३२६ शुकोत्पत्तौ

भागसूचना

षड्विंशत्यधिकत्रिशततमोऽध्यायः

सूचना (हिन्दी)

राजा जनकके द्वारा शुकदेवजीका पूजन तथा उनके प्रश्नका समाधान करते हुए ब्रह्मचर्याश्रममें परमात्माकी प्राप्ति होनेके बाद अन्य तीनों आश्रमोंकी अनावश्यकताका प्रतिपादन करना तथा मुक्त पुरुषके लक्षणोंका वर्णन

मूलम् (वचनम्)

भीष्म उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

ततः स राजा जनको मन्त्रिभिः सह भारत।
पुरः पुरोहितं कृत्वा सर्वाण्यन्तःपुराणि च ॥ १ ॥
आसनं च पुरस्कृत्य रत्नानि विविधानि च।
शिरसा चार्घ्यमादाय गुरुपुत्रं समभ्यगात् ॥ २ ॥

मूलम्

ततः स राजा जनको मन्त्रिभिः सह भारत।
पुरः पुरोहितं कृत्वा सर्वाण्यन्तःपुराणि च ॥ १ ॥
आसनं च पुरस्कृत्य रत्नानि विविधानि च।
शिरसा चार्घ्यमादाय गुरुपुत्रं समभ्यगात् ॥ २ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

भीष्मजी कहते हैं— भारत! तदनन्तर मन्त्रियोंसहित राजा जनक अन्तःपुरकी सम्पूर्ण स्त्रियों और पुरोहितको आगे करके आसन तथा नाना प्रकारके रत्नोंकी भेंट लिये मस्तकपर अर्घ्यपात्र रखकर गुरुपुत्र शुकदेवजीके पास आये॥१-२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

स तदाऽऽसनमादाय बहुरत्नविभूषितम् ।
स्पर्द्ध्यास्तरणसंस्तीर्णं सर्वतोभद्रमृद्धिमत् ॥ ३ ॥
पुरोधसा संगृहीतं हस्तेनालभ्य पार्थिवः।
प्रददौ गुरुपुत्राय शुकाय परमार्चितम् ॥ ४ ॥

मूलम्

स तदाऽऽसनमादाय बहुरत्नविभूषितम् ।
स्पर्द्ध्यास्तरणसंस्तीर्णं सर्वतोभद्रमृद्धिमत् ॥ ३ ॥
पुरोधसा संगृहीतं हस्तेनालभ्य पार्थिवः।
प्रददौ गुरुपुत्राय शुकाय परमार्चितम् ॥ ४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

उस समय जिसे पुरोहितने ले रखा था, वह सर्वतोभद्र नामक बहुरत्नजटित आसन, जिसपर मूल्यवान् बिछौने बिछे हुए थे, उनके हाथसे अपने हाथमें लेकर राजा जनकने गुरुपुत्र शुकदेवको समर्पित किया। वह आसन समृद्धिसे सम्पन्न था॥३-४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तत्रोपविष्टं तं कार्ष्णिं शास्त्रतः प्रत्यपूजयत्।
पाद्यं निवेद्य प्रथममर्घ्यं गां च न्यवेदयत् ॥ ५ ॥

मूलम्

तत्रोपविष्टं तं कार्ष्णिं शास्त्रतः प्रत्यपूजयत्।
पाद्यं निवेद्य प्रथममर्घ्यं गां च न्यवेदयत् ॥ ५ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

व्यासपुत्र शुकदेव जब उस आसनपर विराजमान हुए, तब राजा जनकने शास्त्रके अनुसार उनका पूजन आरम्भ किया। पहले पाद्य और अर्घ्य आदि निवेदन करके राजाने उन्हें एक गौ प्रदान की॥५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

स च तां मन्त्रवत्पूजां प्रत्यगृह्णाद् यथाविधि।
प्रतिगृह्य तु तां पूजां जनकाद् द्विजसत्तमः ॥ ६ ॥
गां चैव समनुज्ञाय राजानमनुमान्य च।
पर्यपृच्छन्महातेजा राज्ञः कुशलमव्ययम् ॥ ७ ॥

मूलम्

स च तां मन्त्रवत्पूजां प्रत्यगृह्णाद् यथाविधि।
प्रतिगृह्य तु तां पूजां जनकाद् द्विजसत्तमः ॥ ६ ॥
गां चैव समनुज्ञाय राजानमनुमान्य च।
पर्यपृच्छन्महातेजा राज्ञः कुशलमव्ययम् ॥ ७ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

