएँ महर्षि व्यासको अपने निकट पाकर बड़ी घबराहटमें पड़ गयीं, अचेत-सी हो गयीं। कोई जलमें छिप गयीं और कोई लताओंकी झुरमुटमें॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

वसनान्याददुः काश्चित्‌ तं दृष्ट्वा मुनिसत्तमम्।
तां मुक्ततां तु विज्ञाय मुनिः पुत्रस्य वै तदा॥३०॥
सक्ततामात्मनश्चैव प्रीतोऽभूद् व्रीडितश्च ह ॥ ३१ ॥

मूलम्

वसनान्याददुः काश्चित्‌ तं दृष्ट्वा मुनिसत्तमम्।
तां मुक्ततां तु विज्ञाय मुनिः पुत्रस्य वै तदा॥३०॥
सक्ततामात्मनश्चैव प्रीतोऽभूद् व्रीडितश्च ह ॥ ३१ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

कुछ अप्सराओंने मुनिश्रेष्ठ व्यासको देखकर अपने वस्त्र पहन लिये। उस समय अपने पुत्रकी मुक्तता जानकर मुनि बड़े प्रसन्न हुए और अपनी आसक्तिका विचार करके वे बहुत लज्जित भी हुए॥३०-३१॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तं देवगन्धर्ववृतो महर्षिगणपूजितः ।
पिनाकहस्तो भगवानभ्यागच्छत शंकरः ॥ ३२ ॥
तमुवाच महादेवः सान्त्वपूर्वमिदं वचः।
पुत्रशोकाभिसंतप्तं कृष्णद्वैपायनं तदा ॥ ३३ ॥

मूलम्

तं देवगन्धर्ववृतो महर्षिगणपूजितः ।
पिनाकहस्तो भगवानभ्यागच्छत शंकरः ॥ ३२ ॥
तमुवाच महादेवः सान्त्वपूर्वमिदं वचः।
पुत्रशोकाभिसंतप्तं कृष्णद्वैपायनं तदा ॥ ३३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

इसी समय देवताओं और गन्धर्वोंसे घिरे हुए तथा महर्षियोंसे पूजित पिनाकधारी भगवान् शंकर वहाँ आ पहुँचे और पुत्र-शोकसे संतप्त वेदव्यासजीको सान्त्वना देते हुए कहने लगे—॥३२-३३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अग्नेर्भूमेरपां वायोरन्तरिक्षस्य चैव ह।
वीर्येण सदृशः पुत्रः पुरा मत्तस्त्वया वृतः ॥ ३४ ॥
स तथालक्षणो जातस्तपसा तव सम्भृतः।
मम चैव प्रसादेन ब्रह्मतेजोमयः शुचिः ॥ ३५ ॥

मूलम्

अग्नेर्भूमेरपां वायोरन्तरिक्षस्य चैव ह।
वीर्येण सदृशः पुत्रः पुरा मत्तस्त्वया वृतः ॥ ३४ ॥
स तथालक्षणो जातस्तपसा तव सम्भृतः।
मम चैव प्रसादेन ब्रह्मतेजोमयः शुचिः ॥ ३५ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘ब्रह्मन्! तुमने पहले अग्नि, भूमि, जल, वायु और आकाशके समान शक्तिशाली पुत्र होनेका मुझसे वरदान माँगा था; अतः तुम्हें तुम्हारी तपस्याके प्रभाव तथा मेरी कृपासे पालित वैसा ही पुत्र प्राप्त हुआ। वह ब्रह्मतेजसे सम्पन्न और परम पवित्र था॥३४-३५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

स गतिं परमां प्राप्तो दुष्प्रापामजितेन्द्रियैः।
दैवतैरपि विप्रर्षे तं त्वं किमनुशोचसि ॥ ३६ ॥

मूलम्

स गतिं परमां प्राप्तो दुष्प्रापामजितेन्द्रियैः।
दैवतैरपि विप्रर्षे तं त्वं किमनुशोचसि ॥ ३६ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘ब्रह्मर्षे! इस समय उसने ऐसी उत्तम गति प्राप्त की है, जो अजितेन्द्रिय पुरुषों तथा देवताओंके लिये भी दुर्लभ है, फिर भी तुम उसके लिये क्यों शोक कर रहे हो?॥३६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

यावत् स्थास्यन्ति गिरयो यावत् स्थास्यन्ति सागराः।
तावत् तवाक्षया कीर्तिः सपुत्रस्य भविष्यति ॥ ३७ ॥

