३२५ शुकोत्पत्तौ

भागसूचना

पञ्चविंशत्यधिकत्रिशततमोऽध्यायः

सूचना (हिन्दी)

पिताकी आज्ञासे शुकदेवजीका मिथिलामें जाना और वहाँ उनका द्वारपाल, मन्त्री और युवती स्त्रियोंके द्वारा सत्कृत होनेके उपरान्त ध्यानमें स्थित हो जाना

मूलम् (वचनम्)

भीष्म उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

स मोक्षमनुचिन्त्यैव शुकः पितरमभ्यगात्।
प्राहाभिवाद्य च गुरुं श्रेयोऽर्थी विनयान्वितः ॥ १ ॥

मूलम्

स मोक्षमनुचिन्त्यैव शुकः पितरमभ्यगात्।
प्राहाभिवाद्य च गुरुं श्रेयोऽर्थी विनयान्वितः ॥ १ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

भीष्मजी कहते हैं— युधिष्ठिर! शुकदेवजी मोक्षका विचार करते हुए ही अपने पिता एवं गुरु व्यासजीके पास गये और विनीतभावसे उनके चरणोंमें प्रणाम करके कल्याण-प्राप्तिकी इच्छा रखकर उनसे इस प्रकार बोले—॥१॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

मोक्षधर्मेषु कुशलो भगवान् प्रब्रवीतु मे।
यथा मे मनसः शान्तिः परमा सम्भवेत् प्रभो ॥ २ ॥

मूलम्

मोक्षधर्मेषु कुशलो भगवान् प्रब्रवीतु मे।
यथा मे मनसः शान्तिः परमा सम्भवेत् प्रभो ॥ २ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘प्रभो! आप मोक्षधर्ममें कुशल हैं; अतः मुझे ऐसा उपदेश कीजिये, जिससे मेरे चित्तको परम शान्ति मिले’॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

श्रुत्वा पुत्रस्य तु वचः परमर्षिरुवाच तम्।
अधीष्व पुत्र मोक्षं वै धर्मांश्च विविधानपि ॥ ३ ॥

मूलम्

श्रुत्वा पुत्रस्य तु वचः परमर्षिरुवाच तम्।
अधीष्व पुत्र मोक्षं वै धर्मांश्च विविधानपि ॥ ३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

पुत्रकी वह बात सुनकर महर्षि व्यासने कहा, ‘बेटा! तुम मोक्ष तथा अन्यान्य विविध धर्मोंका अध्ययन करो’॥३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

पितुर्नियोगाज्जग्राह शुको धर्मभृतां वरः।
योगशास्त्रं च निखिलं कापिलं चैव भारत ॥ ४ ॥

मूलम्

पितुर्नियोगाज्जग्राह शुको धर्मभृतां वरः।
योगशास्त्रं च निखिलं कापिलं चैव भारत ॥ ४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

भारत! पिताकी आज्ञासे धर्मात्माओंमें श्रेष्ठ शुकने सम्पूर्ण योगशास्त्र तथा समस्त सांख्यका अध्ययन किया॥४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

स तं ब्राह्म्या श्रिया युक्तं ब्रह्मतुल्यपराक्रमम्।
मेने पुत्रं यदा व्यासो मोक्षधर्मविशारदम् ॥ ५ ॥
उवाच गच्छेति तदा जनकं मिथिलेश्वरम्।
स ते वक्ष्यति मोक्षार्थं निखिलं मिथिलेश्वरः ॥ ६ ॥

मूलम्

स तं ब्राह्म्या श्रिया युक्तं ब्रह्मतुल्यपराक्रमम्।
मेने पुत्रं यदा व्यासो मोक्षधर्मविशारदम् ॥ ५ ॥
उवाच गच्छेति तदा जनकं मिथिलेश्वरम्।
स ते वक्ष्यति मोक्षार्थं निखिलं मिथिलेश्वरः ॥ ६ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