द्विजश्रेष्ठ शुकदेवजीने राजा जनककी ओरसे प्राप्त हुई वह मन्त्रयुक्त सविधि पूजा स्वीकार की। पूजा ग्रहण करनेके पश्चात् गोदान स्वीकार करके राजाको आदर देते हुए महातेजस्वी शुकने उनका सदा बना रहनेवाला कुशल-समाचार पूछा॥६-७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अनामयं च राजेन्द्र शुकः सानुचरस्य ह।
अनुशिष्टस्तु तेनासौ निषसाद सहानुगः ॥ ८ ॥
उदारसत्त्वाभिजनो भूमौ राजा कृताञ्जलिः।
कुशलं चाव्ययं चैव पृष्ट्वा वैयासकिं नृपः।
किमागमनमित्येवं पर्यपृच्छत पार्थिवः ॥ ९ ॥

मूलम्

अनामयं च राजेन्द्र शुकः सानुचरस्य ह।
अनुशिष्टस्तु तेनासौ निषसाद सहानुगः ॥ ८ ॥
उदारसत्त्वाभिजनो भूमौ राजा कृताञ्जलिः।
कुशलं चाव्ययं चैव पृष्ट्वा वैयासकिं नृपः।
किमागमनमित्येवं पर्यपृच्छत पार्थिवः ॥ ९ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

राजेन्द्र! सेवकोंसहित राजाके आरोग्यका समाचार भी उन्होंने पूछा। फिर उनकी आज्ञा ले राजा अपने अनुचरवर्गके साथ वहाँ हाथ जोड़े हुए भूमिपर ही बैठ गये। राजाका हृदय तो उदार था ही, उनका कुल भी परम उदार था। उन पृथ्वीपति नरेशने व्यासनन्दन शुकसे उनके कुशल-मंगलकी जिज्ञासा करके पूछा—‘ब्रह्मन्! किस निमित्तसे यहाँ आपका शुभागमन हुआ है?’॥८-९॥

मूलम् (वचनम्)

शुक उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

पित्राहमुक्तो भद्रं ते मोक्षधर्मार्थकोविदः।
विदेहराजो याज्यो मे जनको नाम विश्रुतः ॥ १० ॥
तत्र गच्छस्व वै तूर्णं यदि ते हृदि संशयः।
प्रवृत्तौ वा निवृत्तौ वा स ते च्छेत्स्यति संशयम्॥११॥

मूलम्

पित्राहमुक्तो भद्रं ते मोक्षधर्मार्थकोविदः।
विदेहराजो याज्यो मे जनको नाम विश्रुतः ॥ १० ॥
तत्र गच्छस्व वै तूर्णं यदि ते हृदि संशयः।
प्रवृत्तौ वा निवृत्तौ वा स ते च्छेत्स्यति संशयम्॥११॥

अनुवाद (हिन्दी)

शुकदेवजीने कहा— राजन्! आपका कल्याण हो। मेरे पिताजीने मुझसे कहा है कि मेरे यजमान लोकप्रसिद्ध विदेहराज जनक मोक्षधर्मके विशेषज्ञ हैं। यदि प्रवृत्ति या निवृत्ति-धर्मके विषयमें तुम्हारे हृदयमें कोई संदेह हो तो तुरंत ही उनके पास चले जाओ। वे तुम्हारी सारी शंकाओंका समाधान कर देंगे॥१०-११॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

सोऽहं पितुर्नियोगात् त्वामुपप्रष्टुमिहागतः ।
तन्मे धर्मभृतां श्रेष्ठ यथावद् वक्तुमर्हसि ॥ १२ ॥

मूलम्

सोऽहं पितुर्नियोगात् त्वामुपप्रष्टुमिहागतः ।
तन्मे धर्मभृतां श्रेष्ठ यथावद् वक्तुमर्हसि ॥ १२ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

धर्मात्माओंमें श्रेष्ठ नरेश! पिताकी इस आज्ञासे ही मैं यहाँ आपके पास कुछ पूछनेके लिये आया हूँ। आप मेरे प्रश्नोंका यथावत् उत्तर दें॥१२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

किं कार्यं ब्राह्मणेनेह मोक्षार्थश्च किमात्मकः।
कथं च मोक्षः प्राप्तव्यो ज्ञानेन तपसाथवा ॥ १३ ॥

मूलम्

किं कार्यं ब्राह्मणेनेह मोक्षार्थश्च किमात्मकः।
कथं च मोक्षः प्राप्तव्यो ज्ञानेन तपसाथवा ॥ १३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

ब्राह्मणका कर्तव्य क्या है? मोक्ष नामक पुरुषार्थका क्या स्वरूप है? उस मोक्षको ज्ञानसे अथवा तपस्यासे किस साधनसे प्राप्त किया जा सकता है?॥१३॥

