भागसूचना
द्वात्रिंशदधिकत्रिशततमोऽध्यायः
सूचना (हिन्दी)
शुकदेवजीकी ऊर्ध्वगतिका वर्णन
मूलम् (वचनम्)
भीष्म उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
गिरिशृङ्गं समारुह्य सुतो व्यासस्य भारत।
समे देशे विविक्ते स निःशलाक उपाविशत् ॥ १ ॥
धारयामास चात्मानं यथाशास्त्रं यथाविधि।
पादप्रभृतिगात्रेषु क्रमेण क्रमयोगवित् ॥ २ ॥
मूलम्
गिरिशृङ्गं समारुह्य सुतो व्यासस्य भारत।
समे देशे विविक्ते स निःशलाक उपाविशत् ॥ १ ॥
धारयामास चात्मानं यथाशास्त्रं यथाविधि।
पादप्रभृतिगात्रेषु क्रमेण क्रमयोगवित् ॥ २ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
भीष्मजी कहते हैं— भरतनन्दन! कैलास-शिखरपर आरूढ़ हो व्यासपुत्र शुकदेव एकान्तमें तृणरहित समतल भूमिपर बैठ गये और शास्त्रोक्त विधिसे पैरसे लेकर सिरतक सम्पूर्ण अंगोंमें क्रमशः आत्माकी धारणा करने लगे। वे क्रमयोगके पूर्ण ज्ञाता थे॥१-२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ततः स प्राङ्मुखो विद्वानादित्ये नचिरोदिते।
पाणिपादं समादाय विनीतवदुपाविशत् ॥ ३ ॥
न तत्र पक्षिसंघातो न शब्दो नातिदर्शनम्।
यत्र वैयासकिर्धीमान् योक्तुं समुपचक्रमे ॥ ४ ॥
मूलम्
ततः स प्राङ्मुखो विद्वानादित्ये नचिरोदिते।
पाणिपादं समादाय विनीतवदुपाविशत् ॥ ३ ॥
न तत्र पक्षिसंघातो न शब्दो नातिदर्शनम्।
यत्र वैयासकिर्धीमान् योक्तुं समुपचक्रमे ॥ ४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
थोड़ी ही देरमें जब सूर्योदय हुआ, तब ज्ञानी शुकदेव हाथ-पैर समेटकर विनीतभावसे पूर्व दिशाकी ओर मुँह करके बैठे और योगमें प्रवृत्त हो गये। उस समय बुद्धिमान् व्यास-नन्दन जहाँ योगयुक्त हो रहे थे, वहाँ न तो पक्षियोंका समुदाय था, न कोई शब्द सुनायी पड़ता था और न दृष्टिको आकृष्ट करनेवाला कोई दृश्य ही उपस्थित था॥३-४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
स ददर्श तदाऽऽत्मानं सर्वसंगविनिःसृतम्।
प्रजहास ततो हासं शुकः सम्प्रेक्ष्य तत्परम् ॥ ५ ॥
मूलम्
स ददर्श तदाऽऽत्मानं सर्वसंगविनिःसृतम्।
प्रजहास ततो हासं शुकः सम्प्रेक्ष्य तत्परम् ॥ ५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
उस समय उन्होंने सब प्रकारके संगोंसे रहित आत्माका दर्शन किया। उस परमतत्त्वका साक्षात्कार करके शुकदेवजी जोर-जोरसे हँसने लगे॥५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
स पुनर्योगमास्थाय मोक्षमार्गोपलब्धये ।
महायोगेश्वरो भूत्वा सोऽत्यक्रामद् विहायसम् ॥ ६ ॥
मूलम्
स पुनर्योगमास्थाय मोक्षमार्गोपलब्धये ।
महायोगेश्वरो भूत्वा सोऽत्यक्रामद् विहायसम् ॥ ६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
फिर मोक्षमार्गकी उपलब्धिके लिये योगका आश्रय ले महान् योगेश्वर होकर वे आकाशमें उड़नेके लिये तैयार हो गये॥६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ततः प्रदक्षिणं कृत्वा देवर्षिं नारदं ततः।