जब व्यासजीने यह समझ लिया कि मेरा पुत्र ब्रह्मतेजसे सम्पन्न और मोक्षधर्ममें कुशल हो गया है तथा समस्त शास्त्रोंमें इसकी ब्रह्माके समान गति हो गयी है, तब उन्होंने कहा—‘बेटा! अब तुम मिथिलाके राजा जनकके पास जाओ। वे मिथिलानरेश तुम्हें सम्पूर्ण मोक्षशास्त्रका सार सिद्धान्त बता देंगे’॥५-६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

पितुर्नियोगमादाय जगाम मिथिलां नृप।
प्रष्टुं धर्मस्य निष्ठां वै मोक्षस्य च परायणम् ॥ ७ ॥

मूलम्

पितुर्नियोगमादाय जगाम मिथिलां नृप।
प्रष्टुं धर्मस्य निष्ठां वै मोक्षस्य च परायणम् ॥ ७ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

नरेश्वर! पिताकी आज्ञा पाकर शुकदेवजी धर्मकी निष्ठा और मोक्षका परम आश्रय पूछनेके लिये मिथिलाकी ओर चल दिये॥७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

उक्तश्च मानुषेण त्वं पथा गच्छेत्यविस्मितः।
न प्रभावेण गन्तव्यमन्तरिक्षचरेण वै ॥ ८ ॥

मूलम्

उक्तश्च मानुषेण त्वं पथा गच्छेत्यविस्मितः।
न प्रभावेण गन्तव्यमन्तरिक्षचरेण वै ॥ ८ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

जाते समय व्यासजीने फिर बिना किसी विस्मयके कहा—‘बेटा! जिस मार्गसे साधारण मनुष्य चलते हों, उसीसे तुम भी जाना। अपनी योगशक्तिका आश्रय लेकर आकाशमार्गसे कदापि यात्रा न करना॥८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

आर्जवेणैव गन्तव्यं न सुखान्वेषिणा तथा।
नान्वेष्टव्या विशेषास्तु विशेषा हि प्रसङ्गिनः ॥ ९ ॥

मूलम्

आर्जवेणैव गन्तव्यं न सुखान्वेषिणा तथा।
नान्वेष्टव्या विशेषास्तु विशेषा हि प्रसङ्गिनः ॥ ९ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘सरलभावसे ही यात्रा करनी चाहिये। रास्तेमें सुख और सुविधाकी खोज नहीं करनी चाहिये। विशेष-विशेष व्यक्तियों अथवा स्थानोंका अनुसंधान न करना; क्योंकि इससे उनके प्रति आसक्ति हो जाती है॥९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अहंकारो न कर्तव्यो याज्ये तस्मिन् नराधिपे।
स्थातव्यं च वशे तस्य स ते छेत्स्यति संशयम्॥१०॥

मूलम्

अहंकारो न कर्तव्यो याज्ये तस्मिन् नराधिपे।
स्थातव्यं च वशे तस्य स ते छेत्स्यति संशयम्॥१०॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘राजा जनक मेरे यजमान हैं, ऐसा समझकर उनके प्रति अहंकार न प्रकट करना तथा सब प्रकारसे उनकी आज्ञाके अधीन रहना। वे तुम्हारी सब शंकाओंका समाधान कर देंगे॥१०॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

स धर्मकुशलो राजा मोक्षशास्त्रविशारदः।
याज्यो मम स यद् ब्रूयात्‌ तत्‌ कार्यमविशङ्कया ॥ ११ ॥

मूलम्

स धर्मकुशलो राजा मोक्षशास्त्रविशारदः।
याज्यो मम स यद् ब्रूयात्‌ तत्‌ कार्यमविशङ्कया ॥ ११ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘मेरे यजमान राजा जनक धर्मनिपुण तथा मोक्ष-शास्त्रमें प्रवीण हैं। वे तुम्हें जो आज्ञा दें, उसीका निःशंक होकर पालन करना’॥११॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

एवमुक्तः स धर्मात्मा जगाम मिथिलां मुनिः।
पद्भ्यां शक्तोऽन्तरिक्षेण क्रान्तुं पृथ्वीं ससागराम् ॥ १२ ॥