मूलम् (वचनम्)

जनक उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

यत् कार्यं ब्राह्मणेनेह जन्मप्रभृति तच्छृणु।
कृतोपनयनस्तात भवेद् वेदपरायणः ॥ १४ ॥

मूलम्

यत् कार्यं ब्राह्मणेनेह जन्मप्रभृति तच्छृणु।
कृतोपनयनस्तात भवेद् वेदपरायणः ॥ १४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

जनकने कहा— तात! ब्राह्मणको जन्मसे लेकर जो-जो कर्म करने चाहिये, उनको सुनिये—यज्ञोपवीत संस्कार हो जानेके बाद ब्राह्मण-बालकको वेदाध्ययनमें तत्पर होना चाहिये॥१४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तपसा गुरुवृत्त्या च ब्रह्मचर्येण वा विभो।
देवतानां पितॄणां चाप्यनृणो ह्यनसूयकः ॥ १५ ॥
वेदानधीत्य नियतो दक्षिणामपवर्ज्य च।
अभ्यनुज्ञामथ प्राप्य समावर्तेत वै द्विजः ॥ १६ ॥

मूलम्

तपसा गुरुवृत्त्या च ब्रह्मचर्येण वा विभो।
देवतानां पितॄणां चाप्यनृणो ह्यनसूयकः ॥ १५ ॥
वेदानधीत्य नियतो दक्षिणामपवर्ज्य च।
अभ्यनुज्ञामथ प्राप्य समावर्तेत वै द्विजः ॥ १६ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

प्रभो! तपस्या, गुरुकी सेवा तथा ब्रह्मचर्यका पालन—इन तीन कर्मोंके साथ-साथ वेदाध्ययनका कार्य सम्पन्न करना चाहिये। हवनकर्मद्वारा देवताओंके और तर्पणद्वारा वह पितरोंके ऋणसे मुक्त होनेका यत्न करे। किसीके दोष न देखे और संयमपूर्वक रहकर वेदाध्ययन समाप्त करनेके पश्चात् गुरुको दक्षिणा दे और उनकी आज्ञा लेकर समावर्तन-संस्कारके पश्चात् घरको लौटे॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

समावृत्तश्च गार्हस्थ्ये स्वदारनिरतो वसेत्।
अनसूयुर्यथान्यायमाहिताग्निस्तथैव च ॥ १७ ॥

मूलम्

समावृत्तश्च गार्हस्थ्ये स्वदारनिरतो वसेत्।
अनसूयुर्यथान्यायमाहिताग्निस्तथैव च ॥ १७ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

घर आनेपर विवाह करके गार्हस्थ्य धर्मका पालन करे और अपनी ही स्त्रीके प्रति अनुराग रखे। दूसरोंके दोष न देखकर सबके साथ यथोचित बर्ताव करे और अग्निकी स्थापनाके पश्चात् प्रतिदिन अग्निहोत्र करता रहे॥१७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

उत्पाद्य पुत्रपौत्रं तु वन्याश्रमपदे वसेत्।
तानेवाग्नीन् यथाशास्त्रमर्चयन्नतिथिप्रियः ॥ १८ ॥

मूलम्

उत्पाद्य पुत्रपौत्रं तु वन्याश्रमपदे वसेत्।
तानेवाग्नीन् यथाशास्त्रमर्चयन्नतिथिप्रियः ॥ १८ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

वहाँ पुत्र-पौत्र उत्पन्न करके पुत्रको गार्हस्थ्य धर्मका भार सौंपकर वनमें जा वानप्रस्थ-आश्रममें रहे। उस समय भी शास्त्रविधिके अनुसार उन्हीं गार्हपत्य आदि अग्नियोंकी आराधना करते हुए अतिथियोंका प्रेमपूर्वक सत्कार करे॥१८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

स वनेऽग्नीन् यथान्यायमात्मन्यारोप्य धर्मवित्।
निर्द्वन्द्वो वीतरागात्मा ब्रह्माश्रमपदे वसेत् ॥ १९ ॥

मूलम्

स वनेऽग्नीन् यथान्यायमात्मन्यारोप्य धर्मवित्।
निर्द्वन्द्वो वीतरागात्मा ब्रह्माश्रमपदे वसेत् ॥ १९ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

इसके बाद धर्मज्ञ पुरुष शास्त्रीय विधिके अनुसार अग्निहोत्रकी अग्नियोंका आत्मामें आरोप करके निर्द्वन्द्व एवं वीतराग होकर ब्रह्मचिन्तनसे सम्बन्ध रखनेवाले संन्यास-आश्रममें प्रवेश करे॥१९॥

