भागसूचना
अष्टाविंशत्यधिकत्रिशततमोऽध्यायः
सूचना (हिन्दी)
शिष्योंके जानेके बाद व्यासजीके पास नारदजीका आगमन और व्यासजीको वेदपाठके लिये प्रेरित करना तथा व्यासजीका शुकदेवको अनध्यायका कारण बताते हुए ‘प्रवह’ आदि सात वायुओंका परिचय देना
मूलम् (वचनम्)
भीष्म उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
एतच्छ्रुत्वा गुरोर्वाक्यं व्यासशिष्या महौजसः।
अन्योन्यं हृष्टमनसः परिषस्वजिरे तदा ॥ १ ॥
मूलम्
एतच्छ्रुत्वा गुरोर्वाक्यं व्यासशिष्या महौजसः।
अन्योन्यं हृष्टमनसः परिषस्वजिरे तदा ॥ १ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
भीष्मजी कहते हैं— युधिष्ठिर! अपने गुरु व्यासके इस उपदेशको सुनकर उनके महातेजस्वी शिष्य मन-ही-मन बहुत प्रसन्न हुए और आपसमें एक-दूसरेको हृदयसे लगाने लगे॥१॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
उक्ताः स्मो यद् भगवता तदात्वायतिसंहितम्।
तन्नो मनसि संरूढं करिष्यामस्तथा च तत् ॥ २ ॥
मूलम्
उक्ताः स्मो यद् भगवता तदात्वायतिसंहितम्।
तन्नो मनसि संरूढं करिष्यामस्तथा च तत् ॥ २ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
फिर व्यासजीसे बोले— ‘भगवन्! आपने भविष्यमें हमारे हितका विचार करके जो बातें बतायी हैं, वे हमारे मनमें बैठ गयी हैं। हम अवश्य उनका पालन करेंगे’॥२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अन्योन्यं संविभाष्यैवं सुप्रीतमनसः पुनः।
विज्ञापयन्ति स्म गुरुं पुनर्वाक्यविशारदाः ॥ ३ ॥
मूलम्
अन्योन्यं संविभाष्यैवं सुप्रीतमनसः पुनः।
विज्ञापयन्ति स्म गुरुं पुनर्वाक्यविशारदाः ॥ ३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
इस प्रकार परस्पर वार्तालाप करके गुरु और शिष्य सभी मन-ही-मन बड़े प्रसन्न हुए। तदनन्तर प्रवचनकुशल शिष्योंने गुरुसे इस प्रकार निवेदन किया—॥३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
शैलादस्मान्महीं गन्तुं कांक्षितं नो महामुने।
वेदाननेकधा कर्तुं यदि ते रुचितं प्रभो ॥ ४ ॥
मूलम्
शैलादस्मान्महीं गन्तुं कांक्षितं नो महामुने।
वेदाननेकधा कर्तुं यदि ते रुचितं प्रभो ॥ ४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘महामुने! अब हम इस पर्वतसे पृथ्वीपर जाना चाहते हैं। वेदोंके अनेक विभाग करके उनका प्रचार करना ही हमारी इस यात्राका उद्देश्य है। प्रभो! यदि आपको यह रुचिकर जान पड़े तो हमें जानेकी आज्ञा दें’॥४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
शिष्याणां वचनं श्रुत्वा पराशरसुतः प्रभुः।
प्रत्युवाच ततो वाक्यं धर्मार्थसहितं हितम् ॥ ५ ॥
मूलम्
शिष्याणां वचनं श्रुत्वा पराशरसुतः प्रभुः।
प्रत्युवाच ततो वाक्यं धर्मार्थसहितं हितम् ॥ ५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
शिष्योंकी यह बात सुनकर पराशरनन्दन भगवान् व्यास यह धर्म और अर्थयुक्त हितकर वचन बोले॥५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
क्षितिं वा देवलोकं वा गम्यतां यदि रोचते।
अप्रमादश्च वः कार्यो ब्रह्म हि प्रचुरच्छलम् ॥ ६ ॥
मूलम्
क्षितिं वा देवलोकं वा गम्यतां यदि रोचते।
अप्रमादश्च वः कार्यो ब्रह्म हि प्रचुरच्छलम् ॥ ६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘शिष्यो! यदि तुम्हें यही अच्छा लगता है तो तुम पृथ्वीपर या देवलोकमें जहाँ चाहो जा सकते हो; परंतु प्रमाद न करना; क्योंकि वेदमें बहुत सी प्ररोचनात्मक श्रुतियाँ हैं, जो व्याजसे (फलोंका लोभ दिखाकर) धर्मका प्रतिपादन करती हैं’॥६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तेऽनुज्ञातास्ततः सर्वे गुरुणा सत्यवादिना।
