३२४ शुकोत्पत्तौ

भागसूचना

चतुर्विंशत्यधिकत्रिशततमोऽध्यायः

सूचना (हिन्दी)

शुकदेवजीकी उत्पत्ति और उनके यज्ञोपवीत, वेदाध्ययन एवं समावर्तन-संस्कारका वृत्तान्त

मूलम् (वचनम्)

भीष्म उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

स लब्ध्वा परमं देवाद् वरं सत्यवतीसुतः।
अरणी सहिते गृह्य ममन्थाग्निचिकीर्षया ॥ १ ॥

मूलम्

स लब्ध्वा परमं देवाद् वरं सत्यवतीसुतः।
अरणी सहिते गृह्य ममन्थाग्निचिकीर्षया ॥ १ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

भीष्मजी कहते हैं— राजन्! महादेवजीसे उत्तम वर पाकर एक दिन सत्यवतीनन्दन व्यासजी अग्नि प्रकट करनेकी इच्छासे दो अरणी काष्ठ लेकर उनका मन्थन करने लगे॥१॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अथ रूपं परं राजन् बिभ्रतीं स्वेन तेजसा।
घृताचीं नामाप्सरसमपश्यद् भगवानृषिः ॥ २ ॥

मूलम्

अथ रूपं परं राजन् बिभ्रतीं स्वेन तेजसा।
घृताचीं नामाप्सरसमपश्यद् भगवानृषिः ॥ २ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

नरेश्वर! इसी समय उन भगवान् महर्षि व्यासने वहाँ आयी हुई घृताची नामक अप्सराको देखा, जो अपने तेजसे परम मनोहर रूप धारण किये हुए थी॥२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

ऋषिरप्सरसं दृष्ट्वा सहसा काममोहितः।
अभवद् भगवान् व्यासो वने तस्मिन् युधिष्ठिर ॥ ३ ॥
सा च दष्ट्वा तदा व्यासं कामसंविग्नमानसम्।
शुकी भूत्वा महाराज घृताची समुपागमत् ॥ ४ ॥

मूलम्

ऋषिरप्सरसं दृष्ट्वा सहसा काममोहितः।
अभवद् भगवान् व्यासो वने तस्मिन् युधिष्ठिर ॥ ३ ॥
सा च दष्ट्वा तदा व्यासं कामसंविग्नमानसम्।
शुकी भूत्वा महाराज घृताची समुपागमत् ॥ ४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

युधिष्ठिर! उस वनमें उस अप्सराको देखकर ऋषि भगवान् व्यास सहसा कामसे मोहित हो गये। महाराज! उस समय व्यासजीका हृदय कामसे व्याकुल हुआ देख घृताची अप्सरा शुकी होकर उनके पास आयी॥३-४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

स तामप्सरसं दृष्ट्वा रूपेणान्येन संवृताम्।
शरीरजेनानुगदः सर्वगात्रातिगेन ह ॥ ५ ॥

मूलम्

स तामप्सरसं दृष्ट्वा रूपेणान्येन संवृताम्।
शरीरजेनानुगदः सर्वगात्रातिगेन ह ॥ ५ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

उस अप्सराको दूसरे रूपसे छिपी हुई देख उनके सम्पूर्ण शरीरमें कामवेदना व्याप्त हो गयी॥५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

स तु धैर्येण महता निगृह्णन् हृच्छयं मुनिः।
न शशाक नियन्तुं तद् व्यासः प्रविसृतं मनः ॥ ६ ॥

मूलम्

स तु धैर्येण महता निगृह्णन् हृच्छयं मुनिः।
न शशाक नियन्तुं तद् व्यासः प्रविसृतं मनः ॥ ६ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

मुनिवर व्यास महान् धैर्यके साथ अपने कामवेगको रोकने लगे; परंतु अप्सराकी ओर गये हुए मनको रोकनेमें वे किसी तरह समर्थ न हो सके॥६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

भावित्वाच्चैव भावस्य घृताच्या वपुषा हृतः।
यत्नान्नियच्छतस्तस्य मुनेरग्निचिकीर्षया ॥ ७ ॥
अरण्यामेव सहसा तस्य शुक्रमवापतत्।

मूलम्

भावित्वाच्चैव भावस्य घृताच्या वपुषा हृतः।
यत्नान्नियच्छतस्तस्य मुनेरग्निचिकीर्षया ॥ ७ ॥
अरण्यामेव सहसा तस्य शुक्रमवापतत्।

अनुवाद (हिन्दी)

होनहार होकर ही रहती है; इसलिये व्यासजी घृताचीके रूपसे आकृष्ट हो गये। अग्नि प्रकट करनेकी इच्छासे अपने कामवेगको यत्नपूर्वक रोकते हुए महर्षि व्यासका वीर्य सहसा उस अरणीकाष्ठपर ही गिर पड़ा॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