मूलम् (वचनम्)

शुक उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

उत्पन्ने ज्ञानविज्ञाने निर्द्वन्द्वे हृदि शाश्वते।
किमवश्यं निवस्तव्यमाश्रमेषु भवेत् त्रिषु ॥ २० ॥

मूलम्

उत्पन्ने ज्ञानविज्ञाने निर्द्वन्द्वे हृदि शाश्वते।
किमवश्यं निवस्तव्यमाश्रमेषु भवेत् त्रिषु ॥ २० ॥

अनुवाद (हिन्दी)

शुकदेवजीने पूछा— राजन्! यदि किसीके हृदयमें ब्रह्मचर्य-आश्रममें ही सनातन ज्ञान-विज्ञान प्रकट हो जाय और हृदयके राग-द्वेष आदि द्वन्द्व दूर हो जायँ तो भी क्या उसके लिये शेष तीन आश्रमोंमें रहना आवश्यक है?॥२०॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

एतद् भवन्तं पृच्छामि तद् भवान् वक्तुमर्हति।
यथा वेदार्थतत्त्वेन ब्रूहि मे त्वं जनाधिप ॥ २१ ॥

मूलम्

एतद् भवन्तं पृच्छामि तद् भवान् वक्तुमर्हति।
यथा वेदार्थतत्त्वेन ब्रूहि मे त्वं जनाधिप ॥ २१ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

नरेश्वर! मैं यही बात आपसे पूछता हूँ। आप मुझे यह बतानेकी कृपा करें। वेदके वास्तविक सिद्धान्तके अनुसार क्या करना उचित है? यह आप मुझे बताइये॥२१॥

मूलम् (वचनम्)

जनक उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

न विना ज्ञानविज्ञाने मोक्षस्याधिगमो भवेत्।
न विना गुरुसम्बन्धं ज्ञानस्याधिगमः स्मृतः ॥ २२ ॥

मूलम्

न विना ज्ञानविज्ञाने मोक्षस्याधिगमो भवेत्।
न विना गुरुसम्बन्धं ज्ञानस्याधिगमः स्मृतः ॥ २२ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

जनकने कहा— ब्रह्मन्! जैसे ज्ञान-विज्ञानके बिना मोक्षकी प्राप्ति नहीं होती, उसी प्रकार सद्‌गुरुसे सम्बन्ध हुए बिना ज्ञानकी प्राप्ति नहीं हो सकती॥२२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

गुरुः प्लावयिता तस्य ज्ञानं प्लव इहोच्यते।
विज्ञाय कृतकृत्यस्तु तीर्णस्तदुभयं त्यजेत् ॥ २३ ॥

मूलम्

गुरुः प्लावयिता तस्य ज्ञानं प्लव इहोच्यते।
विज्ञाय कृतकृत्यस्तु तीर्णस्तदुभयं त्यजेत् ॥ २३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

गुरु इस संसारसागरसे पार उतारनेवाले हैं और उनका दिया हुआ ज्ञान यहाँ नौकाके समान बताया जाता है। मनुष्य उस ज्ञानको पाकर भवसागरसे पार और कृतकृत्य हो जाता है। जैसे नदीको पार कर लेनेपर मनुष्य नाव और नाविक दोनोंको छोड़ देता है, उसी प्रकार मुक्त हुआ पुरुष गुरु और ज्ञान दोनोंको छोड़ दे॥२३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अनुच्छेदाय लोकानामनुच्छेदाय कर्मणाम् ।
पूर्वैराचरितो धर्मश्चातुराश्रम्यसंकटः ॥ २४ ॥

मूलम्

अनुच्छेदाय लोकानामनुच्छेदाय कर्मणाम् ।
पूर्वैराचरितो धर्मश्चातुराश्रम्यसंकटः ॥ २४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

पहलेके विद्वान् लोकमर्यादाकी तथा कर्मपरम्पराकी रक्षा करनेके लिये चारों आश्रमोंसहित वर्णधर्मोंका पालन करते थे॥२४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अनेन क्रमयोगेन बहुजातिषु कर्मणाम्।
हित्वा शुभाशुभं कर्म मोक्षो नामेह लभ्यते ॥ २५ ॥

मूलम्

अनेन क्रमयोगेन बहुजातिषु कर्मणाम्।
हित्वा शुभाशुभं कर्म मोक्षो नामेह लभ्यते ॥ २५ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

इस तरह क्रमशः नाना प्रकारके कर्मोंका अनुष्ठान करते हुए शुभाशुभ कर्मोंकी आसक्तिका परित्याग करनेसे यहाँ मोक्षकी प्राप्ति होती है॥२५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