जग्मुः प्रदक्षिणं कृत्वा व्यासं मूर्ध्नाभिवाद्य च ॥ ७ ॥
मूलम्
तेऽनुज्ञातास्ततः सर्वे गुरुणा सत्यवादिना।
जग्मुः प्रदक्षिणं कृत्वा व्यासं मूर्ध्नाभिवाद्य च ॥ ७ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
सत्यवादी गुरुकी यह आज्ञा पाकर सभी शिष्योंने उनके चरणोंपर सिर रखकर प्रणाम किया। तत्पश्चात् वे व्यासजीकी प्रदक्षिणा करके वहाँसे चले गये’॥७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अवतीर्य महीं तेऽथ चातुर्होत्रमकल्पयन्।
संयाजयन्तो विप्रांश्च राजन्यांश्च विशस्तथा ॥ ८ ॥
पुज्यमाना द्विजैर्नित्यं मोदमाना गृहे रताः।
याजनाध्यापनरताः श्रीमन्तो लोकविश्रुताः ॥ ९ ॥
मूलम्
अवतीर्य महीं तेऽथ चातुर्होत्रमकल्पयन्।
संयाजयन्तो विप्रांश्च राजन्यांश्च विशस्तथा ॥ ८ ॥
पुज्यमाना द्विजैर्नित्यं मोदमाना गृहे रताः।
याजनाध्यापनरताः श्रीमन्तो लोकविश्रुताः ॥ ९ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
पृथ्वीपर उतरकर उन्होंने चातुर्होत्र कर्म (अग्निहोत्रसे लेकर सोमयागतक) का प्रचार किया और गृहस्थाश्रममें प्रवेश करके ब्राह्मण, क्षत्रिय तथा वैश्योंके यज्ञ कराते हुए वे द्विजातियोंसे पूजित हो बड़े आनन्दसे रहने लगे। यज्ञ कराने और वेदोंकी शिक्षा देनेमें ही वे तत्पर रहते थे। इन्हीं कर्मोंके कारण वे श्रीसम्पन्न और लोक-विख्यात हो गये थे॥८-९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अवतीर्णेषु शिष्येषु व्यासः पुत्रसहायवान्।
तूष्णीं ध्यानपरो धीमानेकान्ते समुपाविशत् ॥ १० ॥
मूलम्
अवतीर्णेषु शिष्येषु व्यासः पुत्रसहायवान्।
तूष्णीं ध्यानपरो धीमानेकान्ते समुपाविशत् ॥ १० ॥
अनुवाद (हिन्दी)
शिष्योंके पर्वतसे नीचे उतर जानेपर व्यासजीके साथ उनके पुत्र शुकदेवके सिवा और कोई नहीं रह गया। वे बुद्धिमान् व्यासजी एकान्तमें ध्यानमग्न होकर चुपचाप बैठे थे॥१०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तं ददर्शाश्रमपदे नारदः सुमहातपाः।
अथैनमब्रवीत् काले मथुराक्षरया गिरा ॥ ११ ॥
मूलम्
तं ददर्शाश्रमपदे नारदः सुमहातपाः।
अथैनमब्रवीत् काले मथुराक्षरया गिरा ॥ ११ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
उसी समय महातपस्वी नारदजी उस आश्रमपर पधारकर व्यासजीसे मिले और मधुर अक्षरोंसे युक्त मीठी वाणीमें उनसे इस प्रकार बोले—॥११॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
भो भो ब्रह्मर्षिवासिष्ठ ब्रह्मघोषो न वर्तते।
एको ध्यानपरस्तूष्णीं किमास्से चिन्तयन्निव ॥ १२ ॥
मूलम्
भो भो ब्रह्मर्षिवासिष्ठ ब्रह्मघोषो न वर्तते।
एको ध्यानपरस्तूष्णीं किमास्से चिन्तयन्निव ॥ १२ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘हे ब्रह्मर्षिवासिष्ठ! आज आपके इस आश्रममें वेदमन्त्रोंकी ध्वनि क्यों नहीं हो रही है? आप अकेले ध्यानमग्न होकर चुपचाप क्यों बैठे हैं? जान पड़ता है, आप किसी चिन्तामें मग्न हैं॥१२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ब्रह्मघोषैर्विरहितः पर्वतोऽयं न शोभते।
रजसा तमसा चैव सोमः सोपप्लवो यथा ॥ १३ ॥
न भ्राजते यथापूर्वं निषादानामिवालयः।
देवर्षिगणजुष्टोऽपि वेदध्वनिनिराकृतः ॥ १४ ॥
मूलम्
ब्रह्मघोषैर्विरहितः पर्वतोऽयं न शोभते।
रजसा तमसा चैव सोमः सोपप्लवो यथा ॥ १३ ॥
न भ्राजते यथापूर्वं निषादानामिवालयः।