मूलम्

यावत् स्थास्यन्ति गिरयो यावत् स्थास्यन्ति सागराः।
तावत् तवाक्षया कीर्तिः सपुत्रस्य भविष्यति ॥ ३७ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘जबतक इस संसारमें पर्वतोंकी सत्ता रहेगी और जबतक समुद्रोंकी स्थिति बनी रहेगी, तबतक तुम्हारी और तुम्हारे पुत्रकी अक्षय कीर्ति इस संसारमें छायी रहेगी॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

छायां स्वपुत्रसदृशीं सर्वतोऽनपगां सदा।
द्रक्ष्यसे त्वं च लोकेऽस्मिन् मत्प्रसादान्महामुने ॥ ३८ ॥

मूलम्

छायां स्वपुत्रसदृशीं सर्वतोऽनपगां सदा।
द्रक्ष्यसे त्वं च लोकेऽस्मिन् मत्प्रसादान्महामुने ॥ ३८ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘महामुने! तुम मेरे प्रसादसे इस जगत्‌में सदा अपने पुत्रसदृश छायाका दर्शन करते रहोगे। वह सब ओर दिखायी देगी, कभी तुम्हारी आँखोंसे ओझल न होगी’॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

सोऽनुनीतो भगवता स्वयं रुद्रेण भारत।
छायां पश्यन् समावृत्तः स मुनिः परया मुदा ॥ ३९ ॥

मूलम्

सोऽनुनीतो भगवता स्वयं रुद्रेण भारत।
छायां पश्यन् समावृत्तः स मुनिः परया मुदा ॥ ३९ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

भरतनन्दन! साक्षात् भगवान् शंकरके इस प्रकार आश्वासन देनेपर सर्वत्र अपने पुत्रकी छाया देखते हुए मुनिवर व्यास बड़ी प्रसन्नताके साथ अपने आश्रमपर लौट आये॥३९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

इति जन्म गतिश्चैव शुकस्य भरतर्षभ।
विस्तरेण समाख्याता यन्मां त्वं परिपृच्छसि ॥ ४० ॥

मूलम्

इति जन्म गतिश्चैव शुकस्य भरतर्षभ।
विस्तरेण समाख्याता यन्मां त्वं परिपृच्छसि ॥ ४० ॥

अनुवाद (हिन्दी)

भरतश्रेष्ठ युधिष्ठिर! तुम मुझसे जिसके विषयमें पूछ रहे थे, वह शुकदेवजीके जन्म और परमपद-प्राप्तिकी कथा मैंने तुम्हें विस्तारसे सुनायी है॥४०॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

एतदाचष्ट मे राजन् देवर्षिनारदः पुरा।
व्यासश्चैव महायोगी संजल्पेषु पदे पदे ॥ ४१ ॥

मूलम्

एतदाचष्ट मे राजन् देवर्षिनारदः पुरा।
व्यासश्चैव महायोगी संजल्पेषु पदे पदे ॥ ४१ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

राजन्! सबसे पहले देवर्षि नारदजीने यह वृत्तान्त मुझे बताया था। महायोगी व्यासजी भी बातचीतके प्रसंगमें पद-पदपर इस प्रसंगको दुहराया करते हैं॥४१॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

इतिहासमिमं पुण्यं मोक्षधर्मोपसंहितम् ।
धारयेद् यः शमपरः स गच्छेत् परमां गतिम् ॥ ४२ ॥

मूलम्

इतिहासमिमं पुण्यं मोक्षधर्मोपसंहितम् ।
धारयेद् यः शमपरः स गच्छेत् परमां गतिम् ॥ ४२ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

जो पुरुष मोक्षधर्मसे युक्त इस परम पवित्र इतिहासको सुनकर या पढ़कर अपने हृदयमें धारण करेगा, वह शान्तिपरायण हो परमगति (मोक्ष) को प्राप्त होगा॥४२॥

मूलम् (समाप्तिः)

इति श्रीमहाभारते शान्तिपर्वणि मोक्षधर्मपर्वणि शुकोत्पतनसमाप्तिर्नाम त्रयस्त्रिंशदधिकत्रिशततमोऽध्यायः ॥ ३३३ ॥

मूलम् (वचनम्)

इस प्रकार श्रीमहाभारत शान्तिपर्वके अन्तर्गत मोक्षधर्मपर्वमें शुकदेवजीकी ऊर्ध्वगतिके वर्णनकी समाप्ति नामक तीन सौ तैंतीसवाँ अध्याय पूरा हुआ॥३३३॥


  1. सत्त्वगुण भी सुख और ज्ञानके सम्बन्धसे बाँधनेवाला होता है। ‘मैं सुखी हूँ, अज्ञानी हूँ,’ ऐसा जो अभिमान हो जाता है, वह ज्ञानीको गुणातीत अवस्थासे वंचित रख देता है। इसलिये यहाँ सत्त्वगुणको भी त्याग देनेकी बात कही गयी है। ↩︎