सोऽविशंकेन मनसा तथैव द्विजसत्तमः ॥ ८ ॥
अरणी ममन्थ ब्रह्मर्षिस्तस्यां जज्ञे शुको नृप।

मूलम्

सोऽविशंकेन मनसा तथैव द्विजसत्तमः ॥ ८ ॥
अरणी ममन्थ ब्रह्मर्षिस्तस्यां जज्ञे शुको नृप।

अनुवाद (हिन्दी)

नरेश्वर! उस समय भी द्विजश्रेष्ठ ब्रह्मर्षि व्यास निःशंक मनसे दोनों अरणियोंके मन्थनमें ही लगे रहे। उसी समय अरणीसे शुकदेवजी प्रकट हो गये॥८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

शुक्रे निर्मथ्यामाने स शुको जज्ञे महातपाः ॥ ९ ॥
परमर्षिर्महायोगी अरणीगर्भसम्भवः ।

मूलम्

शुक्रे निर्मथ्यामाने स शुको जज्ञे महातपाः ॥ ९ ॥
परमर्षिर्महायोगी अरणीगर्भसम्भवः ।

अनुवाद (हिन्दी)

अरणीके साथ-साथ शुक्रका भी मन्थन होनेसे महातपस्वी तथा महायोगी परम ऋषि शुकदेवजीका जन्म हो गया। वे अरणीके ही गर्भसे प्रकट हुए॥९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

यथाध्वरे समिद्धोऽग्निर्भाति हव्यमुदावहम् ॥ १० ॥
तथारूपः शुको जज्ञे प्रज्वलन्निव तेजसा।

मूलम्

यथाध्वरे समिद्धोऽग्निर्भाति हव्यमुदावहम् ॥ १० ॥
तथारूपः शुको जज्ञे प्रज्वलन्निव तेजसा।

अनुवाद (हिन्दी)

जैसे यज्ञमें हविष्यका वहन करनेवाली प्रज्वलित अग्नि प्रकाशित होती है, वैसे ही रूपसे शुकदेवजी प्रकट हुए थे। वे अपने तेजसे मानो जाज्वल्यमान हो रहे थे॥१०॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

बिभ्रत् पितुश्च कौरव्य रूपवर्णमनुत्तमम् ॥ ११ ॥
बभौ तदा भावितात्मा विधूम इव पावकः।

मूलम्

बिभ्रत् पितुश्च कौरव्य रूपवर्णमनुत्तमम् ॥ ११ ॥
बभौ तदा भावितात्मा विधूम इव पावकः।

अनुवाद (हिन्दी)

कुरुनन्दन! अपने पिताके समान ही परम उत्तम रूप और कान्ति धारण किये पवित्रात्मा शुकदेव धूमरहित अग्निके समान देदीप्यमान हो रहे थे॥११॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तं गङ्गा सरितां श्रेष्ठा मेरुपृष्ठे जनेश्वर ॥ १२ ॥
स्वरूपिणी तदाभ्येत्य तर्पयामास वारिणा।

मूलम्

तं गङ्गा सरितां श्रेष्ठा मेरुपृष्ठे जनेश्वर ॥ १२ ॥
स्वरूपिणी तदाभ्येत्य तर्पयामास वारिणा।

अनुवाद (हिन्दी)

जनेश्वर! उसी समय सरिताओंमें श्रेष्ठ श्रीगंगाजी मूर्तिमती होकर मेरुपर्वतपर आयीं और उन्होंने अपने जलसे शुकदेवजीको तृप्त किया॥१२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अन्तरिक्षाच्च कौरव्य दण्डः कृष्णाजिनं च ह ॥ १३ ॥
पपात भूमिं राजेन्द्र शुकस्यार्थे महात्मनः।

मूलम्

अन्तरिक्षाच्च कौरव्य दण्डः कृष्णाजिनं च ह ॥ १३ ॥
पपात भूमिं राजेन्द्र शुकस्यार्थे महात्मनः।

अनुवाद (हिन्दी)

कुरुनन्दन! राजेन्द्र! आकाशसे महात्मा शुकदेवके लिये दण्ड और काला मृगचर्म—ये दोनों वस्तुएँ पृथ्वीपर गिरीं॥१३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

जेगीयन्ते स्म गन्धर्वा ननृतुश्चाप्सरोगणाः ॥ १४ ॥
देवदुन्दुभयश्चैव प्रावाद्यन्त महास्वनाः ।
विश्वावसुश्च गन्धर्वस्तथा तुम्बुरुनारदौ ॥ १५ ॥
हाहा हूहूश्च गन्धर्वौ तुष्टुवुः शुकसम्भवम्।