देवर्षिगणजुष्टोऽपि वेदध्वनिनिराकृतः ॥ १४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘वेदध्वनि न होनेके कारण इस पर्वतकी पहले-जैसी शोभा नहीं रही। रज और तमसे आच्छन्न हो यह राहुग्रस्त चन्द्रमाके समान जान पड़ता है। देवर्षियोंसे सेवित होनेपर भी यह शैलशिखर ब्रह्मघोषके बिना भीलोंके घरकी तरह श्रीहीन प्रतीत होता है॥१३-१४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ऋषयश्च हि देवाश्च गन्धर्वाश्च महौजसः।
वियुक्ता ब्रह्मघोषेण न भ्राजन्ते यथा पुरा ॥ १५ ॥
मूलम्
ऋषयश्च हि देवाश्च गन्धर्वाश्च महौजसः।
वियुक्ता ब्रह्मघोषेण न भ्राजन्ते यथा पुरा ॥ १५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘यहाँके ऋषि, देवता और महाबली गन्धर्व भी ब्रह्मघोषसे विमुक्त हो अब पहलेकी भाँति शोभा नहीं पा रहे हैं’॥१५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
नारदस्य वचः श्रुत्वा कृष्णद्वैपायनोऽब्रवीत्।
महर्षे यत् त्वया प्रोक्तं वेदवादविचक्षण ॥ १६ ॥
एतन्मनोऽनुकूलं मे भवानर्हति भाषितुम्।
सर्वज्ञः सर्वदर्शी च सर्वत्र च कुतूहली ॥ १७ ॥
मूलम्
नारदस्य वचः श्रुत्वा कृष्णद्वैपायनोऽब्रवीत्।
महर्षे यत् त्वया प्रोक्तं वेदवादविचक्षण ॥ १६ ॥
एतन्मनोऽनुकूलं मे भवानर्हति भाषितुम्।
सर्वज्ञः सर्वदर्शी च सर्वत्र च कुतूहली ॥ १७ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
नारदजीकी बात सुनकर श्रीकृष्णद्वैपायन व्यासने कहा—‘वेदविद्याके विद्वान् सहर्षे! आपने जो कुछ कहा है, यह मेरे मनके अनुकूल ही है। आप ही ऐसी बात कह सकते हैं। आप सर्वज्ञ, सर्वदर्शी और सर्वत्रकी बातें जाननेके लिये उत्कण्ठित रहनेवाले हैं॥१६-१७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
त्रिषु लोकेषु यद् भूतं सर्वं तव मते स्थितम्।
तदाज्ञापय विप्रर्षे ब्रूहि किं करवाणि ते ॥ १८ ॥
मूलम्
त्रिषु लोकेषु यद् भूतं सर्वं तव मते स्थितम्।
तदाज्ञापय विप्रर्षे ब्रूहि किं करवाणि ते ॥ १८ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘तीनों लोकोंमें जो बात होती है या हो चुकी है, वह सब आपकी जानकारीमें है। ब्रह्मर्षे! बताइये, आज्ञा दीजिये, मैं आपकी क्या सेवा करूँ?॥१८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
यन्मया समनुष्ठेयं ब्रह्मर्षे तदुदाहर।
विमुक्तस्येह शिष्यैर्मे नातिहृष्टमिदं मनः ॥ १९ ॥
मूलम्
यन्मया समनुष्ठेयं ब्रह्मर्षे तदुदाहर।
विमुक्तस्येह शिष्यैर्मे नातिहृष्टमिदं मनः ॥ १९ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘ब्रह्मर्षि नारद! इस समय मेरा जो कर्तव्य है, उसे भी बताइये। अपने प्यारे शिष्योंसे बिछुड़ जानेके कारण इस समय मेरा यह मन विशेष प्रसन्न नहीं है’॥१९॥
मूलम् (वचनम्)
नारद उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
अनाम्नायमला वेदा ब्राह्मणस्याव्रतं मलम्।
मलं पृथिव्या वाहीकाः स्त्रीणां कौतूहलं मलम् ॥ २० ॥
मूलम्
अनाम्नायमला वेदा ब्राह्मणस्याव्रतं मलम्।
मलं पृथिव्या वाहीकाः स्त्रीणां कौतूहलं मलम् ॥ २० ॥
अनुवाद (हिन्दी)
नारदजीने कहा— व्यासजी! वेद पढ़कर उसका अभ्यास (पुनरावृत्ति) न करना वेदाध्ययनका दूषण है। व्रतका पालन न करना ब्राह्मणका दूषण है। वाहीक देशके लोग पृथ्वीके दूषण हैं और नये-नये खेल-तमाशा देखनेकी लालसा स्त्रीके लिये दोषकी बात है॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अधीयतां भवान् वेदान् सार्धं पुत्रेण धीमता।
विधुन्वन् ब्रह्मघोषेण रक्षोभयकृतं तमः ॥ २१ ॥
मूलम्
अधीयतां भवान् वेदान् सार्धं पुत्रेण धीमता।
विधुन्वन् ब्रह्मघोषेण रक्षोभयकृतं तमः ॥ २१ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