भावितैः करणैश्चायं बहुसंसारयोनिषु ।
आसादयति शुद्धात्मा मोक्षं वै प्रथमाश्रमे ॥ २६ ॥

मूलम्

भावितैः करणैश्चायं बहुसंसारयोनिषु ।
आसादयति शुद्धात्मा मोक्षं वै प्रथमाश्रमे ॥ २६ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

अनेक जन्मोंसे कर्म करते-करते जब सम्पूर्ण इन्द्रियाँ पवित्र हो जाती हैं, तब शुद्ध अन्तःकरणवाला मनुष्य पहले ही आश्रममें अर्थात् ब्रह्मचर्याश्रममें मोक्षरूप ज्ञान प्राप्त कर सकता है॥२६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तमासाद्य तु मुक्तस्य दृष्टार्थस्य विपश्चितः।
त्रिष्वाश्रमेषु को न्वर्थो भवेत् परमभीप्सतः ॥ २७ ॥

मूलम्

तमासाद्य तु मुक्तस्य दृष्टार्थस्य विपश्चितः।
त्रिष्वाश्रमेषु को न्वर्थो भवेत् परमभीप्सतः ॥ २७ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

उसे पाकर जब ब्रह्मचर्य-आश्रममें ही तत्त्वका साक्षात्कार हो जाय तो परमात्माको चाहनेवाले जीवन्मुक्त विद्वान्‌के लिये शेष तीन आश्रमोंमें जानेकी क्या आवश्यकता है? अर्थात् कोई आवश्यकता नहीं है॥२७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

राजसांस्तामसांश्चैव नित्यं दोषान् विवर्जयेत्।
सात्त्विकं मार्गमास्थाय पश्येदात्मानमात्मना ॥ २८ ॥

मूलम्

राजसांस्तामसांश्चैव नित्यं दोषान् विवर्जयेत्।
सात्त्विकं मार्गमास्थाय पश्येदात्मानमात्मना ॥ २८ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

विद्वान्‌को चाहिये कि वह राजस और तामस दोषोंका सदा ही परित्याग कर दे और सात्त्विक मार्गका आश्रय लेकर बुद्धिके द्वारा आत्माका साक्षात्कार करे॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

सर्वभूतेषु चात्मानं सर्वभूतानि चात्मनि।
सम्पश्यन्नोपलिप्येत जले वारिचरो यथा ॥ २९ ॥

मूलम्

सर्वभूतेषु चात्मानं सर्वभूतानि चात्मनि।
सम्पश्यन्नोपलिप्येत जले वारिचरो यथा ॥ २९ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

जो सम्पूर्ण भूतोंमें आत्माको और आत्मामें सम्पूर्ण भूतोंको देखता है, वह संसारमें उसी तरह कहीं भी आसक्त नहीं होता जैसे जलचर पक्षी जलमें रहकर भी उससे लिप्त नहीं होता॥२९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

पक्षिवत् प्रवणादूर्ध्वममुत्रानन्त्यमश्नुते ।
विहाय देहान्निर्मुक्तो निर्द्वन्द्वः प्रशमं गतः ॥ ३० ॥

मूलम्

पक्षिवत् प्रवणादूर्ध्वममुत्रानन्त्यमश्नुते ।
विहाय देहान्निर्मुक्तो निर्द्वन्द्वः प्रशमं गतः ॥ ३० ॥

अनुवाद (हिन्दी)

वह तो घोंसलेको छोड़कर उड़ जानेवाले पक्षीकी भाँति इस देहसे पृथक् हो निर्द्वन्द्व एवं शान्त होकर परलोकमें अक्षयपद (मोक्ष)-को प्राप्त हो जाता है॥३०॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अत्र गाथाः पुरा गीताः शृणु राज्ञा ययातिना।
धार्यन्ते या द्विजैस्तात मोक्षशास्त्रविशारदैः ॥ ३१ ॥

मूलम्

अत्र गाथाः पुरा गीताः शृणु राज्ञा ययातिना।
धार्यन्ते या द्विजैस्तात मोक्षशास्त्रविशारदैः ॥ ३१ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

तात! इस विषयमें पूर्वकालमें राजा ययातिके द्वारा गायी हुई गाथाएँ सुनिये, जिन्हें मोक्षशास्त्रके ज्ञाता द्विज सदा याद रखते हैं॥३१॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

ज्योतिरात्मनि नान्यत्र सर्वजन्तुषु तत् समम्।
स्वयं च शक्यते द्रष्टुं सुसमाहितचेतसा ॥ ३२ ॥