मूलम्

एवमुक्तः स धर्मात्मा जगाम मिथिलां मुनिः।
पद्भ्यां शक्तोऽन्तरिक्षेण क्रान्तुं पृथ्वीं ससागराम् ॥ १२ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

पिताके ऐसा कहनेपर धर्मात्मा मुनि शुकदेवजी मिथिलाकी ओर चल दिये। यद्यपि वे आकाशमार्गसे सारी पृथ्वीको लाँघ जानेमें समर्थ थे, तो भी पैदल ही चले॥१२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

स गिरींश्चाप्यतिक्रम्य नदीतीर्थसरांसि च।
बहुव्यालमृगाकीर्णा ह्यटवीश्च वनानि च ॥ १३ ॥
मेरोर्हरेश्च द्वे वर्षे वर्षं हैमवतं ततः।
क्रमेणैवं व्यतिक्रम्य भारतं वर्षमासदत् ॥ १४ ॥

मूलम्

स गिरींश्चाप्यतिक्रम्य नदीतीर्थसरांसि च।
बहुव्यालमृगाकीर्णा ह्यटवीश्च वनानि च ॥ १३ ॥
मेरोर्हरेश्च द्वे वर्षे वर्षं हैमवतं ततः।
क्रमेणैवं व्यतिक्रम्य भारतं वर्षमासदत् ॥ १४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

मार्गमें उन्हें अनेक पर्वत, नदी, तीर्थ और सरोवर पार करने पड़े। बहुत-से सर्पों और वन्य पशुओंसे भरे हुए कितने ही जंगलोंमें होकर जाना पड़ा। उन सबको लाँघकर क्रमशः मेरु (इलावृत) वर्ष, हरिवर्ष और हैमवत (किम्पुरुष) वर्षको पार करते हुए वे भारतवर्षमें आये॥१३-१४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

स देशान्‌ विविधान् पश्यंश्चीनहूणनिषेवितान्।
आर्यावर्तमिमं देशमाजगाम महामुनिः ॥ १५ ॥

मूलम्

स देशान्‌ विविधान् पश्यंश्चीनहूणनिषेवितान्।
आर्यावर्तमिमं देशमाजगाम महामुनिः ॥ १५ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

चीन और हूण जातिके लोगोंसे सेवित नाना प्रकारके देशोंका दर्शन करते हुए महामुनि शुकदेवजी इस आर्यावर्त देशमें आ पहुँचे॥१५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

पितुर्वचनमाज्ञाय तमेवार्थं विचिन्तयन् ।
अध्यानं सोऽतिचक्राम खेचरः खे चरन्निव ॥ १६ ॥

मूलम्

पितुर्वचनमाज्ञाय तमेवार्थं विचिन्तयन् ।
अध्यानं सोऽतिचक्राम खेचरः खे चरन्निव ॥ १६ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

पिताकी आज्ञा मानकर उसी ज्ञातव्य विषयका चिन्तन करते हुए उन्होंने सारा मार्ग पैदल ही तै किया। जैसे आकाशचारी पक्षी आकाशमें विचरता है, उसी प्रकार वे भूतलपर विचरण करते थे॥१६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

पत्तनानि च रम्याणि स्फीतानि नगराणि च।
रत्नानि च विचित्राणि पश्यन्नपि न पश्यति ॥ १७ ॥

मूलम्

पत्तनानि च रम्याणि स्फीतानि नगराणि च।
रत्नानि च विचित्राणि पश्यन्नपि न पश्यति ॥ १७ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

रास्तेमें बड़े सुन्दर-सुन्दर शहर और कस्बे तथा समृद्धिशाली नगर दिखायी पड़े। भाँति-भाँतिके विचित्र रत्न दृष्टिगोचर हुए; किंतु शुकदेवजी उनकी ओर देखते हुए भी नहीं देखते थे॥१७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

उद्यानानि च रम्याणि तथैवायतनानि च।
पुण्यानि चैव रत्नानि सोऽत्यक्रामदथाध्वगः ॥ १८ ॥