आप अपने वेदोच्चारणकी ध्वनिसे राक्षसभयजनित अन्धकारका नाश करते हुए बुद्धिमान् पुत्र शुकदेवजीके साथ वेदोंका स्वाध्याय करते रहें॥२१॥
मूलम् (वचनम्)
भीष्म उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
नारदस्य वचः श्रुत्वा व्यासः परमधर्मवित्।
तथेत्युवाच संहृष्टो वेदाभ्यासदृढव्रतः ॥ २२ ॥
मूलम्
नारदस्य वचः श्रुत्वा व्यासः परमधर्मवित्।
तथेत्युवाच संहृष्टो वेदाभ्यासदृढव्रतः ॥ २२ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
भीष्मजी कहते हैं— युधिष्ठिर! नारदजीकी बात सुनकर परम धर्मज्ञ व्यासजीने ‘बहुत अच्छा’ कहकर उनकी आज्ञा स्वीकार की और हर्षमें भरकर वे वेदाभ्यासरूपी व्रतका दृढ़तापूर्वक पालन करने लगे॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
शुकेन सह पुत्रेण वेदाभ्यासमथाकरोत्।
स्वरेणोच्चैः स शैक्ष्येण लोकानापूरयन्निव ॥ २३ ॥
मूलम्
शुकेन सह पुत्रेण वेदाभ्यासमथाकरोत्।
स्वरेणोच्चैः स शैक्ष्येण लोकानापूरयन्निव ॥ २३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
उन्होंने अपने पुत्र शुकदेवके साथ शिक्षाके नियमानुसार उच्चस्वरसे तीनों लोकोंको परिपूर्ण करते हुए-से वेदोंकी आवृत्ति आरम्भ कर दी॥२३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तयोरभ्यसतोरेव नानाधर्मप्रवादिनोः ।
वातोऽतिमात्रं प्रववौ समुद्रानिलवेजितः ॥ २४ ॥
मूलम्
तयोरभ्यसतोरेव नानाधर्मप्रवादिनोः ।
वातोऽतिमात्रं प्रववौ समुद्रानिलवेजितः ॥ २४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
नाना प्रकारके धर्मोंका प्रतिपादन करनेवाले वे पिता-पुत्र उक्त रूपसे वेदोंका अभ्यास कर ही रहे थे कि समुद्री हवासे प्रेरित होकर बड़े जोरकी आँधी चलने लगी॥२४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ततोऽनध्याय इति तं व्यासः पुत्रमवारयत्।
शुको वारितमात्रस्तु कौतूहलसमन्वितः ॥ २५ ॥
मूलम्
ततोऽनध्याय इति तं व्यासः पुत्रमवारयत्।
शुको वारितमात्रस्तु कौतूहलसमन्वितः ॥ २५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
तब अनध्याय-काल बताकर व्यासजीने अपने पुत्रको वेद पढ़नेसे उस समय रोक दिया। उनके मना करनेपर शुकदेवजीके मनमें इसका कारण जाननेके लिये प्रबल उत्कण्ठा हुई॥२५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अपृच्छत् पितरं ब्रह्मन् कुतो वायुरभूदयम्।
आख्यातुमर्हति भवान् वायोः सर्वं विचेष्टितम् ॥ २६ ॥
मूलम्
अपृच्छत् पितरं ब्रह्मन् कुतो वायुरभूदयम्।
आख्यातुमर्हति भवान् वायोः सर्वं विचेष्टितम् ॥ २६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
उन्होंने अपने पितासे पूछा—‘ब्रह्मन्! इस वायुकी उत्पत्ति किससे हुई है? आप वायुकी सारी चेष्टाओंका विस्तारपूर्वक वर्णन करें’॥२६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
शुकस्यैतद् वचः श्रुत्वा व्यासः परमविस्मितः।
अनध्यायनिमित्तेऽस्मिन्निदं वचनमब्रवीत् ॥ २७ ॥
मूलम्
शुकस्यैतद् वचः श्रुत्वा व्यासः परमविस्मितः।
अनध्यायनिमित्तेऽस्मिन्निदं वचनमब्रवीत् ॥ २७ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
शुकदेवजीका यह वचन सुनकर व्यासजी अत्यन्त आश्चर्यसे चकित हो उठे और अनध्यायके कारणपर प्रकाश डालते हुए इस प्रकार बोले—॥२७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
दिव्यं ते चक्षुरुत्पन्नं स्वयं ते निर्मलं मनः।
तमसा रजसा चापि त्यक्तः सत्त्वे व्यवस्थितः ॥ २८ ॥
मूलम्
दिव्यं ते चक्षुरुत्पन्नं स्वयं ते निर्मलं मनः।