मूलम्

ज्योतिरात्मनि नान्यत्र सर्वजन्तुषु तत् समम्।
स्वयं च शक्यते द्रष्टुं सुसमाहितचेतसा ॥ ३२ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

अपने भीतर ही आत्मज्योतिका प्रकाश है, अन्यत्र नहीं। वह ज्योति सम्पूर्ण प्राणियोंके भीतर समानरूपसे स्थित है। अपने चित्तको भलीभाँति एकाग्र करनेवाला उसको स्वयं देख सकता है॥३२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

न बिभेति परो यस्मान्न बिभेति पराच्च यः।
यश्च नेच्छति न द्वेष्टि ब्रह्म सम्पद्यते तदा ॥ ३३ ॥

मूलम्

न बिभेति परो यस्मान्न बिभेति पराच्च यः।
यश्च नेच्छति न द्वेष्टि ब्रह्म सम्पद्यते तदा ॥ ३३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

जिससे दूसरा कोई प्राणी नहीं डरता, जो स्वयं दूसरे किसी प्राणीसे भयभीत नहीं होता तथा जो न तो किसी वस्तुकी इच्छा करता है और न किसीसे द्वेष ही रखता है, वह तत्काल ब्रह्मभावको प्राप्त हो जाता है॥३३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

यदा भावं न कुरुते सर्वभूतेषु पापकम्।
कर्मणा मनसा वाचा ब्रह्म सम्पद्यते तदा ॥ ३४ ॥

मूलम्

यदा भावं न कुरुते सर्वभूतेषु पापकम्।
कर्मणा मनसा वाचा ब्रह्म सम्पद्यते तदा ॥ ३४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

जब मनुष्य मन, वाणी तथा क्रियाके द्वारा किसी भी प्राणीके प्रति पापभाव नहीं करता अर्थात् समस्त प्राणियोंमें द्वेषरहित हो जाता है, उस समय वह ब्रह्मभावको प्राप्त हो जाता है॥३४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

संयोज्य मनसाऽऽत्मानमीर्ष्यामुत्सृज्य मोहनीम् ।
त्यक्त्वा कामं च मोहं च तदा ब्रह्मत्वमश्नुते ॥ ३५ ॥

मूलम्

संयोज्य मनसाऽऽत्मानमीर्ष्यामुत्सृज्य मोहनीम् ।
त्यक्त्वा कामं च मोहं च तदा ब्रह्मत्वमश्नुते ॥ ३५ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

जब मोहमें डालनेवाली ईर्ष्या, काम एवं मोहका त्याग करके साधक अपने मनको आत्मामें लगा देता है, उस समय वह ब्रह्मको प्राप्त हो जाता है॥३५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

यदा श्राव्ये च दृश्ये च सर्वभूतेषु चाप्ययम्।
समो भवति निर्द्वन्द्वो ब्रह्म सम्पद्यते तदा ॥ ३६ ॥

मूलम्

यदा श्राव्ये च दृश्ये च सर्वभूतेषु चाप्ययम्।
समो भवति निर्द्वन्द्वो ब्रह्म सम्पद्यते तदा ॥ ३६ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

जब यह साधक सुनने और देखने योग्य पदार्थोंमें तथा सम्पूर्ण प्राणियोंमें समान भाववाला हो जाता है एवं सुख-दुःख आदि द्वन्द्वोंसे रहित हो जाता है, उस समय वह ब्रह्मभावको प्राप्त हो जाता है॥३६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

यदा स्तुतिं च निन्दां च समत्वेनैव पश्यति।
काञ्चनं चायसं चैव सुखं दुःखं तथैव च ॥ ३७ ॥
शीतमुष्णं तथैवार्थमनर्थं प्रियमप्रियम् ।
जीवितं मरणं चैव ब्रह्म सम्पद्यते तदा ॥ ३८ ॥

मूलम्

यदा स्तुतिं च निन्दां च समत्वेनैव पश्यति।
काञ्चनं चायसं चैव सुखं दुःखं तथैव च ॥ ३७ ॥
शीतमुष्णं तथैवार्थमनर्थं प्रियमप्रियम् ।
जीवितं मरणं चैव ब्रह्म सम्पद्यते तदा ॥ ३८ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

जिस समय मनुष्य निन्दा और स्तुतिको समान भावसे समझता है, सोना-लोहा, सुख-दुःख, सर्दी-गर्मी, अर्थ-अनर्थ, प्रिय-अप्रिय तथा जीवन-मरणमें भी उसकी समान दृष्टि हो जाती है, उस समय वह साक्षात् ब्रह्मभावको प्राप्त हो जाता है॥३७-३८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