मूलम्

उद्यानानि च रम्याणि तथैवायतनानि च।
पुण्यानि चैव रत्नानि सोऽत्यक्रामदथाध्वगः ॥ १८ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

पथिक शुकदेवजीने बहुत-से मनोहर उद्यान तथा घर और मन्दिर देखकर उनकी उपेक्षा कर दी। कितने ही पवित्र रत्न उनके सामने पड़े, परंतु वे सबको लाँघकर आगे बढ़ गये॥१८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

सोऽचिरेणैव कालेन विदेहानाससाद ह।
रक्षितान् धर्मराजेन जनकेन महात्मना ॥ १९ ॥

मूलम्

सोऽचिरेणैव कालेन विदेहानाससाद ह।
रक्षितान् धर्मराजेन जनकेन महात्मना ॥ १९ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

इस प्रकार यात्रा करते हुए वे थोड़े ही समयमें धर्मराज महात्मा जनकद्वारा पालित विदेहप्रान्तमें जा पहुँचे॥१९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तत्र ग्रामान् बहून् पश्चन् बह्वन्नरसभोजनान्।
पल्लीघोषान् समृद्धांश्च बहुगोकुलसंकुलान् ॥ २० ॥

मूलम्

तत्र ग्रामान् बहून् पश्चन् बह्वन्नरसभोजनान्।
पल्लीघोषान् समृद्धांश्च बहुगोकुलसंकुलान् ॥ २० ॥

अनुवाद (हिन्दी)

वहाँ बहुत-से गाँव उनकी दृष्टिमें आये, जहाँ अन्न, पानी तथा नाना प्रकारकी खाद्य सामग्री प्रचुर मात्रामें मौजूद थी। छोटी-छोटी टोलियाँ तथा गोष्ठ (गौओंके रहनेके स्थान) भी दृष्टिगोचर हुए, जो बड़े समृद्धिशाली और बहुसंख्यक गोसमुदायोंसे भरे हुए थे॥२०॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

स्फीतांश्च शालियवसैर्हंससारससेवितान् ।
पद्मिनीभिश्च शतशः श्रीमतीभिरलङ्कृतान् ॥ २१ ॥

मूलम्

स्फीतांश्च शालियवसैर्हंससारससेवितान् ।
पद्मिनीभिश्च शतशः श्रीमतीभिरलङ्कृतान् ॥ २१ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

सारे विदेहप्रान्तमें सब ओर अगहनी धानकी खेती लहलहा रही थी। वहाँके निवासी धन-धान्यसे सम्पन्न थे। उस देशमें चारों ओर हंस और सारस निवास करते थे। कमलोंसे अलंकृत सैकड़ों सुन्दर सरोवर विदेह-राज्यकी शोभा बढ़ा रहे थे॥२१॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

स विदेहानतिक्रम्य समृद्धजनसेवितान् ।
मिथिलोपवनं रम्यमाससाद समृद्धिमत् ॥ २२ ॥

मूलम्

स विदेहानतिक्रम्य समृद्धजनसेवितान् ।
मिथिलोपवनं रम्यमाससाद समृद्धिमत् ॥ २२ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

इस प्रकार समृद्धिशाली मनुष्योंद्वारा सेवित विदेह-देशको लाँघकर वे मिथिलाके समृद्धिसम्पन्न रमणीय उपवनके पास जा पहुँचे॥२२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

हस्त्यश्वरथसंकीर्णं नरनारीसमाकुलम् ।
पश्यन्नपश्यन्निव तत् समतिक्रामदच्युतः ॥ २३ ॥

मूलम्

हस्त्यश्वरथसंकीर्णं नरनारीसमाकुलम् ।
पश्यन्नपश्यन्निव तत् समतिक्रामदच्युतः ॥ २३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

वह स्थान हाथी, घोड़े और रथोंसे भरा था। असंख्य नर-नारी वहाँ आते-जाते दिखायी देते थे। अपनी मर्यादासे कभी च्युत न होनेवाले शुकदेवजी वह सब देखकर भी नहीं देखते हुए-से वहाँसे आगे बढ़ गये॥२३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