तमसा रजसा चापि त्यक्तः सत्त्वे व्यवस्थितः ॥ २८ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘बेटा! तुम्हें स्वयं ही दिव्य दृष्टि प्राप्त हो गयी है। तुम्हारा हृदय अत्यन्त निर्मल है। तुम रजोगुण और तमोगुणसे रहित होकर सत्त्वगुणमें प्रतिष्ठित हो॥२८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
आदर्शे स्वामिव च्छायां पश्यस्यात्मानमात्मना।
व्यस्यात्मनि स्वयं वेदान् बुद्ध्या समनुचिन्तय ॥ २९ ॥
मूलम्
आदर्शे स्वामिव च्छायां पश्यस्यात्मानमात्मना।
व्यस्यात्मनि स्वयं वेदान् बुद्ध्या समनुचिन्तय ॥ २९ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘जैसे लोग दर्पणमें अपना प्रतिबिम्ब देखते हैं, उसी प्रकार तुम बुद्धिके द्वारा आत्माका साक्षात्कार करते हो; अतः स्वयं ही वेदोंको अपने भीतर स्थापित करके बुद्धिद्वारा अनध्यायके कारणभूत वायुके विषयमें विचार करो॥२९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
देवयानचरो विष्णोः पितृयाणश्च तामसः।
द्वावेतौ प्रेत्य पन्थानौ दिवं चाधश्च गच्छतः ॥ ३० ॥
मूलम्
देवयानचरो विष्णोः पितृयाणश्च तामसः।
द्वावेतौ प्रेत्य पन्थानौ दिवं चाधश्च गच्छतः ॥ ३० ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘मरकर ऊपरके लोकोंमें जानेवाले और नीचेके लोकोंमें जानेवाले मनुष्योंके लिये दो मार्ग हैं, एक तो देवयान जो कि विष्णुलोकका मार्ग है, अतः सात्त्विक है, दूसरा पितृयान जो कि तामस है॥३०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
पृथिव्यामन्तरिक्षे च यत्र संवान्ति वायवः।
सप्तैते वायुमार्गा वै तान् निबोधानुपूर्वशः ॥ ३१ ॥
मूलम्
पृथिव्यामन्तरिक्षे च यत्र संवान्ति वायवः।
सप्तैते वायुमार्गा वै तान् निबोधानुपूर्वशः ॥ ३१ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘पृथ्वीपर या आकाशमें जहाँ भी हवा चलती है, उसके बहनेके लिये सात मार्ग हैं। तुम क्रमशः उनका वर्णन सुनो॥३१॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तत्र देवगणाः साध्या महाभूता महाबलाः।
तेषामप्यभवत् पुत्रः समानो नाम दुर्जयः ॥ ३२ ॥
मूलम्
तत्र देवगणाः साध्या महाभूता महाबलाः।
तेषामप्यभवत् पुत्रः समानो नाम दुर्जयः ॥ ३२ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘पृथ्वी और आकाशमें जो महाबली और महान् भूत-स्वरूप साध्य नामक देवगण अदृश्यभावसे रहते हैं, उनके दुर्जय पुत्रका नाम है समान॥३२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
उदानस्तस्य पुत्रोऽभूद् व्यानस्तस्याभवत् सुतः।
अपानश्च ततो ज्ञेयः प्राणश्चापि ततोऽपरः ॥ ३३ ॥
मूलम्
उदानस्तस्य पुत्रोऽभूद् व्यानस्तस्याभवत् सुतः।
अपानश्च ततो ज्ञेयः प्राणश्चापि ततोऽपरः ॥ ३३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘समानका पुत्र है उदान, उदानका पुत्र है व्यान, उसके पुत्रका नाम अपान जानना चाहिये और अपानसे प्राणकी उत्पत्ति हुई है॥३३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अनपत्योऽभवत् प्राणो दुर्धर्षः शत्रुतापनः।
पृथक् कर्माणि तेषां ते प्रवक्ष्यामि यथातथम् ॥ ३४ ॥
मूलम्
अनपत्योऽभवत् प्राणो दुर्धर्षः शत्रुतापनः।
पृथक् कर्माणि तेषां ते प्रवक्ष्यामि यथातथम् ॥ ३४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘प्राणके कोई संतान नहीं हुई। वह शत्रुओंको संताप देनेवाला और दुर्जय है। उन सबके कर्म पृथक्-पृथक् हैं, जिनका मैं तुमसे यथावत्रूपसे वर्णन करता हूँ॥३४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
प्राणिनां सर्वतो वायुश्चेष्टां वर्तयते पृथक्।