मूलम्

जेगीयन्ते स्म गन्धर्वा ननृतुश्चाप्सरोगणाः ॥ १४ ॥
देवदुन्दुभयश्चैव प्रावाद्यन्त महास्वनाः ।
विश्वावसुश्च गन्धर्वस्तथा तुम्बुरुनारदौ ॥ १५ ॥
हाहा हूहूश्च गन्धर्वौ तुष्टुवुः शुकसम्भवम्।

अनुवाद (हिन्दी)

गन्धर्व गाने और अप्सराएँ नृत्य करने लगीं। देवताओंकी दुंदुभियाँ बड़े जोर-जोरसे बज उठीं। विश्वावसु, तुम्बुरु, नारद, हाहा और हूहू आदि गन्धर्व शुकदेवजीके जन्मकी बधाई गाने लगे॥१४-१५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तत्र शक्रपुरोगाश्च लोकपालाः समागताः ॥ १६ ॥
देवा देवर्षयश्चैव तथा ब्रह्मर्षयोऽपि च।

मूलम्

तत्र शक्रपुरोगाश्च लोकपालाः समागताः ॥ १६ ॥
देवा देवर्षयश्चैव तथा ब्रह्मर्षयोऽपि च।

अनुवाद (हिन्दी)

इन्द्र आदि सम्पूर्ण लोकपाल, देवता, देवर्षि और ब्रह्मर्षि भी वहाँ आये॥१६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

दिव्यानि सर्वपुष्पाणि प्रववर्ष च मारुतः ॥ १७ ॥
जङ्गमाजङ्गमं चैव प्रहृष्टमभवज्जगत् ।

मूलम्

दिव्यानि सर्वपुष्पाणि प्रववर्ष च मारुतः ॥ १७ ॥
जङ्गमाजङ्गमं चैव प्रहृष्टमभवज्जगत् ।

अनुवाद (हिन्दी)

वायुने सब प्रकारके दिव्य पुष्पोंकी वर्षा की। चर और अचर सारा संसार हर्षसे खिल उठा॥१७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तं महात्मा स्वयं प्रीत्या देव्या सह महाद्युतिः ॥ १८ ॥
जातमात्रं मुनेः पुत्रं विधिनोपानयत् तदा।

मूलम्

तं महात्मा स्वयं प्रीत्या देव्या सह महाद्युतिः ॥ १८ ॥
जातमात्रं मुनेः पुत्रं विधिनोपानयत् तदा।

अनुवाद (हिन्दी)

तब महातेजस्वी महात्मा भगवान् शंकरने देवी पार्वतीके साथ स्वयं प्रसन्नतापूर्वक पधारकर महर्षि व्यासके उस नवजात पुत्रका विधिपूर्वक उपनयन-संस्कार किया॥१८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तस्य देवेश्वरः शक्रो दिव्यमद्भुतदर्शनम् ॥ १९ ॥
ददौ कमण्डलुं प्रीत्या देववासांसि वा विभो।

मूलम्

तस्य देवेश्वरः शक्रो दिव्यमद्भुतदर्शनम् ॥ १९ ॥
ददौ कमण्डलुं प्रीत्या देववासांसि वा विभो।

अनुवाद (हिन्दी)

प्रभो! उस समय देवेश्वर इन्द्रने उन्हें प्रेमपूर्वक दिव्य एवं अद्‌भुत कमण्डलु तथा देवोचित वस्त्र प्रदान किये॥१९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

हंसाश्च शतपत्राश्च सारसाश्च सहस्रशः ॥ २० ॥
प्रदक्षिणमवर्तन्त शुकाश्चाषाश्च भारत ।

मूलम्

हंसाश्च शतपत्राश्च सारसाश्च सहस्रशः ॥ २० ॥
प्रदक्षिणमवर्तन्त शुकाश्चाषाश्च भारत ।

अनुवाद (हिन्दी)

भारत! सहस्रों हंस, शतपत्र, सारस, शुक और नीलकण्ठ आदि पक्षी उनकी प्रदक्षिणा करने लगे॥२०॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

आरणेयस्ततो दिव्यं प्राप्य जन्म महाद्युतिः ॥ २१ ॥
तत्रैवोवास मेधावी व्रतचारी समाहितः।

मूलम्

आरणेयस्ततो दिव्यं प्राप्य जन्म महाद्युतिः ॥ २१ ॥
तत्रैवोवास मेधावी व्रतचारी समाहितः।

अनुवाद (हिन्दी)

तदनन्तर महातेजस्वी अरणिसम्भूत शुक वह दिव्य जन्म पाकर ब्रह्मचर्यकी दीक्षा ले वहीं रहने लगे। वे बड़े बुद्धिमान्, व्रतपालक तथा चित्तको एकाग्र रखनेवाले थे॥२१॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