निवेदयामास च तं स्वं योगं परमर्षये ॥ ७ ॥
मूलम्
ततः प्रदक्षिणं कृत्वा देवर्षिं नारदं ततः।
निवेदयामास च तं स्वं योगं परमर्षये ॥ ७ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
तदनन्तर देवर्षि नारदके पास जा उनकी प्रदक्षिणा की और उन परम ऋषिसे अपने योगके सम्बन्धमें इस प्रकार निवेदन किया॥७॥
मूलम् (वचनम्)
शुक उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
दृष्टो मार्गः प्रवृत्तोऽस्मि स्वस्ति तेऽस्तु तपोधन।
त्वत्प्रसादाद् गमिष्यामि गतिमिष्टां महाद्युते ॥ ८ ॥
मूलम्
दृष्टो मार्गः प्रवृत्तोऽस्मि स्वस्ति तेऽस्तु तपोधन।
त्वत्प्रसादाद् गमिष्यामि गतिमिष्टां महाद्युते ॥ ८ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
शुकदेव बोले— महातेजस्वी तपोधन! आपका कल्याण हो। अब मुझे मोक्षमार्गका दर्शन हो गया। मैं वहाँ जानेको तैयार हूँ। आपकी कृपासे मैं अभीष्ट गति प्राप्त करूँगा॥८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
नारदेनाभ्यनुज्ञातः शुको द्वैपायनात्मजः ।
अभिवाद्य पुनर्योगमास्थायाकाशमाविशत् ॥ ९ ॥
कैलासपृष्ठादुत्पत्य स पपात दिवं तदा।
अन्तरिक्षचरः श्रीमान् वायुभूतः सुनिश्चितः ॥ १० ॥
मूलम्
नारदेनाभ्यनुज्ञातः शुको द्वैपायनात्मजः ।
अभिवाद्य पुनर्योगमास्थायाकाशमाविशत् ॥ ९ ॥
कैलासपृष्ठादुत्पत्य स पपात दिवं तदा।
अन्तरिक्षचरः श्रीमान् वायुभूतः सुनिश्चितः ॥ १० ॥
अनुवाद (हिन्दी)
नारदजीकी आज्ञा पाकर व्यासकुमार शुकदेवजी उन्हें प्रणाम करके पुनः योगमें स्थित हो आकाशमें प्रविष्ट हुए। कैलासशिखरसे उछलकर वे तत्काल आकाशमें जा पहुँचे और सुनिश्चित ज्ञान पाकर वायुका रूप धारण करके श्रीमान् शुकदेव अन्तरिक्षमें विचरने लगे॥९-१०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तमुद्यन्तं द्विजश्रेष्ठं वैनतेयसमद्युतिम् ।
ददृशुः सर्वभूतानि मनोमारुतरंहसम् ॥ ११ ॥
मूलम्
तमुद्यन्तं द्विजश्रेष्ठं वैनतेयसमद्युतिम् ।
ददृशुः सर्वभूतानि मनोमारुतरंहसम् ॥ ११ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
उस समय समस्त प्राणियोंने ऊपर जाते हुए द्विजश्रेष्ठ शुकदेवको विनतानन्दन गरुड़के समान कान्तिमान् तथा मन और वायुके समान वेगशाली देखा॥११॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
व्यवसायेन लोकांस्त्रीन् सर्वान् सोऽथ विचिन्तयन्।
आस्थितो दीर्घमध्वानं पावकार्कसमप्रभः ॥ १२ ॥
मूलम्
व्यवसायेन लोकांस्त्रीन् सर्वान् सोऽथ विचिन्तयन्।
आस्थितो दीर्घमध्वानं पावकार्कसमप्रभः ॥ १२ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
वे निश्चयात्मक बुद्धिके द्वारा सम्पूर्ण त्रिलोकीको आत्मभावसे देखते हुए बहुत दूरतक आगे बढ़ गये। उस समय उनका तेज सूर्य और अग्निके समान प्रकाशित हो रहा था॥१२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तमेकमनसं यान्तमव्यग्रमकुतोभयम् ।
ददृशुः सर्वभूतानि जङ्गमानि चराणि च ॥ १३ ॥