प्राणनाच्चैव भूतानां प्राण इत्यभिधीयते ॥ ३५ ॥
मूलम्
प्राणिनां सर्वतो वायुश्चेष्टां वर्तयते पृथक्।
प्राणनाच्चैव भूतानां प्राण इत्यभिधीयते ॥ ३५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘वायुदेव प्राणियोंकी पृथक्-पृथक् समस्त चेष्टाओंका सम्पादन करते हैं तथा सम्पूर्ण भूतोंको अनुप्राणित (जीवित) रखते हैं, इसलिये ‘प्राण’ कहलाते हैं॥३५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
प्रेरयत्यभ्रसंघातान् धूमजांश्चोष्मजांश्च यः ।
प्रथमः प्रथमे मार्गे प्रवहो नाम योऽनिलः ॥ ३६ ॥
मूलम्
प्रेरयत्यभ्रसंघातान् धूमजांश्चोष्मजांश्च यः ।
प्रथमः प्रथमे मार्गे प्रवहो नाम योऽनिलः ॥ ३६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘जो धूम तथा गर्मीसे उत्पन्न बादलों और ओलोंको इधरसे उधर ले जाता है, वह प्रथम मार्गमें प्रवाहित होनेवाला ‘प्रवह’ नामक प्रथम वायु है॥३६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अम्बरे स्नेहमभ्येत्य विद्युद्भ्यश्च महाद्युतिः।
आवहो नाम संवाति द्वितीयः श्वसनो नदन् ॥ ३७ ॥
मूलम्
अम्बरे स्नेहमभ्येत्य विद्युद्भ्यश्च महाद्युतिः।
आवहो नाम संवाति द्वितीयः श्वसनो नदन् ॥ ३७ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘जो आकाशमें रसकी मात्राओं और बिजली आदिकी उत्पत्तिके लिये प्रकट होता है, वह महान् तेजसे सम्पन्न द्वितीय वायु ‘आवह’ नामसे प्रसिद्ध है। वह बड़ी भारी आवाजके साथ बहता है॥३७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
उदयं ज्योतिषां शश्वत् सोमादीनां करोति यः।
अन्तर्देहेषु चोदानं यं वदन्ति मनीषिणः ॥ ३८ ॥
यश्चतुर्भ्यः समुद्रेभ्यो वायुर्धारयते जलम्।
उद्धृत्याददते चापो जीमूतेभ्योऽम्बरेऽनिलः ॥ ३९ ॥
योऽद्भिः संयोज्य जीमूतान् पर्जन्याय प्रयच्छति।
उद्वहो नाम बंहिष्ठस्तृतीयः स सदागतिः ॥ ४० ॥
मूलम्
उदयं ज्योतिषां शश्वत् सोमादीनां करोति यः।
अन्तर्देहेषु चोदानं यं वदन्ति मनीषिणः ॥ ३८ ॥
यश्चतुर्भ्यः समुद्रेभ्यो वायुर्धारयते जलम्।
उद्धृत्याददते चापो जीमूतेभ्योऽम्बरेऽनिलः ॥ ३९ ॥
योऽद्भिः संयोज्य जीमूतान् पर्जन्याय प्रयच्छति।
उद्वहो नाम बंहिष्ठस्तृतीयः स सदागतिः ॥ ४० ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘जो सदा सोम, सूर्य आदि ग्रहोंका उदय एवं उद्भव करता है, मनीषी पुरुष शरीरके भीतर जिसे ‘उदान’ कहते हैं, जो चारों समुद्रोंसे जलको ऊपर उठाकर जीमूत नामक मेघोंमें स्थापित करता है तथा जीमूत नामक मेघोंको जलसे संयुक्त करके उन्हें पर्जन्यके हवाले कर देता है, वह महान् वायु ‘उद्वह’ कहलाता है, जो तृतीय मार्गपर चलनेके कारण तीसरा कहा गया है॥३८-४०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
समूह्यमाना बहुधा येन नीताः पृथग् घनाः।
वर्षमोक्षकृतारम्भास्ते भवन्ति घनाघनाः ॥ ४१ ॥
संहता येन चाविद्धा भवन्ति नदतां नदाः।
रक्षणार्थाय सम्भूता मेघत्वमुपयान्ति च ॥ ४२ ॥
योऽसौ वहति भूतानां विमानानि विहायसा।
चतुर्थः संवहो नाम वायुः स गिरिमर्दनः ॥ ४३ ॥
मूलम्
समूह्यमाना बहुधा येन नीताः पृथग् घनाः।
वर्षमोक्षकृतारम्भास्ते भवन्ति घनाघनाः ॥ ४१ ॥
संहता येन चाविद्धा भवन्ति नदतां नदाः।
रक्षणार्थाय सम्भूता मेघत्वमुपयान्ति च ॥ ४२ ॥
योऽसौ वहति भूतानां विमानानि विहायसा।