मनसा तं वहन् भारं तमेवार्थं विचिन्तयन्।
आत्मारामः प्रसन्नात्मा मिथिलामाससाद ह ॥ २४ ॥

मूलम्

मनसा तं वहन् भारं तमेवार्थं विचिन्तयन्।
आत्मारामः प्रसन्नात्मा मिथिलामाससाद ह ॥ २४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

मनसे जिज्ञासाका भार वहन करते और उस ज्ञेय वस्तुका ही चिन्तन करते हुए आत्माराम प्रसन्नचित्त शुकदेवने मिथिलामें प्रवेश किया॥२४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तस्या द्वारं समासाद्य निःशङ्कः प्रविवेश ह।
तत्रापि द्वारपालास्तमुग्रवाचा न्यषेधयन् ॥ २५ ॥

मूलम्

तस्या द्वारं समासाद्य निःशङ्कः प्रविवेश ह।
तत्रापि द्वारपालास्तमुग्रवाचा न्यषेधयन् ॥ २५ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

नगरद्वारपर पहुँचकर वे निःशंकभावसे उसके भीतर प्रवेश करने लगे। तब वहाँ द्वारपालोंने कठोर वाणीद्वारा उन्हें डाँटकर भीतर जानेसे रोक दिया॥२५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तथैव च शुकस्तत्र निर्मन्युः समतिष्ठत।
न चातपाध्वसंतप्तः क्षुत्पिपासाश्रमान्वितः ॥ २६ ॥

मूलम्

तथैव च शुकस्तत्र निर्मन्युः समतिष्ठत।
न चातपाध्वसंतप्तः क्षुत्पिपासाश्रमान्वितः ॥ २६ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

शुकदेवजी वहीं खड़े हो गये; किंतु उनके मनमें किसी प्रकारका खेद या क्रोध नहीं हुआ। रास्तेकी थकावट और सूर्यकी धूपसे उन्हें संताप नहीं पहुँचा था। भूख और प्यास उन्हें कष्ट नहीं दे सकी थी॥२६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

प्रताम्यति ग्लायति वा नापैति च तथाऽऽतपात्।
तेषां तु द्वारपालानामेकः शोकसमन्वितः ॥ २७ ॥

मूलम्

प्रताम्यति ग्लायति वा नापैति च तथाऽऽतपात्।
तेषां तु द्वारपालानामेकः शोकसमन्वितः ॥ २७ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

वे उस धूपसे न तो संतप्त होते थे, न ग्लानिका अनुभव करते थे और न धूपसे हटकर छायामें ही जाते थे। उस समय उन द्वारपालोंमेंसे एकको अपने व्यवहारपर बड़ा दुःख हुआ॥२७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

मध्यं गतमिवादित्यं दृष्ट्वा शुकमवस्थितम्।
पूजयित्वा यथान्यायमभिवाद्य कृताञ्जलिः ॥ २८ ॥
प्रावेशयत् ततः कक्ष्यां द्वितीयां राजवेश्मनः।

मूलम्

मध्यं गतमिवादित्यं दृष्ट्वा शुकमवस्थितम्।
पूजयित्वा यथान्यायमभिवाद्य कृताञ्जलिः ॥ २८ ॥
प्रावेशयत् ततः कक्ष्यां द्वितीयां राजवेश्मनः।

अनुवाद (हिन्दी)

उसने मध्याह्नकालीन तेजस्वी सूर्यकी भाँति शुकदेवजीको चुपचाप खड़ा देख हाथ जोड़कर प्रणाम किया और शास्त्रीय विधिके अनुसार उनकी यथोचित पूजा करके उन्हें राजभवनकी दूसरी कक्षामें पहुँचा दिया॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तत्रासीनः शुकस्तात मोक्षमेवान्वचिन्तयत् ॥ २९ ॥
छायायामातपे चैव समदर्शी महाद्युतिः।

मूलम्

तत्रासीनः शुकस्तात मोक्षमेवान्वचिन्तयत् ॥ २९ ॥
छायायामातपे चैव समदर्शी महाद्युतिः।