यथाशक्ति यथान्यायं पूजां वै चक्रिरे तदा।
पुष्पवषैश्च दिव्यैस्तमवचक्रुर्दिवौकसः ॥ १४ ॥
मूलम्
तमेकमनसं यान्तमव्यग्रमकुतोभयम् ।
ददृशुः सर्वभूतानि जङ्गमानि चराणि च ॥ १३ ॥
यथाशक्ति यथान्यायं पूजां वै चक्रिरे तदा।
पुष्पवषैश्च दिव्यैस्तमवचक्रुर्दिवौकसः ॥ १४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
उन्हें निर्भय होकर शान्त और एकाग्रचित्तसे ऊपर जाते समय समस्त चराचर प्राणियोंने देखा और अपनी शक्ति तथा रीतिके अनुसार उनका यथोचित पूजन किया। देवताओंने उनपर दिव्य फूलोंकी वर्षा की॥१३-१४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तं दृष्ट्वा विस्मिताः सर्वे गन्धर्वाप्सरसां गणाः।
ऋषयश्चैव संसिद्धाः परं विस्मयमागताः ॥ १५ ॥
मूलम्
तं दृष्ट्वा विस्मिताः सर्वे गन्धर्वाप्सरसां गणाः।
ऋषयश्चैव संसिद्धाः परं विस्मयमागताः ॥ १५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
उन्हें इस प्रकार जाते देख समस्त गन्धर्व, अप्सराओंके समुदाय तथा सिद्ध ऋषि-मुनि महान् आश्चर्यमें पड़ गये॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अन्तरिक्षगतः कोऽयं तपसा सिद्धिमागतः।
अधःकायोर्ध्ववक्त्रश्च नेत्रैः समभिरज्यते ॥ १६ ॥
मूलम्
अन्तरिक्षगतः कोऽयं तपसा सिद्धिमागतः।
अधःकायोर्ध्ववक्त्रश्च नेत्रैः समभिरज्यते ॥ १६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
और आपसमें कहने लगे—‘तपस्यासे सिद्धिको प्राप्त हुआ यह कौन महात्मा आकाशमार्गसे जा रहा है, जिसका मुख-मण्डल ऊपरकी ओर और शरीरका निचला भाग नीचेकी ओर ही है? हमारी आँखें बरबस इसकी ओर खिंच जाती हैं’॥१६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ततः परमधर्मात्मा त्रिषु लोकेषु विश्रुतः।
भास्करं समुदीक्षन् स प्राङ्मुखो वाग्यतोऽगमत् ॥ १७ ॥
मूलम्
ततः परमधर्मात्मा त्रिषु लोकेषु विश्रुतः।
भास्करं समुदीक्षन् स प्राङ्मुखो वाग्यतोऽगमत् ॥ १७ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
तीनों लोकोंमें प्रसिद्ध परम धर्मात्मा शुकदेवजी पूर्व दिशाकी ओर मुँह करके सूर्यको देखते हुए मौनभावसे आगे बढ़ रहे थे॥१७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
शब्देनाकाशमखिलं पूरयन्निव सर्वशः ।
तमापतन्तं सहसा दृष्ट्वा सर्वाप्सरोगणाः ॥ १८ ॥
सम्भ्रान्तमनसो राजन्नासन् परमविस्मिताः ।
मूलम्
शब्देनाकाशमखिलं पूरयन्निव सर्वशः ।
तमापतन्तं सहसा दृष्ट्वा सर्वाप्सरोगणाः ॥ १८ ॥
सम्भ्रान्तमनसो राजन्नासन् परमविस्मिताः ।
अनुवाद (हिन्दी)
वे अपने शब्दसे सम्पूर्ण आकाशको पूर्ण-सा कर रहे थे। राजन्! उन्हें सहसा आते देख सम्पूर्ण अप्सराएँ मन ही-मन घबरा उठीं और अत्यन्त आश्चर्यमें पड़ गयीं॥१८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
पञ्चचूडाप्रभृतयो भृशमुत्फुल्ललोचनाः ॥ १९ ॥
दैवतं कतमं ह्येतदुत्तमां गतिमास्थितम्।
सुनिश्चितमिहायाति विमुक्तमिव निःस्पृहम् ॥ २० ॥