चतुर्थः संवहो नाम वायुः स गिरिमर्दनः ॥ ४३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘जिसके द्वारा इधर-उधर ले जाये गये अनेक प्रकारके महामेघ घटा बाँधकर जल बरसाना आरम्भ करते हैं, घटाके रूपमें घनीभूत होनेपर भी जिसकी प्रेरणासे सारे बादल फट जाते हैं, फिर वे वेणुनादके समान शब्द करनेके कारण ‘नद’ कहलाते हैं तथा प्राणियोंकी रक्षाके लिये पुनः जलका संग्रह करके घनीभूत हो जाते हैं, जो वायु देवताओंके आकाशमार्गसे जानेवाले विमानोंको स्वयं ही वहन करता है, वह पर्वतोंका मान मर्दन करनेवाला चतुर्थ वायु ‘संवह’ नामसे प्रसिद्ध है॥४१—४३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
येन वेगवता रुग्णा रूक्षेण रुवता नगान्।
वायुना सहिता मेघास्ते भवन्ति बलाहकाः ॥ ४४ ॥
दारुणोत्पातसंचारो नभसः स्तनयित्नुमान् ।
पञ्चमः स महावेगो विवहो नाम मारुतः ॥ ४५ ॥
मूलम्
येन वेगवता रुग्णा रूक्षेण रुवता नगान्।
वायुना सहिता मेघास्ते भवन्ति बलाहकाः ॥ ४४ ॥
दारुणोत्पातसंचारो नभसः स्तनयित्नुमान् ।
पञ्चमः स महावेगो विवहो नाम मारुतः ॥ ४५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘जो रुक्षभावसे वेगपूर्वक महान् शब्दके साथ बहकर बड़े-बड़े वृक्षोंको तोड़ देता और उखाड़ फेंकता है तथा जिसके द्वारा संगठित हुए प्रलयकालीन मेघ ‘बलाहक’ संज्ञा धारण करते हैं, जिस वायुका संचरण भयानक उत्पात लानेवाला होता है तथा जो आकाशसे अपने साथ मेघोंकी घटाएँ लिये चलता है, उस अत्यन्त वेगशाली पंचम वायुको ‘विवह’ नाम दिया गया है॥४४-४५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
यस्मिन् पारिप्लवा दिव्या वहन्त्यापो विहायसा।
पुण्यं चाकाशगङ्गायास्तोयं विष्टभ्य तिष्ठति ॥ ४६ ॥
दूरात् प्रतिहतो यस्मिन्नेकरश्मिर्दिवाकरः ।
योनिरंशुसहस्रस्य येन भाति वसुन्धरा ॥ ४७ ॥
यस्मादाप्यायते सोमो निधिर्दिव्योऽमृतस्य च।
षष्ठः परिवहो नाम स वायुर्जयतां वरः ॥ ४८ ॥
मूलम्
यस्मिन् पारिप्लवा दिव्या वहन्त्यापो विहायसा।
पुण्यं चाकाशगङ्गायास्तोयं विष्टभ्य तिष्ठति ॥ ४६ ॥
दूरात् प्रतिहतो यस्मिन्नेकरश्मिर्दिवाकरः ।
योनिरंशुसहस्रस्य येन भाति वसुन्धरा ॥ ४७ ॥
यस्मादाप्यायते सोमो निधिर्दिव्योऽमृतस्य च।
षष्ठः परिवहो नाम स वायुर्जयतां वरः ॥ ४८ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘जिस वायुके आधारपर आकाशमें दिव्य जल ऊपर-ही-ऊपर प्रवाहित होते हैं, जो आकाशगंगाके पवित्र जलको धारण करके स्थित है और जिसके द्वारा दूरसे ही प्रतिहत होकर सहस्रों किरणोंके उत्पत्तिस्थान सूर्यदेव, जिनसे यह पृथ्वी प्रकाशित होती है, एक ही किरणसे युक्त जान पड़ते हैं तथा जिससे अमृतकी दिव्य निधि चन्द्रमाका भी पोषण होता है, वह विजयशीलोंमें श्रेष्ठ छठा वायुतत्त्व ‘परिवह’ नामसे प्रसिद्ध है॥४६—४८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
सर्वप्राणभृतां प्राणान् योऽन्तकाले निरस्यति।
यस्य वर्त्मानुवर्तेते मृत्युवैवस्वतावुभौ ॥ ४९ ॥
सम्यगन्वीक्षतां बुद्ध्या शान्तयाध्यात्मनित्यया ।
ध्यानाभ्यासाभिरामाणां योऽमृतत्वाय कल्पते ॥ ५० ॥
यं समासाद्य वेगेन दिशोऽन्तं प्रतिपेदिरे।
दक्षस्य दशपुत्राणां सहस्राणि प्रजापतेः ॥ ५१ ॥
येन स्पृष्टः पराभूतो यात्येव न निवर्तते।
परावहो नाम परो वायुः स दुरतिक्रमः ॥ ५२ ॥
मूलम्
सर्वप्राणभृतां प्राणान् योऽन्तकाले निरस्यति।
यस्य वर्त्मानुवर्तेते मृत्युवैवस्वतावुभौ ॥ ४९ ॥
सम्यगन्वीक्षतां बुद्ध्या शान्तयाध्यात्मनित्यया ।
ध्यानाभ्यासाभिरामाणां योऽमृतत्वाय कल्पते ॥ ५० ॥
यं समासाद्य वेगेन दिशोऽन्तं प्रतिपेदिरे।
दक्षस्य दशपुत्राणां सहस्राणि प्रजापतेः ॥ ५१ ॥
येन स्पृष्टः पराभूतो यात्येव न निवर्तते।