अनुवाद (हिन्दी)

तात! वहाँ एक जगह बैठकर महातेजस्वी शुकदेवजी मोक्षका ही चिन्तन करने लगे। धूप हो या छाया, दोनोंमें उनकी समान दृष्टि थी॥२९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तं मुहूर्तादिवागम्य राज्ञो मन्त्री कृताञ्जलिः ॥ ३० ॥
प्रावेशयत् ततः कक्ष्यां तृतीयां राजवेश्मनः।

मूलम्

तं मुहूर्तादिवागम्य राज्ञो मन्त्री कृताञ्जलिः ॥ ३० ॥
प्रावेशयत् ततः कक्ष्यां तृतीयां राजवेश्मनः।

अनुवाद (हिन्दी)

थोड़ी ही देरमें राजमन्त्री हाथ जोड़े हुए वहाँ पधारे और उन्हें अपने साथ महलकी तीसरी ड्योढ़ीमें ले गये॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तत्रान्तःपुरसम्बद्धं महच्चैत्ररथोपमम् ॥ ३१ ॥
सुविभक्तजलाक्रीडं रम्यं पुष्पितपादपम् ।
शुकं प्रावेशयन्मन्त्री प्रमदावनमुत्तमम् ॥ ३२ ॥

मूलम्

तत्रान्तःपुरसम्बद्धं महच्चैत्ररथोपमम् ॥ ३१ ॥
सुविभक्तजलाक्रीडं रम्यं पुष्पितपादपम् ।
शुकं प्रावेशयन्मन्त्री प्रमदावनमुत्तमम् ॥ ३२ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

वहाँ अन्तःपुरसे सटा हुआ एक बहुत सुन्दर विशाल बगीचा था, जो चैत्ररथ वनके समान मनोहर जान पड़ता था। उसमें पृथक्-पृथक् जल-क्रीड़ाके लिये अनेक सुन्दर जलाशय बने हुए थे। वह रमणीय उपवन खिले हुए वृक्षोंसे सुशोभित होता था। उस उत्तम उद्यानका नाम था प्रमदावन। मन्त्रीने शुकदेवजीको उसके भीतर पहुँचा दिया॥३१-३२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

स तस्यासनमादिश्य निश्चक्राम ततः पुनः।
तं चारुवेषाः सुश्रोण्यस्तरुण्यः प्रियदर्शनाः ॥ ३३ ॥
सूक्ष्मरक्ताम्बरधरास्तप्तकाञ्चनभूषणाः ।
संलापोल्लापकुशला नृत्यगीतविशारदाः ॥ ३४ ॥
स्मितपूर्वाभिभाषिण्यो रूपेणाप्सरसां समाः ।
कामोपचारकुशला भावज्ञाः सर्वकोविदाः ॥ ३५ ॥
परं पञ्चाशतं नार्यो वारमुख्याः समाद्रवन्।

मूलम्

स तस्यासनमादिश्य निश्चक्राम ततः पुनः।
तं चारुवेषाः सुश्रोण्यस्तरुण्यः प्रियदर्शनाः ॥ ३३ ॥
सूक्ष्मरक्ताम्बरधरास्तप्तकाञ्चनभूषणाः ।
संलापोल्लापकुशला नृत्यगीतविशारदाः ॥ ३४ ॥
स्मितपूर्वाभिभाषिण्यो रूपेणाप्सरसां समाः ।
कामोपचारकुशला भावज्ञाः सर्वकोविदाः ॥ ३५ ॥
परं पञ्चाशतं नार्यो वारमुख्याः समाद्रवन्।

अनुवाद (हिन्दी)