मूलम्
पञ्चचूडाप्रभृतयो भृशमुत्फुल्ललोचनाः ॥ १९ ॥
दैवतं कतमं ह्येतदुत्तमां गतिमास्थितम्।
सुनिश्चितमिहायाति विमुक्तमिव निःस्पृहम् ॥ २० ॥
अनुवाद (हिन्दी)
पञ्चचूडा आदि अप्सराओंके नेत्र विस्मयसे अत्यन्त खिल उठे थे। वे परस्पर कहने लगीं कि उत्तम गतिका आश्रय लेकर यह कौन-सा देवता यहाँ आ रहा है? इसका निश्चय अत्यन्त दृढ़ है। यह सब प्रकारके बन्धनों तथा संशयोंसे मुक्त-सा हो गया है और इसके भीतर किसी वस्तुकी कामना नहीं रह गयी है॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ततः समभिचक्राम मलयं नाम पर्वतम्।
उर्वशी पूर्वचित्तिश्च यं नित्यमुपसेवतः ॥ २१ ॥
मूलम्
ततः समभिचक्राम मलयं नाम पर्वतम्।
उर्वशी पूर्वचित्तिश्च यं नित्यमुपसेवतः ॥ २१ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
कुछ ही देरमें वे मलय नामक पर्वतपर जा पहुँचे, जहाँ उर्वशी और पूर्वचित्ति—ये दो अप्सराएँ सदा निवास करती हैं॥२१॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तस्य ब्रह्मर्षिपुत्रस्य विस्मयं ययतुः परम्।
अहो बुद्धिसमाधानं वेदाभ्यासरते द्विजे ॥ २२ ॥
अचिरेणैव कालेन नभश्चरति चन्द्रवत्।
पितृशुश्रूषया बुद्धिं सम्प्राप्तोऽयमनुत्तमाम् ॥ २३ ॥
मूलम्
तस्य ब्रह्मर्षिपुत्रस्य विस्मयं ययतुः परम्।
अहो बुद्धिसमाधानं वेदाभ्यासरते द्विजे ॥ २२ ॥
अचिरेणैव कालेन नभश्चरति चन्द्रवत्।
पितृशुश्रूषया बुद्धिं सम्प्राप्तोऽयमनुत्तमाम् ॥ २३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
ब्रह्मर्षि व्यासजीके पुत्रकी यह उत्तम गति देख उन दोनोंको बड़ा विस्मय हुआ। वे आपसमें कहने लगीं, ‘अहो! इस वेदाभ्यासपरायण ब्राह्मणकी बुद्धिमें कितनी अद्भुत एकाग्रता है? पिताकी सेवासे थोड़े ही समयमें उत्तम बुद्धि पाकर यह चन्द्रमाके समान आकाशमें विचर रहा है॥२२-२३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
पितृभक्तो दृढतपाः पितुः सुदयितः सुतः।
अनन्यमनसा तेन कथं पित्रा विसर्जितः ॥ २४ ॥
मूलम्
पितृभक्तो दृढतपाः पितुः सुदयितः सुतः।
अनन्यमनसा तेन कथं पित्रा विसर्जितः ॥ २४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘यह बड़ा ही तपस्वी और पितृभक्त था और अपने पिताका बहुत ही प्यारा बेटा था। उनका मन सदा इसीमें लगा रहता था; फिर भी उन्होंने इसे जानेकी आज्ञा कैसे दे दी?’॥२४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
उर्वश्या वचनं श्रुत्वा शुकः परमधर्मवित्।
उदैक्षत दिशः सर्वा वचने गतमानसः ॥ २५ ॥
मूलम्
उर्वश्या वचनं श्रुत्वा शुकः परमधर्मवित्।
उदैक्षत दिशः सर्वा वचने गतमानसः ॥ २५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
उर्वशीकी बात सुनकर परम धर्मज्ञ शुकदेवजीने सम्पूर्ण दिशाओंकी ओर देखा। उस समय उनका चित्त उसकी बातोंकी ओर चला गया था॥२५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
सोऽन्तरिक्षं महीं चैव सशैलवनकाननाम्।