प्रसार्येह यथाङ्गानि कूर्मः संहरते पुनः।
तथेन्द्रियाणि मनसा संयन्तव्यानि भिक्षुणा ॥ ३९ ॥

मूलम्

प्रसार्येह यथाङ्गानि कूर्मः संहरते पुनः।
तथेन्द्रियाणि मनसा संयन्तव्यानि भिक्षुणा ॥ ३९ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

जैसे कछुआ अपने अंगोंको फैलाकर फिर समेट लेता है, उसी प्रकार संन्यासीको मनके द्वारा इन्द्रियोंपर नियन्त्रण रखना चाहिये॥३९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तमः परिगतं वेश्म यथा दीपेन दृश्यते।
तथा बुद्धिप्रदीपेन शक्य आत्मा निरीक्षितुम् ॥ ४० ॥

मूलम्

तमः परिगतं वेश्म यथा दीपेन दृश्यते।
तथा बुद्धिप्रदीपेन शक्य आत्मा निरीक्षितुम् ॥ ४० ॥

अनुवाद (हिन्दी)

जैसे अन्धकारसे आच्छादित हुआ घर दीपकके प्रकाशसे देखा जाता है, उसी प्रकार अज्ञानान्धकारसे आवृत हुए आत्माका विशुद्ध बुद्धिरूपी दीपकके द्वारा साक्षात्कार किया जा सकता है॥४०॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

एतत् सर्वं च पश्यामि त्वयि बुद्धिमतां वर।
यच्चान्यदपि वेत्तव्यं तत्त्वतो वेद तद् भवान् ॥ ४१ ॥

मूलम्

एतत् सर्वं च पश्यामि त्वयि बुद्धिमतां वर।
यच्चान्यदपि वेत्तव्यं तत्त्वतो वेद तद् भवान् ॥ ४१ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

बुद्धिमानोंमें श्रेष्ठ शुकदेवजी! उपर्युक्त सारी बातें मुझे आपके भीतर दिखायी देती हैं। इनके अतिरिक्त भी जो कुछ जानने योग्य तत्त्व है, उसे आप ठीक-ठीक जानते हैं॥४१॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

ब्रह्मर्षे विदितश्चासि विषयान्तमुपागतः ।
गुरोस्तव प्रसादेन तव चैवोपशिक्षया ॥ ४२ ॥

मूलम्

ब्रह्मर्षे विदितश्चासि विषयान्तमुपागतः ।
गुरोस्तव प्रसादेन तव चैवोपशिक्षया ॥ ४२ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

ब्रह्मर्षे! मैं आपको अच्छी तरह जान गया। आप अपने पिताजीकी कृपा और उन्हींसे मिली हुई शिक्षाद्वारा विषयोंसे परे हो चुके हैं॥४२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तस्यैव च प्रसादेन प्रादुर्भूतं महामुने।
ज्ञानं दिव्यं ममापीदं तेनासि विदितो मम ॥ ४३ ॥

मूलम्

तस्यैव च प्रसादेन प्रादुर्भूतं महामुने।
ज्ञानं दिव्यं ममापीदं तेनासि विदितो मम ॥ ४३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

महामुने! उन्हीं गुरुदेवकी कृपासे मुझे भी यह दिव्य ज्ञान प्राप्त हुआ है, जिससे मैं आपकी स्थितिको ठीक-ठीक समझ गया हूँ॥४३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अधिकं तव विज्ञानमधिका च गतिस्तव।
अधिकं तव चैश्वर्यं तच्च त्वं नावबुध्यसे ॥ ४४ ॥

मूलम्

अधिकं तव विज्ञानमधिका च गतिस्तव।
अधिकं तव चैश्वर्यं तच्च त्वं नावबुध्यसे ॥ ४४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

आपका विज्ञान, आपकी गति और आपका ऐश्वर्य—ये सभी अधिक हैं; परंतु आपको इस बातका पता नहीं है॥४४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

बाल्याद् वा संशयाद् वापि भयाद् वाप्यविमोक्षजात्।
उत्पन्ने चापि विज्ञाने नाधिगच्छति तां गतिम् ॥ ४५ ॥

मूलम्

बाल्याद् वा संशयाद् वापि भयाद् वाप्यविमोक्षजात्।
उत्पन्ने चापि विज्ञाने नाधिगच्छति तां गतिम् ॥ ४५ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

बालस्वभावके कारण, संशयसे अथवा मोक्ष न मिलनेके काल्पनिक भयसे मनुष्यको विज्ञान प्राप्त हो जानेपर भी मोक्षकी प्राप्ति नहीं होती॥४५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