वहाँ उनके लिये सुन्दर आसन बताकर राजमन्त्री पुनः प्रमदावनसे बाहर निकल आये। मन्त्रीके जाते ही पचास प्रमुख वारांगनाएँ शुकदेवजीके पास दौड़ी आयीं। उनकी वेश-भूषा बड़ी मनोहारिणी थी। वे सब-की-सब देखनेमें परम सुन्दरी और नवयुवती थीं। वे सुरम्य कटिप्रदेशसे सुशोभित थीं। उनके सुन्दर अंगोंपर लाल रंगकी महीन साड़ियाँ शोभा पा रही थीं। तपाये हुए सुवर्णके आभूषण उनका सौन्दर्य बढ़ा रहे थे। वे बातचीत करनेमें कुशल और नाचने-गानेकी कलामें बड़ी प्रवीण थीं। उनका रूप अप्सराओंके समान था, वे मन्द मुसकानके साथ बातें करतीं और दूसरोंके मनका भाव समझ लेती थीं। कामचर्यामें कुशल और सम्पूर्ण कलाओंका विशेष ज्ञान रखनेवाली थीं॥३३—३५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

पाद्यादीनि प्रतिग्राह्य पूजया परयार्चयन् ॥ ३६ ॥
कालोपपन्नेन तदा स्वाद्वन्नेनाभ्यतर्पयन् ।

मूलम्

पाद्यादीनि प्रतिग्राह्य पूजया परयार्चयन् ॥ ३६ ॥
कालोपपन्नेन तदा स्वाद्वन्नेनाभ्यतर्पयन् ।

अनुवाद (हिन्दी)

उन्होंने पाद्य, अर्घ्य आदि निवेदन करके उत्तम विधिसे शुकदेवजीका पूजन किया और उन्हें समयानुकूल स्वादिष्ठ अन्न भोजन कराकर पूर्णतः तृप्त किया॥३६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तस्य भुक्तवतस्तात तदन्तःपुरकाननम् ॥ ३७ ॥
सुरम्यं दर्शयामासुरेकैकश्येन भारत ।

मूलम्

तस्य भुक्तवतस्तात तदन्तःपुरकाननम् ॥ ३७ ॥
सुरम्यं दर्शयामासुरेकैकश्येन भारत ।

अनुवाद (हिन्दी)

तात! भरतनन्दन! जब वे भोजन कर चुके, तब वे वारांगनाएँ उन्हें साथ लेकर अन्तःपुरके उस सुरम्य कानन—प्रमदावनकी सैर कराने और वहाँकी एक-एक वस्तुको दिखाने लगीं॥३७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

क्रीडन्त्यश्च हसन्त्यश्च गायन्त्यश्चापिताः शुभम् ॥ ३८ ॥
उदारसत्त्वं सत्त्वज्ञाः स्त्रियः पर्यचरंस्तथा।

मूलम्

क्रीडन्त्यश्च हसन्त्यश्च गायन्त्यश्चापिताः शुभम् ॥ ३८ ॥
उदारसत्त्वं सत्त्वज्ञाः स्त्रियः पर्यचरंस्तथा।

अनुवाद (हिन्दी)

उस समय वे हँसती, गाती तथा नाना प्रकारकी सुन्दर क्रीड़ाएँ करती थीं। मनके भावको समझनेवाली वे सुन्दरियाँ उन उदारचित्त शुकदेवजीकी सब प्रकारसे सेवा करने लगीं॥३८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

आरणेयस्तु शुद्धात्मा निःसंदेहः स्वकर्मकृत् ॥ ३९ ॥
वश्येन्द्रियो जितक्रोधो न हृष्यति न कुप्यति।

मूलम्

आरणेयस्तु शुद्धात्मा निःसंदेहः स्वकर्मकृत् ॥ ३९ ॥
वश्येन्द्रियो जितक्रोधो न हृष्यति न कुप्यति।

अनुवाद (हिन्दी)

परंतु अरणिसम्भव शुकदेवजीका अन्तःकरण पूर्णतः शुद्ध था। वे इन्द्रियों और क्रोधपर विजय पा चुके थे। उन्हें न तो किसी बातपर हर्ष होता था और न वे किसीपर क्रोध ही करते थे। उनके मनमें किसी प्रकारका संदेह नहीं था और वे सदा अपने कर्तव्यका पालन किया करते थे॥३९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तस्मै शय्यासनं दिव्यं देवर्हं रत्नभूषितम् ॥ ४० ॥
स्पर्ध्यास्तरणसंकीर्णं ददुस्ताः परमस्त्रियः ।