परावहो नाम परो वायुः स दुरतिक्रमः ॥ ५२ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘जो वायु अन्तकालमें सम्पूर्ण प्राणियोंके प्राणोंको शरीरसे निकालता है, जिसके इस प्राणनिष्कासनरूप मार्गका मृत्यु तथा वैवस्वत यम अनुगमनमात्र करते हैं, सदा अध्यात्मचिन्तनमें लगी हुई शान्त बुद्धिके द्वारा भलीभाँति अनुसंधान करनेवाले तथा ध्यानके अभ्यासमें ही सानन्द रत रहनेवाले पुरुषोंको जो अमृतत्व देनेमें समर्थ है, जिसमें स्थित होकर प्रजापति दक्षके दस हजार पुत्र सम्पूर्ण दिशाओंके अन्तमें पहुँच गये तथा जिससे स्पर्शित होकर विलीन हुआ प्राणी यहाँसे केवल जाता है वापस नहीं लौटता, उस सर्वश्रेष्ठ सप्तम वायुका नाम ‘परावह’ है। उसका अतिक्रमण करना सभीके लिये सर्वथा कठिन है॥४९—५२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
एवमेते दितेः पुत्रा मारुताः परमाद्भुताः।
अनारतं ते संवान्ति सर्वगाः सर्वधारिणः ॥ ५३ ॥
मूलम्
एवमेते दितेः पुत्रा मारुताः परमाद्भुताः।
अनारतं ते संवान्ति सर्वगाः सर्वधारिणः ॥ ५३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘इस प्रकार ये सात मरुद्गण दितिके अत्यन्त अद्भुत पुत्र हैं। इनकी सर्वत्र गति है। ये निरन्तर बहते और सबको धारण करते हैं॥५३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
एतत् तु महदाश्चर्यं यदयं पर्वतोत्तमः।
कम्पितः सहसा तेन वायुनातिप्रवायता ॥ ५४ ॥
मूलम्
एतत् तु महदाश्चर्यं यदयं पर्वतोत्तमः।
कम्पितः सहसा तेन वायुनातिप्रवायता ॥ ५४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘यह बड़े आश्चर्यकी बात है कि अत्यन्त वेगसे बहते हुए उस वायुके द्वारा यह पर्वतोंमें श्रेष्ठ हिमालय भी सहसा काँप उठा है॥५४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
विष्णोर्निःश्वासवातोऽयं यदा वेगसमीरितः ।
सहसोदीर्यते तात जगत् प्रव्यथते तदा ॥ ५५ ॥
मूलम्
विष्णोर्निःश्वासवातोऽयं यदा वेगसमीरितः ।
सहसोदीर्यते तात जगत् प्रव्यथते तदा ॥ ५५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘तात! यह भगवान् विष्णुका निःश्वास है। जब कभी सहसा वह निःश्वास वेगसे निकल पड़ता है, उस समय यह सारा जगत् व्यथित हो उठता है॥५५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तस्माद् ब्रह्मविदो वेदान् नाधीयन्तेऽतिवायति।
वायोर्वायुभयं ह्युक्तं ब्रह्म तत्पीडितं भवेत् ॥ ५६ ॥
मूलम्
तस्माद् ब्रह्मविदो वेदान् नाधीयन्तेऽतिवायति।
वायोर्वायुभयं ह्युक्तं ब्रह्म तत्पीडितं भवेत् ॥ ५६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘इसलिये ब्रह्मवेत्ता पुरुष प्रचण्ड वायु (आँधी) चलनेपर वेदका पाठ नहीं करते हैं। वेद भी भगवान्का निःश्वास ही है। उस समय वेदपाठ करनेपर वायुको वायुसे भय प्राप्त होता है और उस वेदको भी पीड़ा होती है’॥५६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
एतावदुक्त्वा वचनं पराशरसुतः प्रभुः।
उक्त्वा पुत्रमधीष्वेति व्योमगङ्गामगात् तदा ॥ ५७ ॥
मूलम्
एतावदुक्त्वा वचनं पराशरसुतः प्रभुः।
उक्त्वा पुत्रमधीष्वेति व्योमगङ्गामगात् तदा ॥ ५७ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
अनध्यायके विषयमें यह बात कहकर पराशरनन्दन भगवान् व्यास अपने पुत्र शुकदेवसे बोले—‘अब तुम वेदपाठ करो।’ यों कहकर वे आकाशगंगाके तटपर चल गये॥५७॥
मूलम् (समाप्तिः)
इति श्रीमहाभारते शान्तिपर्वणि मोक्षधर्मपर्वणि अनध्यायनिमित्तकथनं नामाष्टाविंशत्यधिकत्रिशततमोऽध्यायः ॥ ३२८ ॥
मूलम् (वचनम्)
इस प्रकार श्रीमहाभारत शान्तिपर्वके अन्तर्गत मोक्षधर्मपर्वमें अनध्यायके कारणका कथन नामक तीन सौ अट्ठाईसवाँ अध्याय पूरा हुआ॥३२८॥