विलोकयामास तदा सरांसि सरितस्तथा ॥ २६ ॥
मूलम्
सोऽन्तरिक्षं महीं चैव सशैलवनकाननाम्।
विलोकयामास तदा सरांसि सरितस्तथा ॥ २६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
आकाश, पर्वत, वन और काननोंसहित पृथ्वी एवं सरोवरों और सरिताओंकी ओर भी उन्होंने दृष्टि डाली॥२६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ततो द्वैपायनसुतं बहुमानात् समन्ततः।
कृताञ्जलिपुटाः सर्वा निरीक्षन्ते स्म देवताः ॥ २७ ॥
मूलम्
ततो द्वैपायनसुतं बहुमानात् समन्ततः।
कृताञ्जलिपुटाः सर्वा निरीक्षन्ते स्म देवताः ॥ २७ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
उस समय इन सबकी अधिष्ठात्री देवियोंने सब ओरसे बड़े आदरके साथ द्वैपायनकुमार शुकदेवजीको देखा। वे सब-की-सब अंजलि बाँधे खड़ी थीं॥२७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अब्रवीत् तास्तदा वाक्यं शुकः परमधर्मवित्।
पिता यद्यनुगच्छेन्मां क्रोशमानः शुकेति वै ॥ २८ ॥
ततः प्रतिवचो देयं सर्वैरेव समाहितैः।
एतन्मे स्नेहतः सर्वे वचनं कर्तुमर्हथ ॥ २९ ॥
मूलम्
अब्रवीत् तास्तदा वाक्यं शुकः परमधर्मवित्।
पिता यद्यनुगच्छेन्मां क्रोशमानः शुकेति वै ॥ २८ ॥
ततः प्रतिवचो देयं सर्वैरेव समाहितैः।
एतन्मे स्नेहतः सर्वे वचनं कर्तुमर्हथ ॥ २९ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
तब परम धर्मज्ञ शुकदेवजीने उन सबसे कहा—‘देवियो! यदि मेरे पिताजी मेरा नाम लेकर पुकारते हुए इधर आ निकलें तो आप सब लोग सावधान होकर मेरी ओरसे उन्हें उत्तर देना। आप लोगोंका मुझपर बड़ा स्नेह है; इसलिये आप सब मेरी इतनी-सी बात मान लेना’॥२८-२९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
शुकस्य वचनं श्रुत्वा दिशः सर्वाः सकाननाः।
समुद्राः सरितः शैलाः प्रत्यूचुस्तं समन्ततः ॥ ३० ॥
मूलम्
शुकस्य वचनं श्रुत्वा दिशः सर्वाः सकाननाः।
समुद्राः सरितः शैलाः प्रत्यूचुस्तं समन्ततः ॥ ३० ॥
अनुवाद (हिन्दी)
शुकदेवजीकी यह बात सुनकर कानर्नोसहित सम्पूर्ण दिशाओं, समुद्रों, नदियों, पर्वतों और पर्वतोंकी अधिष्ठात्री देवियोंने सब ओरसे यह उत्तर दिया—॥३०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
यथाऽऽज्ञापयसे विप्र बाढमेवं भविष्यति।
ऋषेर्व्याहरतो वाक्यं प्रतिवक्ष्यामहे वयम् ॥ ३१ ॥
मूलम्
यथाऽऽज्ञापयसे विप्र बाढमेवं भविष्यति।
ऋषेर्व्याहरतो वाक्यं प्रतिवक्ष्यामहे वयम् ॥ ३१ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘ब्रह्मन्! आप जैसी आज्ञा देते हैं, निश्चय ही वैसा ही होगा। जब महर्षि व्यास आपको पुकारेंगे, तब हम सब लोग उन्हें उत्तर देंगी’॥३१॥
मूलम् (समाप्तिः)
इति श्रीमहाभारते शान्तिपर्वणि मोक्षधर्मपर्वणि शुकाभिपतने द्वात्रिंशदधिकत्रिशततमोऽध्यायः ॥ ३३२ ॥
मूलम् (वचनम्)
इस प्रकार श्रीमहाभारत शान्तिपर्वके अन्तर्गत मोक्षधर्मपर्वमें शुकदेवजीका ऊर्ध्वगमनविषयक तीन सौ बत्तीसवाँ अध्याय पूरा हुआ॥३३२॥