मूलम्

तस्मै शय्यासनं दिव्यं देवर्हं रत्नभूषितम् ॥ ४० ॥
स्पर्ध्यास्तरणसंकीर्णं ददुस्ताः परमस्त्रियः ।

अनुवाद (हिन्दी)

उन सुन्दरी रमणियोंने देवताओंके बैठने योग्य एक दिव्य पलंग, जिसमें रत्न जड़े हुए थे और जिसपर बहुमूल्य बिछौने बिछे थे, शुकदेवजीको सोनेके लिये दिया॥४०॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

पादशौचं तु कृत्वैव शुकः संध्यामुपास्य च ॥ ४१ ॥
निषसादासने पुण्ये तमेवार्थं विचिन्तयन्।
पूर्वरात्रे तु तत्रासौ भूत्वा ध्यानपरायणः ॥ ४२ ॥
मध्यरात्रे यथान्यायं निद्रामाहारयत् प्रभुः।

मूलम्

पादशौचं तु कृत्वैव शुकः संध्यामुपास्य च ॥ ४१ ॥
निषसादासने पुण्ये तमेवार्थं विचिन्तयन्।
पूर्वरात्रे तु तत्रासौ भूत्वा ध्यानपरायणः ॥ ४२ ॥
मध्यरात्रे यथान्यायं निद्रामाहारयत् प्रभुः।

अनुवाद (हिन्दी)

परंतु शुकदेवजीने पहले हाथ-पैर धोकर संध्योपासना की। उसके बाद पवित्र आसनपर बैठकर वे मोक्षतत्त्वका ही विचार करने लगे। रातके पहले पहरमें वे ध्यानस्थ होकर बैठे रहे। फिर रात्रिके मध्यभाग (दूसरे और तीसरे पहर) में प्रभावशाली शुकने यथोचित निद्राको स्वीकार किया॥४१-४२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

ततो मुहूर्तादुत्थाय कृत्वा शौचमनन्तरम् ॥ ४३ ॥
स्त्रीभिः परिवृतो धीमान् ध्यानमेवान्वपद्यत ॥ ४४ ॥

मूलम्

ततो मुहूर्तादुत्थाय कृत्वा शौचमनन्तरम् ॥ ४३ ॥
स्त्रीभिः परिवृतो धीमान् ध्यानमेवान्वपद्यत ॥ ४४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

तदनन्तर जब दो घड़ी रात बाकी रह गयी, उस समय ब्रह्मवेलामें वे पुनः उठ गये और शौच-स्नान करनेके अनन्तर बुद्धिमान् शुकदेव फिर परमात्माके ध्यानमें ही निमग्न हो गये। उस समय भी वे सुन्दरी स्त्रियाँ उन्हें घेरकर बैठी थीं॥४३-४४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अनेन विधिना कार्ष्णिस्तदहः शेषमच्युतः।
तां च रात्रिं नृपकुले वर्तयामास भारत ॥ ४५ ॥

मूलम्

अनेन विधिना कार्ष्णिस्तदहः शेषमच्युतः।
तां च रात्रिं नृपकुले वर्तयामास भारत ॥ ४५ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

भरतनन्दन! इस विधिसे अपनी मर्यादासे च्युत न होनेवाले व्यासनन्दन शुकने दिनका शेष भाग और समूची रात उस राजभवनमें रहकर व्यतीत की॥४५॥

मूलम् (समाप्तिः)

इति श्रीमहाभारते शान्तिपर्वणि मोक्षधर्मपर्वणि शुकोत्पत्तौ पञ्चविंशत्यधिकत्रिशततमोऽध्यायः ॥ ३२५ ॥

मूलम् (वचनम्)

इस प्रकार श्रीमहाभारत शान्तिपर्वके अन्तर्गत मोक्षधर्मपर्वमें शुककी उत्पत्तिविषयक तीन सौ पचीसवाँ अध्याय पूरा हुआ॥३२५॥