व्यवसायेन शुद्धेन मद्विधैश्छिन्नसंशयः ।
विमुच्य हृदयग्रन्थीनासादयति तां गतिम् ॥ ४६ ॥

मूलम्

व्यवसायेन शुद्धेन मद्विधैश्छिन्नसंशयः ।
विमुच्य हृदयग्रन्थीनासादयति तां गतिम् ॥ ४६ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

मेरे-जैसे लोगों द्वारा जिसका संशय नष्ट हो गया है, वह साधक विशुद्ध निश्चयके द्वारा हृदयकी गाँठें खोलकर उस परमगतिको प्राप्त कर लेता है॥४६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

भवांश्चोत्पन्नविज्ञानः स्थिरबुद्धिरलोलुपः ।
व्यवसायादृते ब्रह्मन्नासादयति तत्परम् ॥ ४७ ॥

मूलम्

भवांश्चोत्पन्नविज्ञानः स्थिरबुद्धिरलोलुपः ।
व्यवसायादृते ब्रह्मन्नासादयति तत्परम् ॥ ४७ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

ब्रह्मन्! आपको ज्ञान प्राप्त हो चुका है। आपकी बुद्धि भी स्थिर है तथा आपमें विषयलोलुपताका भी सर्वथा अभाव हो गया है, परंतु विशुद्ध निश्चयके बिना कोई परमात्मभावको नहीं प्राप्त होता है॥४७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

नास्ति ते सुखदुःखेषु विशेषो नासि लोलुपः।
नौत्सुक्यं नृत्यगीतेषु न राग उपजायते ॥ ४८ ॥

मूलम्

नास्ति ते सुखदुःखेषु विशेषो नासि लोलुपः।
नौत्सुक्यं नृत्यगीतेषु न राग उपजायते ॥ ४८ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

आप सुख-दुःखमें कोई अन्तर नहीं समझते। आपके मनमें लोभ नहीं है। आपको न तो नाच देखनेकी उत्कण्ठा होती है और न गीत सुननेकी। किसी विषयके प्रति आपके मनमें रण नहीं उत्पन्न होता है॥४८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

न बन्धुष्वनुबन्धस्ते न भयेष्वस्ति ते भयम्।
पश्यामि त्वां महाभाग तुल्यलोष्टाश्मकाञ्चनम् ॥ ४९ ॥

मूलम्

न बन्धुष्वनुबन्धस्ते न भयेष्वस्ति ते भयम्।
पश्यामि त्वां महाभाग तुल्यलोष्टाश्मकाञ्चनम् ॥ ४९ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

महाभाग! न तो भाई-बन्धुओंमें आपकी आसक्ति है, न भयदायक पदार्थोंसे आपको भय ही होता है। मैं देखता हूँ, आपके लिये मिट्टीके ढेले, पत्थर और सुवर्ण एक-से हैं॥४९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अहं त्वामनुपश्यामि ये चाप्यन्ये मनीषिणः।
आस्थितं परमं मार्गमक्षयं तमनामयम् ॥ ५० ॥

मूलम्

अहं त्वामनुपश्यामि ये चाप्यन्ये मनीषिणः।
आस्थितं परमं मार्गमक्षयं तमनामयम् ॥ ५० ॥

अनुवाद (हिन्दी)

मैं तथा दूसरे मनीषी पुरुष भी आपको अक्षय एवं अनामय परम मार्ग (मोक्ष) में स्थित मानते हैं॥५०॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

यत् फलं ब्राह्मणस्येह मोक्षार्थश्च यदात्मकः।
तस्मिन्‌ वै वर्तसे ब्रह्मन् किमन्यत्‌ परिपृच्छसि ॥ ५१ ॥

मूलम्

यत् फलं ब्राह्मणस्येह मोक्षार्थश्च यदात्मकः।
तस्मिन्‌ वै वर्तसे ब्रह्मन् किमन्यत्‌ परिपृच्छसि ॥ ५१ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

ब्रह्मन्! इस जगत्‌में ब्राह्मण होनेका जो फल है और मोक्षका जो स्वरूप है, उसीमें आपकी स्थिति है। अब और क्या पूछना चाहते हैं?॥५१॥

मूलम् (समाप्तिः)

इति श्रीमहाभारते शान्तिपर्वणि मोक्षधर्मपर्वणि शुकोत्पत्तौ षड्विंशत्यधिकत्रिशततमोऽध्यायः ॥ ३२६ ॥

मूलम् (वचनम्)

इस प्रकार श्रीमहाभारत शान्तिपर्वके अन्तर्गत मोक्षधर्मपर्वमें शुकोत्पत्तिविषयक तीन सौ छब्बीसवाँ अध्याय पूरा हुआ॥३२६॥