उत्पन्नमात्रं तं वेदाः सरहस्याः ससंग्रहाः ॥ २२ ॥
उपतस्थुर्महाराज यथास्य पितरं तथा।

मूलम्

उत्पन्नमात्रं तं वेदाः सरहस्याः ससंग्रहाः ॥ २२ ॥
उपतस्थुर्महाराज यथास्य पितरं तथा।

अनुवाद (हिन्दी)

महाराज! शुकदेवजीके जन्म लेते ही रहस्य और संग्रहसहित सम्पूर्ण वेद उसी प्रकार उनकी सेवामें उपस्थित हो गये, जैसे वे उनके पिता वेदव्यासकी सेवामें उपस्थित हुए थे॥२२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

बृहस्पतिं च वव्रे स वेदवेदाङ्गभाष्यवित् ॥ २३ ॥
उपाध्यायं महाराज धर्ममेवानुचिन्तयन् ।

मूलम्

बृहस्पतिं च वव्रे स वेदवेदाङ्गभाष्यवित् ॥ २३ ॥
उपाध्यायं महाराज धर्ममेवानुचिन्तयन् ।

अनुवाद (हिन्दी)

महाराज! वेद-वेदांगोंकी विस्तृत व्याख्याके ज्ञाता शुकदेवजीने धर्मका विचार करके बृहस्पतिको अपना गुरु बनाया॥२३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

सोऽधीत्य निखिलान् वेदान् सरहस्यान् ससंग्रहान् ॥ २४ ॥
इतिहासं च कार्त्स्न्येन राजशास्त्राणि वा विभो।
गुरवे दक्षिणां दत्त्वा समावृत्तो महामुनिः ॥ २५ ॥

मूलम्

सोऽधीत्य निखिलान् वेदान् सरहस्यान् ससंग्रहान् ॥ २४ ॥
इतिहासं च कार्त्स्न्येन राजशास्त्राणि वा विभो।
गुरवे दक्षिणां दत्त्वा समावृत्तो महामुनिः ॥ २५ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

प्रभो! महामुनि शुकदेवने उनसे रहस्य और संग्रहसहित सम्पूर्ण वेदोंका, समूचे इतिहासका तथा राजशास्त्रका भी अध्ययन करके गुरुको दक्षिणा दे समावर्तन-संस्कारके पश्चात् घरको प्रस्थान किया॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

उग्रं तपः समारेभे ब्रह्मचारी समाहितः।
देवतानामृषीणां च बाल्येऽपि स महातपाः।
सम्मन्त्रणीयो मान्यश्च ज्ञानेन तपसा तथा ॥ २६ ॥

मूलम्

उग्रं तपः समारेभे ब्रह्मचारी समाहितः।
देवतानामृषीणां च बाल्येऽपि स महातपाः।
सम्मन्त्रणीयो मान्यश्च ज्ञानेन तपसा तथा ॥ २६ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

उन्होंने एकाग्रचित्त हो ब्रह्मचर्यका पालन करते हुए उग्र तपस्या प्रारम्भ की। महातपस्वी शुकदेव ज्ञान और तपस्याके द्वारा बाल्यकालमें भी देवताओं तथा ऋषियोंके आदरणीय और उन्हें सलाह देने योग्य हो गये थे॥२६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

न त्वस्य रमते बुद्धिराश्रमेषु नराधिप।
त्रिषु गार्हस्थ्यमूलेषु मोक्षधर्मानुदर्शिनः ॥ २७ ॥

मूलम्

न त्वस्य रमते बुद्धिराश्रमेषु नराधिप।
त्रिषु गार्हस्थ्यमूलेषु मोक्षधर्मानुदर्शिनः ॥ २७ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

नरेश्वर! वे मोक्षधर्मपर ही दृष्टि रखते थे; अतः उनकी बुद्धि गार्हस्थ्य आश्रमपर अवलम्बित रहनेवाले तीनों आश्रमोंमें प्रसन्नताका अनुभव नहीं करती थी॥२७॥

मूलम् (समाप्तिः)

इति श्रीमहाभारते शान्तिपर्वणि मोक्षधर्मपर्वणि शुकोत्पत्तौ चतुर्विंशत्यधिकत्रिशततमोऽध्यायः ॥ ३२४ ॥

मूलम् (वचनम्)

इस प्रकार श्रीमहाभारत शान्तिपर्वके अन्तर्गत मोक्षधर्मपर्वमें शुकदेवकी उत्पत्तिविषयक तीन सौ चौबीसवाँ अध्याय पूरा हुआ॥३२४॥